प्रेमचंद हिंदी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार हैं प्रेमचंद को हिन्दी उपन्यास साहित्य का प्रवर्तक माना जाता है अत: उनके समय को प्रेमचन्द-युग भी कहा जाता हैं
प्रेमचंद हिंदी के प्रथम मौलिक उपन्यासकार हैं
प्रेमचंद को हिन्दी उपन्यास साहित्य का प्रवर्तक माना जाता है, अत: उनके समय को प्रेमचन्द-युग भी कहा जाता है। हम इस युग के पहले तथा इस युग के बाद के उपन्यास-साहित्य को निम्न रूप में पाते हैं-
प्रेमचंद के पहले का उपन्यास साहित्य
प्रेमचंद के पूर्व का उपन्यास-साहित्य जासूसी, तिलस्मी, ऐय्यारी और काल्पनिक रोमांस से युक्त होने के कारण मानव के यथार्थ जीवन से बहुत दूर था। ये उपन्यास कौतूहल की सृष्टि कर केवल मनोरंजन मात्र करते थे । प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों के द्वारा युगान्तर उपस्थित किया। यदि उपन्यास को मानव-जीवन का महाकाव्य और मानव-चरित्र का चित्रण माना जाये, तो प्रेमचन्द के पूर्व का हिन्दी-उपन्यास इससे दूर था। इस दृष्टि से प्रेमचन्द को ही हिन्दी का मौलिक उपन्यासकार माना जा सकता है। प्रेमचन्द से पूर्व उपन्यास-साहित्य अपनी शैशवावस्था में था और अपने विकास की दिशा खोज रहा था।
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के शब्दों में, "इस नव-निर्माण के बीच कभी कोई उपन्यासकार किसी पौराणिक या सामाजिक कथानक का आधार लेकर कोई उपदेशात्मक कृति प्रस्तुत कर देता था और कभी कोई महत्त्वपूर्ण रचना सामने आ जाती थी, परन्तु सामाजिक प्रगति और जीवन की वास्तविकता में पैठकर उसके पर्याप्त और प्रभावशाली चित्र हमारे प्रारम्भिक उपन्यास अधिक मात्रा में नहीं दे सके थे। हिन्दी में अभी नवीन सामाजिक चेतना का उदय नहीं हुआ था।" उपन्यास के इस निर्माण और अनुवाद के प्रारम्भिक युग को पार करते हुए हिन्दी उपन्यासों के उस युग में पहुँचते हैं, जिनका शिलान्यास प्रेमचन्दजी ने किया और जिसमें आकर हिन्दी-उपन्यास एक सुनिश्चित कलास्वरूप को प्राप्त कर अपनी आत्मा को पहचान सका तथा अपने उद्देश्य से परिचित होकर उसकी पूर्ति में लग
सका।"
प्रेमचंद का समय और उसके बाद वाजपेयीजी के उक्त कथन से प्रकट होता है कि प्रेमचन्दजी से पूर्व हिन्दी उपन्यास की कोई मौलिक स्थिति नहीं थी। प्रेमचन्दजी उपन्यास- साहित्य में युगान्तर लेकर अवतरित हुए। प्रेमचन्द ने हिन्दी उपन्यास को विकसित कर उसका पथ प्रशस्त किया। प्रेमचन्द के परवर्ती उपन्यासकारों ने किसी न किसी रूप में प्रेमचन्दजी का अनुकरण किया। आज हिन्दी उपन्यास-साहित्य विकसित होकर पुष्ट हो चुका है। उसमें शैली-शिल्प और विषय-वस्तु की दृष्टि से नये-नये प्रयोग हुए हैं और असंख्य उपन्यास लिखे गये हैं, परन्तु हिन्दी-उपन्यास क्षेत्र में प्रेमचन्द-जैसा युगदृष्टा उपन्यासकार उत्पन्न नहीं हुआ, अतः प्रारम्भ से लेकर अब तक उपन्यास-जगत में प्रेमचन्द उपन्यास सम्राट का पद पाने के अधिकारी हैं।
अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपन्यासकार प्रेमचंद
भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का यथार्थ चित्र प्रेमचन्दजी द्वारा जिस तरह सामने आया, वह बात साहित्यकारों को असम्भावित-सी ही लगी । उनके उपन्यासों में आदर्शोन्मुख यथार्थ के चित्रण द्वारा जीवन-संघर्ष और चेतन-जगत् का सुन्दर समन्वय हुआ है। उनका 'गोदान' भारत के समाज का यथार्थ और सम्पूर्ण चित्र उपस्थित करने वाला महाकाव्य है। प्रेमचन्द के महत्त्व को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है- "गोदान के रचयिता प्रेमचन्दजी हिन्दी के वर्तमान और भविष्य के निर्देशक हैं। प्रेमचन्द उस शिखर के समान हैं, जिसके दोनों ओर पर्वत के दोनों भागों के उतार-चढ़ाव हैं।"
प्रेमचंद के अनुकरण पर उनके समकालीन अन्य उपन्यासकारों का मुख्य लक्ष्य मानव- जीवन का चित्रण करना बन गया था। प्रेमचन्द के 'सेवासदन', 'प्रेमाश्रम', 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि', 'गबन', 'गोदान' आदि मौलिक उपन्यासों में जीवन और समाज की अभिव्यक्ति बड़ी सफलता के साथ हुई है। इन उपन्यासों में वस्तु-चित्रण, वथोपकथन आदि के प्रौढ़तम रूप में दर्शन होते हैं। इनके माध्यम से निम्न और मध्यम वर्ग के सुन्दर चित्र सामने आये और साथ ही राष्ट्रीय भावना को भी बल मिला। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने प्रेमचन्द के महत्त्व को व्यक्त करते हुए लिखा है-
"प्रेमचंद शताब्दियों से पद-दलित अपमानित, निरपेक्षित कृषकों की आवाज थे; पर्दे में कैद पद-पद पर लांछित और असहाय नारी-जाति की महिमा के जबर्दस्त वकील थे; गरीबों और बेबसों के प्रचारक थे। अगर आप उत्तर भारत की समस्त जनता के आचार-विचार, रहन-सहन, आशा-आकांक्षा, दुख-सुख व सूझ-बूझ जानना चाहते हैं, तो प्रेमचन्द से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता। झोंपड़ियों से लेकर महलों तक आपको इतने ही कौशलपूर्ण और प्रामाणिक भाव से कोई नहीं ले जा सकता।”
प्रेमचंदजी नें उपन्यास-साहित्य को जीवन की पूर्ण कृति बनाने का अनुपम प्रयास किया है। तत्कालीन सच्ची परिस्थितियों का चित्रण बड़ी ही सुकुमारता से आपके उपन्यासों में सँजोया गया मिलता है। उस युग के अन्य प्रमुख उपन्यासकारों में प्रसाद, कौशिक, उग्र, प्रतापनारायण श्रीवास्तव, भगवतीचरण वर्मा, चतुरसेन शास्त्री, वृन्दावनलाल वर्मा आदि हैं। एक ओर प्रसादजो ने 'कंकाल' और 'तितली' यथार्थवादी उपन्यास लिखे। इनमें प्रसाद ने यथार्थवाद की पृष्ठभूमि में आदर्श की प्रेरणा दी, दूसरी ओर समाज की दुर्बलताओं को नग्न रूप में प्रकट करने के लिए उग्रजी ने साहित्य के अगणित विषयों पर लेखनी चलाई-'दिल्ली के दलाल', 'सरकार तुम्हारी आँखों में' आदि आपके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।
कुछ उपन्यासकार ऐसे भी हुए, जिन्होंने प्रेमचन्द का ही पूर्ण रूप से अनुसरण किया- पं० विश्वम्भरनाथ कौशिक के 'माँ' और 'भिखारिणी' बाबू प्रतापनारायण श्रीवास्तव के 'बिना', 'विकास', 'विजय और विसर्जन', श्री जैनेन्द्रकुमार के 'तपोभूमि', 'सुनीता', 'परख', 'कल्याणी', आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं। चतुरसेन शास्त्री के 'हृदय की प्यास' 'वैशाली की नगरवधू' 'सोमनाथ' आदि सामाजिक एवं ऐतिहासिक उपन्यास भी अपना विशेष महत्त्व रखते हैं। इसी भमय इलाचन्द्र जोशी, अमृतलाल नागर, नरोत्तम नागर आदि ने कुछ मनोवैज्ञानिक उपन्यास लिखकर इस दिशा को नया मोड़ दिया। अज्ञेय के 'नदी के दीप', 'शेखर: एक जीवनी' आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं। वृन्दावनलाल