श्रीलाल शुक्ल एक सफल उपन्यासकार हैं

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श्रीलाल शुक्ल एक सफल उपन्यासकार हैं श्रीलाल शुक्ल को हिंदी साहित्य में मुख्यतः एक व्यंग्यकार के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनके उपन्यासों ने भी साहि

श्रीलाल शुक्ल एक सफल उपन्यासकार हैं


श्रीलाल शुक्ल को हिंदी साहित्य में मुख्यतः एक व्यंग्यकार के रूप में जाना जाता है, लेकिन उनके उपन्यासों ने भी साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाई है। उनके उपन्यासों में समकालीन समाज के विविध पहलुओं का यथार्थवादी चित्रण मिलता है।

दिसम्बर सन् 1925 में लखनऊ जिले के एक गाँव में जन्मे श्रीलाल शुक्ल की प्रमुख विद्या व्यंग्य है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक श्रीलाल शुक्ल पेशे से भारतीय प्रशासनिक सेवा में रहे । इस सेवा में जिलाधीश की अपेक्षा आपका अधिक समय उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सचिव के रूप में व्यतीत हुआ । पर्याप्त सुख-सुविधाओं के साथ लखनऊ की शासकीय कॉलोनी गुलिस्ताँ में आपका निवास रहा। शासन की ऐसी सेवा में रहने वाले जिन व्यक्तियों में प्रतिभा होती है, वे उसका सदुपयोग करते हैं । श्रीलाल शुक्ल ने भी अपनी प्रतिभा का सदुपयोग किया और साहित्य सेवा के सतोगुणी कार्य में समय का सदुपयोग किया । उच्च प्रशासनिक सेवा में रहकर साहित्य सेवा बहुत कम लोग कर पाते हैं । उच्च साहित्यिक सेवा में अपने स्तर को बनाये रखने में पर्याप्त सत्र समय बीतता है ।
 
जिस प्रकार अकबर के सेनापति अब्दुल रहीम खानखाना ने युद्ध जैसे कठोर कर्म करते हुए कोमल हृदय का कवि कर्म सफलता पूर्वक निभाया, उसी प्रकार श्रीलाल शुक्ल ने शासन की उच्च प्रशासनिक सेवा के सफल निर्वाह के साथ साहित्य सेवा में सतोगुणी कर्त्तव्य भी सफलता पूर्वक निभाया। व्यंग्य आपकी प्रमुख विद्या रही और आप व्यंग्यात्मक निबन्धकार के रूप में साहित्य के क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए। आपका पहला व्यंग्यात्मक निबन्ध 'अंगद का पाँव' प्रकाशित हुआ । इस पहले निबन्ध ने ही साहित्य-प्रेमियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया । इस निबन्ध का चमत्कार यह है कि किसी अधिकारी का स्थानान्तरण हुआ है । वे किसी महानगर के स्टेशन से अपने नये कार्य स्थल की ओर जा रहे हैं। उन्हें विदा करने और उनकी गुड बुक्स में नाम लिखाने के लिए खुशामदी चमचों की भीड़ प्लेटफार्म पर जमा है । प्रयत्न करके गाड़ी लेट कराई जा रही है । प्रत्येक शासकीय लघु कर्मचारी अपने आपको उनका शुभचिन्तक, कृपापात्र और आत्मीय सिद्ध करना चाहता है । प्रत्येक चमचा साहब के स्थानान्तरण अपने आपको अतिशय व्यथित और अनाथ सिद्ध करने में अपने आपको अग्रिम पंक्ति में स्थापित करने हेतु प्रयासरत हैं। पाठक निबन्ध पढ़ते-पढ़ते परेशान हो जाता है कि इस विदाई समारोह में और इस चमचों की बारात में अंगद का पाँव कहाँ है ? अंगद ने अपना पाँव रावण की सभा में राम का दूत बनकर जमाया था । 

