बूढ़ी काकी कहानी प्रेमचंद का सारांश उद्देश्य चरित्र चित्रण प्रश्न उत्तर

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बूढ़ी काकी कहानी प्रेमचंद का सारांश उद्देश्य चरित्र चित्रण प्रश्न उत्तर भारतीय समाज में बुजुर्गों की दयनीय स्थिति और परिवार के बंधनों के महत्व को दर्श

बूढ़ी काकी कहानी प्रेमचंद का सारांश उद्देश्य चरित्र चित्रण प्रश्न उत्तर


मुंशी प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी एक ऐसा साहित्यिक रत्न है जो बुढ़ापे, अकेलेपन और मानवीय भावनाओं की गहराई को बड़ी मार्मिकता से उजागर करता है।यह कहानी भारतीय समाज में बुजुर्गों की दयनीय स्थिति और परिवार के बंधनों के महत्व को दर्शाती है।

बूढ़ी काकी कहानी का सारांश

बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन हुआ करता है।बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवा और कोई चेष्टा शेष न थी। समस्त इन्द्रियाँ, हाथ-पैर जवाब दे चुके थे। यदि उन्हें समय पर भोजन न मिलता या बाजार से आई कोई चीज न मिलती तो वे रोने लगती थीं। 

उनके पति को मरे बहुत समय हो गया था। बेटे भी जवान होकर चल बसे थे। अब वह अपने भतीजे के सहारे रह रही थीं। भतीजे ने उनकी सम्पत्ति लिखाते समय खूब लम्बे-चौड़े वायदे किए थे, लेकिन बाद में उनका निर्वाह नहीं किया। उनकी सम्पत्ति की वार्षिक आय डेढ़-दो सौ रुपये से कम न थी तथापि बूढ़ी काकी को पेटभर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसमें उनके भतीजे बुद्धिराम का अपराध था या उसकी पत्नी का इसका निर्णय करना आसान नहीं था। रूपा स्वभाव से तेज थी, पर ईश्वर से डरती थी बुद्धिराम कभी-कभी सोचते कि काकी की सम्पत्ति से ही हम अच्छी स्थिति में हैं, पर यह सोचकर भी वह काकी पर अधिक खर्च करना नहीं चाहता था । वह काकी की जरा-जरा- सी बात पर गुस्सा हो जाते। माँ-बाप को देखकर उनके बच्चे बूढ़ी काकी को और सताते। काकी चीख मार कर रोती, पर यह बात प्रसिद्ध थी कि वह सिर्फ खाने के लिये रोती है। जब काकी क्रोध में आकर बच्चों को गालियाँ देती तो रूपा वहाँ आ जाती और काकी शान्त हो जाती। काकी को पूरे परिवार में सिर्फ बुद्धिराम की छोटी लड़की लाड़ली से प्रेम था। वह अपने हिस्से की मिठाई, चबेना बूढ़ी काकी के पास आकर खाती थी। उसमें से काकी भी खा लेती । 

बूढ़ी काकी कहानी प्रेमचंद का सारांश उद्देश्य चरित्र चित्रण प्रश्न उत्तर
रात का समय था । बुद्धिराम के घर शहनाई बज रही थी। आज बुद्धिराम के बड़े लड़के मुखराम का तिलक आया है। घर में स्त्रियाँ गा रही थीं और रूपा मेहमानों के लिए भोजन के प्रबन्ध में व्यस्त थी। पकवान बन रहे थे। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में बैठी पकवान की सुगन्ध ले रही थी। उसे ऐसा लगा कि सब लोग भोजन कर चुके हैं, पर उसे किसी ने नहीं बुलाया। उसने सोचा कि वह चलकर कड़ाह के सामने बैठे। वह सरक कर बाहर आ गई। रूपा सामान देने में व्यस्त थी। उसने काकी को कड़ाह के पास बैठे देखा तो जल-भुन गई । उसने बूढ़ी काकी को दोनों हाथों से झटक दिया और बोली-'ऐसे पेट में आग लगे, अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका ? आकर छाती सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ ।' काकी चुपचाप रेंगती हुई अपनी कोठरी में चली गई। 

भोजन तैयार हो गया। मेहमान खाने लगे। स्त्रियों ने जेवनार -गीत गाना शुरु कर दिया। बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में आकर पश्चाताप कर रही थी वहाँ जाने के लिए। सोचा कि जब कोई बुलाने आएगा तब जाऊँगी। लेकिन उसे रहा नहीं गया और उकडूं बैठकर हाथों के बल सरकती हुई आंगन में आई। अभी मेहमान खा रहे थे। खूब डटकर खा रहे थे। बुढ़िया के आने से कई आदमी चौंक कर खड़े हुए और पुकारने लगे-अरे यह बुढ़िया कौन है ? यह कहाँ से आ गई ? देखो किसी को छू न ले। पंडित बुद्धिराम काकी को देखते ही क्रोध से तिलमिला गए। पूड़ियों के थाल को जमीन पर पटककर काकी को दोनों हाथों से पकड़ कर घसीटते हुए लाकर अँधेरी कोठरी में धम से पटक दिया। मेहमानों ने भोजन किया, घरवालों ने भोजन किया। बाजे वाले, धोबी, काम वाले सभी भोजन कर चके पर काकी को किसी ने नहीं पूछा । बुद्धिराम और रूपा दोनों ही बूढ़ी काकी को उनकी निर्लज्जता के लिये दंड देने का निश्चय कर चुके थे। अकेली लाड़ली को काकी के लिए दुःख हो रहा था । लाड़ली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि काकी को पूड़ी क्यों नहीं देते। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाई थीं। एक पिटारी में रख ली थीं। 

