भारतीय शिक्षा प्रणाली की समस्याएं और समाधान भारत एक विशाल और विविध देश है, जिसकी शिक्षा प्रणाली भी उतनी ही जटिल और विविध है। हालांकि, हमारी शिक्षा प
भारतीय शिक्षा प्रणाली की समस्याएं और समाधान
भारत एक विशाल और विविध देश है, जिसकी शिक्षा प्रणाली भी उतनी ही जटिल और विविध है। हालांकि, हमारी शिक्षा प्रणाली कई चुनौतियों का सामना कर रही है।हमारी शिक्षा प्रणाली ही सदोष गुणवत्ता रहित हो गई है जिसने सम्पूर्ण व्यवस्था को ही खोखला बना दिया है. वर्तमान भारत में शिक्षा और शिक्षक दोनों ही विकारग्रस्त हो गए हैं. धन के बल बूते पर डिग्री और डिग्रीधारी दोनों ही खरीदे जा सकते हैं.
शिक्षा प्रणाली की कमियाँ
हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति न तो व्यक्ति और समाज के मध्य समायोजन स्थापित करती है और न संश्लिष्ट व्यक्तित्व का निर्माण करती है. प्रश्न है, क्या सामाजिक समायोजन और जीविकोपार्जन की दृष्टि से सभी किशोरों की परिस्थितियाँ, आकांक्षाएं एवं क्षमताएं एकसी हैं और उनका बालक या बालिका, ग्रामीण या नगरीय का मन्द या कुशाग्र बुद्धि होना कोई अर्थ या महत्व नहीं रखता ? यदि इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर दे दिया जाए तो मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्त तथा मान्यताएं झूठी पड़ जाएंगी. इसलिए यह शिक्षा प्रणाली मान्य मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय सिद्धान्तों पर आधारित नहीं है. अन्यथा 16 वर्ष तक प्रत्येक विद्यार्थी के लिए एकसमान पाठ्यक्रम निर्धारित करने का क्या औचित्य है?
हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली में बौद्धिक दासता की जड़ें गहरी हैं जिसके कारण आधुनिक शिक्षित व्यक्ति अपने गाँव से और गाँव की जीवन-परम्परा से कट जाता है, क्योंकि यह शिक्षा प्रत्येक विषय को इस प्रकार प्रस्तुत करती है, जैसे सब कुछ आयातित हो. साथ ही शिक्षार्थी के मन में अपने परिवेश के प्रति हीनता का भाव भर देती है. वस्तुतः यह प्रणाली अक्षर ज्ञान मात्र देकर एवं शारीरिक श्रम की अवहेलना करना सिखाकर व्यक्ति को बलहीन, निराश और बेकार बना देती है. स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि कृषि स्नातक भी खेत की मेड़ पर जाना पसन्द नहीं करते. यदि युवक किसी प्रकार बी. ए., एम. ए. पास कर लेता है तो उसे नौकरी चाहिए ही यह शिक्षा उद्योग अथवा स्वतंत्र व्यवसाय में जाकर स्वावलम्बी बनने का जोखिम उठाने के लिए उन्हें तैयार नहीं करती. यहाँ तक कि डॉक्टर और इंजीनियर डिग्रीधारी युवकों की भी यही स्थिति हैं. इस तथ्य को हल्के ढंग से इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-हमारा युवक पान की दुकान खोलते हुए शर्माता है, परन्तु पान की दुकान पर नौकरी करने में संतोष का अनुभव कर लेता है. इस शिक्षा-पद्धति को लक्ष्य करके कवि मैथिलीशरण गुप्त ने ठीक ही कहा है-"शिक्षे तुम्हारा नाश हो जो नौकरी के हित बनीं."
बेकारों की फौजियों के सामने जीवन के लिए कोई आदर्श नहीं होता है. उनके सामने तोड़-फोड़, प्रदर्शन, घेराव, हड़ताल, लूट-मार के सिवा कोई काम नहीं रह जाता है शिक्षा ने जब स्वावलम्बी बनाया ही नहीं, तो फिर अनुशासनहीन, आत्मविश्वास रहित मन से टूटा हुआ तनावग्रस्त व्यक्ति कौनसा काम कर सकता है?
