परिंदे कहानी की तात्विक समीक्षा निर्मल वर्मा परिंदे कहानी एक ओर तो कहानी-कला की दृष्टि से उत्तम है ही और दूसरी ओर लेखक की कहानी- कला का प्रतिनिधित्व भ
परिंदे कहानी की तात्विक समीक्षा | निर्मल वर्मा
निर्मल वर्मा की परिंदे कहानी एक उत्कृष्ट रचना है जो पाठक को भावुक और विचारशील बनाती है। इस कहानी का तात्विक विश्लेषण हमें इसके विभिन्न आयामों को समझने में मदद करता है। यह कहानी हमें जीवन के सार को समझने में मदद करती है और हमें अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती है।
प्रेमचन्द के पश्चात् जैनेन्द्र और अज्ञेय तक आते-आते हिन्दी कहानी अन्तर्मुखी हो चुकी थी और उसमें पुरुष के साथ-साथ (बल्कि उससे भी अधिक) नारी-मन को चित्रित किया जाने लगा था। नये युग के कहानीकारों ने इस प्रवृत्ति को और भी अधिक आगे बढ़या। श्री राजेन्द्र यादव 'एक दुनिया समानान्तर' ने इस सम्बन्ध में ठीक कहा है "जिन्दगी में सभी कुछ मधुर-मृदुल या 'गुड़ी-गुडी' नहीं होता, मजबूरियाँ भी हैं, विद्रोह भी हैं और सबकी जिन्दगियाँ एक-दूसरे से उलझी-बँधी भी हैं। कभी उसे (नारी को) शरीर की माँग झुका देती है तो कभी अकेलेपन की यातना।" इस अकेलेपन की यातना को मुखर करने वाले प्रमुख कथाकारों में से एक प्रमुख नाम है-निर्मल वर्मा और प्रमुख कहानी है-' परिंदे '।
परिंदे कहानी एक ओर तो कहानी-कला की दृष्टि से उत्तम है ही और दूसरी ओर लेखक की कहानी- कला का प्रतिनिधित्व भी करती है। स्वयं लेखक ने भी इसको विशेष महत्व की रचना माना है। प्रमाण है - इसी कहानी के नाम पर उनके एक कहानी संग्रह (परिन्दे) का नामकरण किया जाना। कहानी-कला की दृष्टि से की गयी प्रस्तुत कहानी की समीक्षा भी इसके 'महत्व' और 'विशेषत्व' की उद्घोषणा करती है।
परिंदे कहानी की समीक्षा इस प्रकार है -
कथावस्तु
कथा का प्रारम्भ होता है-लतिका से। लड़कियों के एक ईसाई विद्यालय की अध्यापिका लतिका अकेली थी- अपने आप में बिल्कुल अकेली। घर से दूर, होस्टन में रहने वाली लतिका 'घर' और 'घरवालों' के लिए तरसती है। कभी उसने कैप्टिन गिरीश नेगी से प्रेम किया था, जो नेगी के चले जाने से परवान न चढ़ सका किन्तु वह फिर कभी किसी और से प्रेम न कर सकी। कारण था मिस्टर नेगी के प्रति वह अटकाव, वह आकर्षण, जो उसके बाद भी उसे मथे डालता था। अतीत का यह स्मृति-धुन्ध उसको बिल्कुल एकाकी बना देता है - तन-मन दोनों से। छुट्टियों में भी होस्टन में रहना, पिकनिक पर तटस्थ बने रहना, मि० ह्य बर्ट के प्रेम-प्रस्ताव को ठुकराना, जूली के प्रेम पर चिढ़ना और अन्त में समर्पण-पत्र लौटा देना आदि इसी के सूचक हैं, परिणामस्वरूप 'परिन्दे' की भाँति लतिका भी सम्पर्कों के लिए ललकती किन्तु सम्पर्कों से कटी नारी बनकर रह जाती है।
