जैनेन्द्र कुमार मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में प्रमुख स्थान रखते हैं जैनेन्द्र कुमार को हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
जैनेन्द्र कुमार मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकारों में प्रमुख स्थान रखते हैं
जैनेन्द्र कुमार को हिंदी साहित्य के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उन्हें हिंदी उपन्यासों में मनोविश्लेषणात्मक परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है। उनके उपन्यासों में पात्रों के मनोविज्ञान को बेहद गहराई से उजागर किया गया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जैनेन्द्र को सामाजिक उपन्यासकार माना है, पर यह न जैनेद्र की सही परख है और न ही सही पहचान है। यह सत्य है कि जैनेन्द्र को लिखना था, वे छायावाद काल में अर्थात् सन् 1920 से 1935 तक लिख चुके थे। इस कालावधि में उनके तीन उपन्यास 'परख', 'सुनीता' और 'त्यागपत्र' लिखे गये, पर ये उपन्यास प्रेमचन्द्र से पूरी तरह प्रभावित हैं। डॉ० नगेन्द्र द्वारा सम्पादित 'हिन्दी-साहित्य का इतिहास' में डॉ० गोपालराय ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है—“हिन्दी उपन्यास को प्रेमचन्द युग में ही नयी दिशा देने का सफल प्रयास किया जैनेन्द्र (1905-1988) ने विवेच्य काल (छायावाद काल) में उनके तीन उपन्यास प्रकाशित हुए- 'परख' (1929), 'सुनीता' (1935) और 'त्यागपत्र' (1937) हिन्दी उपन्यास को उनसे जो पाना था, वह इन्हीं कृतियों में मिल गया ।"
पात्रों की मनोवैज्ञानिकता अथवा अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों और उपन्यासों में आरम्भ कर दिया था, पर इसे गम्भीरता प्रदान की जैनेन्द्र कुमार ने। इसी आधार पर जैनेन्द्र कुमार को मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकार कहा जाता है। मनोविज्ञान, अन्तर्द्वन्द्व और मनोविश्लेषण में कोई अर्थ-सम्बन्धी अन्तर नहीं है। तीनों का तात्पर्य पात्रों के मानसिक भावों, अन्तर्मन में छिपी ग्रन्थियों और सुप्त कुंठाओं का विवेचन है। राजनाथ शर्मा ने स्वीकार किया है- "जैनेन्द्र 'परख', 'सुनीता', 'त्यागपत्र', 'कल्याणी' आदि उपन्यासों की रचना का मनोविश्लेषणवादी उपन्यासों की परम्परा प्रेमचन्द युग के उत्तरार्द्ध में डाल चुके थे। इस युग (विकास के युग) में उन्होंने 'सुखदा', 'विवर्त', 'व्यतीत', 'जयवर्द्धन' आदि उपन्यास लिखकर उसी परम्परा को आगे बढ़ाया है। इनमें व्यक्ति को केन्द्र बनाकर व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से व्यक्ति के निजी कुण्ठाजन्य मनःद्वन्द्वों का मनोविश्लेषण किया गया है। (यहाँ केवल 'विश्लेषण' शब्द पर्याप्त है)। इसी कारण इनमें युग जीवन की किसी व्यापक, ज्वलन्त समस्या या समस्याओं को न उठाकर, व्यक्ति की विशुद्ध वैयक्तिक अन्तर्विधाओं के संघर्ष को ही चित्रित किया गया है। इसलिए न तो इनके पात्र गम्भीरतम बन सके हैं और न युग जीवन को प्रभावित करने की सामर्थ्य ही रखते हैं। सम्पूर्ण उपन्यासों के कथानक और पात्र लगभग एक जैसे हैं, केवल नाम बदल दिये गये-से लगते हैं। निराशा, उदासीनता, निष्क्रियता, लक्ष्यहीनता, आत्मकेन्द्रीयता और कामकुण्ठाओं से आक्रान्त रहना इनके पात्रों की विशेषताएं मानी जाती हैं।"
जैनेन्द्र पर उनके उपन्यासों पर अथवा उनके पात्रों पर यह लांछन लगाना उनके साथ अन्याय करना है कि उनके द्वारा कोई सामाजिक अथवा राष्ट्रीय समस्या हल नहीं होती और वे किसी के लिए अनुकरणीय आदर्श नहीं बन पाते। इस प्रकार के पात्र और उपन्यास आदर्शवादी होते हैं, जबकि जैनेन्द्र के पात्र और उपन्यास यथार्थवाद पर आधारित हैं। समस्याएँ केवल सामाजिक, सार्वजनिक एवं समष्टिगत ही नहीं होतीं, व्यक्तिगत भी होती हैं। समाज उसी प्रकार व्यक्तियों से मिलकर बनता है, जिस प्रकार बूँदों से मिलकर सागर रूपाकार धारण करता है। व्यक्तियों से ही समाज बनता है, इस आधार पर कहा जा सकता है कि व्यक्ति का महत्व समाज से कम नहीं है।
