उषा प्रियंवदा नयी कहानी के दौर की बहुचर्चित कहानीकार हैं

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उषा प्रियंवदा नयी कहानी के दौर की बहुचर्चित कहानीकार हैं उषा प्रियंवदा आज की प्रमुख कहानी लेखिकाओं में हैं और आज की पीढ़ी के दूसरे अनेक कहानीकारों क

उषा प्रियंवदा नयी कहानी के दौर की बहुचर्चित कहानीकार हैं

 
षा प्रियंवदा आज की प्रमुख कहानी लेखिकाओं में हैं और आज की पीढ़ी के दूसरे अनेक कहानीकारों की भाँति समष्टिगत चिन्तन से व्यष्टिगत चिन्तन की ओर उनकी भाव धारा मुड़ी है। आज के नारी-जीवन में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जो परिवर्तन आये हैं और जिन नये मूल्यों को आत्मसात करने और पुराने मूल्यों को नकारने के लिए आज की नारी बिना सोचे -समझे अपनाने के लिए आकुल हो रही है, उसके क्या-क्या परिणाम हो रहे हैं- उषा प्रियंवदा की कहानियों में यह अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ मुखरित हुआ है। इसके अतिरिक्त आधुनिक मध्यवर्गीय परिवारों की क्या स्थिति है, उनकी मान्यतायें किस सीमा तक परिवर्तित हो रही हैं और मूल्य-मर्यादा कि विषमताओं एवं विकृतियों के कारण खण्डित हो रही हैं और परिवेश व तथाकथित आधुनिक नारी अपनी उच्च शिक्षा एवं अस्तित्त्व रक्षा की भावना से ओत-प्रोत किस प्रकार मिसफिट है- उषा प्रियंवदा ने अपनी कई कहानियों में इसका बड़ा ही सजीव एवं यथार्थ चित्रण किया है। उनकी कहानियों में संवदेनाओं की ताजगी है। उनकी भाषा वस्तुपरक है। विविधता और मार्मिकता लिए हुए भी आर्थिक और आपसी संबंधों के बीच घुटते हुए भी, उनके पास कोई बुनियादी सवाल नहीं उठाते।
 
उषा प्रियंवदा नयी कहानी के दौर की बहुचर्चित कहानीकार हैं। इनकी कहानी 'वापसी' एक समय आलोचकों के मन-मस्तिष्क पर छा गई थी। इसमें अवकाश ग्रहण करने के बाद गजाधर बाबू को अपने ही घर में फालतू या पराया हो जाने का बोध और उससे उत्पन्न पीड़ा ने पाठकों को विचलित कर दिया था। वस्तुतः समसामयिक साहित्य में यह कहानी कथालेखिका को सफलतम कहानीकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा करती है। इनके अब तक कई कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ये हैं- जिन्दगी और गुलाब के फूल (1961 ई०), फिर बंसत आया (1961 ई०), एक कोई दूसरा (1966 ई०), कितना बड़ा झूठ (1972 ई०) तथा मेरी प्रिय कहानियाँ आदि। इनकी अधिकांश कहानियाँ ऐसी शिक्षित युवतियों की कहानियाँ हैं जो स्वच्छंद और अकुण्ठ जीवन व्यतीत करने के सपनों को लेकर विदेशों में जाती हैं किन्तु वहाँ की उपभोगवादी संस्कृति से टकराकर उनके सपने टूट जाते हैं और उनकी जिन्दगियाँ त्रासदी में बदल जाती हैं। लेखिका ने जो कथा-चित्र प्रस्तुत किए हैं, उनमें व्यक्ति की कुण्ठाओं, पीड़ाओं, अतृप्त आकांक्षाओं आदि को ही दृष्टि में रखा गया है। नारी होने पर भी सुखी और स्वस्थ गृहस्थ जीवन के चित्र उनकी लेखनी से अंकित नहीं हुए, यह आश्चर्य की बात है। इसका कारण यह है कि वर्तमान युग में वैयक्तिक भावनाओं को सर्वोपरि महत्त्व देने की जो लहर -सी चल पड़ी है, वे इसमें बह गई हैं। इनकी कहानियों में मुख्य स्वर संवेदना का ही रहा है। डॉ० मधुरेश के अनुसार- "इनकी कहानियों का मूलस्वर आवेग के स्वीकार कर स्वर है। इसीलिए सेक्स और दूसरी संस्कारगत वर्जनाओं को वे बड़ी निर्ममता से तोड़ती भी दिखायी देती हैं और चूँकि वे अपने ढंग से जीने के आग्रह को रेखांकित करती हैं, कुल मिलाकर वे 'स्व' की खोज और प्रतिष्ठा की कहानियाँ ही अधिक हैं।" इस टिप्पणी के आधार पर इनकी कहानियों की मूल चेतना को समझा जा सकता है जिनमें नयी कविता के दौर की आधुनिकता के सारे तत्त्व-अकेलापन, संत्रास, ऊब, घुटन और अजनबीपन आदि विद्यमान हैं।
 
