बस्ती के निवासियों को रोजगार के नए अवसर प्राप्त हो सकते हैं और जीवन जीने की उनकी सभी आवश्यक ज़रूरतें भी पूरी हो सकती हैं. वहीं झुग्गी पुनर्वास परियोजना
बुनियादी सुविधाओं से जोड़ना होगा स्लम बस्तियों को
अपनी ऐतिहासिक इमारतों, विविध संस्कृति और पर्यटक आकर्षणों के लिए राजस्थान की राजधानी जयपुर दुनिया भर में मशहूर है. लेकिन इसका एक और पक्ष भी है जिसे काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया जाता है. यह पहलू है शहर की स्लम बस्तियां, जहां हजारों लोग जीवन की बुनियादी सुविधाओं के बिना जीवन गुज़ारते हैं. यह इलाका किसी दूसरी दुनिया की तस्वीर प्रस्तुत करता है. संकरी गलियां, कूड़े के ढेर, टूटी सड़क, सड़क पर बहता घर और नाली का पानी और पीने के साफ़ पानी की कमी इन इलाकों की आम बात होती है. यहां के लोग न केवल गरीबी बल्कि जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित होते हैं. इनकी मुख्य समस्या यह है कि इन बस्तियों में साफ-सफाई का पूरी तरह से अभाव होता है. उचित अपशिष्ट प्रबंधन की कमी के कारण यहां बीमारियां आम हैं, खासकर यहां के बच्चे, किशोरियां और बुजुर्गों इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं.
जयपुर में ऐसी ही एक स्लम बस्ती रावण मंडी है. राज्य सचिवालय से करीब 12 किमी दूर स्थित इस बस्ती में 40 से 50 झुग्गियां आबाद है. जिसमें लगभग 300 लोग रहते हैं. इस स्लम बस्ती में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों की बहुलता है. जिसमें जोगी, कालबेलिया और मिरासी समुदाय प्रमुख रूप से शामिल है. प्रति वर्ष विजयदशमी के अवसर पर रावण दहन के लिए यहां 3 फ़ीट से लेकर 30 फ़ीट तक के रावण, मेघनाद और कुंभकरण के पुतले तैयार किए जाते हैं. जिसे खरीदने के लिए जयपुर के बाहर से भी लोग आते हैं. इसी कारण इस बस्ती को रावण मंडी के रूप में पहचान मिली है. विजयदशमी में पुतले तैयार करने के अलावा साल के अन्य दिनों में यहां के निवासी आजीविका के लिए रद्दी बेचने, बांस से बनाये गए सामान अथवा दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं. शहर में आबाद होने के बावजूद इस बस्ती में मूलभूत सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है. इनमें स्वास्थ्य और शिक्षा भी एक बड़ा मुद्दा है. यहां महिलाओं और बच्चों में स्वास्थ्य और पोषण की कमी बहुत अधिक देखने को मिलती है. आर्थिक कमी के कारण उन्हें पौष्टिक भोजन उपलब्ध नहीं हो पाता है. जिसके कारण यहां की अधिकतर महिलाएं विशेषकर गर्भवती महिलाएं और नवजात बच्चे कुपोषण का शिकार नज़र आते हैं तो वहीं अन्य लोग विभिन्न प्रकार की बीमारियों का शिकार हैं.