जैनेन्द्र कुमार ने अपने पात्रों के मनोविश्लेषण को अपना लक्ष्य और आधार बनाया है। मनोविश्लेषण व्यक्तियों की एकता है। जो सामाजिक हित की अथवा असुविधा की बातें होती हैं उन्हें लोग सार्वजनिक रूप में उद्घोषित करते हैं, पर व्यक्तिगत समस्याएँ तो लोग मन में ही छिपाये रहते हैं। यदि व्यक्तिगत समस्या काम अथवा प्रेम-सम्बन्धी हो, तब तो व्यक्ति उसे अत्यधिक गुप्त रखता है। प्रेम मनुष्य का स्वभाव है। प्रेम हृदय का कार्य है और हृदय किसी प्रकार का विधि-निषेध नहीं मानता। समाज, धर्म, परिवार, जाति, राज्य आदि की ओर से असंख्य वर्जनाएँ खड़ी की जाती हैं। उनसे घिरे निरीह व्यक्ति को प्रेम की बात अथवा काम- सम्बन्धी भाव छिपाकर ही रखना पड़ेगा।
एक आरोप यह भी लगाया जाता है कि जैनेन्द्र कुमार के उपन्यासों में मनोविश्लेषण इतना अधिक है कि उपन्यास के शेष तत्व लगभग गौण हो गये हैं। डॉ० गणपति चन्द्र गुप्त के मत में - "जैनेन्द्र कुमार ने परख, सुनीता, त्यागपत्र, कल्याणी, सुखदा, विवर्त, व्यतीत, जयवर्धन आदि उपन्यासों की रचना की है, जिनमें विभिन्न पात्रों की मानसिक प्रवृत्तियों एवं अन्तर्द्वन्द्व का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म (यहाँ विस्तार शब्द होना चाहिए) रूप में हुआ है। उनके उपन्यासों का प्रमुख तत्व यह अन्तर्द्वन्द्व ही है, शेष तत्व कथावस्तु, वातावरण, शैली आदि गौण हैं। सामान्यतः इनमें नारी और पुरुष के पारस्परिक आकर्षण का चित्रण हुआ है, किन्तु इनकी नारियाँ पुरुष पात्रों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली हैं एवं सशक्त दृष्टिगोचर होती हैं. इसीलिए उनके उपन्यासों को नायिका-प्रधान भी कहा जाता है। इनकी नायिकाएँ भी प्रायः एक-जैसे व्यक्तित्व वाली हैं वे विवाहित हैं, किन्तु विवाह के अनन्तर अपने पति के मित्र, भाई या किसी अन्य सामाजिक कार्यकर्ता के सम्पर्क में आती हैं और उसे अपने हृदय का स्नेह, सच्ची सहानुभूति और कभी-कभी अपना सर्वस्व भी समर्पित करती हुई उसके चरित्र को ऊँचा उठाने या उसकी पीड़ा कम करने का प्रयास करती हैं। इस प्रकार इनकी नायिकाएँ बहुत उदार और स्वच्छन्द हैं, पर वे पतित नहीं हैं - वे अन्य व्यक्ति से सम्पर्क रखते हुई भी पति के प्रति प्रायः सच्ची रहती हैं। वे पत्नी और प्रेमिका—दोनों के कर्तव्य का निर्वाह करती हुई पत्नीत्व और सतीत्व, प्रेम और मर्यादा—दोनों को सँभाले रखती हैं।"
प्रेम के विषय में यह स्वाभाविक है कि वह परकीय अथवा परकीया के प्रति ही प्रबल होता है। जो सहज, सुलभ और उपलब्ध होता है। उसके प्रति विशेष उत्सुकता और आकर्षण का भाव नहीं होता।
हिन्दी की रीतिकालीन कविता परकीया-प्रेम से भरी हुई है। भक्ति-काल की सगुण धारा की कृष्ण-भक्ति शाखा के कवियों ने तो परकीया-प्रेम को भक्ति का आदर्श माना है। उनके अनुसार भक्त के हृदय में भगवान् के प्रति वही व्याकुलता होनी चाहिए जो पुरुष के मन में परकीया के प्रति होती है। प्रेम पर एकमात्र पुरुषों का ही अधिकार होता है, ऐसी बात नहीं है, नारियाँ भी प्रेम करना जानती हैं। वास्तविकता तो यह है कि प्रेम करना नारियों का ही धर्म और अधिकार है, वे केवल प्रेममयी होती हैं। वह चाहे सन्तान, पति, पिता, मित्र आदि किसी के प्रति हो सकता है।
डॉ० गणपति चन्द्र गुप्त ने जैनेन्द्र कुमार की प्रसिद्धि का कारण यौन-समस्याओं एवं स्वच्छन्द प्रणय की अनुभूतियों को विशिष्ट एवं विचित्र रूप में प्रस्तुत करना माना है। राजनाथ शर्मा ने जैनेन्द्र पर भारतीय मान्यताओं की छीछालेदर करने का आरोप लगाया है, पर डॉ० विवेकीराय ने जैनेन्द्र की मनोविश्लेषण-कला की प्रशंसा की है और कहा है उन्होंने (जैनेन्द्र कुमार ने) हिन्दी उपन्यास को असंदिग्ध रूप से नयी दिशा प्रदान की और उपन्यास को सामाजिक यथार्थ ही नहीं, मनोवैज्ञानिक यथार्थ के क्षेत्र में भी प्रवेश करने की राह सुझायी है ।" इस प्रकार श्री जैनेन्द्र कुमारजी को हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों की परम्परा हेतु पुरस्कृत भी माना जा सकता है।"
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