बंगला साहित्य के इतिहास को मूल रूप में तीन भागों में बाँटा जाता है। प्रारम्भिक युग के साहित्य को आदि कालं का साहित्य कहा जाता है। ईसा की नवीं सदी से
बांग्ला साहित्य का उद्भव और विकास
बांग्ला साहित्य का उद्भव और विकास प्रागैतिहासिक एवं प्राचीन ऐतिहासिक काल में भारत के पूर्वी प्रान्तों में प्राचीन आर्यभाषा के आगमन के पूर्व आष्ट्रिक गोष्ठी की उपभाषाएँ कोल अथवा मुण्डा प्रचलित थीं। ईसा पूर्व दसवी-नवीं शताब्दी के आस-पास इन पूर्वीय प्रान्तों में उदीच्य आर्य भाषा का आगमन हुआ। इनकी भाषा वैदिक भाषा 'थन्दोभाषा' थी। इन्हीं के प्रभाव स्वरूप पूर्व का एक प्रान्त, जहाँ आष्ट्रिक जाति की एक उपजाति 'म्युअह' निवास करती थी, वेग के नाम से प्रसिद्ध हो गया। वस्तुतः आर्यभाषा में 'म्युअह' ही बंग बन गया। 'बंग' शब्द प्रदेशवाचक था और उस प्रदेश में रहने वालों के लिए बंगा: शब्द प्रचलन में आया। पौराणिक रूप से बंग नाम की उत्पत्ति की व्याख्या इस प्रकार करने की चेष्टा की गई है-चन्द्र वंश में बलि नाम के एक राजा हुए। उनके पाँच बेटे हुए-अंग, बंग, कलिंग, पंडू और सह्य। राजा बलि ने अपने पाँचों पुत्रों को राज्य बाँट दिए। राजकुमारों के नाम पर ही राज्यों के नाम पड़े, इत्यादि।
मुस्लिम राज्यकाल में बंग शब्द से ही बंगाल और बंगाली के रूप में विस्तार लाभ हुआ। उदीच्य आय की भाषा समय की गति के साथ परिवर्तित हुई संस्कृत में परिणत हो गई और बंगाल में ईसा पूर्व छठी सदी तक कोल-मुण्डा की भाषा के साथ-साथ इस वैदिक और संस्कृत भाषा के शब्दों का प्रयोग होता रहा। इन शब्दों में कोल अथवा मुण्डा गोष्ठी की उपभाषा मनु-खनोर भाषा गोष्ठी, तिब्बत-ब्रह्मण गोष्ठी तथा द्रविड़ भाषा गोष्ठी के शब्द भी कम नहीं थे।
ईसा पूर्व पाँचवीं-छठी सदी के आस-पास बंगाल में आर्य भाषा का दूसरा प्रवाह आया। यह दूसरा प्रवाह मध्य-भारतीय आर्य भाषाओं का था। मध्य-भारत में उस समय नैसर्गिक नियमों के परिणामस्वरूप अनार्य उच्चारण एवं अनार्य भाषा के सम्मिश्रण से संस्कृत से उद्भूत पालि और उसके उपरान्त प्राकृत का प्रयोग हो रहा था। इसी प्राकृत के अर्धमागधी रूप का प्रसार बंगाल में हुआ। ईसा पूर्व दूसरी-तीसरी शताब्दी के लगभग अर्थात् मौर्य सम्राट के शासन काल में अर्धमागधी के साथ-साथ मागधी प्राकृत का प्रचार प्रारम्भ हो गया। बंगाल में आर्य भाषा का यह अन्तिम प्रवाह था। इस तरह ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी के आस-पास बंगाल में उक्त दो प्राकृतों का मिश्र रूप प्रचलित हो गया, जिसमें कोल अथवा मुण्डा गोष्ठी, द्रविड़ गोष्ठी एवं तिब्बत-ब्रह्मण गोष्ठी के शब्द प्रचुर मात्रा में संयुक्त थे।
ईसा की आठवीं-नवीं सदी में उत्तर-पूर्व भारत के विभिन्न राज्यों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा में परिवर्तन होने लगा और फलस्वरूप अपभ्रंश भाषा को जन्म मिला। यह सहजात प्रवृत्ति है कि लोग कठिनता से सरलता की ओर जाना चाहते हैं और इसलिए भाषा किताबी भाषा और बोलचाल की भाषा में बँट जाती है। समयानुसार बोलचाल की भाषा के विकृत व्याकरण और शब्द विपर्यय को लोग सहज रूप में ग्रहण कर लेते हैं और इस तरह एक नवीन भाषा का जन्म हो जाता है। मागधी प्राकृत के बोलचाल के रूप के आधार पर ही मागधी अपभ्रंश का जन्म हुआ।
