दिव्या उपन्यास में पृथुसेन का चरित्र चित्रण | यशपाल

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दिव्या उपन्यास में पृथुसेन का चरित्र चित्रण यशपाल दिव्या उपन्यास में पृथुसेन आधुनिक युग की पूँजीवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। उसक

दिव्या उपन्यास में पृथुसेन का चरित्र चित्रण | यशपाल


शपाल के उपन्यास 'दिव्या' में पृथुसेन का चरित्र एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है। वह एक ओर तो समाज की कुरीतियों से जूझता है, तो दूसरी ओर अपने प्रेम और इच्छाओं के बीच फंसा हुआ है। पृथुसेन का चरित्र चित्रण यशपाल ने समाज की जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था और स्त्री-पुरुष संबंधों पर गहरा प्रहार करते हुए किया है।

दिव्या उपन्यास में पृथुसेन आधुनिक युग की पूँजीवादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है। उसका सम्बन्ध ऐसे कुल से है जिसकी जड़ों में परम्परागत पूँजीवादी का रस है। उसके चरित्र में निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं -
 

कुण्ठाग्रस्त

पृथुसेन के पिता प्रेस्थ दास के सामान्य स्तर से उन्नति कर,दासों का व्यापार कर पूँजीपति बने । अतः पृथुसेन में अभिजात वंश के संस्कार नहीं हैं। दासकुल में जन्म लेने और प्रारम्भ में अभिजातवंशीय युवकों से अपमानित होने के कारण वह कुण्ठाग्रस्त है। कुण्ठा के कारण ही वह दिव्या की शिविका में कंधा देने से रोके जाने पर खड्ग खींचकर कहता है- "मेरे अधिकार का निश्चय मेरा खड्ग करेगा।" कुण्ठावश ही वह दिव्या के निश्छल प्रेम पर चोट करता है-"यदि तुमने मुझे अंगीकार किया है तो मेरी स्मृति में तुम्हारी वर्जना ही साथ जायेगी।" वह निर्णय लेने में असमर्थ है क्योंकि उसके आन्तरिक जगत् में उसकी हीन ग्रन्थियों का साम्राज्य है ।
 

आत्म सम्मानी

प्रेस्थ ने अपने पुत्र पृथुसेन का पालन अभिजात-वंश के कुमारों के समान कर, उसे अभिजात-वंश के योग्य शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दी थी, वह विद्योपार्जन के लिए तक्षशिला भी गया था। गौरवर्ण, कृष्णनेत्र और बलिष्ठ वह
दिव्या उपन्यास में पृथुसेन का चरित्र चित्रण | यशपाल
सैनिक वेश में शक्ति की मूर्ति लगता था । मधुपर्व के अवसर पर उसके खड्ग-कौशल और हस्तलाघव की सबने भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। शैशव से ही सम्मान पाने के कारण उसमें आत्म- गौरव का भाव पिता से अधिक आ गया था। वह मार्ग रोकने वाली अंगला से नीचे से सिर झुकाकर निकल जाने की अपेक्षा उस अड़चन को गिरा देने के पक्ष में रहता था। आत्म-सम्मान की भावना के कारण ही वह कटि से खड्ग खींचकर अभिजात वंश के कुमारों से भिड़ गया और उसने मन ही मन द्विज-कुल से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की। यद्यपि उसके नीति कुशल अवसरवादी पिता ने उसे धर्मस्थ और गणपति की सेवा में जाने के लिए कहा, पर पिता के आदेश पर भी वह आत्म-सम्मान की भावना के फलस्वरूप उनसे विश्वास और कृपा की भिक्षा माँगने नहीं गया। यह उसके लिए असह्य था। 

अभिजात कुल के समान आत्म-सम्मान के भाव के कारण वह अपनी पत्नी के च्छृंखल आचरण को सहन नहीं कर पाता, पति के अधिकार से उसकी प्रतारणा करता है और जब सीरो अहंकार वश कहती है-"मैं द्विज-कुल की पत्नी दासी नहीं हूँ।.... यदि तुम मेरा अपमान करोगे, मेरे लिए विस्तृत जन-समाज है। तुम्हें महासेनापति बना सकती हूँ, तो दूसरे को भी महासेनापति बना सकती हूँ।" तो पृथुसेन के नेत्र अंगारे की भाँति दहक उठते हैं और उसकी अंगुलियाँ सीरो का गला पकड़कर उसे मरोड़ डालने के लिए तिलमिला उठती हैं। महादेवी मल्लिका के प्रासाद में घिर जाने पर भी वह छिप-छिपाकर प्राण बचाने का अर्थ समझ नहीं पाता। यदि उस समय वह अकेला होकर भी सशस्त्र होता तो सम्मुख युद्ध कर सम्मानपूर्वक प्राण दे देता; बध्य पशु के समान मारा जाना उसे रुचिकर न था । संघाराम में पहुँचने के बाद भी वह स्थविर चीबुक से बाहर जाने की अनुमति माँगता है ताकि शत्रु का सामना करने का अवसर मिल सके या तो शत्रु का पराभव कर सके अथवा प्रयत्न में प्राण-विसर्जन कर सके। उसे दैन्य में आत्म-हनन बिल्कुल भी स्वीकार नहीं।
 

