यथार्थवाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं और महत्व यथार्थवाद एक ऐसी साहित्यिक धारा है जो जीवन को जैसा वह वास्तव में है, वैसा ही दिखाने का प्रयास करत
यथार्थवाद का अर्थ परिभाषा स्वरूप विशेषताएं और महत्व
यथार्थवाद एक ऐसी साहित्यिक धारा है जो जीवन को जैसा वह वास्तव में है, वैसा ही दिखाने का प्रयास करती है। इसमें काल्पनिकता और अतिशयोक्ति को कम करके वास्तविक जीवन के अनुभवों, भावनाओं और स्थितियों को प्राथमिकता दी जाती है।
यथार्थवादी आन्दोलन का दर्शन के रूप में प्रणयन यूनान में पाँचवीं शताब्दी में हुआ पर साहित्य के क्षेत्र में इसका आधुनिक अर्थों में अभ्युत्थान उन्नीसवीं शताब्दी में हुआ।' जब स्वच्छन्दतावादी रचनाकार वास्तविक जगत् से दूर कल्पनालोक में विचरण कर अपनी रचनाओं में अलौकिक तत्त्वों को विशेष रूप से महिमामण्डित करते थे तो स्वाभाविक रूप से उनकी रचना में अविश्वसनीय एवं अवास्तविक पात्रों, घटनाओं एवं दृश्यों का चित्रण होता था। इसी स्वच्छन्दवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप ही भौतिक जगत् का वास्तविक चित्रण करने की प्रवृत्ति ने यथार्थवाद को जन्म दिया।
कहा जा सकता है कि यथार्थवाद का आरम्भ एक प्रकार से स्वच्छन्दतावाद के विरोध में हुआ। यथार्थवाद-सम्बन्धी सर्वप्रथम रचना फ्रेंच लेखक फ्लाबेयर की 'मादाम बोवारी' (1856 ई.) मानी जाती है। फ्लाबेयर ने साहित्य के क्षेत्र में यथार्थवाद रूपी जिस पौधे को आरोपित किया उसे पुष्पित एवं पल्लवित करने का श्रेय 'बाल्जाक' एवं 'ज़ोला' आदि पाश्चात्य विद्वानों को है। जार्ज इलियट, ट्रॉलोप, थैकरे और डिंकस जैसे विचारकों में हम तात्कालिक समाज के यथार्थवादी निरूपण का क्रमिक विकास देख सकते हैं।
यथार्थवाद का स्वरूप
यथार्थवाद का शाब्दिक अर्थ है- जो वस्तु जैसी हो, उसे उसी अर्थ में ग्रहण करना। अर्थात् किसी वस्तु, पदार्थ, अनुभूति या गुण का जो वास्तविक स्वरूप है, उसका यथातथ्य निरूपण करना ही यथार्थवाद कहलाता है। 'संसार में विविध वस्तुएँ हैं। इनमें से कुछ से मानव परिचित है, कुछ से अपरिचित ।' जो वस्तुएँ ऐसी हैं जिनका मानव से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर भी उन्हें देखकर उसके मन में कौतूहल होना स्वाभाविक-सी बात है। उन वस्तुओं के भयंकर रूप को देखकर यदि वह भयाक्रांत होता है तो उनके सुन्दर रूप को देखकर वह आकर्षित एवं मोहित भी होता है। यथार्थवाद इन वस्तुओं की पहचान बतलाता है, उनसे परिचित कराता है और एक ऐसा परिवेश अथवा वातावरण तैयार करता है, जिससे उन वस्तुओं से भलीभाँति परिचित हो मानव अपनी जिज्ञासा शान्त कर सकता है।
