राग दरबारी उपन्यास के संवाद | श्रीलाल शुक्ल

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राग दरबारी उपन्यास के संवाद श्रीलाल शुक्ल उपन्यास की खासियत इसकी जीवंत भाषा और पात्रों के बीच होने वाले संवाद हैं पात्रों के माध्यम से ग्रामीण भारत की

राग दरबारी उपन्यास के संवाद | श्रीलाल शुक्ल


श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण रत्न है। इस उपन्यास की खासियत इसकी जीवंत भाषा और पात्रों के बीच होने वाले संवाद हैं। शुक्ल जी ने अपने पात्रों के माध्यम से ग्रामीण भारत की सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थिति को बेहद सटीक ढंग से उजागर किया है।
 
उपन्यास के तत्त्वों में संवाद-योजना अथवा कथोपकथन का प्रमुख स्थान है। संवाद वैसे नाटक के अनिवार्य अंग होते हैं। नाटक का लेखक अपने दर्शकों के सामने आकर कभी कुछ नहीं कहता। उसे जो कुछ कहना होता है, उसे वह अपने पात्रों से कहलवाता है। कहानीकार तथा उपन्यासकार इस दृष्टि से अपनी रचनाओं में कथोपकथनों का प्रयोग करते हैं कि आपस में वार्तालाप करते हुए उनके पात्र वास्तविक जीवन के अंग प्रतीत होते हैं तथा उपन्यास और कहानी का पाठक इन पात्रों को वास्तविक और जीवित समझता है।
 
वे संवाद उत्तम माने जाते हैं जो छोटे, चुटीले तथा प्रभावशाली होते हैं। संवादों को पात्रों की शिक्षा, सामाजिक स्थिति एवं सभ्यता के भी अनुकूल होना चाहिए। संवाद दो काम विशेष रूप से करते हैं। एक तो कथानक को आगे बढ़ाते हैं और दूसरे पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं। पात्र जो कुछ अपने विषय में कहते हैं, उसमें उनका चरित्र निर्मित होता है। वे दूसरे पात्रों के विषय में जो कुछ कहते हैं, उससे उनके चरित्र का निर्माण होता है।
 

छोटे संवाद

पुलिस वालों ने सेठ गयादीन के घर की चोरी में शिवपालगंज के जोगनाथ का चालान किया था। बैजनाथ उस केस में पुलिस की तरफ से गवाह थे। जोगनाथ के वकील के प्रश्नों का उत्तर देते समय बैजनाथ ने अत्यधिक संक्षिप्त संवादों का सहारा लिया है। जैसे- 
जोगनाथ के वकील ने जिरह शुरू की- 
"जी हाँ।" 
“भीखमखेड़ा शिवपालगंज से दो मील है?" 
“मैं नहीं जानता।" 
"फिर कितनी दूर है ?" 
"शिवपालगंज में नौटंकी होती है तो भीखमखेड़ा में सुनाई देती है।” 
"एक मील होगा ?" 
"नहीं कह सकता।" 
'आधा कोस ?" 
"नहीं मालूम।" 
"बीस मील।" 
"नहीं मालूम, मैंने नापा नहीं।" 
अदालत ने गवाह को घूरकर कहा-"कितना फासला है दोनों गाँवों में, इनके बीच में कुछ खेत पड़ते हैं।" 
"कितने खेत ?" 
“दस-बीस, पचास खेत होंगे।" 
“सही-सही बताओ कितने खेत होंगे ?" 
“नहीं मालूम। मैंने गिना नहीं है।"
 

पात्रानुकूल संवाद

ट्रक का ड्राइवर पढ़ा-लिखा नहीं है अथवा कम पढ़ा-लिखा है। वह श्रीमान् जी को 'शिरिमान जी' कहता है।रंगनाथ ने निर्विकार ढंग से ट्रक के ड्राइवर से पूछा - "क्यों ड्राइवर साहब ! यह ट्रक क्या शिवपालगंज की ओर जायेगा ?" 
राग दरबारी उपन्यास के संवाद | श्रीलाल शुक्ल
उसने लापरवाही से जवाब दिया- “जायेगा।" "हमें भी ले चलियेगा अपने साथ, पन्द्रहवें मील पर शिवपालगंज पर उतर पड़ेंगे।" “बैठ जाइए शिरिमान जी ! अभी चलते हैं।" 
जब ट्रक चलने लगा और गियर बार-बार टॉप से फिसलकर न्यूट्रल में आने लगा तो रंगनाथ ने कहा- 
“ड्राइवर साहब ! तुम्हारा गियर तो बिल्कुल अपने देश की हुकूमत जैसा है।" 
ड्राइवर ने मुस्कराकर यह प्रशंसा-पत्र ग्रहण किया । 
रंगनाथ ने अपनी बात साफ करने की कोशिश की- “ड्राइवर साहब ! उसे चाहे जितनी बार टॉप गियर में डालो, दो गज चलते ही फिसल जाता है और लौटकर अपने खाँचे में आ जाता है।" ड्राइवर हँसा। बोला-ऊँची बात कह दी शिरिमान जी ने।" 
ट्रक को रोककर थानेदार और उनके साथ वाले सिपाहियों ने चैक किया। परेशान होकर थानेदार ने कहा- "अच्छा जाओ जी बण्टासिंह! तुम्हें माफ किया।"
 