किसी प्रकार का पहचान पत्र नहीं होने के कारण बीमारी के दौरान इन्हें पूरी तरह से स्वास्थ्य सुविधाएं भी नहीं मिल पाती है. इस संबंध में बस्ती की 38 वर्षीय शांति देवी बताती हैं कि उनका परिवार कालबेलिया समुदाय से हैं. जिसे घुमंतू और खानाबदोश जनजाति के रूप चिन्हित किया जाता है. घुमंतू होने के कारण उनका कोई स्थाई ठिकाना नहीं होता था. ऐसे में उन लोगों का कभी कोई प्रमाण पत्र नहीं बन सका है. हालांकि अब वह लोग पिछले 8 वर्षों से रावण मंडी में रह रहे हैं. इसके बावजूद अब तक उनका या उनके परिवार में किसी का स्थाई निवास प्रमाण पत्र नहीं बन सका है. इसके कारण सरकारी अस्पताल में उन्हें कोई सुविधा नहीं मिल पाती है. जब वह अस्पताल जाती हैं तो उन्हें यह कह कर लौटा दिया जाता है कि उनका कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. ऐसे में उन्हें निजी अस्पताल में जाने को कहा जाता है. जहां इलाज काफी महंगा होता है. ऐसे में अक्सर वह लोग बस्ती में आने वाले डॉक्टर से देसी इलाज कराते हैं. हालांकि उन्हें नहीं पता कि उसके पास डॉक्टर की मान्यता प्राप्त डिग्री है भी या नहीं? वहीं 42 वर्षीय राजा राम जोगी कहते हैं कि इस बस्ती में पीने का साफ़ पानी उपलब्ध नहीं है. पास में एक सरकारी नल से पानी भरते हैं लेकिन अक्सर उन्हें वहां से पानी नहीं मिल पाता है. ऐसे में बस्ती के कुछ परिवार आपस में चंदा इकठ्ठा करके प्रति सप्ताह पानी का टैंकर मंगवाते हैं ताकि परिवार को पीने का साफ़ पानी मिल सके. लेकिन पानी ख़त्म होने पर वह लोग गंदा पानी पीने को मजबूर होते हैं. स्वच्छ पेयजल की कमी का सीधा नकारात्मक प्रभाव इन लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है. अधिकांश लोग गंदे और दूषित पानी पर निर्भर हैं, जिसके कारण इस बस्ती में पानी से होने वाली बीमारियां आम हैं.
मानसरोवर मेट्रो स्टेशन के करीब आबाद इस स्लम बस्ती में स्कूलों की कमी और गरीबी के कारण बच्चे बाल मज़दूरी पर विवश हैं. 26 वर्षीय नूतन कहती है कि हमारी बस्ती में एक भी आंगनबाड़ी केंद्र नहीं है जहां हमारे बच्चों को शिक्षा के साथ साथ पौष्टिक भोजन भी मिल सके. सबसे नज़दीक आंगनबाड़ी मुख्य सड़क से दूसरी ओर है जहां जाने के लिए बच्चों को तेज़ रफ़्तार आती जाती गाड़ियों से होकर गुज़रना होगा जो किसी प्रकार संभव नहीं है. हालांकि इस आंगनबाड़ी में काम करने वाली कार्यकर्ता समय पर बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने आती हैं. लेकिन यहां के तमाम बच्चे आज भी शिक्षा से वंचित हैं, इन बच्चों को बहुत कम उम्र में ही काम पर लगा दिया जाता है. नूतन बताती है कि कुछ वर्ष पूर्व एक किशोरी स्वैच्छिक रूप से इस बस्ती के छोटे बच्चों को पढ़ाने आया करती थी. जिससे यहां के बच्चों में शिक्षा के प्रति उत्साह जगा था. लेकिन पिछले कुछ माह से अब वह किशोरी यहां नहीं आती है. जिससे बच्चों की पढ़ाई फिर से ठप्प हो गई है.
इसी बस्ती में रहने वाला एक सोलह वर्षीय किशोर दिनेश और 18 वर्षीय उसकी बहन लक्ष्मी अपने माता-पिता के साथ काम पर जाते हैं. समय पर अच्छा भोजन न मिलने के कारण दोनों भाई बहन कुपोषण का शिकार हो चुके हैं. दिनेश के जोड़ों में हर समय दर्द रहता है और वह शारीरिक रूप से भी बहुत कमजोर हो गया है. वह एक ही समय में कई बीमारियों से ग्रस्त है. केवल दिनेश और लक्ष्मी ही नहीं, बल्कि यहां के लगभग सभी किशोरों की यही स्थिति है. इस बस्ती की कुछ किशोरियां बताती हैं कि उनकी सबसे बड़ी समस्या पानी की कमी है. जिसके कारण वह लोग अक्सर तीन दिन में एक बार नहाती हैं. जिसके कारण वह साफ-सफाई का ध्यान नहीं रख पाती हैं. माहवारी के दिनों में पानी की कमी उनके लिए बहुत कष्टदायक हो जाती है. जिसके कारण वह स्वास्थ्य संबंधी कई बीमारियों का सामना करती हैं.
