राग दरबारी उपन्यास की उपन्यास के तत्वों की दृष्टि से समीक्षा श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास
राग दरबारी उपन्यास की उपन्यास के तत्वों की दृष्टि से समीक्षा
श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास ग्रामीण जीवन की पृष्ठभूमि में लिखा गया है, लेकिन इसकी विषय-वस्तु का दायरा बहुत व्यापक है। यह उपन्यास भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं पर तीखा व्यंग्य करता है।विद्वानों ने उपन्यास के तत्वों पर विभिन्न दृष्टियों से विचार किया है, परन्तु भारतीय और विदेशी विद्वान् उपन्यास के निम्नलिखित तत्व स्वीकार करते हैं-
- कथानक अथवा कथावस्तु,
- पात्र योजना एवं चरित्र-चित्रण,
- संवाद अथवा कथोपकथन,
- देश-काल अथवा वातावरण का चित्रण,
- भाषा-शैली अथवा शैली-शिल्प,
- नामकरण,
- उद्देश्य ।
श्रीलाल शुक्ल हिन्दी-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं - व्यंग्यकार के रूप में तथा उपन्यासकार के रूप में। उपन्यासकार के रूप में उनके महत्व का मूल्यांकन दो दृष्टियों से किया जाता है =
- यद्यपि वे प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा, जैनेन्द्र, अमृतलाल नागर आदि की भाँति प्रतिनिधि उपन्यासकार नहीं हैं, तथापि श्रीलाल शुक्ल उन उपन्यासकारों में हैं, जिन्होंने सीमित संख्या में उपन्यास लिखकर नागार्जुन और फणीश्वरनाथ 'रेणु' की भाँति हिन्दी के उपन्यासकारों की पंक्ति में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है।
- श्रीलाल शुक्ल ने कई उपन्यास लिखे हैं-सूनी घाटी का सूरज, अज्ञातवास, आदमी का जहर आदि । उपन्यासकार के रूप में उनकी ख्याति का मुख्य आधार 'राग दरबारी' उपन्यास है। इस उपन्यास को साहित्य अकादमी पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। यह एक ऐसा आंचलिक उपन्यास है, जो मैला आँचल की भाँति आंचलिकतावाद का विज्ञापन नहीं करता और इस पर किसी की कार्बन कॉपी होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। 'राग दरबारी' के संदर्भ में 'मैला आँचल' की चर्चा की जाती है और कहा जाता है कि इस पर 'मैला आँचल' का प्रभाव है। इस संदर्भ में केवल यही कहा जा सकता है कि 'राग दरबारी' की आंचलिकता पर 'मैला आँचल' का परोक्ष प्रभाव भले ही हो, परन्तु यह 'मैला आँचल' का अनुकरण करते हुए कहीं भी नहीं देखा जाता है। 'मैला आँचल' भावात्मक कृति है, जबकि 'राग दरबारी' एक बौद्धिक रचना है। 'मैला आँचल' काव्यात्मक कृति है, जबकि ‘राग दरबारी' गद्यात्मक है। रेणु वस्तुपरक हैं और श्रीलाल आत्मपरक हैं। दोनों की कलाकृतियों का स्तर समग्र रूप से समान है।
उपन्यास के तत्वों के आधार पर 'राग दरबारी' उपन्यास की समीक्षा इस प्रकार है-
कथावस्तु
'राग दरबारी' का कथानक घटना-प्रधान नहीं है, यह चरित्र-चित्रण एवं देश-काल-वर्णन से युक्त है। कथानक एक प्रकार से संक्षिप्त एवं कसा हुआ है। समस्त घटनाक्रम छः महीने में सीमित है। रंगनाथ नामक युवक 'नवकंज लोचन कंजमुख. कर-कंज पद - कंजारुणम्, इतिहास में एम. ए. पास है और पी-एच. डी. के कार्य में लगने ही वाला है।
वह स्वास्थ्य-सुधार की दृष्टि से अपने प्रतिष्ठित मामा वैद्य जी के गाँव शिवपालगंज पहुँचता है। उपन्यास की कथा यहीं से आरम्भ होती है। वैद्य जी कहने को वैद्यक करते हैं, परन्तु अन्य कार्यों में उनका समय अधिक लगता है। वे स्थानीय इण्टर कॉलेज के मैनेजर हैं, सहकारी संस्था के प्राण तथा ग्राम-समाज के पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल हैं। कॉलेज, सहकारी समिति तथा ग्राम-सभा-इनके त्रिकोणात्मक रूप पर कथावस्तु विकसित की गयी है। इसी के आधार पर उपन्यास का संघर्ष तत्व विकसित किया गया है जो अत्यन्त सजीव और यथार्थ है।
