दिव्या उपन्यास में नारी चेतना दिव्या उपन्यास में तत्कालीन नारी की स्थिति का यथार्थ चित्रण हुआ है दिव्या उपन्यास में नारी भावना नारी के अस्तित्व, उसकी
दिव्या उपन्यास में नारी चेतना | यशपाल
यशपाल का उपन्यास 'दिव्या' भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने नारी चेतना के मुद्दे को गहराई से उठाया है। दिव्या एक ऐसी नारी है जो अपने समय के सामाजिक बंधनों और रूढ़ियों से जूझती है। यशपाल ने दिव्या के माध्यम से नारी के अस्तित्व, उसकी आकांक्षाओं और उसके संघर्षों को मार्मिक ढंग से चित्रित किया है।
दिव्या उपन्यास के लेखक यशपाल की मार्क्सवाद में अटूट निष्ठा रही है और उनके उपन्यासों में मार्क्सवाद के सिद्धान्तों का प्रत्यक्ष आरोपण पाया जाता है। मार्क्स के ऐतिहासिक द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में इतिहास-पक्ष पर समुचित ध्यान न देने के कारण उनके समाधान प्रायः सरलीकृत और अव्यावहारिक हैं तथा कितने ही विषयों में उनकी धारणाएँ त्रुटिपूर्ण ठहरती हैं। वैयक्तिक प्रेम और नारी के विषय में उनकी मान्यताएँ इसी प्रकार की हैं। यही कारण है कि नारी के सम्बन्ध में उनकी मान्यता प्रस्तुत यथार्थ का अतिक्रमण कर दृष्टिकोण विशेष का आरोपण करती प्रतीत होती है। नारी सम्बन्धी उनका दृष्टिकोण उपन्यासों में ही नहीं, अन्य रचनाओं में भी दृढ़तापूर्वक व्यक्त हुआ है-"नारी सेवा का साधन बनना चाहती है तो उसके लिए बापू के चरणों में स्थान है; यदि वह आत्मनिर्भर, स्वतन्त्र मनुष्य बनकर पुरुष के कन्धे के बराबर खड़ी होना चाहती है तो उसके लिए मार्क्सवाद का ही मार्ग है।" यह कथन तो मार्क्सवादी सिद्धान्त के अनुकूल है, पर वे मात्र आर्थिक स्वातन्त्र्य पर ही नहीं रुक जाते, न पुरुष से समानता पर ही। वे नारी की स्वतन्त्रता को एक ऐसा रूप देते पाये जाते हैं जो असामाजिक कहा जायेगा।
नारी के प्रति यशपाल के दृष्टिकोण में मात्र मार्क्सवाद ही नहीं है जिससे प्रेरित होकर वह नारी की मुक्ति और उसके समान अधिकारों की माँग करते हैं। उसके धरातल में वह निषेधकारी गुरुकुल की शिक्षा-दीक्षा भी है जो नारी को देखने से भी रोकती है। 'मैं इनसे मिला' के लेखक ने आर्य समाजी नियंत्रण का उल्लेख करते हुए इस वर्जना की ओर संकेत किया है। नारी के आर्थिक स्वातन्त्र्य की मान्यता के मूल में मार्क्सवाद हो सकता है, पर लैंगिक सम्बन्धों में जो दृष्टिकोण उन्होंने प्रस्तुत किया है वह नर-नारी सम्बन्धों के ऐतिहासिक विकास के अपूर्ण ज्ञान पर ही नहीं बल्कि नारी के प्रति अश्रद्धा भाव पर भी आधारित है।
यशपाल स्वीकार करते हैं कि नारी को अपने अधिकारों के लिए समाज से, पुरुष-वर्ग संघर्ष करना पड़ेगा क्योंकि उन्हीं के हाथ में समाज की सत्ता है। पर 'दिव्या' में दिव्या कर्त्ता नहीं भोक्ता है। गलती करने के बाद वह पहले तो पृथुसेन की प्रतीक्षा करती है, उसके आश्वासन का विश्वास करती है, पर जब कायर, भीरु, स्वार्थी तथा सिद्धान्तविहीन पृथुसेन उसे पत्नी के रूप में पाने के बाद थोड़ा-सा प्रयास करने के बाद उसका साथ नहीं देता, तो वह संघर्ष न कर पलायन करती है। इस पलायन के लिए उसके परम्परागत आभिजात्य संस्कार ही उत्तरदायी हैं। उसका संघर्ष सक्रिय नहीं है, संघर्ष करती भी है तो समाज की व्यवस्था को उलटने के लिए नहीं, उससे समझौता कर अपनी सामाजिक स्थिति बनाए रखने के लिए करती है। तभी तो वह पृथुसेन की दूसरी पत्नी और दासी तक बनने को प्रस्तुत हो जाती है। वह