वर्मा अपने ऐतिहासिक उपन्यास लेकर हिन्दी-जगत् के समक्ष इसी युग में आये। आपके 'गढ़-कुण्डार', 'विराटा की पद्मिनी', 'झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई', 'मृगनयनी', 'सोना', 'माधवजी सिंधिया' आदि प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास हैं। इस समय कुछ छायावादी कवियों ने भी उपन्यास लिखे, जिनमें निराला के 'कुल्ली भाट', 'बिल्लेसुर बकरिहा' आदि यथार्थवादी उपन्यास हैं। इनमें जीवन की कठोर वास्तविकतायें मिलती हैं।
प्रेमचंद के बाद का उपन्यास
साहित्य-प्रेमचन्द ने जिस क्षेत्र में कार्य किया था, उसमें उनके उत्तराधिकारी-क्रम का आरम्भ हुआ । प्रकाशचन्द गुप्त ने प्रेमचन्द के उत्तराधिकारी उपन्यासकारों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए लिखा है-“प्रेमचन्द की किसान-परम्परा को तजकर हिन्दी-उपन्यास अनेक नई शाखाओं में बढ़ा-तत्व और रूप दोनों की दृष्टि से। एक धारा निम्न-मध्यम वर्ग के जीवन, उनकी निराशाओं और असफलताओं को अपनाती है। इसके परिचायक जैनेन्द्र, भगवतीप्रसाद वाजपेयी, अश्क आदि हैं। दूसरी धारा व्यक्तिवाढी, प्रमुख अहंवादी आदि नाशवादी दृष्टिकोण को अपनाती है। इसके प्रतिनिधि भगवतीशरण वर्मा, अज्ञेय आदि हैं। एक धारा मनोविश्लेषणशास्त्र के प्रभाव से कुण्ठित अतृप्त वासनाओं की अभिव्यक्ति करती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि पण्डित इलाचन्द्र जोशी हैं। एक अन्य धारा भारतीय श्रमजीवी वर्ग की छिपी शक्तियों से सम्बन्ध जोड़ती है और भविष्य की धरती सँजोती है। इसके प्रमुख प्रतिनिधि यशपाल, रांगेयराघव, पहाड़ी, भगवत शरण उपाध्याय, नागार्जुन आदि हैं।”
उपर्युक्त वर्गीकरण आधुनिक उपन्यासों की एक संक्षिप्त झाँकी प्रस्तुत करता है । आधुनिक युग के उपन्यासों में साम्यवाद पर आधारित यथार्थवाद की प्रवृत्ति बहुत रही है। इन उपन्यासों में वर्ग-संघर्ष, सामाजिक विषमता, दरिद्रता आदि का यथार्थ चित्रण मार्क्सवादी विचारधारा के प्रभाव में किया गया है। इस धारा का प्रतिनिधित्व श्री यशपाल करते हैं, 'दादा कॉमरेड', 'देशद्रोही', 'झूठा सच' आदि आपके प्रमुख उपन्यास हैं। राहुल सांकृत्यायन के 'जयघोष', 'सिंह सेनापति' आदि उपन्यासों में सामाजिक पहलू के स्थान पर ऐतिहासिक कथाओं पर अधिक ध्यान दिया गया है। इस धारा के अन्य लेखकों में-रांगेय राघव के 'घरोंदे', 'मुर्दों का टीला' आदि, उपेन्द्रनाथ 'अश्क' के 'गिरती दीवारें', 'गर्म राख', नागार्जुन के 'बलचनमा', 'रतिनाथ की चाची' तथा अमृतलाल नागर के 'बूँद और समुद्र', 'महाकाल' आदि उपन्यास बहुत प्रसिद्ध हैं। इनके लेखकों की दृष्टि से वर्तमान समाज जर्जर हो चुका है। अतः उसमें साम्यवादी नव-जीवन की धारा प्रवाहित करने के उद्देश्य से उन लोगों को कसौटी पर कसते हुए कहीं तो सहानुभूति दिखायी गयी है और कहीं तीक्ष्ण व्यंग्य किये गये हैं, कहीं प्रेम, पाप-पुण्य, विवाह आदि पर वर्तमान सामाजिक दृष्टिकोण से भी विचार किया गया है।
वर्तमान हिन्दी उपन्यास बहुमुखी होकर विकसित हो रहा है। अज्ञेयजी के 'नदी के द्वीप' में सेक्स की प्रधानता होने से कुछ अश्लीलता आ गई है। श्री हजारीप्रसादजी ने 'बाणभट्ट की आत्मकथा' अपने ढंग का नया उपन्यास लिखा है। महिला लेखिकाओं में ऊषादेवी मित्रा के उपन्यासों में रोमांटिकता तथा कु. सब्बरलाल के उपन्यासों में भारतीय नारी का निरूपण हुआ है। नये लेखक एवं लेखिकाओं ने भी इस क्षेत्र में पदार्पण किया है। इसके साथ ही उपन्यास की शैली एवं शिल्प-विधान में भी नये-नये प्रयोग हो रहे हैं।
