गोदान कृषक जीवन की महाकाव्यात्मक त्रासदी है मुंशी प्रेमचंद गोदान भारतीय कृषक जीवन ग्रामीण समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों को बड़ी गहराई
गोदान कृषक जीवन की महाकाव्यात्मक त्रासदी है | मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास गोदान भारतीय कृषक जीवन की एक मार्मिक और यथार्थवादी तस्वीर पेश करता है। यह उपन्यास सिर्फ एक कहानी नहीं है, बल्कि एक ऐसा दस्तावेज है जो भारतीय ग्रामीण समाज की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों को बड़ी गहराई से उजागर करता है।
गोदान कृषक जीवन की करुण कहानी है-ट्रेजडी है। कृषक जीवन की विषमता को प्रेमचन्द ने आरम्भ से अन्त तक अत्यन्त मार्मिकता के साथ प्रस्तुत किया है। किसान की गर्दन दूसरों के पाँवों तले दबी है और वह उन पाँवों को सहलाने में ही अपनी कुशल मानता है। गोदान भारतीय जीवन के कृषक जीवन का महाकाव्य है। विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि इसमें कृषक जीवन का अधिक चित्रण है इसलिए इसे कृषक जीवन का महाकाव्य कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। महेन्द्र चतुर्वेदी ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी उपन्यासः एक सर्वेक्षण' में प्रेमचन्द के ग्रामीण जीवन की विजय के सम्बन्ध में अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये हैं-‘प्रेमचन्द पहले भारतीय उपन्यासकार थे जिन्होंने विस्तृत्त चित्रफलक पर किसान के जीवन को उभारा है। किसान के आर्थिक शोषण को बहुत विस्तार से उभारने में प्रेमचन्द को अपूर्व सफलता प्राप्त हुई है।"
गोदान में कृषक संस्कृति का विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। कृषक जीवन को विस्तार के साथ निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत देखा जा सकता है -
गाँव का भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिवेश
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने 'गोदान' में भौगोलिक एवं प्राकृतिक परिवेश का बड़ा सरस तथा स्वाभाविक चित्रण किया है। प्रेमचन्द ने स्थान-स्थान पर गाँव के नक्शों का वर्णन किया है। सिलिया की झोंपड़ी का वर्णन द्रष्टव्य है-"एक किनारे मिट्टी का घड़ा था दूसरी ओर चूल्हा था। जहाँ दो-तीन पीतल और लोहे के बासन मँजे हुए थे। बीच में पुआल बिछा था। भोला के गाँव के मकान खपरैल के साथ फूस के भी हैं।" भोला की बैठक का प्रेमचन्द्र ने बड़ा ही जीवन्त वर्णन किया है-"ओसारे में एक बड़ा सा तखत पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मंजीरा। एक ताक पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी थी.....।"
प्राकृतिक परिवेश के चित्रण में प्रेमचन्द की दृष्टि यथार्थवादी है। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-" जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गर्मी आने लगी थी।"
ग्रामीणों के नाम वेश भूषा और भाषा
नामों से ही स्तर भेद का पता चल जाता है। शहर वालों के नाम प्रेमचन्द ने अत्यन्त शुद्ध रखे हैं जैसे-मालती, गोविन्दी, ओंकारनाथ आदि । गाँव में झिंगुरीसिंह, दातादीन, दुलारी सहुआइन, मंगरू साह आदि सम्पन्न व्यक्तियों के नाम तो पूर्ण हैं लेकिन गाँव के निर्धन लोगों के नाम बिगाड़ दिये गये हैं जैसे गोबरधन का नाम बिगाड़कर गोबर कर दिया गया है। उपन्यास में एक अपवाद भी है कि दुष्चरित्रता के कारण मातादीन जैसे सम्पन्न व्यक्ति का नाम बिगाड़कर मतई कर दिया गया है।
