हिंदी उपन्यास की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि का परिचय हिंदी उपन्यास की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि जटिल और बहुआयामी है। यह भारतीय साहित्य और संस्कृति का एक महत्वप
हिंदी उपन्यास की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि का परिचय
हिंदी उपन्यास की सैद्धांतिक पृष्ठभूमि जटिल और बहुआयामी है। यह भारतीय साहित्य और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।हिंदी उपन्यासों ने भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है और भारतीय साहित्य को समृद्ध बनाया है।
अंग्रेजी में जिसे 'नॉवेल' कहा जाता है, उसे हिन्दी में 'उपन्यास' की संज्ञा 'दी जाती है। उर्दू में अभी तक उपन्यास के लिए कोई नाम नहीं आया है। उर्दू वाले उसे 'नॉवेल' ही कहते हैं। उपन्यास शब्द शुद्ध संस्कृत का है। न्यास शब्द से 'उप' उपसर्ग लगाकर इस शब्द का निर्माण हुआ है। संस्कृत के न्यास शब्द का अर्थ है- रखना । इसी से मिलता-जुलता शब्द है-न्यस्त। इसका अर्थ है-रखा हुआ । संस्कृत भाषा में चौथे आश्रम को संन्यास कहा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम तक जो कर्मकाण्ड और उपासना विधि प्रचलित होती है, उसका त्याग कर दिया जाता है, उसे रख दिया जाता है। 'सं' शब्द का अर्थ है-भली भाँति, अच्छी तरह। सभी प्रकार की वैदिक और पौराणिक क्रियाओं को त्याग देना ही संन्यास है।
बहुत से शब्दों का प्रचलन विचित्र विधि से होता है। जिन कार्यों अथवा गतिविधियों के हेतु कोई शब्द नहीं प्राप्त होता है, उनके लिए पता नहीं, किस प्रेरणा से किसी के मुख से कोई शब्द निकल जाता है और सभी उसे मान लेते हैं। खबर अथवा न्यूज के अर्थ में 'समाचार' शब्द का प्रयोग सबसे पहले गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने 'रामचरितमानस' में किया है -
समाचार पुर वासिन पाये,
घर-घर मंगल मोद बधाथे ।
संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'समाचार' शब्द सम् और आ उपसर्ग पूर्वक चर धातु घञ् प्रत्यय होकर बना है। इसी प्रकार समाचरण तथा आचरण शब्द भी प्रचलित रहे हैं। आचार शब्द भी इसी प्रकार का है। उपसर्ग, धातु और प्रत्यय पर विचार करने पर समाचार शब्द का अर्थ खबर या न्यूज नहीं है। पर तुलसीदास जी ने इस शब्द का प्रयोग आरम्भ कर दिया तो चल पड़ा और आज तक चल रहा है।
संस्कृत व्याकरण के अनुसार 'उपन्यास' शब्द की रचना उप तथा नि उपसर्ग पूर्वक अस धातु से हुई है। संस्कृत साहित्य में उपन्यास शब्द तो प्राप्त होता है, जिसका अर्थ है सभी में रखा हुआ।
जहाँ तक उपन्यास विधा की बात है, संस्कृत में यह विधा पहले से प्रचलित थी।संस्कृत साहित्य में कथा और आख्यायिका दो शब्द प्राप्त होते हैं। जो गद्य रचनाएँ वास्तविक होती हैं, जिनका ऐतिहासिक आधार होता है, उन्हें आख्यायिका कहा जाता है। जिनका आधार काल्पनिक होता है, उन्हें कथा कहा जाता है। महाकवि बाणभट्ट द्वारा विरचित 'हर्षचरित' आख्यायिका है और 'कादम्बरी' कथा है।