इस संसार में रहकर मानव यह विश्वास करता है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यगत है उसके सृजन, परिवर्तन या विनाश में वह कोई भूमिका नहीं निभा सकता। उसे केवल देखा, समझा एवं परखा ही जा सकता है और यह तभी सम्भव है जब अनुकूल परिस्थिति में अध्ययन एवं निरीक्षण किया जाय। मानव के ये मूल विश्वास ही यथार्थवाद के आधारस्तम्भ हैं। इन्हीं आधारों पर कवि या लेखक मानव-जीवन, समाज एवं प्रकृति आदि का यथार्थ चित्र अपनी रचना के माध्यम से प्रस्तुत करता है। उसका यह चित्रण काल्पनिक जगत् से नहीं बल्कि वास्तविक जगत् से होता है। इस संदर्भ में इमर्सन का कथन अधिक समीचीन है, यथा- "मुझे महान् दूरस्थ और काल्पनिक नहीं चाहिए, मैं साधारण का आलिंगन करता हूँ, मैं सुपरिचित और निम्न के चरणों में बैठता हूँ।"
स्पष्ट है कि यथार्थवाद इस संसार में जो जैसा है उसका उसी रूप में चित्रण करता है, वह संसार में विद्यमान कलुषता एवं कालिमा पर भी पर्दा नहीं डालता। वस्तु का कोई कोना उसकी दृष्टि से वंचित नहीं हो पता। वह धरती की साँसों में ही पनपता है और धरती से ही प्रेरणा ग्रहण करता है। इसी यथार्थवाद की ओर संकेत करते हुए रामधारी सिंह 'दिनकर' ने भी कहा है कि- "इस धरती की बात करो प्रिय, मत अम्बर की ओर निहारो।"
यथार्थवाद का स्वरूप-निरूपण करते हुए विचारकों ने कहा है- "प्राकृतिक विकास ने यथार्थवाद को बड़ी प्रबल प्रेरणा दी। जिस प्रकार विज्ञान का उद्देश्य सृष्टि की रचना का यथार्थ-विवरण प्रस्तुत करना है, उसी प्रकार ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा संसार का हमें जिस रूप में बोध होता है; उसी रूप में उसे प्रस्तुत करने का प्रयत्न यथार्थवाद कहलाता है।"
यथार्थवाद की परिभाषा
यथार्थवाद के स्वरूप का निरूपण करते हुए कुछ विद्वानों ने अपने मन्तव्य इस प्रकार व्यक्त किये हैं-
- कजामियाँ- "यथार्थवाद साहित्य में एक शैली नहीं बल्कि एक विचारधारा है।"
- जार्ज लूकस- "सच्चे यथार्थवादी साहित्य की यह प्रमुख विशेषता है कि लेखक विना किसी भय अथवा पक्षपात के ईमानदारी के साथ जो कुछ भी अपने आसपास देखता है, उसका चित्रण करे ।
- हर्बर्ट फ़ास्ट - यथार्थवाद वह संश्लेष है, जो चुनाव तथा रचना के माध्यम से अपने वास्तविक विचारों को समुन्नत रूप में पाठकों के सामने उपस्थित करता है।"
- एमिल फ़ागे- "यथार्थवादी कला का तात्पर्य जीवन और जगत् को यथातथ्य और निष्पक्ष भाव से देखना और उसी प्रकार उनका चित्रण करना है।"
- राल्फ़ फॉक्स - “यथार्थ का चित्रण व्यक्ति के उस गहरे संघर्ष की भूमि पर होना चाहिए जो एक साथ ही उसकी अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों स्थितियों को समेट ले। सच्चा यथार्थवादी बाह्य जगत् के चित्रण के साथ-साथ मानव की मानसिक वृत्तियों का भी उद्घाटन करता हैं। जो कलाकार केवल वीभत्स और कलुष का ही चित्रण करते हैं, वे सच्चे यथार्थवादी नहीं हैं।"