आर्थिक अभाव के कारण व्यक्ति बहुत अच्छे कपड़े नहीं पहन सकता। धनिया ने पहले ही पाँच चीजें-लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर छोटी से कहा कि मैं उसके लिए पाँच पोशाक ले आयी हूँ। इससे छोटी की विपन्नता का बोध आरम्भ से ही हो जाता है। रूपा केवल लँगोटी बाँधकर रोती रहती है। धनिया की साड़ी में पचास पैबन्द हैं तो मुनिया की साड़ी में कम से कम सौ पैबन्द होंगे। गोबर जब शहर से लौटा तो वह धनिया के लिए बहुत हल्की तथा पतली साड़ी ले आया। धनिया कहती है कि यह कितने दिन चलेगी। हमारे लिए तो मोटी खद्दर की साड़ी होनी चाहिए। पाँच-दस साल पहले छोटी के लिए मिरजई बनी थी। मिरजई के कारण छोटी को बहुत यातनाएँ सहनी पड़ीं। कम्बल को चार पीढ़ी ने ओढ़ा है। कम्बल अब छोटी के लिए बुढ़ापे के उस दाँत के समान हो गया है जो बहुत कष्ट देता है। गोबर जब गाँव से आया तो उसने देखा -"धनिया की साड़ी में कई पेबन्ध लगे हुए थे। सोना की साड़ी सिर पर फटी हुई थी और उमसें से उसके बाल दिखाई दे रहे थे। रूपा की साड़ी में चारों तरफ झालरें सी लटक रही थीं। सभी के चेहरे सूखे थे। किसी के चेहरे पर चिकनाहट नहीं।"
प्रेमचन्द ने 'गोदान' में जगह-जगह पर आंचलिक शब्दावली का प्रयोग किया है जैसे-गगरा, चिसेरी (प्रार्थना), डांड (दण्ड), कनबतियाँ (कान में बात करना), मुहना आदि ये सभी शब्द देशज हैं। स्थान-स्थान पर तद्भव शब्द का प्रयोग भी किया गया है जैसे-मरजाद । यह शब्द 'गोदान' में कई बार आया है।
'गोदान' में अंग्रेजी शब्द कैबिनेट का प्रयोग भी किया गया है। खड़ी बोली का देश शब्दों के रूप में प्रयोग किया गया है। लेखक ने ग्रामीण तथा देशज शब्दों का प्रयोग तो कम ही किया है लेकिन मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग अधिक किया है। उपन्यास के प्रारम्भ में मुहावरों का प्रयोग द्रष्टव्य है-आँखें तरेरना; साठे पर पाठे; दूध, घी, अंजन लगाना; तिनके का सहारा छीनना आदि।
ग्रामीणों में वार्तालाप के संवाद अत्यन्त सीमित हैं। संवाद गाय, बैल, बादल तथा कृषि से ही सम्बन्धित हैं। उपन्यास के प्रारम्भ में गोबर और छोटी में तथा अन्त में हीरा और छोटी में आर्थिक विषमता से सम्बन्धित बातें ही होती हैं।
ग्रामीण पात्रों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति
उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द ने 'हंस' पत्रिका (1932) में 'हतभागे किसान' शीर्षक से अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये। हैं-"राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है वह इन्हीं किसानों और मजदूरों की मेहनत का सदका है। हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फौज, हमारी कचहरियाँ सब उन्हीं की कमाई के बल पर चलती हैं। लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न और वस्त्रदाता हैं, भरपेट अन्न को तरसते हैं, जाड़े पाले में ठिठुरते हैं और मक्खियों की तरह मरते हैं।"
प्रेमचन्द ने 'गोदान' उपन्यास में किसानों के जीवन को उभारा है। कुछ विद्वानों का मत है कि अगर प्रेमचन्द ने मजदूरों और किसानों को जोड़ दिया होता तो गोदान की इतनी निराशापूर्ण स्थिति नहीं होती। गाँव का शोषित किसान ही शहर का शोषित मजदूर है। डॉ. रामविलास शर्मा के शब्दों में-"लेकिन जहाँ खन्ना और राय साहब एक-दूसरे के नजदीकी दोस्त हैं और सट्टे तथा शक्कर के शेरों की इस्कीमें बनाते हैं, वहाँ किसानों और मजदूरों को एक-दूसरे का पता भी नहीं है। अपनी-अपनी लड़ाइयाँ अलग-अलग चलाने की वजह से दोनों में किसी की भी दशा नहीं सुधर पाती।"