प्रारम्भ में उपन्यास काल्पनिक घटनाओं एवं नामों के आधार पर रचे गये। ऐसे उपन्यास आज भी रचे जा रहे हैं। कुछ समय पूर्व ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना होने लगी। वृन्दावन लाल वर्मा का उपन्यास 'झाँसी की रानी' ऐतिहासिक उपन्यास है। हिन्दी के अन्य लेखकों ने भी ऐतिहासिक उपन्यास लिखे हैं, पर उनकी संख्या नगण्य है।
उपन्यास का मूल कहानी है। काल्पनिक कहानियाँ तब से प्रचलित हैं, जब शिक्षा का प्रचार नहीं हुआ था। गाँव की अनपढ़ महिलाएँ बच्चों को रात में कहानियाँ सुनाती थीं। छोटे बच्चे माँ और दादी की कहानियाँ सुनकर सोते थे। उपन्यास का कभी मौखिक रूप रहा था, इसका कोई प्रमाण प्राप्त नहीं होता।
डॉ. गोपाल राय ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी उपन्यास का इतिहास' में लिखा है- "उपन्यास साहित्य की सभी विधाओं में आधुनिक है। ईसवी सन् की पहली शताब्दी में दुनिया की किसी भी भाषा में उपन्यास नहीं मिलता। सामान्यतः उपन्यास के उदय और विकास के लिए जो परिस्थितियाँ अपेक्षित थीं, वे प्रथम शताब्दी तक अस्तित्व में नहीं आयी थीं। पाठक उपन्यास की बुनियादी जरूरत है।" तात्पर्य यह है कि कहानी तो पढ़ी भी जाती है और सुनी भी जाती है, पर उपन्यास सुना जाना सम्भव नहीं है, उसके लिए पाठक चाहिए, उसे पढ़ा जा सकता है।
डॉ. गोपाल राय ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी उपन्यास का इतिहास' में लिखा है- "एक भिन्न परिस्थिति में 'चार्ल्स डिकेन्स' अमेरिका में श्रोताओं के समक्ष अपने उपन्यासों का वाचन करने गये थे और इसमें उन्हें सफलता भी मिली थी पर यह अपवाद है और इसका एक कारण डिकेन्स का उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध होना भी था।
उपन्यास और कथा का अन्तर
कथा उपन्यास से बहुत प्राचीन है। उपन्यास कथा की अपेक्षा बहुत अर्वाचीन और नवीन है। संस्कृत साहित्य में तो कथा शब्द का प्रचलन बहुत प्राचीन काल से है और उपन्यास शब्द का प्रयोग संस्कृत भाषा में न पहले हुआ और न आज ही होता है। यह बात अलग है कि यह शब्द विशुद्ध संस्कृत भाषा का है।
उपन्यास ने सिद्धान्त का रूप कब लिया, उसकी रचना को सैद्धान्तिक विवेचन कब प्राप्त हुआ, इस विषय में विश्वासपूर्वक यह कहा जा सकता है कि पहले उपन्यास विधा का जन्म हुआ, उसके विषय में सिद्धान्तों की रचना और कल्पना बहुत बाद में हुई। यह नियम सभी के विषय में शाश्वत और अपरिवर्तित है। पहले भाषा का निर्माण होता है, उसके सिद्धान्तों का विवेचन करने वाला व्याकरण बाद में आकार ग्रहण करता है। पहले बस्ती बस जाती है, ग्राम पंचायत या नगर पालिका का निर्माण बहुत बाद में होता है।
जहाँ तक हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि की बात है, इसका श्रेय भी हमें अंग्रेजी को ही देना पड़ेगा। वैसे हिन्दी में 'उपन्यास' शब्द और उपन्यास की रचना बंगला भाषा से आयी। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है—''नाटकों और निबन्धों की ओर विशेष झुकाव रहने पर भी बंग भाषा की देखा-देखी नये ढंग के उपन्यासों की ओर भी ध्यान जा चुका था। अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवासदास का 'परीक्षा गुरु' ही निकला था।" हिन्दी के पहले मौलिक उपन्यास के विषय में प्रोफेसर गोपाल राय की मान्यता इससे भिन्न है। उनकी मान्यता है- "हिन्दुस्तान में इस प्रकार की परिस्थितियाँ औपनिवेशिक शासन के बाद निर्मित हुईं। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से लेकर लगभग आगामी सात दशक तक हिन्दी पाठक वर्ग के निर्माण की प्रक्रिया बहुत धीमी रही और उपन्यास एक विधा के रूप में लगातार दस्तक देता रहा। आलंकारिक भाषा में यह भी कहा जा सकता है कि लगभग सत्तर वर्ष तक परिस्थितियों के गर्भ में कुलबुलाता रहा और 1870 ईसवी में 'देवरानी-जेठानी' के रूप में प्रकट हुआ। इसके लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व बँगला और मराठी में उपन्यास का जन्म हो चुका था। बँगला और हिन्दी में उसे 'उपन्यास', उर्दू में 'नावेल', मराठी में 'कादम्बरी' तथा गुजरात में 'नवलकथा' की संज्ञा प्राप्त हुई। कथा के उपन्यास के क्षेत्र में रूपान्तरण की कतिपय शर्तों में इसका लिखित गद्य कथा होना जरूरी था। हिन्दी गद्य के क्षेत्र में मौलिक कथा का अस्तित्व सदियों से था, पर लिखित रूप में उसका प्रचलन बहुत कम था। पंड़ित गौरीदत्त लिखित 'देवरानी जिठानी' की कहानी (1870) एक ऐसी ही पुस्तक थी, जिसे हिन्दी का पहला उपन्यास समझा गया था। हिन्दी खड़ी बोली में उपन्यास का लेखन और प्रकाशन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के प्रयास से हुआ।"
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में लिखा है-" अपने पिछले दिनों में वे (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र) उपन्यास लिखने की ओर प्रवृत हुए थे, पर चल बसे।" इस प्रकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार हिन्दी के पहले उपन्यासकार भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र थे ।
डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में डॉ. रामचन्द्र तिवारी ने 'उपन्यास' शीर्षक से लिखा है- भारतेन्दु युग में लेखकों को उपन्यास रचना की प्रेरणा बंगला और अंग्रेजी के उपन्यासों से प्राप्त हुई। अंग्रेजी ढंग का पहला मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवास दास का 'परीक्षा गुरु' सन् 1885 माना जाता है। इसके पूर्व श्रद्धाराम फुल्लौरी ने 'भाग्यवती' (1877) शीर्षक लघु सामाजिक उपन्यास लिखा था। 'भाग्यवती' की रचना के पूर्व बँगला में सामाजिक और ऐतिहासिक दोनों ही प्रकार के अच्छे उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे। हिन्दी में मौलिक उपन्यासों की रचना आरम्भ होने से पूर्व बँगला उपन्यासों के अनुवाद को लोकप्रियता मिल चुकी थी। हिन्दी के भारतेन्दुयुगीन मौलिक उपन्यासों पर संस्कृत के कथा साहित्य एवं परवर्ती नाटक साहित्य के प्रभाव के साथ ही बँगला उपन्यासों की छाप भी लक्षित की जा सकती है। इस युग के उपन्यासकारों में लाला श्रीनिवास दास (1851-1887), किशोरीलाल गोस्वामी (1865-1899), राधाकृष्ण दास (1865-1907), लज्जाराम शर्मा (1863-1931), देवकीनन्दन खत्री (1861-1913) और गोपालराम गहमरी (1866-1945) उल्लेखनीय हैं।"
