श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी' हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय कृति है। इसकी भाषा शैली जितनी सरल और सहज है, उतनी ही व्यंग्यपूर्ण और प्रभावशाली।
राग दरबारी उपन्यास की भाषा शैली | श्रीलाल शुक्ल
श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी' हिंदी साहित्य में एक अद्वितीय कृति है। इसकी भाषा शैली जितनी सरल और सहज है, उतनी ही व्यंग्यपूर्ण और प्रभावशाली। इस उपन्यास में शुक्ल जी ने भाषा को एक शक्तिशाली हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, जिसके ज़रिए उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों और संस्थाओं के पाखंड और ढोंग का बेबाक पर्दाफाश किया है।
किसी भी रचना में यदि भाषा और शैली की एकता रहती है तो पढ़ने वाले का मन ऊबने लगता है। बड़ी पुस्तक में तो यह दोष विशेष रूप से होता है। श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी' 330 पृष्ठ में पूर्ण हुआ है। इस आधार पर इस उपन्यास को विशाल रचना कहना पड़ेगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि श्रीलाल शुक्ल ने अपने व्यंग्यात्मक उपन्यास 'राग दरबारी' में अनेक भाषा-शैलियों का प्रयोग किया है।
राग दरबारी में अनेक प्रकार की भाषा
राग दरबारी उपन्यास में अनेक प्रकार की भाषाओं का प्रयोग हुआ। इसकी भाषा कहीं पात्र के कारण बदली है और कहीं विषय-वस्तु के कारण इसमें परिवर्तन हुआ है।
ट्रक और मिठाई का वर्णन उपन्यास का आरम्भ एक सड़क से होता है, जिसके एक किनारे पर ट्रक खड़ा है और दूसरे किनारे पर चाय और मिठाई की दुकानें हैं। इस वर्णन की भाषा सामान्य और सरल है- “शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था।
वहीं एक ट्रक खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए हुआ है। जैसे कि सत्य के होते हैं, इस ट्रक के भी कई पहलू थे। पुलिस वाले उसे एक ओर से देखकर कह सकते थे कि वह सड़क के बीच में खड़ा है, दूसरी ओर से देखकर ड्राइवर कह सकता था कि वह सड़क के किनारे पर है। चालू फैशन के हिसाब से ड्राइवर ने ट्रक का दाहिना दरवाजा खोलकर डैने की तरह फैला दिया था। इससे ट्रक की खूबसूरती बढ़ गयी थी, साथ ही यह खतरा मिट गया था कि उसके वहाँ होते हुए कोई दूसरी सवारी भी सड़क के ऊपर से निकल सकती है।'
“सड़क के एक ओर पेट्रोल-स्टेशन था, दूसरी ओर छप्परों, लकड़ी और टीन के सड़े टुकड़ों और स्थानीय क्षमता के अनुसार निकलने वाले कबाड़ की मदद से खड़ी की हुई दुकानें थीं। पहली निगाह में ही मालूम हो जाता था कि दुकानों की गिनती नहीं हो सकती। प्रायः सभी में जनता का एक मनपसन्द पेय मिलता था, जिसे वहाँ गर्द, चीकट, चाय की कई बार इस्तेमाल की हुई पत्ती और खौलते पानी आदि के सहारे बनाया जाता था। उनमें मिठाइयाँ भी थीं जो -रात आँधी-पानी और मक्खी-मच्छरों के हमलों का बहादुरी से मुकाबला करती थीं। वे हमारे देसी कारीगरों के हस्तकौशल और उनकी वैज्ञानिक दक्षता का सबूत देती थीं। वे बताती. थीं कि हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्खा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में बदल देने की तरकीब सारी दुनिया में अकेले हर्मी को आती है।"
