वापसी कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति की विवशता उदासी और अकेलेपन का यथार्थ चित्रण है वापसी कहानी लेखिका उषा प्रियंवदा द्वारा रचित है यह कहानी मानव जीवन के
वापसी कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति की विवशता उदासी और अकेलेपन का यथार्थ चित्रण है
वापसी कहानी लेखिका उषा प्रियंवदा द्वारा रचित है। यह कहानी मानव जीवन के यथार्थ की कहानी है। आज की दुनियाँ में सारे नाते रिश्ते स्वार्थ के हैं। इस संसार में कोई किसी का पिता या पति नहीं है, जो कुछ भी है, पैसा कमाने की मशीन है, जिस दिन यह मशीन बन्द हो जायेगी उस दिन लोग चाहना बन्द कर देंगे। यह कहानी इन्हीं विचारों से ओतप्रोत है।
वापसी कहानी एक पारिवारिक घुटन की कथा है, जिसमें गृह-स्वामी परिवार की आवश्यकता पूरी करने के लिए जीवनभर नोट छापने की मशीन बना रहता है। घर परिवार से दूर पराए लोगों के बीच वह इसलिए पड़ा रहता है कि जिन्हें वह अपना समझता है, वे सुख से रहें, लेकिन जब वह रिटायर हो जाता है तो अपने लोगों के बीच यह आशा लेकर लौटता है कि उसे सुख मिलेगा, पर उसे सुख की परछाया भी नहीं मिल पाती, बल्कि एक ऐसा घुटनभरा वातावरण मिलता है कि वह पुनः नौकरी करने के लिए घर से बाहर जाने के लिए विवश हो जाता है। उसे इस प्रकार विवश करने वाले उसकी स्वयं की पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू एवं बेटी आदि होते हैं।
इस प्रकार परिवार के लोगों से उसको झूठी सहानुभूति भी नहीं मिल पाती है। उसकी पत्नी तक उससे खुश नहीं रहती है और उनकी 'वापसी' पर सभी सन्तोष की सांस लेते हैं। कहानी के कथानक का गठन इसी मुख्य सम्वेदना के केन्द्र-बिन्दु पर गठित है।
'वापसी' कहानी मध्यमवर्गीय परिवार में रहने वाले एक रिटायर्ड वृद्ध सज्जन गजाधर बाबू की विवशता, उदासी और अकेलेपन की मर्म भरी कहानी है, इसमें परिवार की दो पीढ़ियों के आन्तरिक वैषम्य (जनरेशन गेप) को बड़ी सूक्ष्मता से अभिचित्रित किया गया है।
गजाधर बाबू एक सेवानिवृत्त वृद्ध सज्जन हैं। उनकी विवशता, उदासी और अकेलेपन की व्यथा को इस कहानी में मार्मिकता पूर्वक अभिचित्रित किया गया है। गजाधर बाबू रेलवे में स्टेशन मास्टर थे। उन्होंने 35 वर्षों तक नौकरी की। अब रिटायर होकर घर जाने का समय आ गया था। उनके नौकर गनेशी ने सब तैयारी कर दी। बिस्तर बाँध दिया। गजाधर बाबू अपने बच्चों से मिलने के लिए तड़प रहे थे। वे थे। एक लम्बी अवधि आपने अकेले ही रहकर व्यतीत की थी। अकेले क्षणों में उन्होंने कितनी ही कल्पनाएँ की थीं। आज वे सब साकार हो रही थीं। वे हमेशा छोटे-स्टेशनों पर रहे थे। बच्चे शहर में रहे ताकि पढ़-लिखकर होशियार और किसी योग्य हो जायें। पत्नी बच्चों के साथ रहती थी। पत्नी सीधी-सादी थी जब गजाधर बाबू घर आये हैं तो वह बड़ा स्वागत करती थी। इन्हीं बातों को याद करके गजाधर बाबू घर जाने की खुशी में थे ।
गजाधर बाबू घर पहुँचते हैं। घर पहुँचकर उनकी सारी आशाएँ धूमिल हो गई। वे अनुभव करते हैं कि अमर, उसकी बहू, नरेन्द्र और पुत्री बसन्ती सभी मानों उन्हें भूल चुके हैं। उनका आना सभी को कष्ट दे रहा है। वे देखते हैं कि उनकी बेटी बहू सभी काम से जी चुराती है। बड़े बेटे अमर की बहू कुछ भी न करती थी। उनकी पुत्री बसन्ती कॉलेज में पढ़ती थी, इसलिए वह भी काम करना पसन्द नहीं करती थी । गजाधर बाबू को घर का रंग-ढंग पसन्द न आया। वे चाहते थे कि उनकी पुत्री अब सयानी हो गई हैं, इसलिए वह अधिक समय तक