हिन्दी का पहला उपन्यास चाहे पण्डित गौरीदत्त का 'देवरानी जिठानी' की कहानी हो, लाला श्रीनिवास दास का 'परीक्षा गुरु' हो अथवा श्रद्धाराम फुल्लौरी का 'भाग्यवती' हो, पर हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि के विषय में यही कहना पड़ेगा कि हिन्दी उपन्यास के जन्म की प्रेरणा बँगला भाषा के उपन्यासों से प्राप्त हुई 'उपन्यास' शब्द भी हिन्दी या संस्कृत भाषाओं का नहीं बँगला भाषा की देन है। विशाल काल्पनिक कथा को 'उपन्यास' नाम सबसे पहले बँगला भाषा के लेखकों ने ही दिया। उपन्यास शब्द संस्कृत भाषा का प्रतीत होता है, पर इसका प्रयोग प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता। संस्कृत भाषा में 'न्यास' शब्द प्राप्त होता है, जिसका अर्थ 'धरोहर' है। संस्कृत में 'उपन्यस्त' शब्द भी मिलता है, जिसका अर्थ है-सभी परखा हुआ। यह स्वीकार करने में हम हिन्दीभाषियों को संकोच नहीं होना चाहिए कि उपन्यास शब्द हमने बँगला भाषा से लिया है।
अंग्रेज व्यापारी के रूप में सबसे पहले कलकत्ता में आये जो पहले बँगाल की राजधानी रहा और इस समय 'कोलकाता' के रूप में पश्चिम बंगाल की राजधानी है। इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि अंग्रेजी पढ़ना और अंग्रेजी शासन में उच्च पद प्राप्त करना बंगालियों ने ही आरम्भ किया। भारतवर्ष को अंग्रेजों के धर्म ईसाई से बचाने का आरम्भ भी बंगाल से ही हुआ।
प्रोफेसर गोपाल राय ने अपने ग्रन्थ 'हिन्दी उपन्यास का इतिहास' में पहले अध्याय का शीर्षक दिया है-दरवाजे पर दस्तक । इसका समय उन्होंने सन् 1801 से 1869 स्वीकार किया है। इसका तात्पर्य यह है कि हिन्दी उपन्यास ने प्रवेश करने का प्रयत्न इन्हीं 68 वर्षों में किया। यह समय भारत में अंग्रेजी शासन का था। प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सन् 1857 में हुआ था, जिसे अंग्रेजों और उनके पिट्टुओं ने 'गदर' का नाम दिया था।
प्रोफेसर गोपाल राय ने यूरोप में उपन्यास के प्रारम्भ के विषय में लिखा है-" उपन्यास के अंकुरण और पल्लवन के लिए जरूरी बुनियादी संरचना के रूप में गद्य का विकास और मुद्रण यन्त्र का आविष्कार आवश्यक था । यूरोप में तेरहवीं शताब्दी में मुद्रण यन्त्र का आविष्कार हुआ, जिससे गद्य के विकास में अभूतपूर्व तेजी आयी । सामन्तवाद के स्थान पर पूँजीवाद के उदय का भी समय लगभग यही है । पूँजीवाद के साथ मध्य वर्ग का भी विकास हुआ, जिसने अपनी विशालता और बौद्धिक जागरूकता के कारण विशाल पाठक वर्ग का भी रूप ले लिया। तेरहवीं, चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में यूरोप में मध्यवर्गीय पाठक वर्ग पैदा हो गया था, जिसने वहाँ उपन्यास के उदय के लिए बुनियादी संरचना के निर्माण में योग दिया। फलस्वरूप सत्रहवीं शताब्दी के पूर्व में ही यूरोप में उपन्यास अस्तित्व में आ गया।"
भारत में भी हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि की यही कहानी है। उपन्यास के जन्म लेने के लिए मध्यम वर्ग का शिक्षित होना आवश्यक है । समाज सबसे अधिक संख्या निम्न वर्ग की होती है। वह न तो शिक्षित होता है और न उसमें पुस्तकें मोल लेने की क्षमता होती है। उसका पूरा समय और पूरी शारीरिक क्षमता पेट भरने और शरीर ढकने में व्यय हो जाती है। उच्च वर्ग के पास मनोरंजन के अन्य बहुमूल्य तथा श्रेष्ठ साधन होते हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में हिन्दी गद्य का द्वितीय उत्थान संवत् 1950 से संवत् 1975 विक्रमी तक स्वीकार किया है। इसका ईसवी सन् में परिवर्तन 1893 से 1918 ईसवी होता है। इस समय सीमा में भारत में अंग्रेजी राज्य सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के पश्चात् पुनः स्थापित हो चुका था। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता संग्राम के कारण भी समझ लिये और ऐसे प्रयास किये थे कि ऐसा विद्रोह पुनः न हो। उत्तर भारत में और विशेष रूप से उत्तर प्रदेश (उस समय संयुक्त प्रान्त) में देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी की शिक्षा पर बल दिया जाने लगा था। उच्च वर्ग तो इस समय सीमा में अंग्रेजी पढ़ने और अच्छी नौकरियाँ पाने हेतु प्रयत्नशील था। निम्न वर्ग में पढ़ने की न रुचि थी और न क्षमता। इसी समय सीमा में हिन्दी में मौलिक उपन्यास लेखन आरम्भ हुआ। इसी को हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि कहा जा सकता है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के 'हिन्दी साहित्ये का इतिहास' के अनुसार हिन्दी में मौलिक उपन्यासों की रचना का विवरण इस प्रकार है- 'द्वितीय उत्थान (सन् 1893 से 1918 तक) के आरम्भ में हमें बाबू गोपाल राम (गहमर) बँगभाषा के गार्हस्त्य (गृहस्थ सम्बन्धी) उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते हैं। उनके कुछ उपन्यास तो इस उत्थान संवत् 1967 के पूर्व लिखे गये। जैसे चतुरक चंचला (सन् 1893), भानुमती (सन् 1819), नये बाबू (सन् 1893) और बहुत इसके आरम्भ में जैसे—बड़ा भाई (सन् 1900), देवरानी जेठानी (सन् 1901), दो बहिन (सन् 1902), तीन पतोहू (सन् 1904) और सास पतोहू। भाषा उनकी अटपटी और क्रतापूर्ण है। ये गुण लाने के लिए कहीं-कहीं उन्होंने पूर्वी शब्दों और मुहावरों का भी बेधड़क प्रयोग किया है। उनके लिखने का रंग बहुत ही मनोरंजक है। इस काल के आरम्भ में गाजीपुर के. मुंशी उदित नारायण लाल के भी कुछ अनुवाद निकले, जिनमें मुख्य 'दीप निर्वाण' नामक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें पृथ्वीराज के समय का चित्रण है। "
अब तक के विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि हिन्दीभाषी भारतीय भाग के मध्यम वर्ग की शिक्षा और आर्थिक स्थिति थी। उस समय के मध्यम वर्ग में साधारण अथवा छोटे व्यापारी, पुरोहित, प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों के शिक्षक, पटवारी, जमींदारों के कारिन्दे और छोटे जमींदार कहे जा सकते हैं। ऐसे लोगों के पास जीविकोपार्जन के पश्चात् शिष्ट मनोरंजन के हेतु पर्याप्त समय बचता था और ये लोग छोटी तथा मध्यम मूल्य की पुस्तकें मोल लेने की क्षमता रखते थे।
इस समय तक हिन्दी की देवनागरी लिपि के मुद्रणालय (छापेखाने) भी खुल गये थे। पुस्तकें छापने के योग्य कागज भी सरलता से मिल जाता था। यह कागज बाहर से अर्थात् यूरोप से आता था। सम्भव है भारत में भी छपाई योग्य कागज बनाने के कारखाने बन गये हों। मध्यम वर्ग की मनोरंजन की रुचि, पुस्तक खरीदने की क्षमता और हिन्दी भाषा की शिक्षा ने हिन्दी उपन्यास की सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि का निर्माण किया।
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