इन दो गद्यांशों में भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इस प्रकार है-
संस्कृत-तत्सम शब्द - भारतीय, महासागर, जन्म, बलात्कार, सत्य, स्थानीय, क्षमता, अनुसार, प्रायः, जनता, एक, पेय, आदि, हस्तकौशल, वैज्ञानिक, दक्षता, स्वादिष्ट, खाद्य, पदार्थ ।
संस्कृत-तद्भव शब्द - ऊपर, पानी, दिन, रात, मक्खी, मच्छर ।
उर्दू शब्द - शहर, किनारा, देहात, शुरू, यकीन, सड़क, पहलू, हिसाब, दाहिना, दरवाजा, डैने-तरह, खूबसूरती, खतरा, दूसरी, मदद, निगाह, मालूम, मनपसन्द, बार, इस्तेमाल, हमलों, बहादुरी, मुकाबला, कारीगर, सबूत, नुस्खा, तरकीब, दुनिया ।
अंग्रेजी शब्द - ट्रक, पुलिस, ड्राइवर, पेट्रोल, स्टेशन, रेजर, ब्लेड ।
इसके अतिरिक्त देशज शब्दों की भी इन गद्यांशों में कमी नहीं है।
शायर की भाषा
रामाधीन भीखमखेड़वी अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे, पर कुछ शेरो-शायरी कर लेते थे। बचपन में वे कलकत्ता चले गये। पहले वहाँ एक दुकान में नौकरी की। बाद में उस दुकान के मालिक बन गये। वह दुकान अफीम की आढ़त थी। उन्हें पुलिस ने पकड़कर न्यायालय में प्रस्तुत किया तो उन्होंने अफीम का सम्बन्ध अपराध से न होने के लिए जिस प्रभावशाली और तर्कपूर्ण भाषा का प्रयोग किया, उस भाषा का प्रयोग कोई शायर ही कर सकता था। वह प्रसंग इस प्रकार है-
"जनाब! अफीम एक पौधे से पैदा होती हैं। पौधा उगता है तो उसमें खूबसूरत से सफेद फूल निकलते हैं। अंग्रेजी में उसे पॉपी कहते हैं। उसी की एक दूसरी किस्म भी होती है, जिसमें लाल फूल निकलते हैं। उसे साहब लोग बँगले पर लगाते हैं। उस फूल की एक तीसरी किस्म भी होती है, जिसे डबुल पॉपी कहते हैं। हुजूर! ये सब फूल-पत्तों की बातें हैं, उनसे जुर्म का क्या सरेर ? उसी सफेद फूल वाले पॉपी के पौधे से बाद में यह काली-काली चीज निकलती है। यह दवा के काम आती है। इसका कारोबार जुर्म नहीं हो सकता। जिस कानून में यह जुर्म बताया गया है, वह काला कानून है। वह हमें बरबाद करने के लिए बनाया गया है।"
यह बात दूसरी है कि न्यायाधीश रामाधीन भीखमखेड़वी के इस कथन से प्रभावित नहीं हुआ और उनको दो साल की सजा का आदेश कर दिया।
एक प्रेम पत्र की भाषा
सिनेमा के गानों के टुकड़ों से सुशोभित प्रेम-पत्र की भाषा कैसी होती है, यह जानना भी आवश्यक है। प्रेम के रोग से सभी परिचित हैं। प्रेम का रोग मूर्ख को भी कवि बना देता है। एक बालिका अथवा युवती द्वारा लिखा गया प्रेम पत्र इस प्रकार है। इसकी भाषा मनोरंजक है। इसमें उबाऊपन बिल्कुल नहीं है-
"ओ सजना, बेदर्दी बालमा! तुमको मेरा मन याद करता है। पर चाँद को क्या मालूम, चाहता उसको कोई चकोर । वह बेचारा दूर से देखे, करे न कोई शोर ! तुम्हें क्या पता कि तुम्हीं मेरे मन्दिर, तुम्हीं मेरी पूजा, तुम्हीं देवता हो, तुम्हीं देवता हो। याद में तेरी जाग-जाग के हम रातभर करवटें बदलते हैं।
अब तो मेरी यह हालत हो गयी है कि सहा भी न जाये, रहा भी न जाये। देखो न, मेरा दिल मचल गया, तुम्हें देखा और बदल गया। और तुम हो कि कभी उड़ जाये, कभी मुड़ जाये, भेद जिया के खोले ना।मुझको तुम से यही शिकायत है कि तुमको प्यार छिपाने की बुरी आदत है। कहीं दीप जले कहीं दिल, जरा देख ले आकर परवाने।