स्वच्छता का अभाव रावण मंडी में साफ़ नज़र आता है. यहां के लोग अपने आस-पास फैली गंदगी और दुर्गंध के बीच रहने को मजबूर हैं. उनके पास शौच की सुविधा भी नहीं है. यहां महिलाएं और पुरुष सभी शौच के लिए बाहर जाते हैं. बस्ती के 55 वर्षीय तोता राम कालबेलिया बताते हैं कि वह स्वच्छ भारत अभियान के तहत घर में शौचालय नहीं बना सकते हैं क्योंकि जहां वे रहते हैं वह जमीन उनकी नहीं बल्कि सरकार की है. जहां से उन्हें कभी भी बेदखल किया जा सकता है. वह बताते हैं कि विजयदशमी के समय यहां पुतले खरीदने के लिए बड़ी संख्या में लोग आते हैं. लेकिन इसके बावजूद कोई हमारी सुध नहीं लेता है. जबकि हमारी समस्याओं को केवल इस बस्ती के निवासी की नहीं हैं, बल्कि इसे पूरे समाज की समस्या मानकर इसके समाधान पर विचार किया जाना चाहिए. यहां भी पीने का साफ़ पानी, साफ़-सफाई, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराया जाना चाहिए ताकि इस बस्ती के लोग भी स्वस्थ और रोगमुक्त जीवन जी सकें. बच्चे कमाने की जगह शिक्षा प्राप्त कर सकें और समाज के विकास में अपना भी योगदान दे सकें.
हमारे देश की एक बड़ी आबादी आज भी ऐसी है जो शहरों और महानगरों में आबाद तो है, लेकिन वहां पर शहर के अन्य इलाकों की तरह सभी प्रकार की की सुविधाओं का अभाव होता है. शहरी क्षेत्रों में ऐसे इलाके ही स्लम बस्ती कहलाते हैं. इन बस्तियों में अधिकतर आर्थिक रूप से बेहद कमजोर तबका निवास करता है. जो रोजी रोटी की तलाश में गांव से शहर की ओर पलायन करता है. इनमें रहने वाले ज्यादातर परिवार दैनिक मजदूरी के रूप में जीवन यापन करते हैं. सरकार और स्थानीय प्रशासन इन क्षेत्रों के विकास के लिए कई योजनाएं संचालित तो करती हैं सरकार के साथ साथ गैर-सरकारी संगठन और आम जनता भी यहां की समस्याओं का समाधान कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर इस बस्ती में समय समय पर लोगों के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मोबाइल हेल्थ क्लीनिक का संचालन किया जा सकता है. साथ ही सामुदायिक पहल कर आंगनबाड़ी और शिक्षा केंद्रों की स्थापना की जा सकती है. इसके अतिरिक्त पानी और स्वच्छता पर काम करने वाली संस्थाएं यहां के लोगों के लिए सामुदायिक शौचालय और छोटे स्तर पर जल संयंत्र का निर्माण कर सकती है.
वास्तव में देखा जाए तो रावण मंडी और उसके जैसी अन्य स्लम बस्तियां केवल सरकारी सहायता पर निर्भर नहीं रह सकती, बल्कि सामुदायिक भागीदारी के माध्यम से भी यहां के निवासियों को बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराई जा सकती हैं. ज़रूरत है इसे विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की, जिससे ये क्षेत्र भी शहर की पहचान बन सकता है. यदि सही दिशा में प्रयास किए जाएं तो रावण मंडी पर्यटन के एक केंद्र के रूप में उभर सकता है, जिससे बस्ती के निवासियों को रोजगार के नए अवसर प्राप्त हो सकते हैं और जीवन जीने की उनकी सभी आवश्यक ज़रूरतें भी पूरी हो सकती हैं. वहीं झुग्गी पुनर्वास परियोजना के तहत इस बस्ती के लोगों के जीवन में भी बदलाव लाया जा सकता है. (चरखा फीचर्स)
- सीताराम गुर्जर
जयपुर, राजस्थान
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