आपका बंटी उपन्यास में शकुन का चरित्र चित्रण मन्नू भंडारी मन्नू भंडारी का उपन्यास आपका बंटी एक ऐसे समाज का आईना है जहाँ पारंपरिक मूल्य और आधुनिक जीवन
आपका बंटी उपन्यास में शकुन का चरित्र चित्रण | मन्नू भंडारी
मन्नू भंडारी का उपन्यास "आपका बंटी" एक ऐसे समाज का आईना है जहाँ पारंपरिक मूल्य और आधुनिक जीवन शैली की टकराहट होती है। इस उपन्यास में शकुन का चरित्र बेहद जटिल और बहुआयामी है। वह एक शिक्षित, स्वतंत्र विचार रखने वाली महिला है, लेकिन साथ ही वह एक पत्नी और एक माँ भी है।
शकुन एक कॉलेज की प्रिंसीपल है। वह स्वभाव से अत्यन्त कठोर है । उसका चेहरा रौबिला है तथा कॉलेज में जब वह अपनी कुर्सी पर बैठती है तो काम में व्यस्त रहती है और कम बोलती है। घर लौटने पर वह बंटी का ध्यान रखती है, लेकिन अजय से सम्बन्ध-विच्छेद होने का दुःख उसे अन्दर ही अन्दर कचोटता रहता है । वह इस गम को गर्मियों की छुट्टियों में बाहर घूम-फिर कर बिताने में भुलाना चाहती है, लेकिन जब वकील चाचा आते हैं या अजय का बंटी के नाम पत्र आता है, अथवा बंटी के लिए अजय द्वारा भेजे गये खिलौने दिख जाते हैं तो उसे अजय का ध्यान आ ही जाता है। इसी दूरी के साथ उसने सात वर्ष व्यतीत किए हैं। वह बंटी मे अपनी तमाम आशा- आकांक्षाओं को समेट कर जीती रही है, वही उसकी आशाओं का सम्बल रहा है, लेकिन जबसे उसने वकील चाचा से अजय के द्वारा कचहरी में तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने का बुलावा स्वीकार किया है, तब से वह अन्दर ही अन्दर बहुत दुखी रहने लगी है। वकील चाचा के यह कहने पर पर कि उसे नये सिरे से अपनी जिन्दगी शुरू करनी चाहिए, उसने यकायक डॉक्टर जोशी को स्मृति-पथ से कुरेदा है।
डॉ. जोशी के प्रणय प्रस्ताव को वह पूर्व में एक बार अस्वीकार कर चुकी थी, लेकिन इस बार अजय को नीचा दिखाने के लिए अथवा उसे दुःख देने के लिए वह डॉ. जोशी से सम्बन्ध स्थापित करने को तत्पर हुई है— सर्वभावेन समर्पण के साथ यहाँ तक कि बंटी को खोने तक को तैयार हो गयी । यही वह मोड़ है, जिसने शकुन के जीवन में तो परिवर्तन ला ही दिया है, साथ ही उसके इस निर्णय ने बंटी की जिन्दगी को विनष्ट कर दिया है। वह अपनी ममता के केन्द्र बने बंटी को गुस्से में मारने-पीटने लगी है। इसी कारण वह अब शकुन से कतराने लगा है ।
शकुन, जिद्दी या कठोर है कि एक अप्रिय सत्य बोलने पर, शकुन के डॉ. जोशी से सम्बन्ध बढ़ाने पर आपत्ति करने पर फूफी तक का त्याग कर देती है । डॉ. जोशी के साथ विवाह करने के बाद उसने अपना अहं विगलित कर दिया है तथा अपना सब कुछ डॉ. जोशी को समर्पित करके शान्ति, सुख प्राप्त करने का प्रयास करने लगी है। वह डॉ. जोशी से डरती है और बंटी के उत्पातों से सहम जाती है— डॉ. जोशी के परिवार में वह पूरी तरह समा गयी है और अपने सुख की कामना के आगे वह अपनी छाती पर पत्थर रखकर बंटी तक का परित्याग कर डालती है। इससे भी क्या वह वास्तव में सुखी रह सकी है ? उपन्यास लेखिका इस तलाकशुदा नारी को प्रबुद्ध मध्यवर्गीय महिला के इस रूप