जयशंकर प्रसाद का नाटक "स्कंदगुप्त" भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण कालखंड को नाट्य रूप में प्रस्तुत करता है। इस नाटक के माध्यम से प्रसाद ने न केवल एक
स्कंदगुप्त नाटक का उद्देश्य | जयशंकर प्रसाद
जयशंकर प्रसाद का नाटक "स्कंदगुप्त" भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण कालखंड को नाट्य रूप में प्रस्तुत करता है। इस नाटक के माध्यम से प्रसाद ने न केवल एक ऐतिहासिक घटना को उजागर किया है बल्कि कई गहरे सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को भी उठाया है।
स्कन्दगुप्त नाटक की रचना करते समय प्रसाद के सामने क्या-क्या समस्याएँ रही होंगी, इस पर विचार करते समय सबसे पहले तो यही सोचना होगा कि प्रत्येक साहित्यकार जब कोई रचना करना चाहता है तब निश्चय ही उसके मनो-मस्तिष्क में विचारों का उद्वेलन-मंथन होता रहता है। अपने आस-पास के समाज, देश आदि की अनेक बातें, समस्याएँ, असंगतियाँ साहित्यकार के मन को कचोटती रहती हैं। ये ही बातें, उसे किसी रचना लेखन के लिए प्रवृत्त और प्रेरित करती हैं।
तब प्रश्न उठता है कि प्रसाद के अर्न्तमन में ऐसी क्या बातें या विचार रहे होंगे जिन्होंने नाटककार को स्कन्दगुप्त की रचना करने के लिए प्रेरित किया होगा ? इस प्रश्न पर विचार करने के समय सर्वप्रथम हम प्रसाद के नाटकों का अनुशीलन करने वाले विद्वान् श्री परमेश्वरीलाल गुप्त का निम्न कथन उद्धृत करना उचित समझते हैं-
"कथावस्तु की दृष्टि से नाटक तीन स्वतन्त्र समस्याओं को लेकर खड़ा किया गया है। ये समस्याएँ स्कन्दगुप्त के सम्मुख विदेशी आक्रमण, गृह कलह और प्रेम के अर्न्तद्वन्द्व की हैं। इनमें से प्रथम दो समस्याएँ ऐतिहासिक हैं और तीसरी नाटककार की कल्पना प्रसूत। नाटककार और कथाकारों की यह धारणा रही है कि बिना रोमांस (प्रेम-चर्चा) के कथा सजीव नहीं हो सकती। अथवा रोमांस विहीन कथानक का कोई महत्व नहीं है। सम्भवतः इसीलिए नाटककार ने यह आवश्यक समझा कि स्कन्दगुप्त के जीवन को लेकर इसकी भी चर्चा की जाय।” -प्रसाद के नाटक, पृ. 179
स्कन्दगुप्त की कथावस्तु संयोजना पर विचार करते समय डॉ. सिद्धनाथ कुमार ने निष्कर्ष देते समय प्रसाद के मन में विद्यमान तीन बिन्दुओं का उल्लेख कर दिया है-
- ऐतिहासिक तथ्यों का प्रस्तुतीकरण,
- भावुकतापूर्ण प्रेम को चित्रित करने का आग्रह,
- राष्ट्रीय-सांस्कृतिक उद्देश्य,
डॉ. सिद्धनाथ कुमार के ही शब्दों में- “स्कन्दगुप्त के अन्तिम दोनों दृश्यों को नाटकीय वस्तु विन्यास की समग्रता में रखकर स्पष्टतः कहा जा सकता है कि नाटक में प्रभाव की अन्विति का संयोजन समुचित रूप में नहीं हो पाया है। यहाँ भी मुख्य कारण है यही है कि नाटकोचित चयन और संयोजन की अपेक्षा ऐतिहासिक तथ्यों पर नाटककार का अधिक ध्यान रहा है, साथ ही उसमें भावुकतापूर्ण प्रेम को चित्रित करने का आग्रह भी काम करता रहा है, और राष्ट्रीय-सांस्कृतिक उद्देश्य तो सर्वोपरि रहा ही है।" -प्रसाद के नाटक, पृ. 103, मैक्मिलन एण्ड कं. दिल्ली, 1978
इस प्रकार के विचारों का मन्थन करने के साथ-साथ यदि प्रसाद की रचना पर भी दृष्टिपात किया जाय तो पता चलेगा कि प्रसाद जी ने अपने समय के साम्प्रदायिक वैमनस्यों, द्वन्द्वों और परस्पर संघर्षों को आर्य समाज बनाम् सनातन धर्म के रूप में देखा था। निश्चय ही उन्होंने इस धर्मान्धता और मत-मतान्तरों की कट्टरता को अच्छा नहीं समझा होगा, तभी उन्होंने बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के ठेकेदारों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य के चित्रण का अवसर निकालकर अपनी बात कहने का प्रयास किया है। कथावस्तु-संयोजना की दृष्टि से विचार करते समय अनेक आलोचकों ने इस बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष के प्रसंग की अवतारणा करने के लिए प्रसाद की आलोचना की है। डॉ. बच्चनसिंह ने भी इस विषय पर अपना मत व्यक्त किया है-