श्रीलाल शुक्ल एक सफल उपन्यासकार हैं
इस व्यंग्यात्मक निबन्ध का अन्तिम वाक्य है-" और गाड़ी अंगद का पाँव हो रही थी ।" यह वाक्य पढ़ते ही पाठक एक आश्चर्यजनक आनन्द से भर उठता है जिस प्रकार धरती से आकाश में उठते हुए और आकाश से नीचे गिरते हुए बिजली से चलने वाले झूले में लोगों को एक महाकम्पनकारी आनन्द की अनुभूति होती है, उसी प्रकार इस अन्तिम वाक्य ने हिन्दी के पाठकों को अत्यधिक प्रभावित किया । जिस प्रकार स्वयंवर में घूमते हुए चक्र से बँधी मछली की आँख का लक्ष्य वेध करके अर्जुन ने अनिन्द्य सुन्दरी द्रौपदी को प्राप्त किया था उसी प्रकार प्रसिद्धि इस व्यंग्य निबन्ध, 'अंगदक पाँवक' में श्रीलाल शुक्ल को प्राप्त कराई ।
 
श्रीलाल शुक्ल की विजय पताका आकाश में उड़ी उनकी पहले उपन्यास 'राग दरबारी' के कारण 'राग दरबारी' हिन्दी का पहला ऐसा उपन्यास था जो आदि से अन्त तक व्यंग्य से पूर्ण था । इसका प्रत्येक पात्र व्यंग्य का वंश जन्य और प्रत्येक वाक्य व्यंग्य की पौधशाला का लघु सदस्य था ।
 
एक युवक पुलिस की कृपा से ट्रक में निःशुल्क अर्थात् मुफ्त और अंग्रेजी में कहें तो फ्री ऑफ कास्ट अपने सम्बन्धी वैद्यजी से मिलने के लिए चलता है। ट्रक जिस प्रकार सभी नियमों को अलग बताते हुए सड़क में आक्रमणकारी के रूप में चलते रहते हैं, उसी प्रकार यह ट्रक भी चला जा रहा था। ट्रक की इस गमन शैली के लिए श्रीलाल शुक्ल ने लिखा है—ट्रक सड़क के साथ बलात्कार कर रहा था ।
 
गाँवों में पहले प्रायः शौचालय नहीं होते थे। बरसात के मौसम में गाँव के बाहर खेतों में सूखी धरती महिलाओं के बैठने के लिए नहीं होती। वे दिन छिपने के पश्चात् सड़क के किनारे पंक्तिबद्ध बैठकर इस आवश्यक और अनिवार्य नित्य कर्म का निर्वाह करती हैं । इस दृश्य का वर्णन श्रीलाल शुक्ल ने अत्यन्त शालीन भाषा में किया है । भाषा व्यंग्य का आधार बनती हुई भी कहीं पर अश्लीलता का स्पर्श नहीं करती ।
 
वैद्य जी अपने गाँव के एकमात्र इण्टर कॉलेज के अध्यक्ष ही नहीं, सर्वेसर्वा हैं । इस इण्टर कॉलेज में जितने भी शिक्षक और व्याख्याता हैं वे सभी वैद्य जी के कृपा पात्र हैं। एक स्थानीय शिक्षक है जो इण्टर कॉलेज में पढ़ाने के साथ-साथ आटा पीसने की चक्की भी चलाते हैं। अगर दिन में बिजली आ जाती है तो क्लास छोड़कर भाग जाते हैं। वे इतिहास पढ़ाते हैं। दूसरे लेक्चरर इण्टर के लड़कों को इतिहास पढ़ा रहे थे जो क्लास छोड़कर चक्की चलाने चले गये, वे हाईस्कूल के बच्चों को इतिहास पढ़ा रहे थे । प्रिंसीपल ने उन हाईस्कूल के लड़कों को इण्टर पढ़ाने वाले लेक्चरार से अपने कलास में बैठाने को कहा तो बोले-"हाईस्कूल वाले लड़के इण्टरमीडिएट वाले लड़कों के साथ कैसे पढ़ सकते हैं ।" प्रिंसीपल ने कहा-"जिस तरह अपर और लोअर क्लास में मुसाफिर एक ही बस में सफर करते हैं, उसी तरह लड़के भी साथ-साथ पढ़ लेंगे ।
 
वैद्य जी इण्टर कॉलेज की कमेटी के अध्यक्ष हैं। चुनाव होता है, पर वैद्य जी ही हर बार अध्यक्ष चुने जाते हैं। एक बार कुछ लोगों ने वैद्य जी का विरोध करने की बात सोची । उन्होंने कमेटी के मेम्बर बनाये और चुनाव में भाग लेना चाहा। वैद्य जी ने इन लोगों को रोकने के लिए एक ठाकुर साहब को नियत कर दिया। वे देशी रिवाल्वर लेकर कॉलेज के द्वार पर बैठे । जब ठाकुर साहब विरोधी लोगों को गालियाँ देने लगे और जान से मारने की बात करने लगे तो वैद्य जी ने आकर उन्हें समझाया कि शान्ति के साथ काम करो । यह सुनते ही ठाकुर साहब बिगड़कर बोले-"अगर शान्ति से ही काम करना होता तो यहाँ क्यों आता ? शान्ति मेरी पत्नी का नाम है। अगर यहाँ भी शान्ति के साथ काम करना पड़ेगा तो मेरा घर क्या बुरा है ?"
 