किसानों में एकता न होने के कारण उनका शोषण किया जाता है। धर्मभीरु होने के कारण किसान सोचता है कि जिसका लिया है यदि उसका नहीं देंगे तो स्वर्ग में कष्ट मिलेगा और किसी का पैसा तो फिर भी वे दबा सकते हैं लेकिन ब्राह्मण का नहीं। अशिक्षा के कारण ही एक स्थल पर गोबर दाताहीन को ब्याज देने से इन्कार कर देता है लेकिन होरी अशिक्षा के कारण दे देता है। डॉ. गोपालराय के शब्दों में- “प्रेमचन्द ने किसानों की दयनीय स्थिति के कारणों का भी निर्देश किया है क्योंकि किसान अशिक्षित, दलित और धर्म-भीरु हैं इसलिए जमींदार, महाजन, पटवारी, पुलिस और पुरोहित सब निर्भय होकर उनका शोषण करते हैं।"
किसान का खून पीने वाली जोंकें अनेक हैं। प्रेमचन्द ने 'गोदान' में रामसेवक के माध्यम से किसानों के शोषण के प्रति अपने उद्गार इन शब्दों में अभिव्यक्त किये हैं-"यहाँ तो जो किसान है सबका नर्म चारा है। पटवारी को नजराना या दस्तूरी न दें तो गाँव में रहना मुश्किल। जमींदार के चपरासी और कारिन्दों का पेट न भरें तो निबाह न हो। थानेदार और कांस्टेबिल तो जैसे उसके दामाद हैं।" शोषण के त्रिकोण में किसान पिस रहा है। शोषण के त्रिकोण के एक कोने पर सरकार, एक पर महाजन तथा एक पर जमींदार है, बीच में किसान शोषित हो रहा है। महाजनी सभ्यता और जमींदारी कठोरता में किसान का जीवन दुर्लभ हो गया है। जड़ता और देवतापन के कारण किसानों पर इतना अत्याचार होता है लेकिन वे उसे मूक के समान सह लेते हैं। गोपालकृष्ण कौल के शब्दों में-"किसान भारतीय ग्राम देवता की करुण पुकार है।" किसान की मूल समस्या ऋण की समस्या है। अभावग्रस्तता के कारण ही किसान को ऋण लेना पड़ता है। धनिया का पटेश्वरी से कहना है-“आजकल हमारे ऊपर जो बीत रही है वह क्या तुमसे छिपा है। महीनों से भरपेट रोटी नसीब नहीं हुई।" किसान के अल्पजीवी होने का एक कारण यह भी है कि किसान को भरपेट भोजन भी नहीं मिलता है।
आज की सामाजिक स्थिति ऐसी है कि पौढ़ा किसान अर्थात सम्पन्न किसान पर कोई हाथ नहीं उठाता। जिसके पास पैसा है वह कम शोषित है, विपन्न किसानों का शोषण ही अधिक होता है।
पारिवारिक विघटन भारतीय किसान के लिए विपत्तिपरक है। होरी महतो कहलाता है। महतो मजदूरी नहीं करते हैं। किसान की असली मरजाद उसकी खेती है। खेती किसान के लिए किला है। पहले किसान खेती के बल पर ही महतो कहलाता था। किसानों में राग के क्षण अर्थात् सुख के क्षण बहुत सीमित हैं। किसानों में दुःख ही अधिक है। भारतीय किसान बिरादरी के आतंक से पीड़ित है। होरी जैसा व्यक्ति बिरादरी से बाहर की तो कल्पना भी नहीं कर सकता। प्रेमचन्द ने होरी की मनःस्थिति का चित्रण इन शब्दों में किया है- "बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था, शादी, ब्याह, मूढ़न, छेदन, जन्म, मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाये हुए थी........।"
अभावग्रस्त होने के बावजूद गाँव में आत्मीयता पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई है। बँटवारे से परिवार टूट गया है, लेकिन जब हीरा की तलाश की बात आयी तो उसकी सबसे अधिक सहायता ने होरी ने ही की। पहले जो पुनिया होरी और धनिया से लड़ती रहती थी, उसी ने भूख के अभाव में होरी की सहायता की। नगर की अपेक्षा गाँव में मानवीय संवेदना अधिक है।