रात के ग्यारह बजे थे।सब सो रहे थे।लाड़ली चुपके से उठी और अपनी पिटारी लेकर काकी के पास गई।काकी अपनी कोठरी में बेहोश सी पड़ी थी। जब चेत हुआ तो घरवालों की निर्दयता की बात सोचने लगी। सहसा किसी ने उसे उठाया। वह लाड़ली थी जो उनके लिये पूड़ी लाई थी। काकी ने पूछा क्या अम्मा ने दी हैं। लाड़ली ने बताया कि उसके हिस्से की हैं काकी ने पूड़ियाँ खा लीं पर पेट नहीं भरा। वह लाड़ली से बोली कि मुझे वहाँ ले चल जहाँ मेहमानों ने भोजन किया है। लाड़ली बिना अभिप्राय समझे काकी को वहाँ ले गई। काकी जूठी पत्तलों में से पूड़ी और कचोड़ियों के टुकड़े बीन-बीन कर खाने लगी। काकी को यह तो मालूम था कि जो काम वह कर रही है, वह उचित नहीं, लेकिन क्षुधातुर काकी अपने को रोक न सकी।
 
ठीक उसी समय रूपा की आँखें खुलीं। देखा तो लाड़ली वहाँ न थी। वह उठकर खड़ी हुई तो क्या देखती है कि लाड़ली आँगन में खड़ी है और बूढ़ी काकी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठाकर खा रही है। रूपा का हृदय सन्न रह गया। किसी गाय की गर्दन पर छुरी चलते देख जो अवस्था उसकी होती है, वही उस समय हुई। एक ब्राह्मणी दूसरों की जूठी पत्तल टटोले, इससे अधिक शोकमय दृश्य असम्भव था । यह दृश्य था जिसे देखकर देखने वालों के हृदय काँप उठते हैं। उसकी आँखें भर आईं। उसने सच्चे हृदय से गगन-मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा-'परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दण्ड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।
 
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न देख पड़े थे। सोचने लगी कि कितनी निर्दय है वह ! जिस काकी की सम्पत्ति से दो सौ रुपए की वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति। रूपा ने दिया जलाया, अपने भंडार का ताला खोला और थाली में सम्पूर्ण सामग्रियाँ सजाकर लिए बूढ़ी काकी की ओर चली। बूढ़ी काकी अपने सामने थाल देखकर बहुत प्रसन्न हुई । रूपा ने उससे कहा-काकी उठो ! भोजन कर लो, मुझसे बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना। परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।
 
भोले-भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाते हैं, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भूलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी। उसके एक-एक रोयें से सच्ची सदिच्छाएँ निकल रही थीं।
 

प्रेमचन्द लेखक का परिचय

प्रेमचन्द का जन्म 31 जुलाई 1880 को बनारस के निकट लमही गाँव में हुआ था। इनके बचपन का नाम धनपत राय था। इनके पिता अजायबराय डाकखाने में काम करते थे। बचपन में ही इनकी माता की मृत्यु हो गई। इनका बचपन संघर्षों में बीता। सन् 1919 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करके अध्यापन का कार्य किया। गाँधीजी के कार्यों से प्रभावित होकर 1920-21 में ये 'असहयोग आन्दोलन' से जुड़ गए। सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया। इन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'हंस' और 'जागरण' नामक पत्र निकाले। इनका निधन 8 अक्टूबर 1936 को बनारस में ही हुआ।
 
इनके लेखन पर गाँधीवादी विचारधारा का प्रभाव है। इनकी कहानियाँ मानसरोवर (आठ भाग) में प्रकाशित हैं। 'निर्मला', 'गोदान', 'गबन', 'कर्मभूमि', 'रंगभूमि' आदि प्रेमचंद के उल्लेखनीय उपन्यास हैं। कहानियों के क्षेत्र में भी प्रेमचन्द आदर्श से यथार्थ की ओर अग्रसर हुए।
 

बूढ़ी काकी कहानी के प्रमुख पात्र प्रेमचंद

'बूढ़ी काकी' प्रेमचन्द की यथार्थ जीवन को चित्रित करने वाली कहानी है, जिसमें उन्होंने आदर्श को नहीं छोड़ा है।प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी में चित्रित पात्र कहानी को गहराई और यथार्थवादिता प्रदान करते हैं। ये पात्र न केवल कहानी को आगे बढ़ाते हैं, बल्कि समाज के विभिन्न पहलुओं को भी उजागर करते हैं। बूढ़ी काकी, बुद्धिराम, रूपा और अन्य पात्र कहानी को एक यादगार अनुभव बनाते हैं। कहानी के प्रमुख पात्रों का विश्लेषण निम्नलिखित है - 

बूढ़ी काकी का चरित्र चित्रण

प्रेमचंद की कहानी बूढ़ी काकी एक ऐसा साहित्यिक रत्न है जो बुढ़ापे, अकेलेपन और मानवीय भावनाओं की गहराई को बड़ी मार्मिकता से उजागर करता है। कहानी में चित्रित बूढ़ी महिला एक ऐसा पात्र है जो भारतीय समाज में बुढ़ापे की वास्तविकता को बड़ी बेबाकी से सामने लाती है।कहानी की शुरुआत में ही हमें बताया जाता है कि काकी की सभी इंद्रियाँ जवाब दे चुकी हैं। वे पृथ्वी पर पड़ी रहती हैं और उनके पास सिर्फ रोने के अलावा कोई और सहारा नहीं बचा है। उनकी शारीरिक कमजोरी उनकी निर्भरता और लाचारी को दर्शाती है।

काकी का रोना-सिसकना साधारण रोना नहीं होता। वे गला फाड़-फाड़कर रोती हैं। यह उनकी मनोवैज्ञानिक कमजोरी और अकेलेपन का प्रतीक है। बुढ़ापे में मिलने वाला अपमान और उपेक्षा उनके मन को गहरा जख्म देती है।भोजन काकी के लिए जीवन का एकमात्र आनंद बन गया है। वे भोजन के समय का बेसब्री से इंतजार करती हैं और थोड़ी सी भी कमी होने पर रोने लगती हैं। यह उनकी बचपन की यादों और भोजन के माध्यम से मिलने वाले सुख की तलाश को दर्शाता है।काकी को अपने बच्चों से प्यार और स्नेह की उम्मीद होती है, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। वे अपने बच्चों से वह प्यार और सम्मान पाने की आस लगाए रहती हैं जो उन्हें मिलना चाहिए।काकी का परिवार उन्हें उपेक्षा करता है और उन्हें अकेला छोड़ देता है। वे घर में एक बोझ की तरह महसूस करती हैं। यह बुजुर्गों के प्रति समाज का रवैया और परिवार में उनके स्थान को दर्शाता है।