विवेकी एवं दूरदर्शी

देश पर केन्द्रस के आक्रमण का समाचार सुनकर तथा सागल में युद्ध के लिए उपयुक्त आयोजन का अभाव देखकर उसकी कल्पना में वह अनाचार और विनाश कौंध जाता हैं जो केन्द्रस के सैनिक सागल नगरी में करेंगे। वह यह सोचकर उद्विग्न हो उठता है कि सर्वनाश की उस अग्नि में हमारे जीवन की सब आशा समाप्त हो जायेगी। उसमें विवेक है, दूरदर्शिता है। वह मद्र के नायकों के समान केन्द्रस के आक्रमण को मुण्डी-धर्म के पाप का फल नहीं मानता। उसका स्पष्ट मत है- "इन लोगों के लिए युद्ध षड्यंत्र की अभिसन्धि पूर्ण करने का अवसर मात्र है। वे परस्पर एक-दूसरे को शत्रु समझते हैं परन्तु जो वास्तव में सबका शत्रु है, उससे सभी मित्रता और सहायता की कल्पना कर रहे हैं... इनके लिए स्वार्थ लाखों जन के प्राणों से अधिक प्रिय है।" क्रोध के आवेश में भी वह विवेक से काम लेता है। जब सीरो की उच्छृंखलता का दण्ड देने के लिए उसके हाथ उसका गला मरोड़ डालने के लिए आगे बढ़े तभी विवेक ने क्रोध को शांत कर दिया, क्योंकि वह जानता था उसका दुष्परिणाम भयानक होगा। वह असमर्थ आवेग का श्वास शून्य में छोड़कर शिथिल हो गया। सीरो उसकी महिमा बढ़ाती रही और पृथुसेन उस महिमा को अनायास स्वीकार करता गया ।
 
पृथुसेन के लिए जीवन की सार्थकता अधिकार और सामर्थ्य में है। वह युद्ध में पराक्रान्त होकर जीवनभर तिल-तिलकर मरने की कल्पना सहन नहीं कर सकता। नवशिक्षित सैन्य लेकर जब उसे तविशा की तटवर्ती दुरूह पर्वत-उपत्यकाओं में शत्रु से लोहा लेने के लिए नियुक्त किया जाता है तो जिस तत्परता, कौशल और अध्यवसाय से वह सेना को युद्ध करने के लिए तैयार करता है, उसे प्रशिक्षण देता है वह प्रशंसनीय है। कभी वह अपने अश्व पर बैठा सैनिकों के पार्श्व में दिखाई देता, कभी उनके साथ बाण की तरह पथों और वीथियों से निकल जाता। कभी पदाति (पैदल सेना को व्यूह-रचना और आक्रमण की शिक्षा देता तो कभी उन्हें जंगल-युद्ध का अभ्यास कराता । उसके दिन-रात अश्व की पीठ पर बीतते । एक अश्व थक जाने पर वह दूसरा बदल लेता परन्तु स्वयं न थकता। इसी वीरता का परिणाम था कि उसने आगे बढ़ती केन्द्रस की सेना को रोक दिया और उसका पीछा करता हुआ वह दार्व की सीमा तक बढ़ता चला गया।
 