परिस्थितियों के आगे झुक जाती है, उनके हाथों में आत्म-समर्पण कर देती है और पराजित होती है। परिस्थितियाँ और समाज उसे इतना घेर लेते हैं कि उसके मनोनुकूल कुछ नहीं हो पाता। वह न पृथुसेन की पत्नी बन पाती है, न स्वतंत्र नारी; न वेश्या और न सागल की राजनर्तकी । उसे पृथुसेन ही नहीं ठुकराता बल्कि उसके परिवार के सदस्य, बौद्ध संघ और सांगल के नागरिक भी ठुकराते हैं। अन्ततः उसे आश्रय के आदान-प्रदान के लिए समाज में पदार्पण कर मारिश की पत्नी बनना पड़ता है। वह सर्वत्र प्रवंचिता है। वह जानती है कि नारी केवल भोग्या है- "नारी सबके लिए समान है। जो भोग्या बनने के लिए उत्पन्न हुई है, उसके लिए अन्यत्र शरण कहाँ ? उसे सब भोगेंगे ही।"
उपन्यास के अंत में भी आचार्य रुद्रधीर का कुल महादेवी बनने का प्रस्ताव आत्मनिर्भर बनने के लिए अस्वीकार कर देती है-"कुल महादेवी का अधिकार आर्य पुरुष का प्रश्रय मात्र है। वह नारी का सम्मान नहीं उसे भोग करने वाले पराक्रमी पुरुष का सम्मान है। आर्य, अपने स्वत्व का त्याग करके ही नारी वह सम्मान प्राप्त कर सकती है।" लेकिन क्या मारिश को अपनाकर वह आत्मनिर्भर बनी रहेगी? संभवत: हाँ। कुछ तो इसलिए कि वह नारीत्व की कामना में अपना पुरुषत्व अर्पित करने को प्रस्तुत है और इससे भी अधिक इसलिए कि मारिश मार्क्सवादी है, लेखक के विचारों का प्रतिनिधि है जो नारी का सम्मान करना जानता है।
मारिश की दृष्टि में नारी सृष्टि का साधन है। वह अंशुमाला (दिव्या) से तर्क करता हुआ कहता है-“भद्रे, नारी सृष्टि का साधन है। सृष्टि की आदि शक्ति का क्षेत्र वह समाज और कुल का केन्द्र है।" आगे चलकर अपनी बनाई मूर्ति का अर्थ समझाते हुए भी वह नारीत्व की सार्थकता सृजन में ही मानता है-“नारी का यही अंग उसके नारीत्व की सार्थकता के लिए पुरुष का आह्वान करता है और फिर उस फलीभूत सार्थकता का पोषण करता है। यह नारी है, देवि ।" शुरू में दिव्या को मारिश का तर्क मान्य नहीं- "आर्य, वह सब नारी के जीवन की सार्थकता अवश्य है, वह नारी की दुर्दमनीय प्रकृति और स्वभाव भी है, परन्तु उस सार्थकता को नारी पा सकती है केवल अपने अस्तित्व के मूल्य में, केवल पुरुष की भोग्य बनकर। स्वयं दूसरे के लिए भोग्य बनकर कोई स्वयं क्या सार्थकता पाएगा?" लेकिन जैसे-जैसे वह स्वयं को स्वतंत्र, सम्मानित और आत्मनिर्भर बनाने में असमर्थ पाती है, वैसे-वैसे उसका विचार बदलता है और अंत में जब मारिश अपना पुरुषत्व अर्पित कर उसके नारीत्व की कामना करता है, आश्रय का आदान-प्रदान चाहता है, सन्तति की परम्परा के रूप में अमरता देने का आश्वासन देता है तो दिव्या उसका आश्रय स्वीकार कर लेती है।
स्पष्ट है कि यद्यपि यशपाल नारी के स्वतन्त्र एवं आत्मनिर्भर अस्तित्व पर बल देते हैं, तथापि वर्तमान समाज की परिस्थितियाँ मानो उन्हें यह स्वीकार करने को बाध्य करती हैं कि नारी की अन्तिम गति पुरुष का आश्रय ही है। नारी की मातृत्व एवं वात्सल्य-भावना भी उसकी मूल प्रवृत्ति है, यह दिव्या के शाकुल के प्रति ममत्व से स्पष्ट है। वह चक्रधर के गृह से उसी की रक्षा के लिए ही भागती है, उसे अपने से अलग नहीं कर सकती और स्वयं भोजन की इच्छा न रहने पर भी बालक की क्षुधा से उसके उदर की आँतें अकुला उठती हैं।
