दिव्या उपन्यास में मारिश का चरित्र चित्रण यशपाल सागल का सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार, नास्तिक, भौतिकवादी, श्रेष्ठी पुष्यकांत का पुत्र मारिश उपन्यासकार के विच
दिव्या उपन्यास में मारिश का चरित्र चित्रण | यशपाल
यशपाल का उपन्यास दिव्या भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण रचना है। इस उपन्यास में कई जटिल और बहुआयामी पात्र हैं जिनमें से एक है मारिश। मारिश का चरित्र उपन्यास के कथानक में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और समाज की कई सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं को उजागर करता है।
सागल का सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार, नास्तिक, भौतिकवादी, श्रेष्ठी पुष्यकांत का पुत्र मारिश उपन्यासकार के विचारों, विश्वासों और मनोवृत्तियों का प्रतिनिधि पात्र है। यशपाल ने यह बात स्वयं स्वीकार करते हुए लिखा है-'दिव्या' में मारिश और दिव्या द्वारा मैंने अपना दृष्टिकोण देना चाहा है। मारिश घोर यथार्थवादी एवं कठोर कर्मवादी पात्र है। वह जीवन की पूर्णता सायास सृजन और सृजन के भोग में मानता है। श्रेष्ठी उपासक पुष्यकांत का पुत्र, सागल का सर्वश्रेष्ठ मूर्तिकार समाज में नास्तिकता और अनैतिकता का प्रतिपादन करने के लिए बदनान मारिश प्रवृत्तिमार्गी है। चीवरधारी भिक्षु के मुख से माया, सुख की मिथ्यानुभूति, बंधन, वैराग्य आदि की बातें सुनकर उनका विरोध करते हुए वह जीवन की अमरता का प्रतिपादन करता है-"दुःख की भ्रान्ति में भी जीवन का शाश्वत-क्रम इसी प्रकार चलता है। वैराग्य भीरु की आत्म-प्रवंचना मात्र है। जीवन की प्रवृत्ति प्रबल और असंदिग्ध सत्य है।" तक्षशिला से मूर्तिकला का ज्ञान प्राप्त कर सागल का यह नवयुवक अपनी कला के लिए सर्वत्र सम्मान प्राप्त करता है। मिलिन्द विहार के सिंहद्वार के तोरण पर भगवान् तथागत के जीवन-चरित अंकित करने के लिए आमन्त्रित किया जाता है, यद्यपि वह बौद्ध धर्म के प्रति निष्ठावान नहीं है। मारिश के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ विद्यमान हैं -
स्वतन्त्रता का समर्थक
मारिश स्वतंत्रचेत्ता तो इतना है कि तथागत के जीवन से सम्बद्ध प्रसंगों को उत्कीर्ण करने का वचन देकर भी वह तथागत के पूर्व-अवतारों को मिथ्या विश्वास कहकर अपना काम बंद कर देता है और संघ स्थविर के भोग-लिप्सा के सुख को मिथ्या भ्रांति के रूप में दिखाने के आदेश को अस्वीकार कर अर्थदण्ड पाता है। वह अपने मनोभावों के अतिरिक्त किसी की चिंता नहीं करता, न किसी के तर्क को मानता है। केवल अपने सिद्धान्तों और स्वतन्त्र दृष्टि के लिए घूमता रहता है।
विचारक स्वभाव
मारिश स्वभाव से विचारक है। स्वतंत्र चिन्तक होने के कारण वह परम्परागत विश्वासों और धारणाओं के बंधन से मुक्त है, संघर्षों के मध्य सत्य का अन्वेषण करता है। ब्रह्मलोक और निर्वाण दोनों की अवज्ञा करता है, अतः विप्र-समाज और स्थविर-भिक्षु दोनों उसका तिरस्कार करते हैं। परन्तु समाज से तिरस्कृत, धर्मस्थान से दण्डित होने पर भी वह अडिग रहता है। अपने दुराग्रह के कारण कभी-कभी वह उच्छृंखल भी हो उठता है और उसके तर्क कटु हो जाते हैं, जिससे धर्मस्थ के प्रासाद में चलने वाले वाद-विवाद में भाग लेने वालों को मारिश की उपस्थिति असह्य हो जाती है। कुछ लोग विरक्ति अनुभव कर मौन हो जाते तो कुछ विनोद से मुस्करा भर देते। पर मारिश उस सबकी चिंता न कर उपेक्षापूर्ण अहंकार से अट्टहास मात्र कर देता ।
चिन्तनपरक स्वभाव
