स्कन्दगुप्त नाटक में इतिहास व कल्पना का समन्वय जयशंकर प्रसाद स्कन्दगुप्त और ऐतिहासिकता स्कन्दगुप्त का ऐतिहासिक आधार अद्भुत समन्वय साहित्यिक कृति भारती
स्कन्दगुप्त नाटक में इतिहास व कल्पना का समन्वय | जयशंकर प्रसाद
प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक होते हैं, इस सम्बन्ध में यद्यपि विद्वान आलोचकों में मतभेद नहीं है । परन्तु कुछ आलोचक प्रसाद के नाटकों में ऐतिहासिकता का विरोध इस आधार पर करते हैं कि कुछ ऐतिहासिक पात्रों के नामों का समावेश कर देने से क्या कोई नाटक ऐतिहासिक हो जाता है। वैसे इतिहास और ऐतिहासिकता में भी अनेक विद्वानों ने अन्तर किया है और यह मत व्यक्त किया है कि साहित्यिक कृति में इतिहास को तलाशना ही एक प्रकार का अन्याय है और ऐसी कृतियों के विषय में यह चर्चा करके निर्णय करना कि उसमें इतिहास के तथ्य घटनाएँ कम हैं, यह तो और भी अन्याय है। वास्तव में ऐतिहासिक नाटक या उपन्यास या कहानी रचना करने वाला साहित्यकार बस कथानक का मोटा ढाँचा खड़ा करने में ही कुछ इतिहास का आधार ग्रहण करता है, फिर उसमें रंग तो वह कल्पना के आधार पर ही भरता हैं। कभी-कभी तो वह अपने अनुसार उसमें तोड़-मरोड़ भी कर लेता है या कर सकता है और कभी उस पुरानी घटनाओं की प्रतीकात्मक व्याख्या करके अपने परिवेश और समकालीन समाज की अनेक समस्याओं का आंकलन और समाधान आदि से सम्बन्धित सन्देश भी देता है। यही कारण है कि ऐतिहासिक कृतियों में 'इतिहास' की तलाश करने वाले आलोचकों को यह स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि ऐतिहासिक कृति और इतिहास में पर्याप्त अन्तर होता है ।
इतिहासकार और ऐतिहासिक रचना करने वाला साहित्यकार
इतिहास लेखक और इतिहास का आधार कोई साहित्यिक रचना रचने वाला साहित्यकार दोनों अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न भूमिकाएँ निभाते हैं। ऐतिहासिक उपन्यासकारों के सन्दर्भ में डॉ. श्रीनारायण अग्निहोत्री का निम्न कथन ऐतिहासिक नाटककारों के विषय में भी सटीक ही बैठता है। अतः इस कथन को उद्धृत करके हम इतिहास और ऐतिहासिक रचना की मनोभूमि का अन्तर स्पष्ट करना चाहते हैं-
“इतिहासकार उपलब्ध सामग्री एवं शोध के आधार पर प्रस्तुत युग को देखता, तद्विषयक तथ्यों का आंकलन, आलेखन और उनकी व्याख्या करता है। ऐतिहासिक उपन्यासकार वातावरण की प्रामाणिकता में कल्पना का समावेश कर एक नई दुनियाँ ही रच डालता है। इतिहास का यह सृजनात्मक दृष्टा ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने व्यक्तित्व के आग्रह और कल्पना के सहारे तथ्यों की घटा पर अनायास ही 'अतीत रस' के अद्भुत लोकों की सृष्टि कर डालता है । - हिन्दी उपन्यास साहित्य का शास्त्रीय विवेचन, पृ. 282
स्कन्दगुप्त और ऐतिहासिकता
कहना न होगा कि इसी 'अतीत रस' की सृष्टि प्रसाद जी ने अपने नाटकों में की है। प्रसाद जी के स्कन्दगुप्त नाटक को ही लें तो उसकी कथा के सूत्र खोजने में प्रसाद जी को भारत के अतीत कालीन इतिहास की विलुप्त कड़ियों को जोड़ने में बड़ी खोज करनी पड़ी है। फिर इस नाटक की रचना करते समय उन्होंने अपनी उर्वर कल्पना का ऐसा रंग चढ़ाया है कि पाठक नाटक को पढ़ते समय गुप्त कालीन भारत में पहुँच जाता है।
कल्पना का पुट