प्रेमचंद ने बूढ़ी काकी के माध्यम से बुजुर्गों के प्रति समाज के रवैये पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने दिखाया है कि कैसे बुढ़ापे में इंसान को अकेला और बेबस महसूस होता है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने हमें बुजुर्गों के प्रति सम्मान और करुणा रखने की सीख दी है।"बूढ़ी काकी" सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज का एक आईना भी है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि बुढ़ापा जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा है और बुजुर्गों का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। आज भी हमारे समाज में कई बुजुर्ग अकेलेपन और उपेक्षा का जीवन जी रहे हैं। प्रेमचंद की यह कहानी हमें उनके प्रति संवेदनशील बनने और उनकी देखभाल करने के लिए प्रेरित करती है।

बूढ़ी काकी का चरित्र प्रेमचंद की साहित्यिक कृतियों में एक महत्वपूर्ण पात्र है। यह पात्र हमें बुढ़ापे, अकेलेपन, उपेक्षा और मानवीय भावनाओं के बारे में गहराई से सोचने पर मजबूर करता है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि जीवन का हर पड़ाव महत्वपूर्ण है और हमें हर व्यक्ति को सम्मान के साथ देखना चाहिए।

बुद्धिराम का चरित्र चित्रण

पं. बुद्धिराम बूढ़ी काकी का भतीजा था। काकी ने अपनी सारी जायदाद बुद्धिराम के नाम लिख दी थी। सम्पत्ति लिखाते समय बुद्धिराम ने खूब लम्बे-चौड़े वायदे किये थे, लेकिन बाद में काकी को भरपेट भोजन भी कठिनाई से मिलता था। इसका तात्पर्य है कि वह अपनी बात के पक्के नहीं थे उनके हृदय में कपट था ।
 
वह स्वभाव के सज्जन थे, किन्तु उसी समय तक जब तक कि उनके कोष पर कोई आँच न आए। वह काकी पर अत्याचार करते थे और कभी-कभी उस पर खेद भी होता था क्योंकि काकी की सम्पत्ति के कारण ही वह भलमानुष बन बैठे थे। वह स्वभाव के क्रोधी भी थे। यहाँ तक कि द्वार पर कोई भला आदमी बैठा होता और बूढ़ी काकी उस समय अपना राग अलापने लगती तो वह आग-बबूला हो जाते और घर में आकर उन्हें जोर से डाँटते । काकी के प्रति बुद्धिराम के दुर्व्यवहार की हद ही हो गई जब उन्होंने बूढ़ी काकी को मेहमानों के सामने से दोनों हाथ पकड़कर घसीटते हुए ले जाकर उनकी कोठरी में पटक दिया।

लाड़ली का चरित्र चित्रण

लाड़ली बुद्धिराम की छोटी बेटी थी। वह बूढ़ी काकी को प्रेम करती थी। जब भी उसे कुछ खाना होता, वह काकी के पास आकर ही खाती थी। उसे न्याय-अन्याय का ज्ञान नहीं था, लेकिन वह इतना समझती थी कि काकी के साथ उसके माँ-बाप का व्यवहार बुरा है। वह सीधी और भोली-भाली बालिका थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाड़ली को बहुत दुःख हुआ। वह झुंझला रही थी कि वह लोग काकी को बहुत सी पूड़ियाँ क्यों नहीं दे देते ? उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ काकी के लिए एक पिटारी में बंद कर रख ली थीं।
 
वह अकेले कहीं जाने में डरती थी। वह जब काकी के पास चली तो यह सोचकर डर गई कि सामने वाले नीम के पेड़ पर हनुमानजी बैठे हैं। इतने में सामने बैठा हुआ कुत्ता उठ बैठा तो लाड़ली का डर कम हुआ। वह काकी को पूड़ी खिलाने ले गई। फिर काकी ने उससे वहाँ चलने को कहा जहाँ जूठी पत्तलें पड़ी हैं। लाड़ली इतनी अबोध थी कि काकी का वहाँ चलने का अभिप्राय न समझ पाई और उन्हें वहाँ ले आई।

बूढ़ी काकी कहानी की पात्र रूपा का चरित्र चित्रण

रूपा पंडित बुद्धिराम की पत्नी है। उसकी चचेरी सास बूढ़ी काकी उसके ही पास उसके घर में ही रहती थी। रूपा पति-परायण स्त्री थी। कहने का तात्पर्य है कि अपने पति के कहने में ही चलती थी। बूढ़ी काकी ने अपनी पूरी जायदाद अपने भतीजे बुद्धिराम के नाम लिख दी थी। बुद्धिराम ने रजिस्ट्री के समय काकी से लम्बे-चौड़े वायदे किए थे। लेकिन बाद में दोनों इस बात को भूल गए। अब हालत यह थी कि बूढ़ी काकी को पेट- भर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। रूपा स्वभाव से तेज थी। जो कुछ मुँह पर आता स्पष्ट कह देती थी। काकी रूपा से डरती थी। इसका एक उदाहरण लेखक के शब्दों में देखिए- 'काकी क्रोधातुर होकर बच्चों को गालियाँ देने लगती तो रूपा घटनास्थल पर आ पहुँचती । इस भय से काकी अपनी जिह्वा-कृपाण का कदाचित ही प्रयोग करती थीं, यद्यपि उपद्रव-शान्ति का यह उपाय रोने से कहीं अधिक उपयुक्त था।'
 