वैद्यजी के दो लड़के हैं—बद्री पहलवान और रुप्पन बाबू । बद्री पहलवान को उन्होंने सहकारी समिति का अध्यक्ष बना दिया है और रुप्पन बाबू को वे इण्टर कॉलेज का अध्यक्ष बनाना चाहते हैं । रुप्पन बाबू अभी इण्टर में पढ़ रहे हैं। कॉलेज के एक लेक्चरर वाइस प्रिंसीपल बनना चाहते हैं । वैद्य जी नहीं चाहते कि उनके कॉलेज में वाइस प्रिंसीपल हो । रुप्पन बाबू उस लेक्चरर का पक्ष लेते हैं तो वैद्य जी बद्री पहलवान को इण्टर कॉलेज की कमेटी का भी अध्यक्ष बना देते हैं ।
 
श्रीलाल शुक्ल का दूसरा उपन्यास है-मकान। इसके नायक एक संगीत शिक्षक हैं जो घर-घर जाकर लड़कियों को संगीत सिखाने की ट्यूशन करते हैं। उन्हें मकान की आवश्यकता है । नगरपालिका का मकान प्राप्तकर्त्ता के लिए उन्हें जो पापड़ बेलने पड़ते हैं, वही इस उपन्यास की कथा है । श्रीलाल शुक्ल की रचनाओं की सूची निम्नलिखित है - 

(1) सूनी घाटी का सूरज, 
(2) राग दरबारी, 
(3) मकान, 
(4) पहला पड़ाव, 
(5) विश्रामपुर का सन्त, 
(6) राग विराग । 

ये सभी उपन्यास हैं। श्रीलाल शुक्ल के कहानी संग्रह हैं—–सुरक्षा तथा अन्य कहानियाँ, अगली शताब्दी का शहर, यह घर मेरा नहीं । हास्य व्यंग्य के निबन्ध संकलन हैं—अंगद का पाँव, कुछ जमीन पर, कुछ हवा पर, उमराव नगर में कुछ दिन, आओ बैठ लें कुछ देर । बात उपन्यास बब्बर सिंह और उसके साथी । राग दरबारी उपन्यास पर सन् 1969 साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है।
 
'राग विराग' श्रीलाल शुक्ल का मनोवैज्ञानिक उपन्यास है । इसमें उच्च वर्ण के कर्नल बी. सी. भारद्वाज की एकमात्र सन्तान सुकन्या अपने साथ मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले, अपने से दस वर्ष बड़े और दलित जाति के मेधावी युवक शंकरलाल से प्रेम करती है और विवाह भी करना चाहती है। सुकन्या के उच्च वर्ग के पिता को यह विवाह स्वीकृत नहीं है । शंकरलाल छोटे से गाँव का रहने वाला दरिद्र परिवार से आया है । उसका बड़ा भाई अहमदाबाद के किसी मिल में नौकरी करता है । घर पर विधवा और अनपढ़ माँ है। मकान टूटा-फूटा है। थोड़ी-सी जमीन है, जिससे माँ का गुजारा होता है । शंकरलाल यह वास्तविकता सुकन्या को बताता है तो सुकन्या के प्रेम का बुखार उतरने लगता है । वह शंकरलाल से विवाह का साहस नहीं कर पाती । शंकरलाल को मेडीकल में शोध करने का भूत सवार है। लंदन की एक संस्था शंकरलाल को छात्रवृत्ति देकर शोध के लिए अपने यहाँ बुला लेती है । वहाँ शंकरलाल शोध कार्य करके अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त करता है। यह सुकन्या और शंकरलाल के मध्य राग अर्थात प्रेम और विराग अर्थात् वैराग्य है। 