ड्राइवर ने खुशामद के साथ कहा- "ऐसा काम शिरिमान जी ही कर सकते हैं।" शिवपाल गंज के प्रधान सनीचर-उनका नाम तो मंगल दास था, पर इनके कपड़ों, रहन-सहन और आकृति के कारण इन्हें सनीचर कहा जाता था। इनका एक ही काम था-वैद्य जी की भाँग घोंटना। वैद्य जी के उत्साह और आशीर्वाद से ये शिवपालगंज के प्रधान का चुनाव जीत गये। पढ़े-लिखे नहीं थे या बहुत कम पढ़े-लिखे थे। प्रधान बनकर उन्होंने एक खोखे में दुकान खोल ली थी। थानेदार साहब ने जोगनाथ का चालान गयादीन के धर में चोरी करना बताकर कर दिया। अदालत में जोगनाथ पर अपराध सिद्ध नहीं हुआ। जोगनाथ छूट गया। उसने थानेदार साहब पर अपने आपको झूठा फँसाने के आधार पर मुकदमा चला दिया। थानेदार साहब का शिवपालगंज से ट्रान्सफर हो गया था। उनका कोई दबाव नहीं रहा। वे जोगनाथ से समझौता कराने वैद्य जी के पास गये। उन्होंने ग्राम-प्रधान सनीचर के पास भेज दिया। सनीचर और थानेदार साहब में जो बातें हुईं, उनसे सनीचर के संवाद अपनी अशिक्षा अथवा अलग शिक्षा का आभास दे रहे हैं-
 
जोगनाथ ने आते ही कहा- “प्रधान जी! दरोगा जी आये हैं"

सनीचर ने दरोगा जी के सिर के ऊपर निगाह फेंकते हुए पूछा - "कहाँ हैं?" "आप ही हैं।"
 
सनीचर ने सामने पड़ी बेंच की ओर इशारा करके उनसे रूखाई से कहा- “बैठो दरोगा जी, आप बिना वर्दी के थे। पहचानने में कुछ दिक्कत हो गयी।"
 
दरोगा जी ने कहना शुरू किया कि सनीचर-जैसे प्रधान के हाथ में शिवपालगंज बहुत तरक्की करेगा। उन्होंने खेद प्रकट किया कि अपनी तैनाती के दिनों में वे सनीचर से जान-पहचान नहीं कर सके। उन्होंने कहा- “जोगनाथ को कुछ गलतफहमी हो गयी है जिससे उन्होंने एक दावा.. |"
 
सनीचर ने बात रोककर कहा- “गलतफहमी! यह कौन-सी चिड़िया है? आप अंग्रेजी छोड़कर देसी बोली में बताइए। हम देहाती आदमी हैं। कुछ ऐसा बोलिए कि बात समझ में आ जाये।"
 
दरोगा जी की मूँछों पर जमे हुए मोम ने उनकी इज्जत बचायी। उठी मूँछों की छत्रछाया में आवाज को बहुत मीठा बनाकर उन्होंने समझाया - "जोगनाथ को कुछ भरम हो गया "
 
सनीचर ने कहा- "भरम हो गया है तो इसी मुकदमें में साफ हो जायेगा। चार पेशी बाद पता चल जायेगा कि भरम किसका है ?" दरोगा जी ने बेंच पर कोई भी कशमकश नहीं दिखाई। घड़ी देखते हुए बोले- "देखिए प्रधान जी ! आप यही समझ लें कि भरम मुझको हुआ था। गलती मेरी थी। मुझे पूरी शहादत देखे बिना इस मुकदमें में हाथ न डालना था। मैं अब सुलह करने को तैयार हूँ। आप जो सही समझें, वही किया जाये।"
 