ग्रामीण जीवन की मान्यताएँ और अन्ध विश्वास
जब हम किसी आदर्श के लिए या किसी सिद्धान्त के लिए कीमत चुकाते हैं तो वह जीवन मूल्य है। ईश्वीय न्याय या ईश्वरीय विधान में विश्वास सबसे बड़ा मूल्य है। गोदान के प्रारम्भ में होरी धनिया से कहता है कि छोटे-बड़े भगवान के यहाँ से ही बनकर आते हैं। प्रेमचन्द ने परम्परागत धर्म की अपने उपन्यासों में धज्जियाँ उड़ायी हैं। 'गोदान' में भी प्रेमचन्द ने धार्मिक पाखण्ड की गिन-गिनकर कड़ियाँ तोड़ी हैं। इस रचना तक आते-आते ईश्वर और तथाकथित धर्म के प्रति उनका मन विशेष रूप से अन्धविश्वासी हो गया था। बड़े आदमियों का दान-धर्म कोरा पाखण्ड है। जब होरी गोबर से कहता है कि मालिक चार घण्टे भगवान का भजन करते हैं, भगवान की उन पर दया क्यों न हो, तो गोबर व्यंग्य करता हुआ कहता है-"यह पाप का धन पचे कैसे? इसलिए दान-धर्म करना पड़ता है। भूखे नंगे रहकर आठों पहर भगवान की जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भक्ति भूल जायें।"
'गोदान' उपन्यास में मरजाद शब्द कई बार आया है। होरी अपनी मरजाद की रक्षा लिए सोना के विवाह के लिए दो सौ रुपये कर्ज लेता है। बाद में परिस्थिति से मजबूर होकर मजदूरी करता है। परम्परागत ब्राह्मण धर्म की प्रेमचन्द ने खूब खिल्ली उड़ायी है। यह धर्म विचित्र ढकोसला है। मातादीन ब्राह्मण वंश की मर्यादा तोड़ देता है। होरी की मान्यता है कि ब्राह्मण स कर्ज लेकर देना जरूरी है। उसका कहना है-"अगर ठाकुर या बनिये के रुपये होते तो उसे ज्यादा चिन्ता नहीं होती। अगर ब्राह्मण के रुपये उसकी एक पाई भी बच गयी तो हड्डी तोड़कर निकलेगी।"
'गोदान' उपन्यास में प्रेमचन्द ने नैतिक मूल्यों का भी यत्र-तत्र चित्रण किया है। यौन सम्बन्धी नैतिकता का यह उदाहरण द्रष्टव्य है। उपन्यास के प्रारम्भ में भोला होरी से कहता है-"आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर तके, उसे गोली मार देनी चाहिये। "
'गोदान' उपन्यास में अन्ध-विश्वास की चर्चा भी प्रेमचन्द ने की है। गंगाजल का एक प्रसंग है जिसमें बताया गया है कि पापी भी गंगाजल के नाम से डरता है। गौ-हत्या या जाति भ्रष्ट होने का प्रायश्चित भी उपन्यास में द्रष्टव्य है। हीरा तो गौ-हत्या के कारण पागल ही हो गया था।डॉ. विशम्भर मानव 'गोदान' को आधुनिक भारतीय जीवन का दर्पण मानते हैं। उनकी धारणा है-"गोदान आधुनिक भारतीय जीवन का दर्पण है। वह सामान्य और मध्य वर्ग की समस्याओं को लेकर चला है। प्रेमचन्द जी ग्राम्य जीवन को चित्रित करने में कैसे सिद्धहस्त थे यह किसी से छिपा नहीं है "
वस्तुतः 'गोदान' उपन्यास में सम्पूर्ण ग्रामीण जीवन का विस्तार से वर्णन किया गया है केवल राजनीतिक हलचल ही कुछ छूट गयी है। देव के शब्दों में- "प्रेमचन्द शताब्दियों से पददलित, अपमानित और निस्पेषित (अच्छी तरह पिसा हुआ) कृषकों की आवाज थे।" गोदान उपन्यास भारतीय जीवन का दुखान्त महाकाव्य है क्योंकि ग्रामीण जीवन का दैन्य इसमें चरम सीमा पर व्याप्त है। इसमें जीवन के संघर्षों से लोहा लेने वाले किसान होरी के जीवन की विवशता की मार्मिक कहानी अंकित है। शोषकों के दुर्दमनीय व्यवहार से वह पिसता जा रहा है पर उसके पास इन अत्याचारों से बचने का कोई उपाय नहीं है। होरी की कथा केवल उसकी कथा नहीं बल्कि समूचे कृषक जीवन की ट्रेजडी है। यह ट्रेजडी प्रतीकात्मक है, इसलिए अत्यधिक मर्मस्पर्शी है।
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