कुटिल नीति का पोषक

पृथुसेन की चेतना और उसके कर्मों में पितृपक्ष के संस्कार बद्धमूल हैं। उसके कर्मों में ये पैतृक संस्कार रह-रहकर चमक उठते हैं। पितृपक्ष से मिला है उसे उन्मुक्त भोग और उसके भोग के लिए अबाध यत्न । सीरो के आचरण से क्षुब्ध होने पर उसने अपने मस्तिष्क को मधुर और तिक्त मदिराओं के फेन से और कानों को नर्तकियों के नूपुर की झंकार से विस्मृत कर देना चाहा, पर वह आत्म-विस्मृत न हो सका। उसे लगता यह तो केवल कायर का आत्महनन है और उसकी अन्तरात्मा चीत्कार कर उठती शक्ति! निरंकुश शक्ति! पिता की बुद्धि से, मेरी भुजा के पराक्रम से । वह भोगों के प्रति अनासक्त हो गया और केवल शक्ति ही साधना करने लगा। अब वह शक्ति के उन्माद की कल्पना में ही सुख पाता। शक्ति-संग्रह ही उसका लक्ष्य और मद्र का निरंकुश शासन ही उसका स्वप्न बन गया और अपने इस स्वप्न को उसने काफी सीमा तक चरितार्थ भी किया। अपनी कुटिल नीति से उसने द्विज-कुल और अभिजात वर्ग को अधिकारच्युत कर दिया। वह सबको अपनी सम्पत्ति मानने लगा और सबसे आदर, सम्मान पाना अपना अधिकार। तभी तो मल्लिका के ही महल में जाकर उसने मल्लिका का तिरस्कार करते हुए कहा- "यदि मादुलिका के सम्मुख देवी मल्लिका के वैभव के उत्तराधिकार का प्रश्न है तो मैं उससे दूना धन मादुलिका को दूँगा। यदि मादुलिका को राजनर्तकी के पद का लोभ है तो मैं अपनी इच्छा से उसे मद्र की जनपद-कल्याणी का पद देने की क्षमता रखता हूँ। मद्र में ऐसा कौन है जो सेनापति पृथुसेन की इच्छा का विरोध करेगा ? " अपनी इसी अहंकार भावना के कारण वह मल्लिका-प्रासाद में कुछ असावधान हो गया। जब उसके विरुद्ध षड्यंत्र रचा जा रहा था, तब वह विचार कर रहा था - "इसी रुद्रधीर ने मेरा अपमान किया था। आज स्वयं उनकी अनुजा, उसके नेत्रों के सम्मुख मेरी भुजाओं में, मेरे वक्षस्थल पर सुख पा रही है और वह देखकर भी मौन है। यह है शक्ति का अधिकार ।" यह सब सोचते-सोचते शक्ति के मद की मुस्कान उसके होठों पर नाच उठी । उस समय उसकी तृप्ति का कारण नारी-देह का स्पर्श नहीं बल्कि शक्ति का गर्व था ।
 

दुर्द्धर्ष वीर एवं संवेदनशील

पृथुसेन दुर्द्धर्ष वीर होते हुए भी संवदेनप्रवण था। आत्म-समर्पण की रात को अपने कठोर शब्दों में जब वह दिव्या को रोते देखता तो उसका हृदय अपनी कठोरता के लिए परिताप से गल जाता है, वह अपनी कठोरता के लिए दिव्या से क्षमा माँगता है, उसे सान्त्वना देने का प्रयास करता है। आरम्भ में दिव्या के प्रति उसका प्रणय-भाव एकनिष्ठ था। युद्ध से लौटने के बाद विजय-तिलक के अवसर पर उसके नेत्र दिव्या को खोजते रहे, पीड़ा उत्कट न होने पर वह निरंतर उसी के विषय में विचार करता रहा । दिया के समीप न पहुँचने से वह व्याकुल रहता। दिव्या की अनुपस्थिति में पिता द्वारा आयोजित मनोरंजन के सब आयोजन उसे कोलाहल जान पड़ते। उसने अंत में पिता को स्पष्ट बताया भी कि वह समर-यात्रा से पूर्व धर्मस्थ की प्रपौत्री दिव्या से विवाह का आवेदन कर चुका है और शीघ्र ही विवाह करना चाहता है। उस समय वह सीरो और उसके प्रणय की उपेक्षा करता था । उसके मन में दिव्या को पाने का दृढ़ संकल्प था। पिता के मुख से सीरो की प्रशंसा सुनकर तथा उनका अभिप्राय समझकर उसने एक दिन उन्हें स्पष्ट शब्दों में बता भी दिया- " तात धर्मस्थ की प्रपौत्री से प्रतिज्ञाबद्ध होने और उसके प्रति अत्यन्त अनुराग के कारण मेरे लिए किसी दूसरी कन्या से विवाह का प्रसंग मन में लाना असम्भव है।" वह उन्हें यह भी बता देता है कि वह दिव्या को पत्नी-रूप में ग्रहण कर चुका है और अब विवाह न करना विश्वासघात होगा। जब पिता ने अपने तर्कों से उसे सीरो से विवाह करने के लिए बाध्य कर दिया तो भी उसके मन में यह विचार विद्यमान रहा कि वह सीरो से विवाह करके भी दिव्या को पा सके । उसने यह प्रस्ताव सीरो के समक्ष भी रखा कि दिव्या को सपत्नी के रूप में स्वीकार कर ले। स्पष्ट है कि दिव्या के प्रति उसके मन में प्रणय-भाव था, वह उसके साथ विश्वासघात नहीं करना चाहता था लेकिन शक्ति-उपासना और महत्वाकांक्षा ने उसे अपने कर्त्तव्य-पथ से विचलित कर दिया।