उषा प्रियवंदा की अधिकांश कहानियों का विषय आधुनिक परिवेश में उगती नयी नारी है- ऐसी नारी जो शिक्षित है, प्रबुद्ध है और अपने अधिकारों को पहचान रही है। इन्होंने प्रायः स्कूल- -कॉलेज की अध्यापिकाओं को अपनी कहानी का केन्द्र बनाया है, क्योंकि उनके माध्यम से ये आज की नारी की बहुत सी समस्याओं को हमारे सामने रख सकती हैं। हो सकता है कि इस दिशा में इनका ज्ञान अधिक हो, पर इसमें कोई सन्देह नहीं कि आधुनिक नारी की सभी की सभी की कुण्ठाओं का विश्लेषण लेखिका ने बिना किसी प्रकार की झिझक के किया है।
 
अपनी रोमांटिक कहानियों में नारी के अत्यंत जटिल स्वभाव का विश्लेषण करते हुए उन्होंने उसके अकेलेपन को पकड़ने का सफल प्रयास किया है। इनके कई पुरुष पात्र भी प्रेम की मनोग्रंथि के कारण अजनबीपन, अलगाव और सूनेपन की भावना से ग्रस्त हैं। इनके अनुसार भोग जीवन की वेदना को भुलाने का कोई उपचार नहीं है। सुख के चरम क्षण के भीतर भी असफल प्रेम की स्मृति का स्पंदन बराबर बना रहता है। इनकी इस प्रकार की कहानियों में 'कितना बड़ा झूठ', 'मोहबंध, 'पिघलती हुई बर्फ' और 'टूटे हुए" विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देशी-विदेशी वातावरण में प्रस्तुत की गईं ये कहानियाँ आज के प्राणी के मनोविज्ञान को गहराई से रेखांकित करती हैं।
 
उषा प्रियंवदा ने नारी हृदय के निगूढ़तम सत्य को सहजरूप से ग्रहण कर उसे स्वाभाविक अभिव्यक्ति दी है। इनकी कहानियाँ वहीं कम प्रभावशाली हुई हैं, जहाँ वे एक रेखाचित्र का रूप धारण कर लेती हैं। जहाँ मूल संवेदना सशक्त है और ठीक से निर्मित हो पायी है, वहाँ इनकी कहानी अलग चमक उठी है। कोमल संवेदनों की व्यंजना के लिए रम्य प्राकृतिक दृश्यों, रंग और गद्य के प्रसाधनों तथा उपयुक्त प्रतीकों का गुंफन, इनकी कला को दीप्ति प्रदान करता है।
 