हिन्दी उपन्यास जगत और प्रेमचंद
प्रेमचंद ने उपन्यास लिखना सन् 1902 में प्रारम्भ किया था। इस समय आपकी आयु केवल 20 वर्ष की थी। आपके टैगोर की कई कहानियों के अनुवाद उर्दू-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। आपकी सबसे पहली कहानी 'संसार का सबसे अनमोल रत्न' सन् 1900 में 'जमाना' पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। इसी वर्ष आपने 'कृष्णा' नामक उपन्यास की भी रचना की थी। 1902 में 'वरदान' तथा सन् 1902 में ही 'प्रमा' और सन् 1906 में 'प्रतिज्ञा' उपन्यास की रचना की। सन् 1908 ई. में जमाना प्रेस से 'सोजे- वतन' के नाम से पाँच कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ जो सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया। अब तक आप नवाबराय के नाम से कथा-साहित्य की रचना करते थे। 'सोजे वतन' की जब्ती के पश्चात् 'प्रेमचन्द' के नाम से लिखने लगे और उर्दू से हिन्दी की ओर आ गये।
'सेवा सदन' प्रेमचन्द का प्रथम महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। यह सन् 1916 में प्रकाशित हुआ। इससे पूर्व आप 'वरदान' या 'प्रेमा' और 'रूठी रानी' उपन्यास लिख चुके थे । 'रूठी रानी' एक छोटा-सा ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें राजपूती वीरता के साथ परस्पर उस फूट का चित्रण किया गया है, जिसके कारण देश पराधीन हुआ। सन् 1901 में 'प्रतापचन्द' नामक उपन्यास लिखा, जिसे सन् 1902 में 'वरदान' नाम से प्रकाशित किया। सन् 1903 में प्रकाशित 'प्रेमा' उपन्यास पहले उर्दू में 'हम-खुमाँ और हम-कबाव' के नाम से प्रकाशित हो चुका था । बाद में प्रेमचन्दजी ने 'प्रेमा' में बहुत अधिक परिवर्तन कर दिया और वह हिन्दी में 'प्रतिज्ञा' और उर्दू में 'बेवा' नाम से प्रकाशित हुआ। प्रेमचन्द के इन उपन्यासों में कला की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। 'सेवासदन' ही आपका प्रथम महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। इसके पश्चात् प्रेमचन्दजी के निम्नलिखित उपन्यास प्रकाशित हुए- 'प्रेमाश्रम' (सन् 1922), 'निर्मला' (सन् 1923), 'रंगभूमि' (सन् 1924-25), 'कायाकल्प' (सन् 1928), 'गबन' (1931), 'कर्मभूमि' (सन् 1932), 'गोदान' (सन् 1936) ।
सन् 1936 ई. में ही प्रेमचन्द ने 'मंगलसूत्र' नाम का उपन्यास लिखना प्रारम्भ किया, परन्तु उनकी मृत्यु के कारण पूर्ण न हो सका ।
हिन्दी के उपन्यास साहित्य को प्रेमचंद की देन मात्र उनकी रचनाधर्मिता के कारण ही महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि वह अन्य साहित्यकारों के लिए भी प्रशंसनीय बनी, अतः वह उपन्यास- साहित्य में विपुल संवर्द्धन का मार्ग प्रशस्त करने का कारण बनी और उन्होंने स्वयं इतना महत्त्वपूर्ण सृजन किया कि वह हिन्दी उपन्यास- गगन में प्रकाशवान सूर्य की तरह भासमान हो उठे। उनका स्थान अमर हो गया और वे यथार्थ में हिन्दी उपन्यास-जगत् सम्राट माने गये।
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