महत्त्वाकांक्षी

पृथुसेन एक ओर सीरो की नागिन जैसी फुंकार से भयभीत हो उठा तो दूसरी ओर पिता के तर्कों के सामने झुक गया और सबसे शक्तिशाली सिद्ध हुई उसकी स्वयं की अवचेतन में छिपी हुई महत्त्वाकांक्षा और शक्तिशाली बनने की दुर्दम कामना । इसी महत्त्वाकांक्षा के कारण उसे पिता के तर्क उचित लगे, उसका संकल्प डगमगा गया और पिता के निर्देश से अपने मन को जीवन के संघर्ष के लिए सन्नद्ध करने लगा। वह दिव्या को भूलने का प्रयास करने लगा। सीरो के आतंकपूर्ण व्यक्तित्व के सम्मुख झुककर उसने अस्वस्थ होने का बहाना कर दिव्या से मिलना तक अस्वीकार कर दिया। आगे भी शक्ति, महिमा और आकांक्षा ने उसे सीरो के समक्ष निर्वीर्य बना डाला। सीरो अपनी धृष्टता से जन-समाज के सम्मुख पृथुसेन की महिमा बढ़ाती थी और पृथुसेन उस महिमा को अनायास स्वीकार करता गया जिससे उसका पतन होता गया। वह कादम्ब और कामिनी में आकंठ मग्न रहने लगा, कादम्ब के रस तथा कामिनी के मांसल शरीर से प्राप्त उत्तेजना में आत्म-विस्मृत रहने लगा। उसमें निश्चय ही आत्मिक दृढ़ता की कमी थी जिसके कारण वह अंत में पिता और पत्नी के चक्र में पड़कर विचलित हो जाता है, अपने कर्त्तव्य से च्युत होकर दिव्या को महान् विपदा में डालने का उत्तरदायी बनता है। पिता की तृष्णाओं और अपनी महत्त्वाकांक्षा के आगे उसका व्यक्तित्व विवश है।
 
गिरिजादत्त शुक्ल ने कहा है कि उपन्यासकार ने पृथुसेन को वीर - मृत्यु से भी वंचित कर दिया और उसे निर्लज्ज जीवन बिताने के लिए बाध्य किया, पर वस्तुतः रुद्रधीर के षड्यन्त्र द्वारा पराभूत होकर पृथुसेन का स्थविर चीबुक से प्रव्रज्या ग्रहण करना उसकी परिस्थितिजन्य विवशता और जिजीविषा की प्रकृत आत्मेच्छा का परिणाम है। संघाराम में एक पक्ष तक रहने के बाद उसके मन की दुर्बलता नष्ट हो गयी, विग्रह की इच्छा से बाहर जाने का विचार उसने त्याग दिया; वह स्थविर के विचारों पर मनन करने लगा, उसके मुख और व्यवहार से व्यथा और चिन्ता के चिह्न मिट गये, उसके मुख पर शांति झलकने लगी। वह सार्वभौम मैत्री की भावना से युक्त हो चिरन्तन सुख के मार्ग पर चलने के लिए तैयार हो गया। उसने स्वेच्छा से भिक्षुओं के विनय और शील का पालन करना आरम्भ कर दिया। इतना ही नहीं, वह स्वयं रुद्रधीर के पास जा पहुँचा और आत्म-समर्पण के भाव से हाथ फैला दिए। पृथुसेन के चरित्र का यह परिवर्तन असम्भव नहीं तो अस्वाभाविक, आकस्मिक और अप्रत्याशित अवश्य प्रतीत होता है। 

पृथुसेन परिवर्तनशील पात्र है; उसमें अन्तर्द्वन्द्व भी है और अन्तःसंघर्ष भी । उसका चरित्र उत्तरोत्तर विकास करता गया है। मनुष्य की सदासद् वृत्तियों से युक्त होने के कारण वह जन-सामान्य के अधिक निकट है। आरम्भ में उसका चरित्र भव्य है पर आगे चलकर वह निर्जीव एवं गतिहीन कंकाल मात्र रह जाता है। मारिश के सम्मुख वह अत्यन्त तेजहीन और अपदार्थ प्रतीत होता है।

इस प्रकार यशपाल के उपन्यास 'दिव्या' में पृथुसेन का चरित्र एक जटिल और बहुआयामी चरित्र है। वह एक ओर तो समाज की कुरीतियों से जूझता है, तो दूसरी ओर अपने प्रेम और इच्छाओं के बीच फंसा हुआ है। पृथुसेन का चरित्र चित्रण यशपाल ने समाज की जाति व्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था और स्त्री-पुरुष संबंधों पर गहरा प्रहार करते हुए किया है।

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