तुम से मिलकर बहुत-सी बातें करनी हैं। ये सुलगते हुए जजबात किसे पेश करें। मुहब्बत लुटाने को जी चाहता है। पर मेरा नादान बालमा न जाने जी की बात। इसीलिए उस दिन मैं तुमसे मिलने आयी थी। पिया मिलन को जाना। अँधेरी रात! मेरी चाँदनी बिछुड़ गयी, मेरे घर में बड़ा अँधियारा था। मैं तुमसे यही कहना चाहती थी, मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिए। बस एहसान तेरा होगा मुझ पर मुझे पलकों की छाँव में रहने दो। पर जमाने की दस्तूर है यह पुराना, किसी को गिराना किसी को मिटाना। मैं तुम्हारी छत पर पहुँची, पर वहाँ तुम्हारे बिस्तर पर कोई दूसरा लेटा हुआ था। मैं लाज के मारे मर गयी। बेबस लौट आयी। आँधियो! मुझ पर हँसो, मेरी मुहब्बत पर हँसो।
मेरी बदनामी हो रही है और तुम चुपचाप बैठे हो। तुम कब तक तड़पाओगे ?, तड़पाओगे ? तड़पा लो, हम तड़प-तड़पकर भी तुम्हारे गीत गायेंगे। तुमसे जल्दी मिलना है। क्या तुम आज आओगे, क्योंकि तेरे बिना मेरा मन्दिर सूना है। अकेले हैं चले आओ जहाँ हो तुम । लग जा गले से फिर ये हसीं रात हो न हो। यही है तमन्ना तेरे दर के सामने मेरी जान जाये, हाय! हम आस लगाये बैठे हैं। देखो जी! मेरा दिल न तोड़ना।"तुम्हारी याद में- कोई एक पागल।" इसकी सतरंगी भाषा और नदी की धारा-जैसे भाव की प्रशंसा बिना बताये पाठक को 'मुग्ध कर देती है।
राग दरबारी में अनेक प्रकार की शैलियाँ
श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यास 'राग दरबारी' में अनेक प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया है। वैसे यह उपन्यास व्यंग्यात्मक शैली के लिए प्रसिद्ध है, पर इसमें अनेक शैलियों का प्रयोग हुआ है। जैसे-
वर्णनात्मक शैली
इस शैली का प्रयोग किसी व्यक्ति, स्थान अथवा भाव का वर्णन करने के लिए किया जाता है। बदले हुए जमाने और बदले हुए फैशन का वर्णन करने वाला यह गद्यांश वर्णनात्मक शैली का सशक्त और प्रामाणिक उदाहरण हो सकता है-
“ऐसे भुखमरे वातावरण में अखाड़े क्या खाकर और क्या खिलाकर चलते? कुछ वर्ष पहले गाँव के लड़के कसरत और कुश्ती में चूर-चूर होकर घर लौटते तो कम-से-कम उन्हें भिगोये हुए चने और मट्ठे का सहारा था। अब वह सहारा भी टूटने लगा था। यह और इस प्रकार के कई तथ्य मिलकर कुछ ऐसा वातावरण पैदा कर रहे थे कि गाँव के नौजवानों को निकम्मा बन जाने के सिवाय और दूसरा कार्यक्रम ही नहीं मिलता था। वे फटे-पुराने, पर रंगीन पतलूनों-पायजामों के सहारे अपनी दुबली-पतली टाँगों को ढककर और सीने पर गोश्त हो या न हो, सीने के अन्दर सायरा बानू के साथ सोने का अरमान भरकर, गली-कूचों में अपने पान की पीक फैलाते हुए निरुद्देश्य घूमा करते थे। उनमें बहुत से कभी-कभी खेतों-कारखानों और मेलों का चक्कर भी लगा आते थे। जो वहाँ जाते हुए हिचकते थे, वे स्थानीय कॉलिजों में बाँगडूपन की शिक्षा ग्रहण करते चले जाते।”
भावात्मक शैली