“मातृ गुप्त का प्रसंग, सिंहल के युवराज का प्रवेश, मुदगल की चारित्रिक कल्पना, चतुष्पथ के पास ब्राह्मणों और बौद्धों का वाक्युद्ध नाटक की गति में विक्षेप डालते हैं, लेकिन इस तरह के आवश्यक स्थल इस नाटक में अपेक्षाकृत कम हैं - हिन्दी नाटक, पृ. 57-58
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि आलोचकों ने कथानक की दृष्टि से जिन प्रसंगों को अनावश्यक माना है, उन्हीं स्थलों में नाटककार का उद्देश्य निहित प्रतीत होता है क्योंकि अपने-अपने मन में बैठी समस्याओं का समाधान करने के लिए, अपने मन की कचोट निकालने के लिए, अपने मन में बैठे विचार-बिन्दुओं का विश्लेषण करने के लिए ही ऐसे स्थलों का आयोजन किया है। उदाहरण के लिए 'मातृगुप्त' का ही प्रसंग लें इस प्रसंग की अवधारणा के पीछे प्रसाद जी की यह धारणा स्पष्ट होती है कि समाज में कवियों का आदर नहीं है, कविता करना मामूली-सी बात समझा जाता है, इसीलिए सम्भवतः कविता का महत्व स्थापित करने के लिए प्रसाद ने मातृगुप्त से ये वाक्य कहलवाये हैं- "कविता करना अनन्त पुण्य का फल है।”वह मुद्गल के इस प्रश्न का, कि कविता करते बैठे-बैठे काम चल जाता है, तपाक से उत्तर देता है-"क्यों ? वही तो मेरे भूखे हृदय का आहार है। कवित्व-वर्णमय चित्र है, जो स्वर्गीय भावपूर्ण संगीत गाया करता है। अन्धकार का आलोक । अन्धकार का आलोक, असत् का सत् से जड़ का चेतन से बाह्यजगत् का अर्न्तजगत् से सम्बन्ध कौन कराती है ? कविता ही न ?” -स्कन्दगुप्त, प्रथम अंक, दृश्य, 3, पृ. 20
राष्ट्र प्रेम
इसी प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के चलते, अंग्रेजों को देश से बाहर करके स्वराज्य की स्थापना करने के लिए जो आन्दोलन भारतवासियों ने छेड़ रखा था, उसका प्रभाव प्रसाद पर पड़ना स्वाभाविक था । इसीलिए उसने भी अपने आलोच्य नाटक में देश के लिए सर्वस्व बलिदान करने वाली भावनाओं को व्यक्त किया है। हूणों के आक्रमण के समय देश की रक्षा के लिए गोविन्दगुप्त जब स्कन्दगुप्त का राज्याभिषेक करके आह्वान करता है तो उसके प्रेरक वाक्य राष्ट्रीय भावनाओं को ही व्यक्त करते हैं-
“आज आर्य जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है, सैनिक छोड़कर और कुछ नहीं। आर्य कन्याएँ अपहरण की जाती है, हूणों के विकट ताण्डव से पवित्र भूमि पादाक्रान्त है, कहीं देवता की पूजा नहीं होती, सीमा की बर्बर जातियों की राक्षसी वृत्ति का प्रचण्ड पाखण्ड फैला है। इसी समय आर्य जाति तुम्हें पुकारती है-सम्राट बनने के लिए नहीं-उद्धार युद्ध में सेनानी बनने के लिए सम्राट !” इसके बाद राज्याभिषेक होने पर स्कन्दगुप्त का यह उद्घोष कि आर्य राष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अर्पण करने के लिए सन्नद्ध है। इसी राष्ट्रीयता की भावना संचार करता है-
“आर्य ! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकूँ और आर्य राष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व अर्पण कर सकूँ, आप लोग इसके लिए भगवान से प्रार्थना कीजिए और आशीर्वाद दीजिए कि स्कन्दगुप्त अपने कर्तव्य से, स्वदेश-सेवा से कभी विचलित न हो।" - स्कन्दगुप्त, द्वितीय अंक, सप्तम दृश्य, पृ. 74