प्रस्तुत कथा से स्पष्ट है कि यह एक विशेष मूड और मनःस्थिति की कहानी है जिसे कुछ विशेष क्षणों में भोगा-परखा जा सकता है। इसकी मुख्य कथावस्तु कान्वेण्ट स्कूल के होस्टल, पहाड़ी कस्बे के ईसाईयत में डूबे वातावरण की है-जिसमें लतिका भी अपने अतीत की स्मृतियों की मधुर वेदना लिए जीवन व्यतीत कर रही है। घटनाएँ अपेक्षाकृत कम हैं। केवल लतिका का राउण्ड लेना, ह्यबर्ट का संगीत सुनना, चर्च में प्रार्थना और पिकनिक आदि ही बाहरी घटनाएँ हैं। लेखक का सारो ध्यान मानसिक स्मृतियों और अन्तर्द्वन्द्वों में लगा है। इसी प्रकार घटनायें बाह्य कम और मानसिक अधिक हैं जिनको स्मृति जैसे माध्यमों से सम्बद्ध किया गया है। आधुनिक सन्दर्भों में निरन्तर अकेले होते जा रहे व्यक्ति (लतिका) के अन्तर्मन की अनुभूतियों से युक्त यह कथावस्तु स्वाभाविक, रोचक और अदृश्य यथार्थ से परिपूरित दृष्टिगोचर होती है।
चरित्र चित्रण
परिंदे कहानी में कुल मिलाकर आठ चरित्र हैं- लतिका, ह्यबर्ट, गिरीश नेगी, डॉ० मुखर्जी, मिस वुड, फादर एलमण्ड, करीमुद्दीन और जूली। सभी चरित्र एक विशेष वर्ग और वातावरण (ईसाईयत से परिपूर्ण वर्ग के वातावरण) से आये हैं जहाँ हर पात्र अंग्रेजियत के रंग में रँगा है। इनमें भी प्रधानता है- लतिका कीं। जैसा कि डॉ० महेन्द्र प्रताप (हिन्दी कहानी : 15 पगचिह्न) ने कहा है-"लतिका जिस मनःस्थिति में जीती है, उसके माध्यम से हम स्वातन्त्र्योत्तर भारतीय समाज में निरन्तर संक्रमित होते हुए बिखराव के बिन्दुओं को जान सकते हैं।" कहानीकार ने उसके माध्यम से, आधुनिक समाज में सम्पर्कों के लिए ललकती किन्तु सम्पर्कों से कटी उस नारी का चित्रण किया है जो अपने ही एकान्त में पिंजरे में बन्द परिन्दे की तरह छटपटाती है।
सभी चरित्र कथानुकूल तो हैं ही, स्वाभाविक स्वतन्त्र व्यक्तित्व से युक्त और वर्तमान नगरीय जीवन से सम्बन्धित भी हैं। लेखक ने उसके चरित्रांकन में प्रधानता निःसन्देह आन्तरिक पक्ष को दी है। लतिका और मि० ह्यबर्ट के चरित्र इसके सर्वोत्तम प्रमाण हैं। हल्की भावुकता, रोमानियत और किंचित आदर्श भी इनमें मिलता है। सभी विशेषकर, लतिका और मि० ह्यबर्ट अन्तर्मुखी हैं और प्रेम की निराशा, असफलता, स्मृतिग्रस्त कुण्ठाओं आदि दुविधाओं से ग्रस्त हैं। इसलिए वे कथा में वैयक्तिक अधिक बन गये हैं। इनके चरित्रांकन में कहानीकार ने वर्णन परिचय (यथा ह्यबर्ट का पूर्व परिचय), संवाद (ह्यबर्ट मुखर्जी संवाद), क्रियाकलाप (जूली, मिस वुड आदि के कार्य) तथा सबसे अधिक प्रतीक (यथा अवसाद पर संगीत, पूर्व स्मृतियाँ, परिन्दों का उड़ना, धुन्ध, कोहरा आदि) विभिन्न साधनों का प्रयोग किया है।
संवाद योजना