रूपा घर के काम-काज में और व्यस्त रहते हुए भी घर के सभी कार्यों पर दृष्टि रखने में कुशल थी और गृहणी के उत्तरदायित्व को निभाने वाली थी। बेटे के तिलक के समय वस्तुओं के लेन-देन से लेकर मेहमानों के भोजन बनने का पूरा प्रबन्ध रूपा ने ही किया। वह अत्यन्त व्यस्त रही। घर के नफा-नुकसान का भी वह ध्यान रखती थी। कभी-कभी वह अधिक काम के कारण झुंझला भी जाती थी, लेकिन काम को पूरा करती थी। देखिए -'रूपा उस समय कार्य-भार से उद्विग्न हो रही थी। कभी इस कोठे में जाती, कभी उस कोठे में, कभी कड़ाह के पास आती, कभी भंडार में जाती। किसी ने बाहर से आकर कहा- "महाराज ठंडाई माँग रहे हैं।" ठंडाई देने लगी। इतने में फिर किसी ने आकर कहा- "भाट आया है उसे कुछ दे दो।" भाट के लिए सीधा निकाल दी कि एक तीसरे आदमी ने आकर पूछा - " अभी भोजन तैयार होने में कितना विलम्ब है ? जरा ढोल मंजीरा उतार दो।" बेचारी अकेली स्त्री दौड़ते-दौड़ते व्याकुल हो रही थी, झुंझलाती थी, कुढ़ती थी, परन्तु क्रोध करने का अवसर न पाती थी।' लेखक के इस कथन से स्पष्ट होता है कि रूपा के जिम्मे घर व उत्सव का पूरा काम था। उसके अन्दर नारी सुलभ लक्षण व्याकुलता, झुंझलाहट और कुढ़न मौजूद थे। उसे पानी पीने का भी अवकाश नहीं था। वह मन में सोचती थी कि जरा आँख हटी और चीजों की लूट मची। इसलिए हर स्थान पर नजर रखना उसका काम था।
 
वह स्वभाव से क्रोधी थी। एक बार किसी बात पर क्रोध आ जाय तो फिर जिह्वा पर उसका अधिकार नहीं रहता था। बूढ़ी काकी पूड़ियों की खुशबू सूँघकर अपने पर काबू न रख सकी और कोठरी से निकलकर कढ़ाह के पास आ बैठी जहाँ पूड़ियाँ सिक रही थीं। यदि रूपा काकी का जरा भी सम्मान करती होती तो धीरे से अपनी बात नम्रता से कह देती। उसका उग्र रूप और कटुतापूर्ण भाषण देखिए। जिस प्रकार मेंढक केंचुए पर झपटता है, उसी प्रकार वह बूढ़ी काकी पर झपटी और दोनों हाथों से झटककर बोली- "ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़ ? कोठरी में बैठते हुए दम घुटता था ? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य नहीं हो सका ? आकर छाती पर सवार हो गई। जल जाए ऐसी जीभ । दिन-भर खाती न होती तो न जाने किस हाँडी में मुँह डालती ? तुम कोई देवी नहीं हो कि चाहे किसी के मुँह में पानी न जाए, परन्तु तुम्हारी पूजा पहले हो जाए।"
 
रूपा का हृदय कठोर था। उसका पति भी कठोर हृदय था। दोनों अपने घर की बूढ़ी काकी का बात-बात पर तिरस्कार करते थे। सभी मेहमान, घर के नौकर-चाकर सभी भोजन कर चुक थे, लेकिन बूढ़ी काकी को किसी ने नहीं पूछा। वह भूखी अपनी कोठरी में बैठी बुलावे का इन्तजार करती रही। रूपा और बुद्धिराम दोनों काकी को दण्ड देने का निश्चय कर चुके थे। काकी के शब्दों में देखिए- यदि आँगन में चली गई तो क्या बुढ़िया से इतना कहते न बनता था कि काकी अभी लोग खा रहे हैं, फिर भी मुझे घसीटा, पटका। उन्हीं पूड़ियों के लिए रूपा ने सबके सामने गालियाँ दीं। उन्हीं पूड़ियों के लिए इतनी दुर्गति करने पर भी उनका पत्थर कलेजा नहीं पसीजा। सबको खिलाया, मेरी बात तक न पूछी। जब तब ही न दी, तो अब क्या देंगे?

रूपा की स्वार्थपरता और अन्याय बूढ़ी काकी के प्रति स्पष्ट दिखाई देते हैं। काकी की जायदाद से ही रूपा को दो सौ रूपए वार्षिक की आय हो रही थी। रूपा अपनी गलती का अहसास करने वाली और ईश्वर से डरने वाली महिला थी। जब उसने अपनी चचेरी सास को झूठी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठाकर खाते देखा तो रूपा के हृदय-चक्षु खुले उसे अपनी स्वार्थपरता और अन्याय का आभास हुआ इस पर उसे क्रोध नहीं आया, बल्कि करुणा उमड़ पड़ी और आँखें गीली हो गईं। वही कठोर रूपा इस दृश्य को देखकर अति विनम्र हो गई। करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है? उसने सच्चे हृदय से गगन -मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा- परमात्मा मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।
 
उसने सच्चे हृदय से अपनी गलतियों का पश्चाताप किया और ईश्वर से क्षमा मांगी। फिर उसने थाल सजाकर बूढ़ी काकी को भोजन कराया। उसी के शब्दों में देखिए- काकी उठो, भोजन कर लो मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना । परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे। 

अन्त में हम कह सकते हैं कि रूपा इस कहानी में बूढ़ी काकी के बाद दूसरा प्रमुख पात्र है । वह पति-परायण घर के काम-काज में कुशल, स्वभाव की तेज व क्रोधी, स्वार्थपरता ओर अन्याय का पक्ष लेने वाली, अपनी गलतियों का पश्चाताप करने वाली, कठोर हृदय लेकिन बाद में सहानुभूतिपूर्ण, ईश्वर से डरने वाली महिला है। 