घर में रहकर घर के कामों में सहयोग करे। इसीलिए वे बसन्ती को बुलाकर कहते हैं कि आज से शाम का खाना उसे स्वयं और सुबह का खाना उसकी भाभी को बनाना होगा। बसन्ती द्वारा पढ़ने की बात कहने पर वे बड़े प्रेमपूर्वक समझाकर कहते हैं कि उनकी माँ पर इतनी उम्र में इतना अधिक काम डालना ठीक नहीं है। किन्तु बसन्ती को उनकी बात अच्छी नहीं लगती है। एक दिन बसन्ती कहीं बाहर जा रही थी। गजाधर बाबू उसे रोकते हैं, वह उस समय तो रुक जाती है, परन्तु पिछले दरवाजे से आने-जाने लगती है।
गजाधर बाबू का घर छोटा था। उस घर में पहले से ही ऐसी व्यवस्था हो चुकी थी कि गजाधर बाबू के लिए कोई स्थान नहीं बचा था। अतः गजाधर बाबू की चारपाई बैठक में लगा दी गई। गजाधर बाबू देख रहे थे कि घर में काम करने वालों की कमी नहीं है । इसलिए उन्होंने नौकर हटा दिया। वे अपनी पत्नी से घर के खर्च कम करने की बात भी कहते हैं। परन्तु पत्नी कहती है- 'सभी खर्चे तो वाजिब - वाजिब हैं, किसका पेट कायूँ ? यही जोड़-गाँठ करते-करते बूढ़ी हो गई । न मन का पहिना, न ओढ़ा।' गजाधर बाबू को यह बात खटक जाती है। गजाधर बाबू की बात का विवोद बसन्ती, अमर, नरेन्द्र और स्वयं उनकी पत्नी ने भी किया। सभी का कहना था- 'भला बाबू जी की हमारे काम में दखल देने की क्या आवश्यकता है ?' पत्नी का भी कहना था- 'ठीक है, आप बीच में न पड़ा कीजिये। बच्चे बड़े हो गये हैं। हमारा जो कर्त्तव्य था, कर रहे हैं। पढ़ा रहे हैं, शादी कर देंगे।' यह सब गजाधर बाबू की इच्छा के विपरीत था। उन्हें स्नेह चाहिए था, ऐसा स्नेह, जो त्याग करने के पश्चात् सन्तान से मिलता है। वैसा स्नेह, उन्हें नहीं मिला वे चिढ़ गये ।
गजाधर बाबू रोजाना घूमने जाते थे । एक दिन वे घूमकर लौटते हैं तो देखते हैं कि उनकी चारपाई बैठक से हटा दी गई है और उनकी पत्नी के कमरे में लगा दी गई है। वे चुपचाप आकर खाट पर लेट गये । उन्हें रेलवे वाला क्वार्टर याद आने लगा। इस समय वे घर के लोगों के विभिन्न स्वरों को सुन रहे थे । इन स्वरों में बहू और सास में छोटी झड़प, खुले नल की आवाज, रसोई घर के बरतनों की खड़खड़ाहट आदि थी। अमर, बहू और बसन्ती की शिकायत भी थी। गजाधर बाबू बड़े दुःखी होते हैं। उन्होंने वहाँ से चल देना ही चित समझा। उन्हें गनेशी की याद आती हैं। वे सोचते हैं कि इन अपनों से तो बेगाने ही भले हैं। एक दिन वे अपनी पत्नी को सेठ रामजीलाल को शक्कर मिल में नौकरी मिलने की सूचना देते हैं। वे अपनी पत्नी को भी साथ चलने को कहते हैं, पर वह नहीं जाती है। वह कहती है- 'मैं चलूँगी तो यहाँ क्या होगा ? इतनी बड़ी गृहस्थी, फिर सयानी लड़की ।' नरेन्द्र उनके कपड़े बाँध देता है, और रिक्शे में बिठाकर उन्हें विदा कर देता है । बहू अमर से पूछती है- 'सिनेमा ले चलिएगा न ?' बसन्ती उछलकर कहती है-'भइया हमें भी।' गजाधर बाबू जी की पत्नी चौके में जाती हैं और नरेन्द्र से कहती हैं—'अरे नरेन्द्र, बाबू जी की चारपाई कमरे से निकाल दे। उसमें चलने तक की जगह नहीं है।'
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस कहानी में एक रिटायर्ड वयोवृद्ध सज्जन स्वभाव वाले गजाधर बाबू की विवशता, उदासी और अकेलेपन की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया गया है। इस प्रकार कहानी में ऊषा जी ने अत्यन्त सूक्ष्म और व्यापक अन्तः दृष्टि से आधुनिक परिवार का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
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