प्रसाद के द्वारा स्कन्दगुप्त की रचना में जो कल्पना प्रसूत घटनाएँ एवं चरित्रों की अवतारणा की है उसकी विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। स्कन्दगुप्त की निवेदन शीर्षक भूमिका के निम्न वाक्य इस दिशा में पर्याप्त प्रकाश डालते हैं- “उनके नाटक हमारे स्थायी साहित्य के भण्डार को अमूल्य रत्न देने के अलावा एक और महत् कार्य कर रहे हैं, वह है हमारे इतिहास का उद्धार । महाभारत युग के 'नागयज्ञ' से लेकर हर्षकालीन 'राज्यश्री' प्रभृति कों से वे हमारे लुप्त इतिहास का पुर्ननिर्माण कर रहे हैं। ऐसा करने में चाहे बहुत-सी बातें कल्पनाप्रसूत हों, किन्तु प्रसाद जी की ये कल्पनाएँ ऐसी मार्मिक और अपने उद्दिष्ट समय के अनुकूल हैं कि वे उस सत्य की पूर्ति कर देती हैं, जो विस्मृति के तिमिर में विलीन हो गया है।"-स्कन्दगुप्त, पृ. 1
ऐतिहासिकता का विरोध
स्कन्दगुप्त की ऐतिहासिकता के विषय में विरोध करने वालों में श्री परमेश्वरी लाल गुप्त का स्वर अधिक उम्र है। वे तो स्कन्दगुप्त को अनैतिहासिक नाटक तक कह डालते हैं- प्रसाद जी का यह नाटक ऐतिहासिक नाटक के आवरण में अनैतिहासिक नाटक है। इसमें ऐतिहासिक नामों एवं देश पर हूण आक्रमण की चर्चा के अतिरिक्त कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे ऐतिहासिक कहा जा सके। -प्रसाद के नाटक, पं. 166
अपने इस मत की पुष्टि करने के लिए वे यही आधार लेते हैं कि गुप्त वंश के इतिहास के विषय में बहुत कुछ अज्ञात है और दूसरा तर्क यह लेते हैं कि प्रस्तुत नाटक की रचना के समय तक गुप्त वंश के विषय में इतिहासकारों ने अधिक शोध नहीं की थी, उसके बाद तो बहुत सा कार्य हुआ है, जिससे स्कन्दगुप्त नाटक की घटनाओं की पुष्टि नहीं होती है। श्री गुप्त के ही शब्दों में- 'स्कन्दगुप्त के राज्यकाल के सम्बन्ध में ऐसी सामग्री प्राप्त नहीं है जिससे इतिहास का स्वरूप किसी प्रकार स्थिर आधार पर खड़ा हो सके । अतः प्रसाद जी को अपने इस नाटक में कथावस्तु के लिए कल्पना करने का पूरा अवसर मिला है। जिस समय प्रसाद जी ने प्रस्तुत नाटक की रचना की थी, उस समय उसके सामने जो मान्यताएँ थीं, उनको उन्होंने ग्रहण किया है और उसी के आधार पर कल्पना के सहारे अपनी कथावस्तु को खड़ा किया है। किन्तु इन दिनों जो नयी ऐतिहासिक सामग्री सामने आयी है, उससे तत्कालीन अनेक मान्यताओं के प्रति सन्देह उत्पन्न गया है और उनको मानना कठिन ही नहीं असम्भव जान पड़ता है। प्रसाद जी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे ऐतिहासिक तथ्यों की व्यवस्था अपने ढंग पर करते अवश्य थे, पर वे ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध नहीं जाते थे।
अतः बहुत सम्भव है कि प्रसाद जी यदि आज जीवित होते तो वे अपने इस नाटक को नष्ट कर देते; अन्यथा नयी शोधों के आधार पर कथानक को कोई नया रूप देते और उसके अनुसार नाटक प्रस्तुत करते । ” -प्रसाद के नाटक, पृ. 160-61 विरोधीमत- इस कथन की अतिवादिता तो प्रत्यक्षतः दिखायी देती है। इस सम्बन्ध में ऐसे आलोचकों की भी बड़ी संख्या रहती है, जो प्रसाद के नाटकों में ऐतिहासिकता का दर्शन ही नहीं करते, प्रत्युत प्रसाद जी की भारतीय इतिहास के अतीत काल की गहन जानकारी का लोहा भी मानते हैं। डॉ. हरीन्द्र के अनुसार प्रसाद जी ऐतिहासिक नाटककार ही नहीं, इतिहासकार तक माने गये हैं। उन्हीं के शब्दों में- “हम यह स्थापना कर चुके हैं कि प्रसाद जी नाटककार ही नहीं इतिहासकार भी हैं। उनके नाटकों की भूमिकाओं तथा अन्य ऐतिहासिक लेखों के पढ़ने से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रसाद जी की ऐतिहासिक अर्न्तदृष्टि काल के आवरण को चीरकर ऐतिहासिकता सत्यों के आंकलन एवं निर्माण की विपुल सामर्थ्य रखती है ।" -प्रसाद का नाट्य साहित्य : परम्परा एवं प्रयोग, पृ. 133