बूढ़ी काकी कहानी का उद्देश्य

प्रेमचंद की कहानी "बूढ़ी काकी" सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज का एक आईना है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने बुढ़ापे, अकेलेपन और मानवीय रिश्तों की गहराई को बड़ी मार्मिकता से उजागर किया है। कहानी का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना नहीं है, बल्कि पाठकों को सोचने पर मजबूर करना, समाज में व्याप्त कुरीतियों को उजागर करना और मानवीय मूल्यों को पुनर्जीवित करना है।

"बूढ़ी काकी" में प्रेमचंद ने एक वृद्ध महिला के जीवन को केंद्र में रखकर बुढ़ापे की उस पीड़ा को बड़ी करुणा से चित्रित किया है, जो अक्सर अनदेखी हो जाती है। बूढ़ी काकी अपने बच्चों से प्यार और सम्मान की आस लगाए रहती हैं, लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगती है। उन्हें भोजन और पानी तक के लिए तरसना पड़ता है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने समाज में बुजुर्गों के प्रति रवैये पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने दिखाया है कि कैसे बुढ़ापे में इंसान को अकेला और बेबस महसूस होता है।

कहानी का एक और महत्वपूर्ण उद्देश्य परिवार के बंधनों के महत्व को उजागर करना है। बूढ़ी काकी के परिवार के सदस्य स्वार्थी और पाखंडी हैं। वे बूढ़ी काकी की देखभाल करने के बजाय अपनी स्वार्थपूर्ति में लगे रहते हैं। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने हमें याद दिलाया है कि परिवार के सदस्यों को एक-दूसरे का ख्याल रखना चाहिए।

"बूढ़ी काकी" में प्रेमचंद ने मानवीय मूल्यों जैसे करुणा, दया और सम्मान के महत्व को भी उजागर किया है। बूढ़ी काकी के प्रति उसके परिवार का व्यवहार इन मूल्यों के अभाव को दर्शाता है। इस कहानी के माध्यम से प्रेमचंद ने हमें इन मूल्यों को अपने जीवन में अपनाने का संदेश दिया है।

यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि बुढ़ापा जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा है और बुजुर्गों का सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। हमें उन्हें अकेला और बेबस नहीं छोड़ना चाहिए, बल्कि उनकी देखभाल करनी चाहिए।

कहानी का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह समाज में व्याप्त कुरीतियों को उजागर करती है। बुढ़ी काकी के साथ जो व्यवहार किया जाता है, वह समाज में व्याप्त स्वार्थ, पाखंड और लालच का प्रतीक है। प्रेमचंद ने इस कहानी के माध्यम से इन कुरीतियों की निंदा की है और हमें एक बेहतर समाज बनाने के लिए प्रेरित किया है।

"बूढ़ी काकी" एक ऐसी कहानी है जो हमें जीवन के मूल्यों के बारे में सोचने पर मजबूर करती है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि हमें बुजुर्गों का सम्मान करना चाहिए और उनके साथ दया और करुणा का व्यवहार करना चाहिए। यह कहानी हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करती है।

संक्षेप में, "बूढ़ी काकी" एक मार्मिक कहानी है जो समाज में बुजुर्गों की दयनीय स्थिति, परिवार के बंधनों के महत्व, मानवीय मूल्यों और सामाजिक कुरीतियों को उजागर करती है। यह कहानी हमें जीवन के मूल्यों के बारे में सोचने पर मजबूर करती है और हमें एक बेहतर इंसान बनने के लिए प्रेरित करती है।

बूढ़ी काकी कहानी के प्रश्न उत्तर प्रेमचंद

प्रश्न. 'प्रेमचन्द की कहानी-कला व्यक्ति के मन को बदलना चाहती है, इस तरह वे आदर्शवाद के कवि हैं। बूढ़ी काकी कहानी के माध्यम से स्पष्ट कीजिए।
 
उत्तर - उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में प्रेमचन्द ने प्रत्येक वर्ग के पाठक को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले साहित्य का सृजन किया। वे जितने बड़े उपन्यासकार थे उतने ही बड़े कहानीकार थे। कथा-साहित्य के क्षेत्र में युगान्तकारी परिवर्तन करने वाले कथाकार तथा भारतीय समाज के सजग प्रहरी व सच्चे प्रतिनिधि साहित्यकार थे । सुप्रसिद्ध साहित्यकार द्वारका प्रसाद सक्सेना ने मुंशी प्रेमचन्द के संदर्भ में लिखा है-
 
"हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचन्द का आगमन एक ऐतिहासिक घटना थी। उनकी कहानियों में ऐसी घोर यन्त्रणा, दुःखद गरीबी, असह्य दु:ख, महान स्वार्थ और मिथ्या आडम्बर आदि से तड़पते हुए व्यक्तियों की अकुलाहट मिलती है, जो मन को कचोट जाती है और हमारे हृदय में टीस पैदा करती है।"
 
आदर्शवाद का अर्थ है नैतिक मानदण्डों के अनुरूप चित्रण अर्थात् जैसा होना चाहिए वैसा ही चित्रण करना। किसी समस्या या घटना का यथातथ्य चित्रण ही पर्याप्त नहीं होता, वरन् लेखक का दायित्व यह भी है कि वह नैतिक मानदण्डों के आधार पर उस समस्या का समाधान भी बताए। घटनाएँ नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा करने वाली होनी चाहिए। पात्रों के चरित्र में नैतिक मानदण्डों एवं मूल्यों की आधारभूमि होनी चाहिए। आदर्शवाद में सम्भाव्य स्थितियाँ ही होती हैं। प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं में आदर्शवाद को प्रधानता दी है। प्रेमचन्द प्रगतिशील कहानीकार हैं। उन्होंने शोषित, पीड़ित और दलितों की हिमायत ली है। उनका उद्देश्य शोषणहीन समाज की स्थापना करना है। प्रेमचन्द स्वयं अपने आपको आदर्शोन्मुख यथार्थवादी घोषित करते हैं। 