इसी प्रकार देश की विश्रृंखलित शक्ति को एकत्र करके विदेशी शक्तियों को खदेड़ने की घटना का संयोजन भी राष्ट्रीय आन्दोलन को शक्ति प्रदान करता है। भारतवर्ष के अतीतकालीन गौरव पर स्कन्दगुप्त नाटक में मुग्ध होते हुए धातुसेन को दिखाने का तात्पर्य नाटककार का यही प्रतीत होता है कि उन्होंने पाठकों के हृदय में राष्ट्र के प्रति सम्मान, श्रद्धा का भाव निर्माण करने के लिए ही ऐसा किया है। धातुसेन का निम्न कथन उद्धृत करने योग्य प्रतीत होता है-
“भारत समग्र विश्व का है और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेमपाश में आबद्ध है। अनादिकाल से ज्ञान, की मानवता की ज्योति वह विकीर्ण कर रहा है। वसुन्धरा का हृदय-भारत-किस मूर्ख को प्यारा नहीं है ? तुम देखते नहीं कि विश्व का सबसे ऊँचा शृंगार इसके सिरहाने तथा सबसे गम्भीर और विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे हैं। एक से एक सुन्दर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रखा है।”- स्कन्दगुप्त, अंक 4, दृश्य 4, पृ. 114
विदेशी आक्रमण की समस्या
प्रस्तुत नाटक के सात दृश्यों में विदेशी आक्रमणों का उल्लेख किया गया है। श्री परमेश्वरी लाल गुप्त के शब्दों में इस समस्या की ओर इस प्रकार संकेत किया जाता है -
“गुप्त साम्राज्य के विरुद्ध पुष्यमित्र के आक्रमण को रोकने में प्रयत्नशील स्कन्दगुप्त नाटक में हमारे सामने आता है और उनके पराजित करने में वह सफल होता है। पुष्यमित्र विजय का अन्तिम प्रयत्न करते हुए आगे बढ़ते हैं और नासीर के सेनानायक की ओर से सहायता की माँग आती है। दशपुर से भी दूत आता है और सूचना मिलती है कि महाराज विश्व वर्मा का निधन हो गया। शक-राष्ट्र मण्डल चंचल हो रहा है। नवागत म्लेच्छा वाहिनी से सौराष्ट्र पदाक्रान्त हो चुका है और पश्चिमी मालव भी अब सुरक्षित नहीं है। बर्बर हूणों से वलमी का बचना भी कठिन है। इन समस्याओं के बीच घिरा हुआ स्कन्दगुप्त मालव की रक्षा का निश्चय करता है और चक्रपालित को आदेश देता है। 'पुष्यमित्र युद्ध में विजयी होने के बाद मालव में आकर मिलो।"
मालव पर शक और हूणों की सेना आक्रमण करती है और स्कन्दगुप्त समय पर पहुँचकर शत्रुओं को पराजित कर देता है। आगे, गान्धार की घाटी के रणक्षेत्र में स्कन्दगुप्त हूणों को पराजित करने के लिए प्रस्तुत है। चर आकार उसे सूचना देता है कि 'हूण शीघ्र ही नदी के पार होकर प्रतीक्षा कर रहे हैं और यदि आक्रमण नहीं हुआ तो वे स्वयं आक्रमण करेंगे। कुंभा के रणक्षेत्र में मगध की सेना की हूणों के साथ सन्धि होने के कारण परिस्थिति में कुछ कठिन-सी है। गान्धार के क्षेत्र में हूणों का आक्रमण होता है और महाराज बन्धु वर्मा मारे जाते हैं। कुंभा के रणक्षेत्र में स्कन्दगुप्त भट्टार्क को आदेश देता है और विश्वास के प्रमाण स्वरूप कहता है कि 'यदि शत्रु की दूसरी सेना कुंभा को पार करना चाहे तो उसे काट देना ।' युद्ध में हूण पराजित होते हैं और कुंभा के उस पार उतर जाना चाहते हैं और मगध सेना कुछ नहीं करती। भट्टार्क बाँध तोड़ देता है और कुंभा में अकस्मात् जल बढ़ जाता है और सब लोग बहते दिखाई देते हैं। युद्धं की इस असफलता के बाद तक्षशिला में कनिष्क स्तूप के आस-पास स्कन्दगुप्त विचित्र अवस्था में घूमता हुआ दिखाई देता है। यही परिस्थितिवश बिखरे हुए साथी एकत्र होते हैं और हूण सेना के साथ युद्ध होता है और वे पराजित होते हैं। बस इतना ही ।