घटनाओं की कमी अंतर्मुखी चरित्रों की प्रधानता एवं संकेत शैली की प्रमुखता के कारण प्रस्तुत कथा में संवादों का अवसर अपेक्षाकृत कम है! फिर भी सभी प्रयुक्त संवाद पूर्णरूप से गुणयुक्त बन पड़े हैं। वे कथा के विकास और चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन तो करते ही हैं, साथ ही वातावरण निर्माण में भी सहायता करते हैं। व्यंजकता उनका सबसे बड़ा गुण है। कथा और पात्रादि की अनुकूलता के कारण तो उनमें आंग्ल शब्दावली की बहुलता तक आ गयी है और अन्तर्मुखी स्थिति की प्रमुखता के कारण स्वगत भी पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। जूली- लतिका, लतिका-ह्यबर्ट, लतिका-गिरीश और मिस वुड फादर एलमण्ड आदि के संवादों में ये विशेषतायें आसानी से दृष्टिगत की जा सकती हैं।
वातावरण
परिंदे कहानी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। बाह्यत: कहानी का वातावरण रानीखेत जैसे एक छोटे से पहाड़ी कस्बे का है जहाँ सब कुछ ईसाईयत और अंग्रेजियत से रँगा हुआ है। यहाँ तक कि, "कहानी में एक वातावरण छाया है जो पात्रों की आन्तरिक गतियों और मनःस्थितियों को व्यक्त करता है या प्रत्येक पात्र अपने वातावरण की सम्पृक्त उपज है।" इस कहानी का आस्वाद इस वातावरण की सम्पृक्ति के धरातल पर ही सम्भव है। एक विशेष दृष्टव्य बात, श्री धनंजय वर्मा के शब्दों में – “परिन्दे का वातावरण और चित्रण विदेशी सा लगेगा, क्योंकि वह सामान्यतः परिचित भारतीय वातावरण से एकदम भिन्न एक विशिष्ट परिवेश का है अन्यथा अनुभूतियों और संवेदनाओं में वह किसी भी कोण से विदेशी नहीं है।" दूसरे शब्दों में, बाह्यतः वातावरण परिवेश विदेशी है। कान्वेन्ट स्कूल का होस्टल, चर्च, कॉफी-मदिरा आदि की प्रचुरता, अँग्रेजी से भरे-पूरे संवाद, भाषा आदि सभी इसको 'विदेशी' बना देते हैं। दूसरी ओर मि० ह्य बर्ट का मृत पत्नी की याद करते रहना, लतिका के सम्मुख असफल प्रेम प्रस्ताव एवं लतिका का भावाकुल स्थिति में आंतरिक कुण्ठाओं से ग्रस्त रहना, पूर्व स्मृतियों में खोये रहना, अभावों को करते रहना क्या इसको भारतीय (बल्कि कहिये मानवीय) नहीं बना देते ? कहना न होगा कि समस्त वातावरण पूर्णतया यथार्थ, और फलस्वरूप विश्वसनीय बन पड़ा है। श्री धनंजय वर्मा ने ठीक ही कहा है – “यथार्थ के जिस स्तर को उन्होंने पकड़ा है, जिस वातावरण की बात वे करते हैं, उस स्तर और वातावरण में डूबकर, भीगकर वे लिखते हैं और फलस्वरूप डुबोते और भिगोते भी हैं।"
उद्देश्य
परिंदे कहानी का प्रधान उद्देश्य है (लतिका के माध्यम से) आधुनिक समाज की सम्पर्कों के लिए ललकती और सम्पर्कों से कटी नारी और उसकी आन्तरिक घुटन का यथार्थ चित्रण करना। साथ ही साथ प्रेम और तद्जनित कुण्ठाओं का दिग्दर्शन, वर्ग विशेष (आंग्ल भारतीय) के अन्तर्बाह्य वातावरण को मुखर करना एवं सबसे अधिक 'एक विशेष मूड और मनःस्थिति - असफल प्रेम के कुण्ठाग्रस्त मानस का प्रकटीकरण' आदि प्रस्तुत कहानी के अन्य उद्देश्य कहे जा सकते हैं! धनंजय वर्मा का यह कथन अक्षरश: सत्य है – “यहाँ केवल एक मुखर चिन्तन है जिसके माध्यम से अकेलेपन की परतें और स्तर-स्तर खुलते जाते हैं। वे स्तर जो जिन्दगी के व्यावहारिक पक्ष में नहीं खुलते, जो उससे पृथक् सार्थकता-असार्थकता की अनुभूति के निविड़ क्षणों में मुखर होते हैं।"