उषा प्रियंवदा नयी कहानी के दौर की बहुचर्चित कहानीकार हैं
उन्होंने व्यक्तिगत एवं समष्टिगत - दोनों प्रकार के मूल्यों को आधार बनाकर अपनी कहानियों की रचना की है तथा आधुनिक जीवन की स्थिति को अनुभूति के स्तर पर पहचाना और अभिव्यक्त किया है। नारी उनकी कहानियों की मूल प्रतिपाद्य है। वर्तमान परिवेश में स्त्री-पुरुष के बनते-बिगड़ते संबंध, मानव-जीवन की समस्याएँ (विशेषकर, ऊब, संत्रांस, घुटन, उसकी ट्रेजेडी, अकेलापन तथा अस्तित्त्व की खोज में संघर्षरत नारी की समस्याएँ) शिक्षित कार्यशील नारी-जीवन की रिक्तता, नीरसता तथा उदासीनता की कारुणिक गाथाओं की अभिव्यक्ति इनकी कहानियों में दिखायी देती है।
 
स्वाधीनता के बाद विकास के परिणामस्वरूप हमारे समाज में जैसे-जैसे आधुनिकता का संचार होता गया, वैसे-वैसे नारी में नवीन चेतना भी जागृत होती गयी। अतः जीवन के सभी क्षेत्रों में आज नारी की भागीदारी बढ़ी है, इसी के साथ उसकी समस्याएँ भी बढ़ी हैं। इन्हीं समस्याओं को दृष्टिगत रखकर उषा प्रियंवदा ने अपनी कहानियों का ताना-बाना तैयार किया है। उन्होंने हमारे समाज के एक खास वर्ग और स्तर से संबंध रखने वाली स्त्रियों की समस्याओं का उद्घाटन किया है।
 
उषा जी की नायिकायें खूब पढ़ी-लिखी, नौकरी पेशा या आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न, मध्यम या उच्च वर्ग की हैं। अपनी कहानियों में इनकी खिन्नता, अकेलापन, एकरसता, उसकी दुविधा, कुल व्यर्थ की सामाजिक रूढ़ियों से मुक्ति की आकांक्षा, मोहभंग, स्वच्छंदता, स्त्री-पुरुष के बदलते संबंधों तथा उनसे उपजने वाले मानसिक अन्तर्द्वन्द्व आदि को उन्होंने चित्रित किया है। प्राचीन रूढ़ियों और परम्पराओं से टकराकर अपने स्व और अस्मिता की खोज का प्रश्न भी इनकी कहानियों की नारी समस्या का एक खास बिन्दु है।
 
अजनबीपन या अकेलापन आत्मनिर्वासन की स्थिति है। भीड़ में रहकर अकेले रहना, संबंधों में रहकर एकाकीपन का एहसास आज की नारी की नियति एवं विडम्बना है। इसमें सारे सामाजिक और मानवीय संबंध अर्थहीन हो जाते हैं। डॉ० नामवर सिंह के अनुसार 'निर्वासन की स्थिति में जब तमाम सामाजिक और मानवीय संबंध व्यर्थ प्रतीत होने लगते हैं तब जो पाशव है वही मानवीय हो जाता है और मानवीय पाशव। आधुनिक समाज का अकेलापन उसकी ट्रेजेडी है।” उषा जी की कहानियों में इसी अजनबीपन की गंध है और यही उनकी आधारभूमि भी है।
 
उषा जी ने अनुभवजन्य सत्य को विदेशी पृष्ठभूमि वाली अपनी कहानियों में भी उजागर किया है जिसे उन्होंने विदेश प्रवास के समय देखा या समझा है। किस प्रकार भारतीय मानस विदेशों में अपने रागात्मक एवं भावात्मक संबंधों को भूलता जा रहा है, उसके लिए भौतिकभोग एवं उच्चाकांक्षाएँ ही शेष रह गयी हैं। दूसरों के सुख-दुःख में व्यक्ति की कोई भागीदारी नहीं है । इस परिस्थिति की ज्यादा शिकार शिक्षित, मध्यवर्गीय स्त्रियाँ हैं जो स्वतंत्रता के नाम पर परिवार का विरोध करके विदेश चली जाती हैं, किन्तु उन्हें इसके बदले में टूटन, संत्रास और अकेलापन मिलता है। वे अपने घर-परिवार से तो कट ही जाती हैं, बाहर भी उन्हें अपनापा नहीं मिल पाता। परिवेश चाहे भारतीय हो या विदेशी किन्तु नारी को इसे झेलना ही है। इन विसंगतियों को वे समानरूप से एक जैसी अभिव्यक्ति देती हैं। पृष्ठभूमि देशी हो या विदेशी- दोनों प्रकार की कहानियों में प्रायः अजनबीपन, अकेलापन या परायेपन के भाव उभरकर आते हैं। बिन्दु एक ही है- व्यक्तिगत सुख-दुःख, किन्तु उसके कारण भिन्न-भिन्न हैं- कभी आर्थिक, कभी पारिवारिक, कभी असफल प्रेम तो कभी सामाजिक दबावों से लाचार- विवश प्रेम ।
 