प्रस्तुत कहानी बूढ़ी काकी में प्रेमचन्द ने नैतिक मूल्यों का निर्वाह करने की कोशिश की है, लेकिन कभी-कभी स्वार्थ और अहम् नैतिक मूल्यों पर हावी होकर मनुष्य को कठोर और अन्यायी बना देता है। जैसे बुद्धिराम और रूपा का काकी के प्रति व्यवहार कठोर एवं द्वेषपूर्ण है। बूढ़ी काकी अपने भतीजे के साथ रहती थीं। काकी ने अपनी जायदाद बुद्धिराम के नाम लिख दी थी। उस समय उन्होंने बड़े लम्बे-चौड़े वायदे किए थे, लेकिन अब काकी को पेटभर भोजन भी कठिनाई से मिलता था। बुद्धिराम को कभी-कभी अपने अत्याचार पर खेद भी होता, लेकिन फिर भूल जाते। बुद्धिराम के लड़के का तिलक आया था, तो सभी मेहमानों ने भोजन किया, सभी नौकर-चाकरों ने भोजन किया, लेकिन बूढ़ी काकी को किसी ने नहीं पूछा। केवल छोटी लड़की लाड़ली उनके लिये अपने हिस्से की पूड़ी लेकर गई। काकी का पेट नहीं भरा तो काकी लाड़ली को साथ लेकर वहाँ पहुँची जहाँ जूठी पत्तलें पड़ी थीं। काकी जूठन उठा-उठाकर खाने लगी। रूपा ने जब यह दृश्य देखा तो वह काँप गई कि एक ब्राह्मणी दूसरों की जूठी पत्तल टटोले । पूड़ियों के कुछ ग्रासों के लिये उसकी चचेरी सास ऐसा पतित और निकृष्ट कर्म कर रही है। प्रेमचंद के शब्दों में देखिए - "ऐसा प्रतीत होता मानों जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई विपत्ति आने वाली है। रूपा को क्रोध न आया। शोक के सम्मुख क्रोध कहाँ ? करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है ? उसने सच्चे हृदय से गगन-मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा-परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।'
 
रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्ष रूप में कभी न देख पड़े थे। उसका हृदय परिवर्तन हुआ और सभी खाद्य सामग्रियों का थाल सजाकर काकी के पास ले गई और बड़े प्रेम से उसे खिलाया। काकी मन ही मन उसे आशीर्वाद दे रही थी।
 
कितना सजीव चित्रण प्रेमचन्द जी ने किया है। बच्चों और बूढ़ों के मनोवैज्ञानिक लक्षण भी इस कहानी में बताए हैं। यह कहानी यथार्थवाद पर खरी उतरती है। ऐसा समाज में देखने को मिलता है। समाज में क्या हो रहा है और क्या होना चाहिए, दोनों स्थितियों का सजीव वर्णन इस कहानी में किया गया है ।

प्रश्न. वृद्धावस्था में कल्पना की उड़ान बाल मन के समान चंचल हो उठती है। 'बूढ़ी काकी' का चरित्र इसका सजीव उदाहरण है। स्पष्ट कीजिए।
 
उत्तर- वृद्धावस्था में कल्पना की उड़ान बाल मन के समान चंचल हो उठती है। बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है। बूढ़ी काकी में जिह्वा-स्वाद के सिवाय और कोई चेष्टा शेष न थी और न अपने कष्टों की ओर आकर्षित करने का, रोने के अतिरिक्त कोई दूसरा सहारा ही। उनके पतिदेव को मरे बहुत समय हो चुका था। अब वह अपने भतीजे बुद्धिराम के साथ रहती है। जायदाद अपने भतीजे के नाम लिख दी। अब पेटभर भोजन भी मिलने में कठिनाई हो रही थी । लड़कों को बुड्ढों से स्वाभाविक विद्वेष होता ही है और फिर माता-पिता का रंग देखते तो वे बूढ़ी काकी को और भी सताते। काकी से बुद्धिराम की छोटी बेटी लाड़ली को प्रेम था। वह अपनी खाने की चीजें वहीं आकर खाती। 
बूढ़ी काकी की कल्पना की उड़ान देखिए-बूढ़ी काकी अपनी कोठरी में शोकमय विचार की भाँति बैठी हुई थी। वह स्वाद- मिश्रित सुगन्ध उन्हें बेचैन कर रही थी। वे मन- ही-मन विचार कर रही थीं। सम्भवतः मुझे पूड़ियाँ न मिलेंगी। इतनी देर हो गई, कोई भोजन लेकर नहीं आया। मालूम होता है सब लोग भोजन कर चुके हैं। मेरे लिये कुछ न बचा। यह सोचकर उन्हें रोना आया; परन्तु अशकुन के भय से वह रो न सकी। उसे सन्तोष नहीं हो रहा था। उसकी कल्पना में पूड़ियों की तस्वीर नाचने लगी। खूब लाल-लाल, फूली फूली नरम-नरम होंगी। रूपा ने भली-भांति भोजन दिया होगा। कचौड़ियों में अजवाइन और इलाइची की महक आ रही होगी। उसने सोचा कि क्यों न चलकर कड़ाह के सामने ही बैठूं । तुरन्त ही वह कड़ाह के पास पहुँच गई। यहाँ आने पर उन्हें थोड़ा-सा धैर्य हुआ। लेकिन रूपा बूढ़ी काकी को कड़ाह के पास देखकर जल गई। वह उन्हें दोनों हाथों से झटककर बोली- "ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़ ? कोठरी में बैठते हुए दम घुटता था ? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान को भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य न हो सका ? आकर छाती पर सवार हो गई।" इस अपमानजनक डाँट को सुन काकी चुपचाप अपनी कोठरी में लौट गई। कितनी दुःखद स्थिति है बुजुर्गों की । प्रेमचन्द जानते थे कि परिवारों में ऐसा ही होता है। वृद्धों की इस प्रकार की उपेक्षा असहनीय थी ।अपनी भूख और स्वादेन्द्रिय के वश में होकर काकी यह भी भूल गई कि वह एक ब्राह्मण है और जूठी पत्तलों में से पूड़ियों के टुकड़े उठाकर खा रही है। इसमें सम्पूर्ण दोष बुद्धिराम और रूपा का है। वृद्धों की सेवा ईश्वर सेवा है। अन्त में यह दृश्य देखकर रूपा का हृदय परिवर्तन हुआ। वह भी भगवान के कोप से डरकर । उसके इस अपराध का ईश्वर दंड न दे इसलिए थाली सजाकर बूढ़ी काकी के पास गई और उसे प्रेम से भोजन कराया। उसने काकी से प्रार्थना भी की-"काकी उठो, भोजन कर लो, मुझसे आज बड़ी भूल हुई। उसका बुरा न मानना । परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।" काकी सब कुछ भूलकर उसे आशीर्वाद दे रही थी।
 