भाषा शैली
परिंदे कहानी की भाषा की सबसे बड़ी विशेषता है उसका कथा, पात्र और वातावरण के अनुकूल होना। आंग्ल परिवेश की इस कथा की भाषा में अंग्रेजी का प्रयोग धड़ल्ले से, और अत्यधिक किया गया है। साथ ही साथ हिन्दी की सरल व्यावहारिक शब्दावली (यथा गप-शप, हँसी-मजाक, कटकटाना), उर्दू (यथा जंबर, बावजूद, पाबन्दी) तथा तत्समपरक हिन्दी (यथा ताम्रवर्णित, लक्षित, स्वप्निल, ऊर्मियाँ, विस्मित) आदि भी यथास्थान आये हैं। कहीं- कहीं सूक्तियाँ (यथा' सब लड़कियाँ एक जैसी होती हैं - बेवकूफ और सेण्टीमेण्टल' तथा मुहावरे किरकिरा करना, दम रोके जोड़-हिसाब करना, स्वर्ग बनाना, चेहरा लाल होना आदि) भी इस स्वाभाविक बना देते हैं। जहाँ तक शैली का प्रश्न है उसमें वर्णन (अँधेरे कॉरीडोर गया), संवाद (यथा लतिका - गिरीश संवाद), पूर्व-स्मृति (यथा लतिका और ह्यबर्ट का पूर्व- स्मृतियों में खोना), काव्यात्मक (यथा प्रकृति वर्णन) संकेत अथवा प्रतीक (यथा परिन्दे, धुन्ध आदि) विविध शैलियों का मिश्रित रूप है।
नामकरण
परिंदे कहानी का नाम केवल एक सरल शब्द का होने के कारण संक्षिप्त और सरल है। साथ ही साथ यह मुख्य पात्र (लतिका की स्थिति) से सम्बन्धित, व्यंजक और कौतूहलपरक भी है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है – प्रतीकात्मकता। श्री धनंजय वर्मा के शब्दों में- "वह (लतिका) परिन्दों को उड़ता हुआ देखकर अपने मन की कामना की आपूर्ति और अभाव को झेलती है। ........ जैसे कोई पक्षी अपनी सुस्ती मिटाने के लिए झाड़ियों के किनारे बैठ जाता, पानी में सिर डुबाता, फिर ऊबकर हवा में दो-चार निरुद्देश्य चक्कर काटकर दुबारा झाड़ियों में दुबकता है, ऐसे ही वह भी लड़कियों के साथ मीडोज में पिकनिक कर लेती है, प्रेयर में पियानो सुन लेती है, पुरानी स्मृतियों के शीतल जल में कुछ देर डूबकर फिर अपने ही एकांत में दुबक जाती है। अपने ही एकान्त में बन्द परिन्दे की तरह छटपटाती है।"
निष्कर्ष
इस प्रकार कहा जा सकता है कि परिंदे कहानी, कहानी-कला की दृष्टि से सफल है और लेखक की कहानी-कला का प्रतिनिधित्व भी करती है। मूलतः यह भाव विशेष और मन:स्थिति विशेष की कहानी है जिसमें क्षण-विशेष की पकड़ और आश्चर्यचकित कर देने की प्रवृत्ति है जो इसको जैनेन्द्रीय कहानियों से अलग कर देती है। यहाँ वस्तु, चरित्र, यथार्थ- दृष्टि, भाषा, वातावरण सबके सब उस एक व्यक्ति के ही मूड में केन्द्रित हैं और उसी में डूबते से हैं एक भावाकुल मूड में। अतएव मुख्यतः एक विशेष मूड और मनःस्थिति की कहानी है और 'बादलों के घेरे' (कृष्णा सोवती), गुलकी बन्नो (धर्मवीर भारती), 'क्षय' (मन्नू भंडारी), 'छुट्टी का एक दिन' (उषा.प्रियंवदा), 'जानवर और जानवर' (मोहन राकेश), 'नन्हों' (शिवप्रसाद सिंह) आदि की परम्परा में आती है।
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