इस प्रकार कहा जा सकता है कि यथार्थवाद वह साहित्यिक संश्लेषण है जो चुनाव तथा रचना के माध्यम से अपने वास्तविक विचारों को समुन्नत रूप में पाठकों के समक्ष उपस्थित करता है। डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इस संदर्भ में ठीक ही कहा है- “दर्शन, मनोविज्ञान, सौन्दर्यशास्त्र, कला एवं साहित्य के क्षेत्र में वह विशेष दृष्टिकोण, जो सूक्ष्म की अपेक्षा स्थूल को, काल्पनिक की अपेक्षा वास्तविक को, भविष्य की अपेक्षा वर्तमान को, सुन्दर के स्थान पर कुरूप को, आदर्श के स्थान पर यथार्थ को ग्रहण करता है- यथार्थवादी दृष्टिकोण कहलाता है। दर्शन के क्षेत्र में जहाँ एक आदर्शवादी किसी अप्रत्यक्ष सत्ता, अलौकिक शक्ति, सूक्ष्म जगत् और मरणोत्तर जीवन के अस्तित्व में विश्वास करता है, वहाँ यथार्थवादी स्थूल, भौतिक एवं प्रत्यक्ष जगत् में ही जीवन की इतिश्री मानता है।"
वस्तुत: यथार्थवाद साहित्य की एक व्यापक प्रवृत्ति है। इसे सीमित सीमा में रखकर परिभाषित नहीं किया जा सकता। इसकी न तो कोई नपी-तुली परिभाषा दी जा सकती है और न ही इसका कोई एक निश्चित स्वरूप निर्धारित किया जा सकता है। इसके सन्दर्भ में मात्र इतना कहा जा सकता है कि यह सहज, परिचित, वास्तविक एवं नित्यप्रति के जीवन में अनुभूत होने वाली स्थितियों-परिस्थितियों, दृश्यों, क्रियाकलापों, घटनाओं आदि का चित्रण होता है।
मनोविश्लेषणवादी यथार्थवाद
यथार्थवाद समाज के जर्जर, पतित, कुण्ठित लोगों को ही अपना वर्ण्य विषय स्वीकार करता है। वह समाज के दबे, कुचले, पददलित, कुरूप, घृणित लोगों पर ही दृष्टिपात करता है। मानसिक विवर्त्य को उसने प्रश्रय नहीं दिया। इस भौतिक जगत् में जो कुछ जिस तरह हो रहा है; उसका उसी रूप में चित्रण करना यथार्थवाद का लक्ष्य होता है। इसी से यथार्थवादियों ने अवचेतन मन में बसी कुण्ठाओं, निराशाओं, भाँति-भाँति की वर्जनाओं तथा अनास्थाओं का वास्तविक चित्रण किया है। कभी-कभी कुण्ठाओं, निराशाओं आदि के अधिक चित्रण से यथार्थवाद का स्वरूप विकृत एवं अस्वस्थ हो उठता है, जिसे अतियथार्थवाद की संज्ञा दी जाती है।
समाजवादी यथार्थवाद
समाजवादी यथार्थवाद सम-सामयिक परिस्थितियों की आलोचना मात्र नहीं करता बल्कि नवीन क्रान्तिकारी सृजन की भूमिका भी प्रस्तुत करता है, जिससे समाज का नवनिर्माण हो सके। ऐसे कवियों एवं लेखकों को विश्वास होता है कि अन्याय एवं शोषण पर टिकी हुई सामाजिक व्यवस्था को प्रगतिशील शक्तियाँ समाप्त कर देंगी। वे मानव को वस्तुस्थिति का ज्ञान कराके जीवन के प्रति आस्थावान् बनाते हैं। उसमें भविष्य के प्रति आशा, उत्साह एवं जिजीविषा पैदा करते हैं तथा काल्पनिक जगत् की अपेक्षा वास्तविक जगत् को समझने एवं सुन्दर बनाने के लिए जागरूक करते हैं।
सच्चा यथार्थवाद
सच्चा यथार्थवादी साहित्यकार भौतिक जगत् का वास्तविक चित्रण करने के साथ-साथ मानव की मानसिक वृत्तियों को भी उद्घाटित करता है। वह मानव को निराशावादी नहीं आशावादी बनाता है; क्योंकि कवि या लेखक मात्र अनुकरणकर्त्ता ही नहीं बल्कि भविष्य-निर्माता भी होता है। इसमें उसकी व्यक्तिगत रुचि काम करती है। वह मानव एवं समाज को नूतन दिशा एवं नूतन रूप प्रदान करता है। 'सच्चा यथार्थवादी लेखक आदर्श को भी साथ लेकर चलता है; क्योंकि आज का आदर्श ही तो कल का यथार्थ होता है।