सुकन्या के साथ राग और विराग की एक अन्य घटना भी घटित होती है सुकन्या का विवाह उसके पिता के मित्र बिग्रेडियर गांगुली के पुत्र सुवीर से हो जाता है सुवीर भी सेना के मेडिकल कोर में नियुक्त है। सुवीर अधिक शराब पीता है कि विवाह के बाद सुहागरात और उसके बाद की रात सुकन्या के पास शराब के नशे में धुत आता है और चुपचाप सो जाता है । सुवीर एल्कोहलिक है और उसे मनोचिकित्सक की आवश्यकता है । पारिवारिक न्यायालय से सुवीर और सुकन्या का तलाक हो जाता है । यही सुकन्या का दूसरा राग अर्थात् प्रेम और विराग अर्थात् वैराग्य है, पारिवारिक जीवन का त्याग है । 

'राग विराग' उपन्यास के विषय में अखिलेश ने लिखा है - “सुप्रसिद्ध कथाकार श्रीलाल शुक्ल की रचना शीलता का नव्यतम और विशिष्ट पड़ाव है - राग विराग । प्रेम कथा के ताने-बाने से बुना गया यह लघु उपन्यास सामाजिक जीवन की अनेक जटिलताओं से टकराते हुए जाति, वर्ग, संस्कृति, बाजारवाद आदि के. अनेक धूसर चटखर (चटक) रंग उपस्थित करता है । संभवत: 'राग विराग' हिन्दी पहला ऐसा उपन्यास है जो प्रेम कथा के जरिए हमारे ऊबड़-खाबड़ राष्ट्रीय यथार्थ का पाठ प्रस्तुत करता है । इसीलिए प्रेमकथा की रूढ़ियों को जबरदस्त ढंग से ध्वस्त करती हुई यह सूचना प्रेमकथा की नयी संभावनाओं और सामर्थ्य का दृष्टान्त बन जाता है।" 

यहाँ श्रीलाल शुक्ल ने अपनी बहुचर्चित शिल्पगत प्रविधियों को तजकर उपन्यास नाट्य लेखन शैली का प्रयोग करते हुए वर्णन और विस्तार को अवकाश जैसा दे दिया है । यथार्थ को विस्तार देने के बजाय 'विस्तृत यथार्थ' को यथा में स्थान देने का प्रयास उपन्यास को बड़े सन्दर्भों और गहरी अर्थवत्ता से जोड़ता है ।
 
भावुकता से दूर रहने वाला किन्तु भाव प्रवण कलावादी नुस्खों से बहुत दूर किन्तु कलात्मक यह उपन्यास प्रसन्नता और अवसाद, लगाव और अलगाव, गाँव-शहर, देश-परदेश, राग विराग, बेसिक कल्चर और ओढ़ी हुई मल्दर, दारिद्र्म-अमीरी के फर्क और संघर्ष की कथा है ।

श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास की कथा का आधार साहित्य से सर्वथा भिन्न चिकित्सा और अंग्रेजी में कहें तो मेडिकल को बनाया है। इसमें ऐसे विषयों और शब्दों का प्रयोग है जो चिकित्सा विज्ञान के लिए भी सुपरिचित नहीं है । सत्रह साल बाद इंग्लैण्ड से लौटकर मेडिकल कॉलेज की हीरक जयन्ती के अवसर पर शंकरलाल जो व्याख्यान देता है, उसका कुछ अंश इस प्रकार है- "अब आठवें दशक के अन्त में इंग्लैण्ड गया, वह समय ट्रापिकल बीमारियों की परम्परागत समस्याओं पर शोध का था पर 1984 तक आते-आते न सिर्फ एच. आई. वी. की पहचान कर ली गयी है, बल्कि उसे एड्स की बीमारी का कारण भी समझा जाने लगा । वास्तव में संयुक्त राष्ट्र प्रशासन समलैंगिकों के दबाव और उनकी राजनीतिक लॉबी की वजह से इस विषय में शोध के लिए इतनी वित्तीय सहायता मिली कि डॉ. गैलो जैसे वैज्ञानिक सब कुछ छोड़कर इसी दिशा में काम करने लगे ।" 

इस प्रकार श्रीलाल शुक्ल एक महान उपन्यासकार थे। उन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहरा प्रकाश डाला है। उनके उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं और नए पाठकों को भी आकर्षित करते हैं।

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