जोगनाथ मुस्कुराया, पर सनीचर ने गंभीरता के साथ कहा-"क्या कहते हो जोगनाथ ?" 
"मुझे क्या कहना है? मैं तो तब भी गुण्डा था, अब भी गुण्डा हूँ, कहना-सुनना तो तुम्हीं को है। वैसे मेरी राय पूछते हो तो यह भी सुन लो। दरोगा जी जो कह रहे हैं, उसी को लिखकर दे दें। मामला खत्म समझ लिया जाये।" 
दरोगा जी कुछ नहीं बोले। सनीचर थोड़ी देर तक सोचता रहा, फिर बोला- "मैं बताऊँ दरोगा जी! चलिए वैद्य जी से बात कर ली जाये।"
 
लंगड़ की नकल की दरखास्त -लंगड़ यहाँ से पाँच कोस दूर एक गाँव का रहने वाला है। बीबी मर चुकी है। लड़कों से वह नाराज है और उन्हें अपने लिए मरा हुआ समझ चुका है। भगत आदमी है। कबीर और दादू के भजन गाया करता था। गाते-गाते थक गया तो बैठे-ठाले एक दीवानी का मुकदमा दायर कर बैठा। मुकदमे के लिए एक कागज की नकल चाहिए। रिश्वत देना नहीं चाहता। उसकी दरखास्त बार-बार खारिज होती है। अनपढ़ लंगड़ के संवाद उसकी शिक्षा और मान्यता स्पष्ट करते हैं-
 
रंगनाथ ने पुकारकर कहा- "लंगड़ हो क्या ?" 
लंगड़ बोला- "हाँ बापू! लंगड़ ही हूँ।" 
"मिल गयी नकल ?" 
"नकल तो नहीं मिली बापू! आज नोटिस बोर्ड पर एतराज छपा है।" 
“क्या हुआ ? फिर से फीस कम पड़ गयी क्या ?" 
"फीस नहीं बापू! इस बार मुकदमे के पते में कुछ गलती है। प्रार्थी का दस्तखत नहीं है। बहुत गलती निकाली गयी ?"
 

चरित्र पर प्रकाश डालने वाले संवाद

बद्री पहलवान वैद्य जी के पुत्र हैं। पढ़े-लिखे अधिक नहीं हैं। डंडा ठोकी बात कहते हैं। उनके संवाद उनके अक्खड़ चरित्र पर प्रकाश डालते हैं। बद्री पहलवान रिक्शे पर आ रहे थे। रिक्शे वाले लड़के ने कहा- "पहलवानी तो अब दिहात में चलती है, ठाकुर साहब।"
 
इतनी देर बाद बद्री पहलवान को अपमान की अनुभूति हुई। हाथ बढ़ाकर उन्होंने रिक्शा वाले की बनियान चुटकी से पकड़कर खींची और कहा-"अबे ! घण्टे भर से यह ठाकुर साहब, ठाकुर साहब क्या लगा रखा है? जानता नहीं, मैं बांमन हूँ?" 
छोटे पहलवान ने जोगनाथ वाले मुकदमे में पुलिस की गवाही देते समय गयादीन की पुत्री बेला को बदचलन बताया था। बद्री पहलवान इससे क्रोधित हुए और छोटे से पूछा - "पर तुमने तो कहा था कि तुमने बेला को जोगनाथ के साथ सटर-पटर वाली हालत में देखा है।” "कहने से क्या होता है ?"
 
बद्री पहलवान ने आवाज कड़ी करके कहा- “होता क्यों नहीं है? कहा था कि नहीं।" इसके बाद उन्होंने छोटे पहलवान से कहा- "सोच रहा हूँ कि तुम्हें लात से मारूँ या जूते से । तुम्हारी जवानी पर पिल्ले मूतते हैं।" छोटे पहलवान ने अकचकाकर पूछा - "ऐसा न कहो गुरु! बताओ तो मुझसे चूक कहाँ हुई?"
 