यथार्थवाद की विशेषताएं
यथार्थवाद एक ऐसी साहित्यिक धारा है जो जीवन को जैसा वह वास्तव में है, वैसा ही दिखाने का प्रयास करती है। इसमें काल्पनिकता और अतिशयोक्ति को कम करके वास्तविक जीवन के अनुभवों, भावनाओं और स्थितियों को प्राथमिकता दी जाती है।इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं -
- यथार्थवादी कवि या लेखक सम-सामयिक मानव-जीवन का वास्तविक चित्रण करता है।
- यथार्थवादी कृतियों में समाज की कुरीतियों, रूढ़ियों, कुप्रथाओं आदि का चित्रण कर जनसामान्य का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास होता है।
- किसी वस्तु, घटना, दृश्य आदि का क्रमबद्ध विवरण प्रस्तुत करना यथार्थवाद का लक्ष्य होता है। घृणित एवं पतनोन्मुख समझी जाने वाली वस्तुओं का विशेष रूप से वर्णन करता है।
- समाज के पददलित, घृणित एवं नगण्य समझे जाने वाले व्यक्तियों का चित्रण करता है।
- यथार्थवादी रचनाओं में भूत एवं भविष्य की अपेक्षा वर्तमान पर ही अधिक ध्यान इंगित किया जाता है।
- जीवन की विषमताओं, असंगतियों, अव्यवस्थाओं का चित्रण भी यथार्थवाद करता है।
- यथार्थवादी साहित्य में मानव परिस्थितियों से प्रभावित होता चित्रित किया जाता है।
- यथार्थवादी रचनाएँ मात्र मानव एवं समाज की समस्याओं को उद्घाटित करके छोड़ देती हैं।
- यथार्थवादी साहित्य में सामाजिकता के स्थान पर वैयक्तिकता को प्रश्रय दिया जाता है।
- यथार्थवादी कृतियों में स्वाभाविकता, तीव्रता एवं व्यंग्यात्मकता अधिक होती है।
- रौद्र, वीभत्स एवं करुण रसों की अभिव्यक्ति विशेष रूप से इस प्रकार के साहित्य में पायी जाती है।
- यथार्थवादी रचनाकार पात्रों के चरित्र-चित्रण में जुगुप्सा एवं अश्लील गालियों तक को ज्यों-का-त्यों लिपिबद्ध कर देता है।
साहित्य में यथार्थवाद का महत्त्व
यथार्थवाद साहित्य का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह साहित्य को जीवन से जोड़ता है, समाज का आलोचनात्मक विश्लेषण करता है, और पाठकों को सोचने और समझने के लिए प्रेरित करता है। यही कारण है कि यथार्थवादी साहित्य हमेशा पाठकों के बीच लोकप्रिय रहा है।इसके महत्व को निम्नलिखित रूपों मे देख सकते हैं -
- इस संसार में मानव-अनुभूति के विविध विषय हैं। परन्तु जब वह अनुभूति साहित्य का विषय बनती है तो स्वाभाविक रूप से उसके लिए एक सीमा-रेखा निर्धारित होती है। साहित्यकार नियन्त्रित एवं अनुशासित होकर ही उन अनुभूतियों को रचना के माध्यम से दूसरों को अनुभूत करा सकता है। आशय यह है कि वह साहित्य का लोककल्याणकारी रूप ही ग्रहण करे। उसे ऐसी घटनाओं, वस्तुओं, पात्रों आदि का यथार्थ चित्रण कदापि नहीं करना चाहिए, जिससे कि पाठकों की कुत्सित, कुरुचिपूर्ण पशु-प्रवृत्ति को बढ़ावा मिले।