इस विचित्र शैली में मन की कोई भावना व्यक्त की जाती है। जब यह भावना धार्मिक होती है और बोलने वाला संस्कृत पढ़ा-लिखा होता है तो इसमें संस्कृत शब्द ही नहीं, छन्दों के अंश भी आ जाते हैं। वैसे भी प्रार्थना का सम्बन्ध धर्म से है और हिन्दू धर्म में संस्कृत का एकाधिकार है। वैद्य जी जो प्रार्थना कर रहे थे, उस भावपूर्ण शैली की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-
"हे शंकर! शत्रुओं को मारो।'
"तुम रुद्र हो। मृत्युंजय हो। अखिल सृष्टि में संहारक भाव से सन्निविष्ट हो । गाँव में रामाधीन भीखमखेडवी कॉलिज की मैनेजरी का चुनाव हार चुका है। उसने डिप्टी डाइरेक्टर एजूकेशन के वहाँ प्रार्थना-पत्र भेजा है कि चुनाव तमंचे के जोर से हुआ है। पुलिस कप्तान के यहाँ भी उसने शिकायत की है। तुम भंग और धतूरा खाते हो। हे शंकर! इन हाकिमों की भ्रष्ट बुद्धि में तुम अपना भंग और धतूरा डालकर उसे कुछ और भ्रष्ट कर दो। उन्हें हमारे पक्ष में लिखने को प्रेरित करो। हे भूतनाथ ! रामाधीन भीखमखेड़वी को मारो।"
"हे त्र्यम्बक! सुगन्धिमय! पुष्टिवर्धन ! मुझे मुत्यु के संग से वैसे ही तोड़ दो, जैसे डंठल से खीरा तोड़ा जाता है। पर अमृत तत्त्व से मेरा साथ न तोड़ो। और हे शिव! शत्रु को तुम अमृत तत्त्व के डंठल से तोड़कर मृत्यु के अंध कूप में डाल दो। तुम सेवक की बाधा को अपनी बाधा मानते हो। तुम मुझ सेवक के सेवक सनीचर की बाधा दूर करो। प्रधान के चुनाव के विषय में उसके विरुद्ध चुनाव याचिका प्रस्तुत हुई है। उसमें सनीचर को विजय दो। यदि शत्रु याचिका वापस न ले तो उसे मारो।"
कि “हे उमापति! जगत्कारण! पन्नगभूषण शिव! रामसरूप कोऑपरेटिव सुपरवाइजर के सवाल को उठाकर शत्रुगण यूनियन में गबन की बातें कर रहे हैं। वे चिल्ला रहे हैं, उसमें मेरा भी हाथ था। कोऑपरेटिव इन्स्पेक्टर भी धूर्त एवं ईमानदार है और हाथ नहीं चढ़ रहा है। पिछली बार वह अकेले में मुझे भय दिखा गया है। तुम इस कोऑपरेटिव इन्स्पेक्टर को मारो।"
व्यंग्यात्मक शैली
इस शैली से पूरा उपन्यास भरा पड़ा है। उदाहरण के रूप में एक मुर्गा खरीदने वाले का वर्णन प्रस्तुत है-
“मुर्गा खरीदने वाला सचमुच ही मुर्गे के लिए बड़ा आतुर था। और सब तरह की आफतों को झेलने के लिए तैयार था। उसने बुढ़िया को समझाना शुरू किया कि पठान बाबा को तो सिर्फ मुर्गे से मतलब, चाहे वह मुर्गा हो चाहे वह मुर्गी । उसने यह भी समझाया कि मुर्गा बेचने के दो तरीके हैं, एक सीधा तरीका और एक लात खाने वाला तरीका। उसने बुढ़िया को बड़ी भलमनसाहत से यह छूट दे दी कि जिस तरीके से चाहे, उसी से मुर्गा बेच सकती है। उसने यह भी कहा कि हम मुर्गा खरीदते ही नहीं, उसकी कुछ कीमत भी देगा।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि श्रीलाल शुक्ल ने अपने उपन्यास 'राग दरबारी' में अनेक प्रकार की भाषाओं और अनेक प्रकार की शैलियों का प्रयोग किया है।'राग दरबारी' उपन्यास की भाषा शैली इसकी सबसे बड़ी ताकत है। शुक्ल जी ने अपनी सरल और व्यंग्यपूर्ण भाषा के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं को बेनकाब किया है। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि पहले था।
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