सवाल उठता है कि क्या यशपाल स्वतन्त्र अस्तित्व की दृष्टि से वेश्या को कुल-नारी से अधिक सौभाग्यशाली मानते हैं? वेश्या स्वतंत्र नारी होती है, समाज भी उसे स्वतंत्र मानता है, इतिहास से भी ज्ञात होता है कि बौद्धकाल में वेश्या को स्वतंत्र माना जाता था। तभी तो अम्बपाली को संघ में शरण मिल गयी और दिव्या को वह अधिकार नहीं दिया गया। दिव्या इसी से झुंझलाकर सोचती है-"कुलनारी के लिए स्वतन्त्रता कहाँ? केवल वेश्या स्वतंत्र है।" परन्तु यदि मारिश को लेखक के विचारों का प्रतिनिधि स्वीकार कर लिया जाए तो मानना पड़ेगा कि वह कुलनारी को वेश्या से अधिक सौभाग्यशाली मानते हैं। मारिश अंशुमाला (दिव्या) के तर्क का उत्तर देते हुए कहता है- " जनपद कल्याणी की स्वतंत्रता की सार्थकता क्या है ?... यदि कुलवधू एक पुरुष की भोग्या है तो जनपद-कल्याणी वेश्या सम्पूर्ण जनपद और समाज की तृप्ति का साधन है। वह जन को कामना का संकेत देती है और उसके मूल्य में जीवन के भोगों का साधन केवल धन पाती है।....उसकी कला दूसरों के जीवन में वासना की पूर्ति के अनुष्ठान के रूप में उपयोगी है, लेकिन वह स्वयं क्या पाती है? वह 'काम' के यज्ञ का साधन मात्र है। वह स्वयं पूर्ति के हविष्य से वंचित है। उसकी स्वतन्त्रता का भोग जन करता है, वह स्वयं नहीं। वह केवल वंचना पाती है।"
रत्नप्रभा भी वेश्या और कुलवधू की तुलना करते हुए कुलवधू को ही अधिक सौभाग्यशाली एवं सार्थक जीवन वाला मानती है-"वेश्या देती है अपना अस्तित्व और पाती है केवल द्रव्य, परन्तु पराश्रिता कुलवधू अपने समर्पण के मूल्य में दूसरे पुरुष को पाती है, किसी दूसरे पर भी अधिकार पाती है। ...वेश्या का जीवन मोटी बत्ती और राल मिले तेल से पूर्ण दीपक की अनुकूल वायु में अति प्रज्वलित लौ की भाँति या उल्कापात की भाँति क्षणिक तीव्र प्रकाश करके शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। कुलवधू का जीवन मध्यम प्रकाश से चिरकाल तक टिमटिमाते दीपक की भाँति है।... वह अपने निर्वाण से पूर्व अपने अस्तित्व से दूसरे दीप जलाकर अपना प्रकाश उनमें देख पाती है।"
यशपाल ने अपने अन्य उपन्यासों में यौन-सम्बन्धों का जो विवेचन-विश्लेषण किया है उसे देखकर लगता है कि यौन-स्वच्छन्दता और उच्छृंखलता का जो आरोप उन पर लगाया गया है, वह ठीक है। परन्तु 'दिव्या' में इस प्रकार की यौन-स्वच्छन्दता कहीं नहीं मिलती। दिव्या प्रताड़ित है, प्रवंचित है, परिस्थितियों से संघर्ष भी करती है, लेकिन अन्ततः उसका व्यक्तित्व दुर्द्धर्ष न होकर समझौतावादी और विवश नारी का व्यक्तित्व है। उसमें विद्रोह भावना है लेकिन परिस्थितियों पर विजय पाने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार 'दिव्या' की नारी समाज की प्रताड़िता नारी ही है, समाज से टक्कर लेकर उस पर विजय प्राप्त करने वाली या नारी मात्र में विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित करने वाली तेजस्वी नारी नहीं। उसके मन में सवाल तो उठते हैं पर उनका समाधान नहीं है। वह सोचती है कि क्या स्त्री अपनी इच्छा या चुनाव से गर्भ धारण कर सकती है ? क्या ऐसा करना पाप है ? क्या पृथुसेन के प्रति उसका प्रेम और उसका गर्भधारण पाप था ? सम्पूर्ण सृष्टि ही गर्भ धारण करती है; उसका दोष मात्र इतना था कि उसने द्विज समाज की अनुमति के बिना ऐसा किया था।
इस प्रकार दिव्या उपन्यास नारी चेतना का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह उपन्यास हमें याद दिलाता है कि नारी को भी अपने अधिकारों के लिए लड़ने का हक है। यशपाल के इस उपन्यास ने नारीवाद के विकास में एक महत्वपूर्ण योगदान दिया है और यह आज भी प्रासंगिक है।
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