मारिश स्थिर पात्र है, उसके चरित्र में न अन्तर्द्वन्द्व है, न अन्तःसंघर्ष । वह शुरू से अंत तक ज्यों का त्यों बना रहता है। उसके जीवन में उतार-चढ़ाव नहीं आते। अतः उसके चरित्र का प्रधान गुण है, उसका चिन्तनपरक स्वभाव और उसका वैशिष्ट्य वे विचार-मणि हैं जो समय-समय पर उसके मुख से निस्सृत होकर पाठक को भी मनन करने का अवसर प्रदान करते हैं और ये विचार उपन्यासकार के हैं, अतः उनका महत्व और भी बढ़ जाता है। साथ ही उसके व्यवहार में कुछ ऐसी असाधारणता थी कि उसके सम्पर्क में आने वाला उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता था । रत्नप्रभा उसकी अधिक समय तक उपेक्षा नहीं कर सकी और यद्यपि आरम्भ में उसकी अद्भुत बातें रत्नप्रभा के लिए कौतूहल का विषय थीं पर कुछ समय बाद ही वह उस प्रलाप पर गम्भीरतापूर्वक मनन करने लगी। फिर तो मारिश कई पक्ष तक उसका अतिथि बना रहा और वह भी उसके संसर्ग के फलस्वरूप गम्भीर बन गयी ।
नास्तिक
मारिश नास्तिक है। परलोक, परमात्मा, जीवात्मा आदि में उसका विश्वास नहीं - "परलोक केवल अनुमान और कल्पना है, प्रत्यक्ष नहीं। जो तुम्हें परलोक का विश्वास दिलाता है, उसने परलोक को दूसरे के कथन मात्र से जाना है और दूसरे ने किसी और के कथन से।" वह ब्रह्मवादियों की जीवात्मा सम्बन्धी धारणा को भी मिथ्या मानता है, उसे भी कल्पना और अनुमान की वस्तु बताता है। उसकी दृष्टि में जीव ही प्रधान है, स्थूल शरीर का ही महत्व है-"मनुष्य का विचार और अनुभव की शक्ति इस स्थूल शरीर के ही सूक्ष्म गुण हैं, वैसे ही जैसे स्थूल पुष्प में सूक्ष्म सुगन्ध वास करती है। जैसे तेल और बत्ती की जलने की क्रिया का फल प्रकाश है। निर्वाण के पश्चात् दीपक का प्रकाश कहाँ जाता है?" वह आत्मा को जीव से पृथक् नहीं मानता। उसकी दृष्टि में स्थूल, प्रत्यक्ष जगत् और शरीर का अनुभव ही सत्य है और ब्रह्म, जीवात्मा, परलोक आदि केवल कल्पना और अनुमान की वस्तुएँ हैं। अंतः संसार और जीवन ही सत्य है। मनुष्य को जो कुछ पाना है, वह इसी जीवन में पाए। जीवात्मा और परलोक की कल्पना पर अन्धविश्वास करना युक्तियुक्त और बुद्धिसंगत नहीं है। यदि मनुष्य को भोग की इच्छा है तो उसे साधन रहते भोग करना चाहिए। परलोक किसने देखा है, अतः वहाँ भोग की कामना करना निरर्थक है। प्राणों का दमन और आत्महनन समस्या का समाधान नहीं।
परलोक में भोग की कामना से किया हुआ त्याग मारिश की दृष्टि में त्याग नहीं, वह तो भोग की आशा का मूल्य है। अतः वह वैराग्य को आत्मवंचना अथवा भविष्य में भोग-प्राप्ति के लिए लगायी गयी पूँजी मानता है। वह संसार को क्षणभंगुर और नाशवान नहीं मानता, उसे मृत्यु का भी भय नहीं। जिसे साधारणजन नाश समझता है, वह मारिश की दृष्टि में केवल परिवर्तन है, वह मनुष्य को अमर मानता है क्योंकि उसकी अमरता सहस्र-सहस्र वर्षों से चली आई मानव की परम्परा में- "मरना-जीना व्यक्ति का है। जीव और समाज की परम्परा मनुष्य की कल्पना की सीमा तक अमर है।" मारिश की दृष्टि में परिवर्तन ही गति है और गति ही जीवन है।
आशावादी
मारिश आशावादी है, अतः एक बार की असफलता से अकर्मण्य बन जाना उसे उचित नहीं लगता- “भद्रे, जीवन में एक समय प्रयत्न की असफलता मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन नहीं है। जीवन निस्सीम है। वैसे ही मनुष्य का प्रयत्न और चेष्टा भी सीमित क्यों हो? असामर्थ्य स्वीकार करने का अर्थ है जीवन में प्रयत्नहीन हो जाना, जीवन से उपराम हो जाना।" उसके अनुसार जब तक जीवन है, उसमें परिवर्तन और प्रयत्न के लिए अवसर तथा सम्भावना है तब तक उसे निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए- "निरन्तर प्रयत्न ही जीवन का लक्षण है। जीवन के एक प्रयत्न या एक अंश की विफलता सम्पूर्ण जीवन की विफलता नहीं है।'