मागधी अपभ्रंश की दो उपशाखाएँ थीं- (1) बिहारी एवं (2) बंगीय। इस बंगीय उपशाखा में क्रमशः तीन विभिन्न भाषाओं के लक्षण दिखाई देने लगे और ईसा की बारहवीं-तेरहवीं सदी के आस-पास यह तीन भाषाएँ असमी, उड़िया और बंगला परस्पर से विच्छिन्न होकर स्वतन्त्र रूप में प्रकट हुई। इस तरह आधुनिक आर्य भाषा के रूप में बारहवीं-तेरहवीं ईसवीं के आस-पास बंगला भाषा का आदि युग प्रारम्भ गया। लिखित प्रमाण एवं भाषा तात्विक विचारों के आधार पर बंगला भाषा का आदि युग दसवीं शती से चौदहवीं शती तक कहा जा सकता है।
प्राचीन बंगला भाषा के शब्दों को एक सूची सन् 1159 में सर्वानन्द बन्धघटी द्वारा रचित अमरकोष की टीका 'टीका सर्वस्व' दिखाई देती है। बंगला भाषा के आदि युग का श्रेष्ठ निदर्शन 'चर्यापद' में प्राप्त होता है जिसकी रचना ईसा की दसवीं शती और बारहवीं सदी के बीच में हुई थी। इसकी भाषा को सन्ध्या भाषा कहते हैं क्योंकि इसमें मागधी अपभ्रंश और उसमें से जन्म लेने वाली बंगला भाषा के प्राचीन रूपों का मिश्रण दिखाई देता है। आदि काल की अन्तिम साहित्यिक कृति अनन्त बड् चण्डीदास का' श्रीकृष्ण कीर्तन' है। इसमें असमी, उड़िया एवं प्राचीन बंगला भाषा का सम्मिश्रण है। इसके पश्चात् बंगला भाषा के इतिहास में मध्य काल ईसा की पन्द्रहवीं शती से सत्रहवीं शती तक माना गया है। मध्य काल में बंगला भाषा अपभ्रंश से सम्पूर्ण रूप से मुक्त और शैली की दृष्टि से वैचित्र्य से युक्त होते हुए भी प्राचीनता से मुक्त नहीं हो पाई थी। तुर्की आक्रमण और है। इस समय के साहित्य पर मैथिली का प्रभाव विशेष दृष्टिगोचर होता है। इस युग के प्रारम्भ में मालाधर बसु उनके साम्राज्य विस्तार के परिणामस्वरूप इस समय की भाषा में अरबी-फारसी शब्दों का प्रभाव दिखाई पड़ता है ।
मुकुन्दराम चक्रवर्ती के चण्डीमंगल, काशीरामदास के महाभारत की रचना हुई थी। आदि काल में बंगला की के श्रीकृष्ण विजय, कृत्तिवास की रामायण, मध्य में ब्रजबुली साहित्य, चैतन्य जीवनी साहित्य और अन्त में बोलियों का कोई सही पता नहीं लगता है परन्तु इस काल की चार बोलियों का स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध है।ये बोलियाँ थीं-राढ़ी, मध्या, बरेन्द्री एवं बंगाली।
ईसा की अठारहवीं सदी से बंगला का आधुनिक युग प्रारम्भ होता है। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही कि बंगला गद्य रचना का आविर्भाव हुआ एवं नवीन भाव धारा का जन्म हुआ। यूरोप की विविध भाषाओं से बंगला भाषा का शब्द-भण्डार परिपुष्ट हुआ। बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, द्विजेन्द्रलाल राय, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, काजी जनरुल इस्लाम, माइकेल मधुसूदन दत्त, शरत्चन्द्र चट्टोपाध्याय, ताराशंकर बन्द्योपाध्याय जैसे साहित्यकारों ने अपनी प्रतिभा से विश्व की आठ श्रेष्ठ भाषाओं में बंगला भाषा को भी स्थान दिलाया। बंगला भाषा और साहित्य का जो कुछ भी गौरव और उपलब्धि है, वह इस आधुनिक काल के साहित्यकारों की बदौलत है।
