दिव्या उपन्यास में दिव्या का चरित्र चित्रण यशपाल नायिका दिव्या, एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है। वह एक ऐसी महिला है जो अपने समय की सामाजिक सीमाओं से जूझ
दिव्या उपन्यास में दिव्या का चरित्र चित्रण
यशपाल का उपन्यास दिव्या भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। इस उपन्यास की नायिका दिव्या, एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है। वह एक ऐसी महिला है जो अपने समय की सामाजिक सीमाओं से जूझती है और अपने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करती है।
दिव्या समस्त कथा की धुरी है।उपन्यासकार ने दिव्या को विभिन्न स्थितियों में रखकर अपनी प्रगतिवादी विचारधारा को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है। वस्तुतः मारिश और दिव्या के माध्यम से उपन्यासकार अपनी विचारधारा को व्यक्त करना चाहता है, उसे सही सिद्ध करना चाहता है। दिव्या के अनेक रूप हैं- प्रपितामह तात धर्मस्थ के आश्रय में वह एक लज्जाशीला कलावंत कुलकन्या है। उसकी शिराओं में अभिजात कुल का सुसंस्कृत रक्त प्रवाहित है। धर्मस्थ के प्रासाद के वातावरण में पोषित दिव्या ज्ञान, कला और संस्कृति से उसी प्रकार रची-बसी हुई थी जिस प्रकार कमल जल से भीगा न रहने पर भी उसमें जल समाया रहता है पर उसने ज्ञान को शब्दों की अपेक्षा भावना में अधिक पाया था। प्रपितामह की छत्र-छाया में रहने वाली यह निश्छल, वर्ग-भेद से ऊपर, अल्हड़ बाला सागल की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी घोषित किए जाने पर 'सरस्वती पुत्री' का पुष्पकिरीट पाती है। उसकी कला विषम परिस्थितियों में भी शिथिल नहीं होती; रत्नप्रभा के समाज में वह मुक्तावली की त्रुटि को तुरन्त पहचान लेती है और स्वयं इतने वेग से नृत्य करती है कि वादक रोहित की अंगुलियाँ पिछड़ने लगती हैं। उसकी कला की प्रसिद्धि दूर-दूर तक पहुँचती है जिसके परिणामस्वरूप जिस समारोह में अंशुमाला के कला-प्रदर्शन की सूचना मिलती है, उसमें स्थान के लिए रसिकों में विवाद होता है, मार्गों की रक्षा और व्यवस्था के लिए राजपुरुषों की आवश्यकता पड़ती है।
रत्नप्रभा के यहाँ अंशुमाला के ही कारण पहले से दोगुना धन आने लगता है। अंत में वह निर्णय करती है कि वह भी देवी मल्लिका के समान कला की आराधना जीवन का लक्ष्य बनाकर अपना शेष जीवन कला के प्रति ही अर्पित कर देगी। इसलिए उसका एकांत समय कला के रहस्यों के चिन्तन और साधना में व्यतीत होता है। यद्यपि उपन्यास के अंत में वह मारिश के आश्रय के लिए भुजाएँ फैलाकर कला की उपासना से विरत होती प्रतीत होती है, पर आरम्भ से अंत तक वह कला की सजीव मूर्ति और उसकी अनन्य उपासिका ही है। उसके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं -
प्रणयिनी पूर्ण समर्पिता मुग्धाबाला
पृथुसेन के सम्पर्क में दिव्या विशुद्ध प्रेमिका है, पूर्णरूपेण समर्पिता युवती है। मधुपर्व के अवसर पर पृथुसेन को सर्वश्रेष्ठ खड्गधारी का पुष्प-मुकुट अर्पित करते समय उसने अपना हृदय भी उसे समर्पित कर दिया प्रतीत होता है, क्योंकि उसके तुरन्त बाद से ही उसका मन पृथुसेन से कुछ कहना चाहता था। क्या कहना चाहता था यह वह स्वयं भी ठीक न जानती थी। उसे भरा-पूरा प्रासाद सूना-सा जान पड़ता था। वह उसकी कल्पना में डूबी रहने लगी और जब कई दिन तक उसे पृथुसेन के दर्शन न हुए तो वह व्याकुल होकर मल्लिका के समाज में उसके दर्शनों की आशा से गयी। वहाँ भी उसके नेत्र पृथुसेन के आगमन तक द्वार पर लगे रहे, दृष्टि भटकती ही रही। पृथुसेन के महासेनापति बनने के कारण उसके अत्यन्त व्यस्त होने पर उसके दर्शनों के लिए मल्लिका और वसुमित्रा के प्रासादों के चक्कर काटना भी उसकी प्रणय-विकलता का प्रतीक है। होठों पर मुस्कान और हृदय में पीड़ा लिए जब वह निराश लौटती और एकांत में पड़ी रहती तो उसे महादेवी की प्रतारणा और