डॉ. हरीन्द्र ने फिर ऐतिहासिक नाटककार के दायित्व की चर्चा करते हुए प्रसाद जी के कुछ नाटकों में ऐतिहासिकता का विरोध भी किया है किन्तु स्कन्दगुप्त को तो वे ऐतिहासिकता नाटक ही मानते हैं-
“फिर भी हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि उनकी सभी रचनाएँ ऐतिहासिक नहीं हैं, क्योंकि शुद्ध ऐतिहासिक रचनाएँ वे ही मानी जायेंगी, जहाँ नाटककार मूल कथानक का आदान इतिहास से करें एवं उसके सभी प्रधान पात्र इतिहास-विश्रुत हों। घटनाओं और चरित्रों में ऐतिहासिक सम्भाव्यता के अन्तर्गत ही परिवर्तन किए जायें। उनकी कुछ रचनाएँ तो इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। इस दृष्टि से राज्यश्री, अजात शत्रु, स्कन्दगुप्त, चन्द्रगुप्त एवं ध्रुवस्वामिनी शुद्ध ऐतिहासिक नाट्य रचनाएँ हैं; क्योंकि इनके कथानक प्रामाणिक इतिहास से लिये गये हैं।" -वही, पृ. 133
प्रसाद जी का दृष्टिकोण एवं इतिहास-दर्शन स्कन्दगुप्त के विषय में इस सम्बन्ध में कोई निर्णायक मत देने के पूर्व यह जान लेना भी अत्यन्त अनिवार्य प्रतीत होता है कि प्रसाद जी इस दिशा में क्या सोचते थे । उन्होंने अपने अधिकांश नाटकों के लिए कथानक का चयन भारतीय इतिहास से ही क्यों किया है, इसके पीछे प्रसाद जी का एक सुदीर्घ चिन्तन एवं इतिहास-दर्शन रहा होगा। उसी का उल्लेख उन्होंने 'विशाख' नाटक की भूमिका में निम्न प्रकार किया है-
“इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संघटित करने के लिए अत्यन्त लाभदायक होता है क्योंकि हमारी जाति को उठाने के लिए हमारे जलवायु के अनुकूल जो हमारी अतीत सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं, इसमें पूर्ण सन्देह है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने में बहुत कुछ प्रयत्न किया है और जिन पर वर्तमान साहित्यकारों की दृष्टि बहुत कम पड़ती है।”
इस कथन से स्पष्ट है कि प्रसाद जी का यह इतिहास-दर्शन रहा है कि वे अपने समकालीन परतन्त्र भारत के निवासियों को अपनी अतीतकालीन गौरवमय परम्पराओं से परिचित कराकर उन्हें पुनरुज्जीवित कराना, मृतकों को मृतसंजीवनी सुरा पिलाकर प्रेरित करना चाहते थे। इसीलिए सम्भवतः उन्होंने ऐसे कथानकों को लिया है, जिनमें आतताई विदेशी आक्रामकों को मुँह की खानी पड़ी है। स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य ने भी हूणों और शकों के सम्मिलित आक्रमण को विफल करके भारतीय स्वाभिमान की रक्षा की थी, अतः स्कन्दगुप्त नाटक की कथा का आधार यही ऐतिहासिक वृत्तान्त से लिया गया है।
स्कन्दगुप्त का ऐतिहासिक आधार
जैसा कि हम पहले कह आये हैं श्री जयशंकर प्रसाद की निष्ठा भारत के प्राचीन कालीन इतिहास के प्रति बहुत थी। उस काल के इतिहास से उन्होंने केवल उन्हीं स्वर्णिम पृष्ठों को टटोला जिन पर हमारी आने वाली पीढ़ियाँ गर्व कर सकें। इसीलिए प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों में अतीतकालीन गौरव का आख्यान मिलता है। डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा ने अनेक अंग्रेज लेखकों द्वारा लिखे गये प्राचीन भारतीय इतिहास ग्रन्थों, शिलालेखों श्री वासुदेव उपाध्याय कृत गुप्त साम्राज्य का इतिहास' जैसे ग्रन्थों का हवाला देकर स्कन्दगुप्त नाटक के ऐतिहासिक कथाधार