में चित्रित करना चाहती है कि वह चिन्ता, दुःख-क्लेश, जन-अपवाद की शिकार बनने पर दुःखी दिखलाई गयी है। फूफी के प्रति कहे गये उसके ये वाक्य उसके अहं पूर्ण व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हैं, “देखो फूफी ! मैं तुम्हारी बहुत इज्जत करती हूँ। अपनी माँ से भी ज्यादा पर माँ को भी मैनें कभी अपनी बातों के बीच में नहीं बोलने दिया मुझे याद नहीं वे कभी बोली हों ... यह अधिकार तो मैं किसी को दे नहीं सकती ।"
शकुन के चरित्र की प्रमुख विशेषताओं को निम्नांकित बिन्दुओं के द्वारा भली-भाँति समझा जा सकता है-
प्रबुद्ध महिला
शकुन ऐसी प्रबुद्ध महिला है, जो आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी है । उसमें अहं की दीप्ति है, जिसके कारण वह किसी का हस्तक्षेप स्वीकार नहीं कर सकती है । यहाँ तक कि अपने पति अजय का भी नहीं । इसी अहं की डोमीनेटिंग प्रकृति का चरम पर्यवसान अजय के साथ सम्बन्ध-विच्छेद के रूप में दिखाई देता है । उपन्यास में यद्यपि ऐसी घटनाएँ नहीं दी गयी हैं, क्योंकि सम्बन्ध-विच्छेद के बाद की घटनाओं के साथ उपन्यास का प्रारम्भ हुआ है, परन्तु ऐसे संकेत अवश्य ही दिखाई देते हैं। वकील चाचा के द्वारा कहे गये कुछ वाक्यों में शकुन के व्यक्तित्व की इस विशेषता का पता चल जाता है कि अजय की दृष्टि में शकुन कैसी है -
"सारी जिन्दगी अजय शकुन को, शकुन के हर काम और बात को, उसके सोचने को, उसके हर रवैये को गलत ही तो सिद्ध करता है। शकुन बहुत स्वतन्त्र है। शकुन बहुत डोमीनेटिंग है, शकुन यह है, शकुन वह है ।"
वह जीवन-भर अपने को जस्टिफाई करती रही है । लोगों की वह तनिक भी चिन्ता नहीं करती । डॉ. जोशी के साथ सम्बन्धों की आपत्ति उठने पर वह नौकरी तक छोड़ने को तैयार हो जाती है। उसे टूटना पसन्द है, पर झुकना नहीं ।
दुविधाग्रस्त
शकुन ने अपने जीवन को स्वयं ही दुविधाग्रस्त बना लिया है । अब वह हर समय दुःखी रहती है। वकील चाचा के यह समाचार लाने पर कि तलाक के कागजों पर हस्ताक्षर करने के लिए अजय आयेगा, वह एकदम विचलित हो जाती है । उस दिन वह इतनी रोयी है कि आँखें सूज गयी हैं, जिसके कारण वह बंटी से आँखें मिलाने का साहस नहीं कर पायी। सबसे बड़ी वेदना उसे यह है कि उसके पास ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे वह निजी कह सके। एक दिन डॉ. जोशी से वह पूछ बैठती है कि उन्हें पूर्व-पत्नी की याद तो आती ही होगी। इस पर वे यह कहकर टाल जाते हैं कि यह उनका व्यक्तिगत मामला है, इसे मत छेड़ो । इस बात को सुनकर वह अपनी वेदना इन शब्दों में व्यक्त कर उठती है-
“साथी ही अजीब-सी चाह भी जाग उठी काश ! उसके पास भी ऐसा कुछ होता जो निहायत उसका निजी होता। जिसे वह किसी के साथ भी शेयर करना पसन्द न करती । जिसे अपने भीतर ही समेटे रहती लेने के लिए पर कहीं भी तो कुछ-कुछ नहीं ।'