उषा जी ने अपनी कहानियों में यह दिखाने की कोशिश की है कि पुरुष के समान नारी भी सब कुछ हासिल कर सकती है। जीवन की जिन ऊँचाइयों को पुरुष चूम सकता है। स्त्री भी उन ऊँचाइयों तक पहुँच सकती है। इसलिए उनके नारीपात्र प्रायः न तो पुरुष के एहसानों तले दबते हैं और न जीवन भर उनके नाम को 'लेबल' लगाये हुए जीने का इरादा ही रखती हैं। उनमें अस्तित्त्व-बोध की एक गहरी चेतना जाग उठती हैं। उनकी कहानियाँ नारी क्षमता और अदम्य विश्वास का जीता-जागता दस्तावेज हैं, जिसमें नारी की हैसियत से उसके आत्म-सम्मान के लिए किसी प्रकार की निर्भरता और समझौते से ऊपर उठने का संदेश दिया गया है। उनके नारी पात्रों की उपलब्धियाँ-नारी की स्वतंत्रता, सम्मान और उसकी अस्मिता की विजय की बोधक हैं और उनकी कहानी - रचना का उद्देश्य भी है।
 
उषा प्रियवंदा ने अपनी सशक्त लेखनी द्वारा स्त्री-पुरुष के टूटते संबंधों, परिवार की परिवर्तित परिस्थितियों और आधुनिक सभ्य समाज के बदलते मूल्यों का चित्रण सहज ढंग से प्रस्तुत किया है। इनकी कुछ कहानियाँ भारतीय परिवेश में लिखी गई हैं और अन्य कुछ यूरोपीय परिवेश में। इनकी कहानियों में पात्र अकेलेपन में भटकते रहते हैं और सदा विकट परिस्थितियों से जूझते रहते हैं जैसे- 'जिन्दगी और गुलाब के फूल' नामक कहानी में गृहस्थी चलाने वाली छोटी बहन वृन्दा से भाई सुबोध अपमानित होता है। 'अर्थ' को कितना अधिक महत्त्व दिया गया हैं, यह लेखिका ने चित्रित किया है। पहले माँ और बहन हमेशा उसे आदर दिया करते थे, उसकी रुचि के अनुसार घर चलता था। अब वृन्दा की मर्जी से घर चलता है क्योंकि सुबोध बेरोजगार है और वृन्दा अध्यापिका बनकर कमाने लगी है। पहले जब तक वह अखबार न पढ़ लेता था, वृन्दा अखबार छूने की हिम्मत भी नहीं करती थी। उसकी शोभा से शादी भी होने वाली थी, किन्तु वह कब तक इन्तजार करती। उसकी शादी हो गई । सुबोध कहता-“मैं तो कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। इस बात को स्वीकार कर लो कि मैं जिन्दगी में फेलियर हूँ, कम्पलीट फेलियर। कुछ नहीं कर सका। जैसे मेरी जिन्दगी में अब फुल स्टाप लग गया है। अब ऐसे ही रहूँगा। तुम्हारे फादर ने ठीक ही किया। तुम सुखी होओगी। प्यार से बड़ी एक और आग होती है, भूख की। वह आग धीरे-धीरे सब कुछ छीन लेती है।"
 