बंगला लिपि का जन्म भी प्राचीन आर्य लिपि से हुआ। आर्यों की दो प्राचीन लिपियाँ थीं- खरोष्ठी और ब्राह्मी। सम्राट अशोक की मुख्य लिपि ब्राह्मी थी। भारतवर्ष की सभी लिपियाँ एवं तिब्बती, बर्मी, सियामी आदि लिपियाँ भी ब्राह्मी से ही उत्पन्न हुई हैं। गुप्त शासन काल में भारत की पूर्व दिशा में ब्राह्मी का नया रूप कुटिल लिपि प्रचलन में आया। इसी कुटिल लिपि से ही बंगला लिपि की उत्पत्ति हुई है।
बंगला भाषा का क्षेत्र मूलत: सम्पूर्ण बंगाल है जिसमें बंगला देश भी आ जाता है। बंगला में आजकल चार बोलियाँ प्रचलित हैं-राढ़, पूर्वबंग, बरेन्द्रभूमि, कामरूप। कलकत्ते 24 परगना, बाकुंडा तथा मेदिनीपुर में राढ़ बोली थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ बोली जाती है। पूर्वबंग की बोली बंगला देश में प्रचलित है अथवा जो हिन्दू बंगला देश से पश्चिम बंगाल में चले आए हैं, वे इसका प्रयोग करते हैं। ढाका, कूमिल्ला, बरिशाल, नोआखाली या चट्टग्राम में इसी बोली का थोड़ी-बहुत भिन्नता के साथ प्रयोग होता है। पूर्व बंग की बोली में हिन्दी शब्दों का विशेष प्रयोग दिखाई देता है। बरेन्द्रभूमि उत्तर बंग की बोली है और कामरूप उत्तर-पूर्व बंग की बोली है। इसके अलावा किताबी भाषा के लिए बंगला में 'साधुभाषा' का प्रयोग है। यह साधुभाषा बंगाल के प्रत्येक प्रान्त में एक जैसी है। यह भाषा संस्कृतनिष्ठ है एवं इसकी क्रिया 'चलित भाषा' से हटकर है। क्रिया-पद और कारक-चिह्न भी 'चलित' से अलग हैं। मध्य युग के प्राचीन काव्य और गद्य से लेकर आधुनिक काल के काव्य और गद्य में इसी का प्रयोग होता रहा है, यद्यपि रवीन्द्रनाथ आदि ने आधुनिक युग में इसके कठिन-क्लिष्ट रूप को तोड़कर सरल बनाने का सफल प्रयत्न किया है। वर्तमान किताबी भाषा के लिए भी 'चलित भाषा' का प्रयोग हो रहा है और ऐसा प्रतीत होता है कि आगामी युग में यह चलित भाषा ही सर्वजन स्वीकृत साहित्यिक भाषा का स्थान ग्रहण करेंगी।
बंगाल में आदिकालीन साहित्य की नींव आर्यों के द्वारा रखी गईं थीं, यद्यपि साहित्य का प्रणयन आय के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धाचार्य, जो 12वीं सदी तक बंगाल में फैले हुए थे और बंगाल के प्राचीन निवासी कोल एवं मुण्डा की सम्मिलित चेष्टा से सम्भव हो सका। इन तीनों के प्रभाव से बंगला साहित्य में कुछ विशिष्ट गुणों का आगमन हुआ है। आर्यों की भावुकता, बौद्धों का गीतप्रेम और कोल या मुंडा की यथार्थवादिता से बंगला का प्राचीन साहित्य समुज्ज्वल है और ये गुण वर्तमान में भी बंगला साहित्य में दिखाई देते हैं।
बंगला साहित्य के इतिहास को मूल रूप में तीन भागों में बाँटा जाता है। प्रारम्भिक युग के साहित्य को आदि कालं का साहित्य कहा जाता है। ईसा की नवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी के बीच इसका सृजन हुआ है। इसके उपरान्त मध्य युग का साहित्य है। इस युग का रचनाकाल अठारहवीं सदी तक प्रसारित है। फिर, आधुनिक युग का आगमन होता है जिसका प्रसार-काल अठारहवीं शती से बीसवीं शती के चौथे दशक तक है। सन् 1941 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की मृत्यु के पश्चात् बंगला साहित्य में अति आधुनिक युग एक नवीन युग का समारम्भ हुआ है। इस तरह बंगला का सम्पूर्ण साहित्य साम्प्रतिक काल तक चार भागों में विभाजित है।
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