भाग्यवादी नहीं
मारिश भाग्य और कर्मफल के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। मार्क्सवादियों की तरह वह भी मानता है कि धर्म, भाग्य और कर्मफल के सिद्धान्त अफीम हैं जिनके द्वारा मानव-चेतना को लोरी देकर सुलाया जाता है ताकि पूँजीवादी सत्ताधीशों के विरुद्ध क्रान्ति न हो। वस्तुतः भाग्य का अर्थ है मनुष्य की विवशता और कर्मफल का अर्थ है कष्ट और विवशता के कारण का अज्ञान। अतः भाग्य और कर्मफल के सिद्धान्त को मिथ्या एवं धोखे में डालने वाला समझकर मनुष्य को प्रयत्न करना चाहिए, अपनी विवशता को दूर कर समर्थ बनना चाहिए और कष्टों तथा विवशता के कारणों को पहचानकर उन्हें दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए। यदि वह ऐसा करेगा तो भाग्य-लक्ष्मी स्वयं उसके चरणों पर आ गिरेगी।
वेश्या के प्रति संवेदनशील
नारी विशेषतः वेश्या के प्रति मारिश अत्यन्त संवेदनशील है। यद्यपि दिव्या की दयनीय स्थिति से क्षुब्ध होकर वह कठोर वचन कह डालता है- "चूसी जाकर, जीवन के अयोग्य होकर जीवित रहने का मोह छोड़ दे ? असमर्थ को जीने का अधिकार नहीं है। जा, तू यमुना की शीतल धार में विश्राम ले । ...शिशु की क्षुधा शांत करने के लिए वेश्या बनना चाहती है तो अभागी जा, यमुना तट पर जा! श्रेष्ठी पद्मनाभ तुम जैसे दीनों का द्रव्य समेटकर, उन्हें क्षुधार्त बनाकर और भोजन देकर अपने परलोक के लिए पुण्य संचय कर रहा है। जा, उसके यहाँ से भिक्षा का भोजन ले और उसे पुण्य दे।" पर इन वचनों के पीछे समाज के प्रति आक्रोश अधिक है, नारी के प्रति तो संवेदना का भाव ही है। वेश्या और कुलवधू की तुलना करते हुए भी मारिश की सहानुभूति वेश्या के प्रति अधिक है क्योंकि वह सबको देती है, पाती कुछ नहीं- "वेश्या देती है अपना अस्तित्व और पाती है केवल द्रव्य, परन्तु पराश्रिता कुलवधू अपने समर्पण के मूल्य में दूसरे पुरुष को पाती है, किसी दूसरे पर अधिकार पाती है.... वेश्या का जीवन मोटी बत्ती और राल मिले तेल से पूर्ण दीपक की अनुकूल वायु में अति प्रज्ज्वलित लौ की भाँति या उल्कापात की भाँति क्षणिक तीव्र प्रकाश करके शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। कुलवधू का जीवन मद्धिम प्रकाश से चिरकाल तक टिमटिमाते दीपक की भाँति है... वह अपने निर्वाण से पूर्व अपने अस्तित्व से दूसरे दीप जलाकर अपना प्रकाश उनमें देख पाती है। "
चरित्रांकन कला की दृष्टि से मारिश का चरित्र कोई विशेष महत्व नहीं रखता है, क्योंकि न तो वह विकासशील पात्र है और न उसमें अन्तर्द्वन्द्व है, जहाँ उपन्यासकार को अपनी कला का प्रयोग करने का अवसर मिलता। इस दृष्टि से तो पृथुसेन का चरित्र अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें अन्तःसंघर्ष भी है और उसके व्यक्तित्व का विकास भी निरन्तर हुआ है। जहाँ मारिश का व्यक्तित्व अनुकरणीय कहा जा सकता है, वहाँ पृथुसेन का अनुकृत है। सामान्य लोकवर्ग में पृथुसेन अनेक मिल जायेंगे, परन्तु मारिश लाखों में एक, जिसमें द्वन्द्वमय कर्म सिद्धान्त जीवंत हो उठा है, जिसके लिए वर्तमान की आकांक्षाएँ, आकर्षण एवं उपलब्धियाँ ही काम्य हैं और ईश्वर, अध्यात्म, परम्परा आदि थोथे विश्वास मात्र, जो श्रम और सामर्थ्य में विश्वास करता है, जिसके लिए जीवन काम्य है तथा सतत् आनन्दमय है।
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