- यह संसार हर क्षण परिवर्तनशील है। परिणामतः इस संसार की प्रत्येक वस्तु जो आज वास्तविक प्रतीत हो रही है, कल अवास्तविक लगती है। जो आज है, वह कल नहीं रहता अर्थात् परिवर्तन एक शाश्वत नियम है। यथार्थवादी रचनाकार को चाहिए कि वह इस शाश्वत सत्य को स्वीकार करे तथा समाज में परिवर्तन लाने वाले उन तत्त्वों को साहित्य का विषय बनाये। इसी में उसकी प्रतिभा की सार्थकता है।
- यथार्थवादी रचनाकार किसी बनी-बनायी, पूर्व-निर्मित परम्परा का अनुकरण न कर अपनी स्वयं की नियामक शक्ति का प्रदर्शन करता है। उसके विचार स्थूल, एकाकी एवं संवेद्य होते हैं। उसके लिए प्रतिबन्ध मात्र इतना है कि सामाजिक होते हुए भी वैयक्तिक अनुभूतियों में यथार्थ का अंकन करे।
- मानव-जीवन में प्रेम तत्त्व का होना नितान्त स्वाभाविक एवं चिरन्तन सत्य है। साहित्य मानव-जीवन का ही प्रतिबिम्ब होता है। फलतः साहित्य में भी प्रेम तत्त्व या रोमांस का होना उतना ही सत्य है जितना कि मानव । यथार्थवादी रचनाकारों के लिए प्रेम तत्त्व सार वस्तु है अतः वे स्वाभाविकता एवं यथार्थता के पक्षधर रहे। इस प्रकार साहित्य में मानव-जीवन के प्रेम तत्त्व के उद्घाटन में यथार्थवाद का विशेष महत्त्व है।
- परिस्थितियों के अनुसार युग का सत्य भी बदलता रहता है। यथार्थवादी शैली के माध्यम से ही समसामयिक परिस्थितियों एवं युग-सत्यों का यथार्थ निरूपण किया जाता है।
- यथार्थवाद के माध्यम से साहित्य में वास्तविकता की अभिव्यक्ति निष्कपट और पूर्वाग्रह से बचकर की जाती है।
- जो तत्त्व व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधक होते हैं, यथार्थवादी साहित्य उन्हें प्रश्रय नहीं देता ।
- साहित्य में यथार्थवाद का उद्देश्य यह नहीं होता कि नियमतः सत्य से ही उसका सम्बन्ध हो, बल्कि जगत्-सम्बन्धी सत्यों का परिष्कृत रूप ही वर्णित करना यथार्थवाद का लक्ष्य है।
- साहित्य में यथार्थ चित्रण द्वारा यथार्थवादी कवि या लेखक देश व समाज को नवीन दिशा प्रदान करता है।
- सच्चा यथार्थवादी कलाकार बाह्य जगत् के चित्रण के साथ-साथ मानव की मानसिक वृत्तियों का भी चित्रण करता है, जो साहित्य का मूल उद्देश्य है।
- यथार्थ वर्णन के माध्यम से कवि या लेखक मानव को निराशा के घोर धुंध से हटाकर जीवन की आशावादी किरणों से परिचित कराता है। उसके अन्दर जिजीविषा की भावना उत्पन्न करता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है- “यथार्थवाद में न तो गलदश्रु भावुकता होती है और न ही इन्द्रधनुषी कल्पना। उसमें धरती का ठोस और खुरदुरा जीवन ही उभर कर सामने आता है।" यह बात और है कि यथार्थवाद की अतिशयता भी सदैव हानिकारक है; यथार्थ के नाम पर कुत्सित, अश्लील और वीभत्स जीवन-स्थितियों का चित्रण अनुचित ही नहीं, अनावश्यक भी है। आदर्श और यथार्थ परस्पर पूरक हैं, फिर भी दोनों में से किसी की अतिशयता मानव के लिए अहितकर है। इसलिए यथार्थ में उच्चतर उद्देश्य का सम्मिश्रण होना चाहिए। वास्तव में यथार्थवादी दृष्टिकोण ही कला और काव्य का वास्तविक दृष्टिकोण है।
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