की प्रामाणिकता सिद्ध की है। इसी प्रकार कालिदास की रचनाओं और कालिदास के जीवन विषयक तथ्यों के विषय में भी डॉ. शर्मा ने विस्तार के साथ चर्चा की । आर. डी. बेनर्जी, हेमचन्द्र राय चौधरी, फ्लीट, स्मिथ, एलेन, नंदार्गिकार, एम. आर. काले, गंगाप्रसाद मेहता, क्षेत्रेश चट्टोपाध्याय आदि अनेक विद्वानों के शोधपूर्ण ग्रन्थों और शोध निबन्धों के आधार पर डॉ. शर्मा ने स्कन्दगुप्त नाटक की कथा का ऐतिहासिक आधार तलाश किया है। उनकी प्रति पत्तियों के आधार पर जो ऐतिहासिक आधार पुष्ट हुआ है उसकी अत्यन्त संक्षिप्त चर्चा यहाँ प्रस्तुत है -
मिलरूद के स्तम्भ लेख के आधार पर चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य का कार्यकाल 415 ई. पूर्व आरम्भ हो चुका था। फ्लीट के अनुसार कुमारगुप्त (प्रथम) दुर्बल और विलासी शासक था। मन्दसौर के शिलालेख से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर बन्धुवर्मा कुमारगुप्त (प्रथम) का प्रतिनिधि शासक था। फैजाबाद जिले के करम-दण्डा नामक स्थान से मिले लेख के अनुसार पृथिवीसेण पहले मन्त्रिषद पर और बाद में कुमारगुप्त ने उसे महाबलाधिकृत पद पर आसीन किया।
गुप्तकालीन मुद्राओं एवं शिलालेखों के आधार पर (इण्डियन एटीकैरी कृ. 266) कुमारगुप्त प्रथम के बाद उसका पुत्र स्कन्दगुप्त राज्य का स्वामी बना। भितरीवाला राजमुद्रा के आधार पर कुमारगुप्त (प्रथम) और महादेवी अनन्त देवी का पुत्र और उत्तराधिकारी पुरुगुप्त माना जाता है। गुप्तवंश के पतन के सम्बन्ध में डॉ. जगन्नाथ शर्मा के निम्न वाक्यों को प्रस्तुत किया जा सकता है-
'तत्कालीन इतिहास की सच्ची वस्तु स्थिति का ज्ञान प्राप्त कर लेने पर यह निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि स्कन्दगुप्त के अन्तिम काल में ही गुप्त साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया था और इसका प्रभाव उसके सिक्कों पर स्पष्ट दिखाई पड़ता।
डॉ. शर्मा ने विभिन्न राज्यों के अधिपतियों की चर्चा की है और कालिदास के विषय में बड़े विस्तार के साथ चर्चा करके यह सिद्ध कर दिया है कि मातृगुप्ताचार्य और कालिदास एक ही हैं।
जो भी हो, इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्रसाद जी ने अपने ऐतिह्यज्ञान के आधार पर ही स्कन्दगुप्त के घटनाक्रम का संयोजन किया है। यदि देवकी के नाम न मिलने के आधार पर ही यह कह दिया जाए कि इस नाटक में जो नाम आये हैं, वे इतिहास-सम्मत नहीं हैं। अतः सभी प्रमुख पात्रों के नाम और प्रमुख घटना व्यापार - शकों और हूणों के आक्रमण, राज्य-परिवार का आन्तरिक विद्रोह, उनका दमन और अन्ततोगत्वा स्कन्दगुप्त के पराक्रम, देश-प्रेम, उदार चरित्र के कारण चक्रवर्तित्व स्थापित किया। इतना तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि प्रसाद जी को जितना इतिहास-ज्ञान था, उसका ही उन्होंने उपयोग किया और प्रस्तुत नाटक का कथासार तैयार किया।
'स्कन्दगुप्त' नाटक में जयशंकर प्रसाद ने इतिहास और कल्पना का एक अद्भुत समन्वय किया है। उन्होंने एक ओर जहां इतिहास की गंभीरता को बनाए रखा है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपनी कल्पनाशीलता का उपयोग कर नाटक को जीवंत और रोचक बनाया है। यह नाटक न केवल एक साहित्यिक कृति है बल्कि भारतीय इतिहास और संस्कृति को समझने का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है।
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