प्रश्न. 'सम्मान की रक्षा के लिए आतिथ्य-भोज के स्थान पर अपने बड़ों का सम्मान करना अधिक बेहतर है।' कहानी के आधार पर इस कथन को सिद्ध कीजिए ।
 
उत्तर - प्रस्तुत कथन 'सम्मान की रक्षा के लिए आतिथ्य-भोज के स्थान पर अपने बड़ों का सम्मान करना अधिक बेहतर है' अक्षरक्षः सत्य है। जिस परिवार में वृद्धों की सेवा होती है, वे परिवार फलते-फूलते दिखाई देते हैं और जहाँ वृद्धों का अपमान होता है वे परिवार ईश्वर के कोप का भाजन बनते हैं। वृद्धजन सबसे पहले पूज्य हैं। उनके ही कारण हम संसार में कुछ करने लायक बने हैं। संयुक्त परिवार जब तक थे, तब तक तो वृद्धों की कुछ पूछ होती थी, लेकिन जब से परिवार विभाजित हुए हैं, वहाँ तो वृद्धों के लिए कोई स्थान ही नहीं है। इसी परम्परा के कारण जगह-जगह वृद्धाश्रम बनाए जा रहे हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति तो इस बात की इजाजत नहीं देती कि वृद्ध परिवार से अलग रहें । वृद्ध और बच्चे स्वभाव से एक जैसी इच्छाओं वाले होते हैं। जैसे बच्चे को खाने के लिए नई-नई चीजें चाहिए उसी प्रकार वृद्ध भी वैसी ही अपेक्षा रखते हैं। बच्चे जिस प्रकार अपने अस्तित्व का सम्मान चाहते हैं उसी प्रकार वृद्ध भी अपने अस्तित्व का सम्मान चाहते हैं। प्रस्तुत कहानी 'बूढ़ी काकी' में पंडित बुद्धिराम ने सैकड़ों मेहमानों और नौकर-चाकरों सभी को बड़े प्रेम से खिलाया, लेकिन अपनी वृद्धा ताई को भोजन नहीं कराया। भोजन तो छोड़िए सभी के सामने उसका अपमान किया। उसे आँगन में से खींच कर उसकी कोठरी में पटक आया। उसकी इस निर्दयता के लिए स्वर्ग में बैठे देवताओं ने क्या सोचा होगा। इसी तरह रूपा ने भी तिरस्कृत शब्दों में काकी से कहा-'ऐसे पेट में आग लगे, पेट है या भाड़ ? कोठरी में बैठते हुए दम घुटता था ? अभी मेहमानों ने नहीं खाया, भगवान का भोग नहीं लगा, तब तक धैर्य नहीं हो सका ? आकर छाती पर सवार हो गई।' इतना ही नहीं इसके आगे अन्य अपमानजनक शब्द कहे। बुढ़िया बेचारी चुपचाप अपनी कोठरी की तरफ लौट गई।
 
इस विडम्बना को क्या कहेंगे कि मेहमानों को तो सादर बिठाल कर प्रेम से भोजन कराया जा रहा है, लेकिन घर की बुजुर्ग अपमानित की जाती है और भूखी बैठी है। हमारी संस्कृति तो यह कहती है कि पहले घर के बुजुर्ग को भोजन कराएं फिर मेहमान को भोजन कराएं। यदि ऐसा न कर सकें तो मेहमानों के साथ ही उसे खिला दें। बुजुर्ग की आत्मा से जो आशीर्वाद निकलता है उसे ईश्वर पूरा करता है। बुजुर्गों की बद्दुआओं से बचें। जो अपना पूरा जीवन अपने बच्चों को समर्थ बनाने में लगा देते हैं उनकी बुढ़ापे में ऐसी दशा ! ईश्वर भी सब देखता है और उन परिवारों के लिये दण्ड भी निश्चित करता है जो अपने वृद्धों की सेवा नहीं करते उनका अपमान करते हैं। 

रूपा को इस बात का ज्ञान तब हुआ जब बूढ़ी काकी को उसने जूठी पत्तलों में से पूड़ियों के टुकड़े खाते देखा। उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानों जमीन रुक गई, आसमान चक्कर खा रहा है। संसार पर कोई विपत्ति आने वाली है। करुणा और भय से उसकी आँखें भर आईं। इस अधर्म के पाप का भागी कौन है ? उसने सच्चे हृदय से गगन-मंडल की ओर हाथ उठाकर कहा—‘परमात्मा, मेरे बच्चों पर दया करो। इस अधर्म का दंड मुझे मत दो, नहीं तो मेरा सत्यानाश हो जाएगा।' रूपा को अपनी स्वार्थपरता और अन्याय इस प्रकार प्रत्यक्षरूप में कभी न देख पड़े थे। वह सोचने लगी- 'मैं कितनी निर्दय हूँ ! जिसकी सम्पत्ति से मुझे दो सौ रुपया वार्षिक आय हो रही है, उसकी यह दुर्गति ! और मेरे कारण ! हे दयामय भगवान मुझसे बड़ी भारी चूक हुई है, मुझे क्षमा करो।'
 