बंटी के व्यवहार से परेशान होकर उसे शकुन अजय की कार्बन-कॉपी समझती है और कभी उसे निरीह, उस पर निर्भर मासूम बच्चे के रूप में देखती है। इसी द्वन्द्व में वह है। कभी वह निर्णय लेती है कि बंटी उसके और अजय के बीच सेतु का काम नहीं कर सका और अब उसके और डॉक्टर के बीच में दरार बनने पर तुला है तो बंटी का भी परित्याग कर देगी । वह सोचती है कि इसे दरार ही बनना है तो अजय और मीरा के बीच बने । वह अजय को दुखी करने के लिए, उससे बदला लेने के लिए ही बंटी को उसके पास भेजने को तैयार हो जाती है। वह डॉक्टर से कहना भी चाहती है कि बंटी अजय पर गया है, परन्तु वह कह नहीं पाती। इसी विवशता में वह अन्दर ही अन्दर घुटती रहती है। वह डॉक्टर जोशी के सुलझे हुए व्यक्तित्व से ईर्ष्या करने लगती है और अपने जीवन को एक पहेली के समान उलझा हुआ पाती है-
"पता नहीं उसे क्या हो गया है एक ही बात एक समय में अच्छी भी लगती है, बुरी भी। शायद कुछ और भी लगता है। हर कितने-कितने स्तरों पर चलती है उसके मन में ! वह खुद कुछ नहीं समझ पाती । हर बात उसके लिए एक पहेली बन जाती है या फिर वह खुद अपने लिए एक पहेली बन जाती है।"
समर्पण भावना
शकुन के जीवन में एक विशेष परिवर्तन आया है, जब उसने वास्तविक अर्थों में डॉ. जोशी के समक्ष समर्पण किया है, अपने अहं को विगलित किया है । डॉ. जोशी के साथ नये ढंग से प्रारम्भ की गयी जिन्दगी का वह अपने मन में ही मूल्यांकन निम्न वाक्यों में करती है-
"इस समय इतना ही काफी है कि जितना भरा-पूरा वह इन दिनों में महसूस कर रही है, उसने कभी नहीं किया । बल्कि आज अगर उसे किसी बात का अफसोस है तो केवल इसी बात का कि यह निर्णय उसने बहुत पहले क्यों नहीं लिया" "एक पुरुष का साथ जिन्दगी को यों भरा-पूरा बन जाता है, यह तो उसने कभी सोचा ही नहीं था। किसी का हल्का स्पर्श भी कैसे जिन्दगी को किसी के साथ होने का अहसास और आश्वासन से भर सकता है ।"
अपनी 36 वर्ष की आयु में भी वह अब कैशोर्य जैसी उल्लास और यौवन जैसी उमंग से परिपूरित है। डॉक्टर द्वारा लायी गयी साड़ी पहनना, डॉक्टर जोशी का मुग्ध दृष्टि से देखना- उसे अब आनन्दित कर देता है। जब भी शकुन चिन्तित होती है अथवा उदास होती है और डॉक्टर जोशी उसकी पीठ सहलाकर उसे सान्त्वना प्रदान करते हैं तो उस समय अपने मन में वह कैसा सुखद अहसास करती है-
"क्या था उन सान्त्वना भरे शब्दों में-उस स्नेह-भरे स्पर्श में कि शकुन को लगा जैसे उसके भीतर सारे तनाव आप ढीले होते जा रहे हैं, सारे द्वन्द्व अपने आप गलते जा रहे हैं। कहीं भी तो कुछ नहीं......सभी कुछ तो सहज और सुगम हो उठा।"
"सारा रास्ता अकेले-अकेले चलकर, सारी परेशानियों से अकेले-अकेले लड़कर भी ऐसा आत्म-विश्वास और ऐसी शक्ति तो उसने अपने भीतर कभी महसूस नहीं की जो आज अपने को पूरी तरह डॉक्टर के हवाले करके वह महसूस कर रही है ।"
इस प्रकार शकुन का चरित्र एक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी महिला का चरित्र है जो प्रारम्भ में उपर्युक्त एवं अहंग्रस्त और इसीलिए सात वर्ष एकाकी जीवन में वह दु:खी भी रही है, परन्तु डॉक्टर उसके सामने अपना समर्पण करके ही मानो वह सही नारीत्व को प्राप्त कर सकी है।
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