उपालम्भ सुनने पड़ते। पर वह विवश थी। वह पृथुसेन से मिलने, उसके वक्ष में समा जाने को व्याकुल थी। इसलिए जब रण-प्रस्थान की पूर्व-रात्रि को वे मिले तो पृथुसेन के प्रति पूर्ण रूप से आत्म-समर्पित हो गयी। उसके लिए पृथुसेन संसार में सबसे अधिक अपना था, उस पर परिवार, समाज और स्वयं अपना सर्वस्व समर्पित करने को वह तत्पर थी तभी तो उसे पृथुसेन के प्रति परिवार के निरादरपूर्ण वचन बुरे लगते थे और प्रेम के कारण ही पृथुसेन सम्बन्धी दुष्कल्पनाओं से उसका शरीर सिहर उठता था। तांत्रिक से पृथुसेन के लिए महाशक्ति रक्षा कवच बनवाना भी उसके उत्कृष्ट प्रणय-भाव का प्रमाण है। इस प्रकार आत्म-समर्पण तक दिव्या को हम एक एक प्रणयिनी, पूर्ण समर्पिता मुग्धा बाला के रूप में पाते हैं।
वार मदर
द्वितीय महायुद्ध के बाद अंग्रेजी उपन्यासों में एक विशेष प्रकार की माताओं का चित्रण हुआ जिन्हें वार मदर्स कहा गया। ये स्त्रियाँ युद्ध के मोर्चे पर जाने वाले मृत्यु-मुखोन्गामी सैनिकों से झटपट प्रणय-सूत्र जोड़, उनका गर्भ धारण कर मातृत्व का पद प्राप्त कर लेती हैं। इनमें एक ओर मृत्यु के किनारे खड़ा सैनिक संतान के रूप अपनी अमरता स्थापित करने की इच्छा से स्त्री के प्रति उन्मुख होता है, दूसरी ओर स्त्री पुरुष की इस अव्यक्त इच्छा के प्रति सहानुभूतिपूर्वक देखती है और उसकी अंक -शायिनी हो उसके सत्त्व को गर्भ में धारण कर लेती है। डॉ. देवराज उपाध्याय ने दिव्या-पृथुसेन के यौन-सम्बन्ध को जिसके कारण वह गर्भ धारण करती है, इसी प्रकार का यौन-सम्बन्ध बताते हुए, दिव्या को वार मदर कहा है। पर दिव्या के आत्मसमर्पण के पीछे वार मदर मनोविज्ञान न होकर प्रणय-आकुलता और उसका मुग्धाभाव ही अधिक था।
संत्रस्त, निराश्रित एवं असहाय स्त्री
विशुद्ध प्रेमिका के बाद दिव्या के जिस स्वरूप का हम साक्षात्कार करते हैं, वह है उसका आश्रय के अभाव में संत्रस्त,निराश्रित, असहाय, निरवलंब स्त्री का रूप । वह माँ तो बनती हैं, परन्तु प्रेमी के विश्वासघात के कारण मातृत्व को भोग नहीं पाती। पृथुसेन के मर्मान्तक आघात से दिव्या किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाती है, वह विवेक खो बैठती है और एक बार पितामह का प्रासाद त्यागने के पश्चात् वहाँ न लौटने का निश्चय करती है। विवेकशून्य होते हुए भी उसका यह निर्णय अत्यन्त शोक-संतप्त, निराश, प्रवंचित और लांछन से आशंकित नारी का निश्चय था जिसने उसकी जीवनधारा को एकदम मोड़ दिया। गृह त्याग करने के निर्णय से पूर्व वह आर्य-नारी का दैन्य भी प्रकट करती है। वह सीरो के साथ सख्य-भाव से सपत्नीत्व भी स्वीकार करने को प्रस्तुत है-“गजराज की अनेक पत्नियाँ होती हैं, उसी प्रकार आर्य की भुजा के आश्रय में हम दोनों ही रहेंगी।" इतना ही नहीं वह समाज और परिवार द्वारा लांछित होने के स्थान पर पृथुसेन के यहाँ दासी-रूप में रहने को भी प्रस्तुत है- "आर्य के प्रासाद में बीसियों दासियाँ अनेक सेवा कार्यों के लिए हैं, क्या मेरे लिए वहाँ स्थान नहीं है।" यहाँ भारतीय आर्य-नारी का एकनिष्ठ सच्चा अनुराग एवं त्याग ही नहीं प्रकट होता, बल्कि उसमें आत्मिक दृढ़ता की कमी भी परिलक्षित होती है जो उसके आगामी आत्मतेज को देखकर क्षणिक दुर्बलता ही ठहरायी जायेगी।
वात्सल्यमयी माँ
दिव्या आश्रय की खोज में भटकती है और इस मार्ग में कई ठोकरें खाती है-दासी के रूप में बेची जाती है, अपना स्तन्य पिलाकर स्वामिनी के पुत्र की रक्षा करती है, पर अपने पुत्र को भूख से तड़पते न देख सकने और पुत्र-वियोग की आशंका से भागती है, धर्म-संघ में शरण खोजती है, वहाँ से प्रताड़ित होने पर वेश्या बनना चाहती है, पर वहाँ से भी तिरस्कृत होकर यमुना की शीतल धार में शरण लेना चाहती है। ये सब कष्ट वह इसलिए सहन करती है कि उसका हृदय माता का है जो अपनी संतान के लिए सब कुछ सहन करने को तैयार है। वह मरना नहीं चाहती, क्योंकि वह