विदेशी आक्रमण द्वारा गुप्त साम्राज्य पर आयी हुई विपत्ति का चित्रण कुल मिलाकर छः दृश्यों में किया -प्रसाद के नाटक, पृ. 180
गृह कलह
स्कन्दगुप्त नाटक में समस्या चित्रण के नाम पर श्री परमेश्वरी लाल गुप्त ने 'गृहकलह की समस्या का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है-
'इस प्रकार नाटक का अधिकांश भाग इस दूसरी समस्या गृह कलह के दृश्य उपस्थित करने में लगाया गया है। जहाँ अनन्त देवी अपने बेटे पुरुगुप्त को राजा बनाने के निमित्त स्कन्दगुप्त के प्रति षड्यन्त्र करने में सतत् प्रयत्नशील है, वहीं हमें स्कन्दगुप्त उसके प्रतिकार के लिए तनिक भी सचेष्ट नहीं दिखाई देता । xxx इस नाटक में घात के होते हुए भी प्रतिघात का सर्वथा अभाव है, जिसके कारण निर्जीव सा लगता है और जान पड़ता है सारा कार्य यन्त्र चालित रूप में एकांकी हो रहा है। - प्रसाद के नाटक, पृ. 183 "
प्रसाद जी ने इस गृह-कलह की समस्या को भी यों ही अकारण ही नहीं दिया है। इससे वे एक ओर तो अनन्त देवी की सक्रियता एवं गतिशीलता दिखाकर अपने स्त्री पात्रों की इस विशेषता का परिचय देना चाहते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा उनके स्त्री पात्र अधिक सक्रिय और गतिशील होते हैं। दूसरी ओर प्रसाद भारत के इतिहास के इस यथार्थ की ओर संकेत करना चाहते होंगे कि यदि भारत में परस्पर फूट और कलह नहीं होती तो भारत कभी भी विदेशियों के चंगुल में नहीं फँसता। भारतीय इतिहास में जयचन्द्र से लेकर अनेक ऐसे अपने स्वदेशी लोग ही विदेशी आक्रामकों से मिलकर राष्ट्रीय हितों पर तनिक से स्वार्थ के कारण कुठाराघात करते रहे हैं, जिनके कारण देश अन्ततः परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ गया। भारतीय इतिहास की इस भूल को रेखांकित करने के लिए सम्भवतः स्कन्दगुप्त के पाठकों को प्रसाद यह बताना चाहते हैं कि अनन्तदेवी से परिचालित और प्रेरित भट्टार्क यदि कुंभा के बाँध को नहीं काटता तो स्कन्दगुप्त और मगध की सेना का बहुत-सा अंश नहीं बह पाती और विदेशी शक और हूणों द्वारा देश पादाक्रान्त नहीं होता। इस गृह कलह का चित्रण करके प्रसाद ने पूर्व नियोजित एवं सुचिन्तित विचारधारा के रूप में ही अपना मन्तव्य स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
वैयक्तिक प्रेम
यद्यपि श्री परमेश्वरीलाल गुप्त ने स्कन्दगुप्त में तीन समस्याओं में तीसरी समस्या 'व्यक्तिगत प्रेम' की ही बतायी है, तथापि स्कन्दगुप्त में ही नहीं प्रसाद ने अन्य नाटकों में भी 'प्रणय' की आयोजना करके अपनी रागात्मिका वृत्ति की उदात्तता का बराबर चित्रण किया है। प्रसाद के नाटकों में ही नहीं कविताओं, कहानियों, उपन्यासों में भी इसी 'उदात्त प्रेम' की अवतारणा की गयी है। अतः इसे समस्या नहीं कहा जा सकता।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि स्कन्दगुप्त की रचना के पीछे प्रसाद का यही उद्देश्य निहित रहा होगा कि एक ऐसे नेतृत्व का आदर्श उपस्थित किया जाय तो राज्य सत्ता के प्रति उदासीन रहे और राष्ट्र रक्षा के लिए कृतसंकल्प।' निश्चय ही प्रसाद को इस उद्देश्य में सफलता प्राप्त हुई है।
स्कंदगुप्त नाटक जयशंकर प्रसाद की एक उत्कृष्ट रचना है जो भारतीय इतिहास, संस्कृति और समाज पर गहरा प्रभाव डालती है। यह नाटक राष्ट्रीय चेतना, धर्म, समाज सेवा, व्यक्तिगत जीवन और राष्ट्रीय कर्तव्य जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाता है और पाठकों को गहराई से सोचने पर मजबूर करता है।
COMMENTS