यह एक विडम्बना ही है कि हमारी शिक्षा नीति के विधाता यूरोप का शिक्षा-सर्वेक्षण तो कर आते हैं, परन्तु ग्राम्यजीवन की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक परम्पराओं और आवश्यकताओं का सर्वेक्षण करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं, जिनमें हमारे देश की 80% जनता का निवास है यह बात उपहासास्पद ही है कि हमारे विद्यार्थी दुनिया भर का इतिहास, गणित, भूगोल आदि पढ़ें, परन्तु यदि हमारे कृषक उनसे पूछें कि क्या आपने हम लोगों की दशा की छानबीन कर ली? क्या आपको हम लोगों की आवश्यकताओं का पूर्ण आभास है? क्या इस भूमि के कृषि, खनिज पदार्थ, गोवंश,पशु- पक्षी, नदी, पहाड़, वनस्पति आदि के सम्बन्ध में आपको पूरा-पूरा ज्ञान है? हमारे द्रव्य- साधनों का उपयोग कैसे हो सकता है? तो वे मौन होकर अपने अज्ञान का ही प्रमाण देंगे. उन्हें सम्भवतः अपने परिवार एवं निवास स्थान का भी इतिहास मालूम नहीं होता है.
व्यावसायिक शिक्षा भी स्तरीय नहीं है. अपर्याप्त सुविधाएं, अप्रशिक्षित कर्मचारी, प्रायोगिक प्रशिक्षण का अभाव आदि ने व्यावसायिक शिक्षा के महत्व को मोथरा कर दिया है. इस प्रकार हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय डिग्री के बाजार बन गए हैं.
शिक्षा का अर्थ होता है-नई पीढ़ी में नई सामाजिक चेतना जाग्रत करके उसे भविष्य की जिम्मेवारियों को वहन करने की बौद्धिक क्षमता प्रदान करना और उसका ऐसा मानसिक विकास करना जो उसे राष्ट्र की बहुआयामी प्रवृत्तियों के संचालन की योग्यता प्रदान कर सके, लेकिन स्वातन्त्र्योत्तर भारत में जो शिक्षा नीति निर्धारित की गई, वह इन लक्ष्यों की पूर्ति में पूर्णतया विफल रही. हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है जो बालकों को जीवन सम्बन्धी शिक्षा नहीं दे रही है.
दोषपूर्ण परीक्षा प्रणाली
शिक्षा पद्धति अनेकानेक सूचनाओं को कंठस्थ करने पर बल देती है. हमारा विद्यार्थी पुस्तक ज्ञान द्वारा अपने दिमाग को भरता है. उस ज्ञान को परीक्षा में उत्तर-पुस्तिका पर उलट आता है और फिर खाली दिमाग लेकर जीवन में प्रवेश करने में प्रयत्नशील होता है.
आज़ शिक्षा सम्बन्धी नीतियों का निर्धारण मुख्यतः राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित है. ऐसी नीतियाँ कई बार सैद्धान्तिक रूप में तो उपयुक्त प्रतीत होती हैं, परन्तु व्यवहार में ये लागू न किए जाने के योग्य होती हैं. ये नीतियाँ प्रायः उन लोगों द्वारा निर्धारित की जाती हैं जिन्हें शिक्षा जगत् का कोई अनुभव नहीं होता है. प्रायः विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्तियाँ भी राजनीति प्रेरित रहती हैं.
आज हमारी शिक्षण संस्थाएं स्वस्थ और स्तरीय शिक्षा का निष्पादन नहीं कर पा रही हैं. इसका कारण सामाजिक मूल्यों में आई गिरावट और शैक्षिक व्यवस्था में अन्तर्निहित अनियमितताओं का समावेश होना है. कुलपतियों, शिक्षक संघों, प्राचार्यों और छात्रों के बीच अनवरत चल रही राजनीति से प्रेरित खींचतान के कारण उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट आई है. अधिकांश विश्वविद्यालयों के शैक्षिक सत्र असमान और अनियमित हो रहे हैं. शैक्षिक सत्रों में अनियमितता के कारण छात्रों को अन्य पाठ्यक्रमों में समय पर प्रवेश नहीं मिल पाता है जिससे उनका बहुमूल्य समय बर्बाद हो रहा है.
कमियों का उपचार
हम अपनी शिक्षा प्रणाली को मात्र साक्षरता, डिग्रियों और उच्च शिक्षा तक ही सीमित नहीं कर सकते. इसमें दैनिक जीवन से सम्बद्ध दक्षताओं के विकास के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण पर समुचित ध्यान देना चाहिए. व्यावसायिक प्रशिक्षण किस स्तर का होना चाहिए, इसका भी ध्यान रखना होगा. कुछ क्षेत्रों में यह एक बहुत ही साधारण प्रशिक्षण हो सकता है तो कुछ क्षेत्रों में अत्यन्त विशिष्टिकृत स्तर का होगा.
हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो लोगों को अपना रोजगार आरम्भ करने के लिए प्रेरित करे, जो उनमें अपनी सहायता स्वयं करने की भावना पैदा करे. हमें एक ऐसी शिक्षा प्रणाली को अपनाना होगा जो मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय मान्यताओं की कसौटी पर खरी उतरे. हमें लोगों की परिस्थितियों, आकांक्षाओं, क्षमताओं और बुद्धि के स्तर को ध्यान में रखकर ही किसी प्रणाली का निर्धारण करना होगा.आज हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत हम ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के जीवन को उत्तम बनाने में सक्षम हो.
शिक्षण-संस्थाओं का काम यह हो कि वे छात्रों में छिपी शक्ति को जगाएं और उस शक्ति के पूर्ण उपयोग के लिए वातावरण तैयार करें. शिक्षा को कक्षाओं की सीमित परिधि से निकालकर सामाजिक परिवर्तन की दिशा में लगाया जाना चाहिए. साथ ही बच्चे अपने भार की अपेक्षा अधिक भार के बस्ते लेकर चलें - इस व्यवस्था को समाप्त करना होगा.
छात्रों को केवल अक्षर तथा अंकगणित का ज्ञान ही नहीं होना चाहिए, अपितु उन्हें अपने राष्ट्र और क्षेत्र की समस्याओं से अवगत कराया जाना चाहिए जिससे वे जागरूक बन सकें और उनमें देश-प्रेम की भावना का विकास हो. हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी होनी चाहिए जो समाज में हिंसा की प्रवृत्ति को कम करे तथा उपभोक्तावाद की अवधारणा के लिए चुनौती पेश कर सके. छात्रों की सोच एवं मनोवृत्ति में परिवर्तन लाने की चेष्टा की जानी चाहिए जिससे वे जाति-पांति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और वर्ण आदि के नाम पर भेदभाव न बरतें तथा बदल रहे विश्व की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हों.आज हमें ऐसी शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो श्रम के प्रति आस्था का वातावरण बनाए, तभी हमारे युवक स्वावलम्बन की ओर अग्रसर हो सकेंगे. राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में छात्रों को यह सोचना सिखाए कि राष्ट्र के लिए हम क्या कर रहे हैं.
वर्तमान शिक्षा वस्तुतः स्थूल आवश्यकताओं की पूर्ति की सिद्धि का लक्ष्य लेकर चलती है. इसी कारण उसमें मानवोचित उदात्त गुणों के विकास के अवसर बहुत कम दिखाई देते हैं. हमको ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जो प्रयोजन की सिद्धि तो करे, परन्तु केवल साधन रूप में. उसका साध्य हों उदात्त गुणों का विकास. संश्लिष्ट व्यक्तित्व के निर्माण के लिए हमारी शिक्षा का स्वरूप भी संश्लिष्ट होना चाहिए. वही शिक्षा श्रेष्ठ हो सकती है जो व्यक्ति और समाज के हिताहित को अभिन्न मानती हो.
वर्तमान शिक्षा पद्धति में राष्ट्र भाषा और देशभाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाकर देश का बहुत अहित किया जा रहा है. शिक्षार्थियों के श्रम एवं समय का अपव्यय तो होता ही है. साथ ही मानसिक दासता पनपती है.
शिक्षा जगत् की दूषित राजनीति का शुद्धिकरण किया जाना चाहिए, राजनीतिक दलों के लिए विद्यालयों के प्रवेश द्वार बन्द कर दिए जाने चाहिए. शिक्षकों को कर्त्तव्य- पालन, निष्ठावान बनाने के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें राजनीतिक उपजीवियों के चंगुल से सर्वथा मुक्त कर दिया जाए. कहने का तात्पर्य है कि शिक्षा जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था विशुद्ध रूप से शिक्षाविदों के हाथ में हो, राजनीतिज्ञों के हाथ में नहीं।
उपसंहार
वस्तुतः सशिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिए उसके विभिन्न ज्ञान-तन्तुओं को प्रशिक्षित करने की प्रक्रिया है, यह मनुष्य को मनुष्य बनाती है, उसमें आत्मनिर्भरता की भावना भरती है तथा समाज के प्रति कर्त्तव्य भावना जाग्रत करती है, परन्तु वर्तमान शैक्षिक प्रणाली को इन बातों से मानों कोई सरोकार ही नहीं है. वह राजनीति से ओत-प्रोत तथा अनुशासनहीनता का बीज बोने वाली है. अगर हमें भारत को पुनः 'सोने की चिड़िया' और 'विश्व गुरु' बनाना है तो हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करना होगा. हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को रोजगारोन्मुखी, मनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय नियमों पर आश्रित, नैतिकता से समन्वित, ग्रामोन्मुखी, व्यवहारोन्मुखी, श्रमोन्मुखी तथा राजनीति निरपेक्ष बनाना होगा.
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