अपने प्रकृत प्रेम के अंश को साकार कर उसके आश्रय में जीना चाहती है। पुरोहित चक्रधर के घर बिकने पर वह दोनों नवजात शिशुओं को हृदय से लगाकर उनमें अन्तर न अनुभव करने का यत्न करती है, पर अपने पुत्र को क्षुधा-व्याकुल देखने में असमर्थ हो अपने स्तन के दूध की चोरी करती है और स्वामिनी के पुत्र के प्रति उसके हृदय में दारुण घृणा उत्पन्न हो जाती है। यह सब स्वाभाविक ही है। विवश होने पर शाकुल की रक्षा के लिए वह झुलसती वायु और सूर्य के प्रचण्ड ताप में शाकुल को अंक में दबाये दौड़ पड़ती है, स्थविर के चरणों में शाकुल को रख उसके लिए शरण की याचना करती है। इतना ही नहीं, वह पुत्र के लिए वेश्या बनने को भी प्रस्तुत है। यदि शाकुल न होता तो वह मृत्यु से भी नहीं डरती और प्रारम्भ में ही इस संसार से विदा हो जाती।
विषम परिस्थितियों से टक्कर लेने की सामर्थ्य
दिव्या में विषम परिस्थितियों से टक्कर लेने की सामर्थ्य है। प्रपितामह का घर त्यागने, मातालों के दल और उनके नेता वक् द्वारा घेरे जाने तथा पुरोहित चक्रधर के घर से भाग निकलने के प्रसंगों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उसमें अत्यधिक आत्म-बल है। जीवित रहने की आत्म-सम्मानमय अदम्य लालसा उसे रत्नप्रभा के आश्रय में मथुरा की सर्वश्रेष्ठ नर्तकी बना देती है और विशेषता यह है कि वह वेश्या होते हुए भी वेश्यात्व से असंतुष्ट रहती है। इस वैशिष्ट्य का कारण है कि उसके मंत्रपूत संस्कारों का बल, उसके तपःपूत आत्मानुभव की वेदनामयी स्मृति, उसके शाकुल की अभावयुक्त याद। अंशुमाला की मुस्कान और लास्य केवल कला का कर्त्तव्य-मात्र था। समाज से अलग होते ही वह निस्संग और तटस्थ हो जाती; जैसे जल से बाहर निकल आने पर हंसशावक अपने पर झाड़कर जल की बूँद से रहित हो जाता है। उसके दुःख के दुर्भेद्य कवच के अंदर उस विलास और विनोद के भंवर के जल की एक बूँद न गयी। वह केवल नृत्य की काष्ठ-पुत्तलिका बनकर रह गयी। पर स्वयं अपने प्रति निरपेक्ष होते हुए भी वह रत्नप्रभा के प्रति अत्यन्त कृतज्ञ और अनुरक्त थी।
यह सच है कि सामान्य नारी के समान वह पुरुष के आश्रय की आकांक्षिणी है। रत्नप्रभा के यहाँ भी मारिश के प्रस्ताव के उपरांत उसकी मनःस्थिति दुर्बल हो उठती है, वह आकांक्षाओं के झूले पर झूलने लगती है-"आश्रय की आशा और संकेत का विचार आने से अंशु के नेत्र मधुर शैथिल्य में मुँदने लगते। आश्रय देने में समर्थ भुजाओं में अपने-आपको शिथिल कर देने में नारीत्व की सफलता की प्रवृत्ति जागने लगती, आश्रय को आकर्षित कर सकने की नारीत्व की परम सार्थकता जागने लगती।" लेकिन यह आश्रय उसे पृथुसेन और रुद्रधीर भी देते हैं। पृथुसेन को ठुकराना तो उचित प्रतीत होता हैं क्योंकि वह उसे पहले धोखा दे चुका था और साथ ही भिक्षु बनकर निवृत्ति-मार्ग का पथिक बन गया था। लेकिन रुद्रधीर से यह कहना कि आत्म-निर्भर रहेगी, स्वत्वहीन होकर जीवित नहीं रहेगी और फिर अगले ही क्षण मारिश के आश्रय को स्वीकार करना उचित प्रतीत नहीं होता। इसके पीछे निश्चय ही उपन्यासकार का पक्षपात और पूर्वाग्रह है।
दिव्या के व्यक्तित्व का निर्माण सामाजिक संघर्ष के मध्य होता है; वह सामाजिक कुरीतियों से टक्कर तो लेती है, पर उन्हें मिटा देने की शक्ति उसमें नहीं है। परिस्थितियों से शीघ्र हार न मानने पर भी वह एक विकासशील नारी पात्र है, जिसके द्वारा प्रपीड़ित नारी का चित्र प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए भी वह विशिष्ट है।
इस प्रकार दिव्या उपन्यास में दिव्या का चरित्र एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है। वह एक ऐसी महिला है जो अपने समय से बहुत आगे थी। दिव्या का चरित्र भारतीय साहित्य में महिला सशक्तिकरण और सामाजिक परिवर्तन के संदेश को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
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