एक दिन सुबोध माँ से गुस्से में कहता है, “मुझे मुफ्त का नौकर समझ लिया है। पहले कभी तुमने यह सब काम करते मुझे देखा था ? फिर उसकी कंठ की नकल करता हुआ- घर में तरकारी नहीं है। वृन्दा की सहेलियाँ खाना खायेंगी। उधर हमारी बहन है कि हुकूमत किया करती है। अब मैं समझ गया हूँ कि मेरी इस घर में क्या कदर है। मैं आज ही चला जाऊँगा। तुम दोनों चैन से रहना।" फिर वह चला जाता है। रास्ते में साइकिल से टकरा जाता है, पार्क में दिन भर सो जाता है, फिर रात के समय घर लौट आता है। कमरे में उसके लिए खाना रखा होता है। लालचियों की तरह जल्दी-जल्दी बड़े-बड़े कौर खाने लगता है। उसे दिन में कोई ढूँढ़ने भी नहीं जाता। इस कहानी में घुटन, बेरोजगारी की समस्या, असफलता और मजबूरी का मर्मस्पर्शी चित्रण दिखाई देता है।
 
‘मछलियाँ' कहानी में स्त्री-पुरुष के टूटते-बनते संबंधों का चित्रण है। अमेरिका में स्थित भारतीय परिवार उसका एक युवा सदस्य मनीश पहले विजी को चाहता है, फिर नयनतारा जैसी धनी लड़की को चाहने लगता है। जिस प्रकार बड़ी मछली छोटी मछली को खा लेती है ठीक इसी प्रकार अभिजात वर्ग में छोटों का शोषण हुआ करता है। 
कतिपय आलोचकों का विचार है कि उषा जी की कहानियों में व्यक्तित्ववादी, अस्तित्ववादी एवं भोगवादी चिन्तन की प्रधानता है जो नारी-स्वतंत्रता और नारी - अस्मिता के नाम पर केवल निरंकुश यौनाचार की माँग करता है। समाज की मर्यादाओं, नैतिकताओं और परम्पराओं का उसमें पूर्ण रूप से निषेध है और उसकी समाज सापेक्षता संदिग्ध है। आज की नारी को उनकी कहानियाँ कोई सही दिशा-निर्देश नहीं दे पाती हैं क्योंकि न तो उसमें नारी की समस्याओं का व्यापक और सही रूप है और न उनका समाधान। इन बातों के अतिरिक्त उनकी कहानियों में घुटन, संत्रास, अकेलेपन, अजनबीपन जैसी आधुनिक व्याधियों की अभिव्यक्ति की खोज की गई है। किन्तु बिना किसी पूर्वाग्रह के यदि उनकी कहानियों का गहराई से अध्ययन किया जाय तो ये सारे आरोप व्यर्थ, सतही और निराधार नजर आयेंगे। 

वस्तुतः उनकी कहानियों का जो सामाजिक सरोकार है वह बहुत ही सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष रूप से इन्हीं में घुला-मिला है और ध्यान से पढ़ने पर ही उसकी ध्वनि पकड़ में आती है। इन कहानियों में आधुनिक नारी-जीवन के दबावों और प्रताड़नाओं तथा इनसे मुक्त होने के लिए नारी की संघर्ष - क्षमताओं को अभिव्यक्ति मिली है। इन कहानियों में आभासित एक समन्वित दृष्टि आज की आधुनिक नारी को उसकी मुक्ति, स्वतंत्रता, आत्मसम्मान, स्वाभिमान और अस्मिता की तलाश का मार्ग दिखाती है, उसे प्रबल प्रेरणाओं से भर देती है। यह इनका एक मजबूत सकारात्मक पक्ष है। निश्चयेन उनकी कहानियाँ अत्यंत सशक्त एवं प्रभावशाली हैं, जिन्हें पढ़कर नारी -समता एवं उत्थान के समर्थक पाठक चकित-प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकेंगे। आज की महिला कथाकारों में वे अग्रगण्य शीर्षस्थ हैं।

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