उसका हृदय परिवर्तन हुआ और खाद्य सामग्री का थाल सजाकर काकी के पास ले गई और बोली-‘काकी उठो ! भोजन कर लो, मुझसे आज बड़ी भूल हुई, उसका बुरा न मानना । परमात्मा से प्रार्थना कर लेना कि वह मेरा अपराध क्षमा कर दे।'

भोले-भाले बच्चों की भाँति काकी भी सब भुलाकर खाना खा रही थी और उसके मन से आशीर्वाद निकल रहा था। रूपा को इस समय सच्चा आनन्द प्राप्त हो रहा था। 

प्रश्न. लाड़ली को बूढ़ी काकी से विशेष लगाव था, उदाहरण सहित उत्तर दीजिए ।
 
उत्तर - सम्पूर्ण परिवार में यदि काकी से किसी को प्रेम था, तो वह बुद्धिराम की छोटी लड़की लाड़ली थी। लाड़ली अपने छोटे भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई, चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाया करती थी। यह जगह उसकी रक्षागार थी । यद्यपि यहाँ पर आकर काकी को भी हिस्सा देना पड़ता था, लेकिन भाइयों के अन्याय से कहीं सुलभ था। इसी स्वार्थानुकूलता ने उन दोनों में सहानुभूति का आरोपण कर दिया था।
 
बुद्धिराम के बेटे का तिलक आया था तो मेहमानों के लिये स्वादिष्ट भोजन बन रहा था। उसकी सुगन्ध काकी की कोठरी तक पहुँच रही थी। पूड़ी-कचौड़ियों का स्वाद स्मरण करके काकी के हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। अब काकी लाड़ली को याद करती है कि यदि लाड़ली आ गई होती तो उससे मालूम हो जाता कि क्या-क्या बन रहा है। बूढ़ी काकी दो बार बाहर गई तो एक बार तो रूपा ने अपशब्द बोलकर उसे भगा दिया और दूसरी बार बुद्धिराम ने दोनों हाथ पकड़ कर खींच कर कोठरी में पटक दिया। लाड़ली बहुत छोटी थी। वह यह नहीं समझ पा रही थी कि बूढ़ी काकी को भोजन क्यों नहीं दे रहे हैं जबकि सब लोग बाहर बैठकर भोजन कर रहे हैं। रूपा और बुद्धिराम काकी को उनकी निर्लज्जता के लिये दण्ड देने का निश्चय कर चुके थे। उनके बुढ़ापे पर, दीनता पर, हतज्ञान पर किसी को करुणा न हुई थी। अकेली लाड़ली काकी के लिए कुढ़ रही थी। लाड़ली को काकी से अत्यन्त प्रेम था। बेचारी भोली लड़की थी। बाल-विनोद और चंचलता की उसमें गंध तक न थी। दोनों बार जब उसके माता-पिता ने काकी को निर्दयता से घसीटा तो लाड़ली को बहुत दुःख हुआ। वह झुंझला रही थी कि यह लोग क्यों काकी को बहुत-सी पूड़ियाँ नहीं दे देते ? मेहमान सबकी सब खा जाएँगे ? यदि काकी ने मेहमानों से पहले खा लिया तो क्या बिगड़ जायेगा ? वह काकी के पास जाकर उन्हें धीरज देना चाहती थी, परन्तु माता-पिता के भय से न जाती थी। उसने अपने हिस्से की पूड़ियाँ बिल्कुल न खाई थीं। उसने एक पिटारी में रख ली थीं।
 
रात के ग्यारह बजे जब सब सो रहे थे तब लाड़ली काकी के पास पहुँची और उन्हें पूड़ियाँ खाने को दीं। काकी का पेट नहीं भरा तो वह लाड़ली को लेकर वहाँ आई जहाँ मेहमानों की जूठी पत्तलें पड़ी थीं। लाड़ली उनका अभिप्राय न समझ सकी और काकी को वहाँ ले आई। काकी जूठी पत्तलों पर से पूड़ियों के टुकड़े उठाकर खाने लगी। अचानक रूपा की आँख खुल गई और उसने यह दृश्य देखा तो चौंक पड़ी। उसे क्रोध नहीं आया, बल्कि करुणा से हृदय भर गया। उसने ईश्वर से क्षमा माँगी और थाल सजाकर काकी के पास लाई और प्रेम से उसे भोजन कराया और प्रार्थना की कि वह परमात्मा से विनती करे कि वह उसे उसके अपराध का दण्ड न दें ।
 

प्रश्न. बूढ़ी काकी की तृष्णा का 50-60 शब्दों में चित्रांकन कीजिए।
 
उत्तर- बूढ़ी काकी की समस्त इन्द्रियाँ, नेत्र, हाथ, पैर जवाब दे चुके थे । जिह्वा-स्वाद के सिवाय और कोई चेष्टा शेष न थी। लाड़ली अपने दोनों भाइयों के भय से अपने हिस्से की मिठाई, चबेना बूढ़ी काकी के पास बैठकर खाती थी। यही उसका रक्षागार था, लेकिन काकी की शरण उनकी लोलुपता के कारण बहुत मँहगी पड़ती थी । बुद्धिराम के लड़के का तिलक आया था। भोजन बन रहा था। अपनी कोठरी में बैठी हुई भोजन के ही बारे में सोच रही थी। घी और मसालों की सुगंध रह-रहकर मन को आपे से बाहर किए देती थी। मुँह में पानी भर आता था। पूड़ियों का स्वाद स्मरण करके हृदय में गुदगुदी होने लगती थी। अन्य दृश्य में देखिए-मन ही मन इसी प्रकार का विचार कर वह बुलावे की प्रतीक्षा करने लगीं। परन्तु घी की रुचिकर सुबास बड़ी धैर्य-परीक्षक प्रतीत हो रही थी। उन्हें एक-एक पल एक-एक युग के समान मालूम होता था। जब रूपा थाली लगाकर लाई तो भोले-भाले बच्चों की भाँति, जो मिठाइयाँ पाकर मार और तिरस्कार सब भूल जाता है, बूढ़ी काकी वैसे ही सब भुलाकर बैठी हुई खाना खा रही थी।

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