बद्री पहलवान ने कहा- "तुम खानदानी बाँगड़ हो। तुम्हें कुछ दाएँ-बाएँ भी दीख पड़ता है। यह बेला अब तुम्हारी अम्मा बनने वाली है। अब चाहे उसे छिनाल कहो, चाहे कुछ और। गाली तुम्हीं पर पड़ेगी।"
 
बद्री पहलवान के पिता वैद्य जी ने जब बेला और और बद्री के विवाह से अपनी नाक कटने की बात कही तो बद्री पहलवान ने बिना संकोच के अपने परबाबा पर आरोप लगाते हुए कहा-"नाक-वाक वाली बात न करो। नाक है कहाँ ? वह तो पंडित अजुध्या परसाद के दिनों में ही कट गयी थी।"
 
वैद्य जी ने कहा- "तुम अब नीचता की बात कर रहे हो ?" बद्री पहलवान ने भर्राये गले से कहा-“कर रहे हैं तो अब कर ही लेने दो। तुम कहते हो कि मैं बेला से फँस गया हूँ। फँसना- फँसाना चिड़ीमार का काम है। तुम्हारे खानदान में तुम्हारे बाबा अजुध्या परसाद जैसे रघुबरा की महतारी से फँसे थे, उसे कहते हैं फँसना। हाँ, नहीं तो क्या ? मैं अजुध्या परसाद की चाल नहीं चल सकता। जो कुछ करूँगा, वह कायदे से करूँगा।"
 
गयादीन और रंगनाथ का वार्तालाप - वैद्य जी शुद्ध ब्राह्मण थे। वे अपने परिवार में वर्णसंकर सन्तान नहीं चाहते थे। बेला वैश्य की पुत्री और बद्री ब्राह्मण का पुत्र । बद्री की हठ देखकर पिता वैद्य जी को झुकना पड़ा। वे अन्तर्जातीय विवाह के पक्षधर बनकर गयादीन के घर गये। वहाँ जो वार्तालाप हुआ, वह वैद्य जी के गिरगिट के समान रंग बदलने की कहावत प्रस्तुत करता है।
 
कुछ देर बाद वैद्य जी बोले- "तो अन्तर्जातीय विवाह के बारे में आपकी क्या राय है?" गयादीन ने विरक्त भाव से कहा- "महाराज! यह बाँमन-ठाकुरों के घर की बात है। इसमें हम बनिया-बक्काल क्या सलाह दे सकते हैं ?" वैद्य जी मुस्कुराकर बोले-“आप कैसी बातें करते हैं गयादीन जी! यह हम दोनों के परिवार का प्रश्न है। इसमें आप कुछ न बोलेंगे तो और कौन बोलेगा ?"
 
गयादीन ने पूछा-"इसका मेरे परिवार से क्या मतलब महाराज ?" वैद्य जी ने आश्चर्य के साथ अपनी भौंहें ऊपर चढ़ा लीं और बोले-“तो आप कुछ नहीं जानते ?” 

गयादीन कुछ नहीं बोले तो वैद्य जी को कहना पड़ा-"बद्री को यही पसन्द है । सोलह वर्ष की अवस्था पा लेने पर पुत्र के साथ मित्र-जैसा व्यवहार करना पड़ता है। इसीलिए मैंने कोई आपत्ति नहीं प्रकट की। उसने सम्भवत: कन्या के विचार भी जान लिये हैं। अब आपको भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।"
 
गयादीन ने अपना पीछा छुड़ाते हुए कहा- "मेरी आपत्ति क्यों होगी ? आपके लड़के जहाँ चाहें ब्याह करें ? मुझे क्यों बीच में लपेटते हो महाराज ?"
 
वैद्य जी ऊब चुके थे। उन्होंने कहा- "मैं आपको लपेट नहीं रहा हूँ। कन्या तो आपकी ही है। इसीलिए बात कर रहा हूँ। पर आप जान-बूझकर अनजान बन रहे हैं। सोते हुए जगाया जा सकता है, पर कोई झूठ-मूठ सोने के बहाने पड़ा हो तो उसे कैसे जगाया जा सकता है ?" 

जब गयादीन ने बताया कि मैंने बेला का विवाह निश्चित कर दिया है। पन्द्रह दिन बाद विवाह की तिथि है। इसके बाद वैद्य जी उठकर चल दिये। उन्हें जीवन में पहली बार हार मिली थी। इस प्रकार 'राग दरबारी' के संवादों में संवाद की सभी विशेषताएँ मिलती हैं।

इस प्रकार राग दरबारी उपन्यास केवल एक मनोरंजक कहानी नहीं है, बल्कि यह समाज का एक आईना भी है। उपन्यास के संवादों के माध्यम से हम ग्रामीण भारत की जटिलताओं को समझ सकते हैं और समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों के जीवन को करीब से देख सकते हैं।

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