कॉलेज वाला वृत्त विशेष रूप से चित्रित है, जिसमें राजनीति की दासी बनी शिक्षा की दयनीय दशा का बहुत ही जीवन्त-रूप अंकित किया गया है। लेखक दिखाता है कि हरामखोरी, भाई-भतीजावाद आदि रूपों में भ्रष्टाचार शिक्षा-जगत् को चरते जा रहे हैं-विशेषकर गाँवों में।
उक्त तीनों मंचों पर राजनीति के दाँव-पेच चलते हैं। राजनीति रंग लाती है। अन्ततः तीनों मोर्चों पर वैद्य जी सफल होते हैं। तथाकथित न्याय की लड़ाई में तथाकथित अन्याय विजयी होता है। वैद्य जी और उनके सहयोगियों के सम्मुख उनके समस्त विरोधी - खन्ना, मालवीय, रुप्पन, रंगनाथ आदि पराजित होते हैं । वैद्य जी के पक्ष में हैं- ज्येष्ठ पुत्र बद्री पहलवान, बद्री पहलवान का चेला छोटे पहलवान, परिवार-सेवक सनीचर, प्रिंसीपल इत्यादि ।
पात्र योजना एवं चरित्र चित्रण
राग दरबारी में केवल पुरुष पात्र हैं। इनमें प्रमुख हैं- वैद्य जी, प्रिंसीपल, वैद्य जी का पुत्र बद्री पहलवान, रुप्पन, रंगनाथ, छोटे पहलवन, लंगड़, खन्ना तथा मालवीय आदि । नारी पात्र केवल एक है-बेला, जो केवल सूच्य है। इन पात्रों में अधिकांश पात्र प्रतीक हैं। एक समालोचक के शब्दों में-"ग्राम शिवपालगंज के कुछ चावल भारत की बटलोई के सारे पके चावलों के प्रतीक बन जाते हैं।" ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक ने सब-कुछ अपनी आँखों से देखा है। ग्राम शिवपालगंज का प्रतीकत्व दृष्टव्य है। कुछ दिनों में ही रंगनाथ को शिवपालगंज के बारे में ऐसा प्रतीत होने लगता है कि महाभारत की तरह जो कहीं नहीं है, वह यहाँ है और जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं हैं।
संवाद अथवा कथोपकथन
'राग दरबारी' के संवाद चरित्र-चित्रण में विशेष सहायक हैं। वे पात्रों के सर्वथा अनुकूल हैं। संवादों द्वारा ग्राम्य-क्षेत्र का गजब का चित्रण उपलब्ध होता है। यह बात दूसरी है कि उनमें कहीं-कहीं अश्लीलता अथवा भद्देपन का समावेश हो गया है। छोटे-छोटे संवाद बहुत चुटीले एवं प्रभावशाली हैं। एक उदाहरण देखिएं-
खन्ना मास्टर बोले-“आप इजाजत दें तो बात शुरू से ही कहूँ।"
“क्या कहोगे मास्टर साहब ?" गयादीन रुककर बोले-“प्राइवेट स्कूल की मास्टरी - वह भी तो पिसाई का काम है ही। भागोगे कहाँ तक ?"
मालवीय जी ने कहा- “प्रिंसीपल हजारों रुपया मनमाना खर्च करता है। हर साल ऑडिट वाले ऐतराज करते हैं, हर साल यह बुत्ता दे जाता है।"
देश काल अथवा वातावरण
उपन्यासकार ने देश के शहर और गाँवों में चलने वाली राजनीति की उखाड़-पछाड़ का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। शिवपालगंज की सम्पूर्ण तस्वीर रंगनाथ की इस सोच में मौजूद है- "उसने देखा कि जिसकी प्रशंसा से सभी मशहूर अखबार पहले पृष्ठ से ही मोटे-मोटे अक्षरों में चिल्लाना शुरू करते हैं, जिसके सहारे बड़े-बड़े निगम, आयोग और प्रशासन उठते हैं, गिरते हैं, घिसटते हैं, वही दांव-पेंच और पैंतरेबाजी की अखिल भारतीय प्रतिभा यहाँ कच्चे माल के रूप में इफरात से फैली पड़ी है। सोचते ही सांस्कृतिक एकता में उसकी आस्था और भी मजबूत हो गयी है।" वैद्यजी के चरित्र में देश की राजनीति उजागर होती है। वैद्यजी कहीं युद्ध शक्ति के बल पर, कहीं दाँव-पेंच के बल पर और कहीं त्यागपत्र - कूटकला के बल पर सफल होते हैं।
'राग दरबारी' का देश-काल तत्त्व गहरे व्यंग्य से सम्पन्न है। ये व्यंग्य उपन्यासकार की गहन अन्तर्व्यथा के उद्गार हैं, जिनका उद्गम देशवासियों की दयनीय दशा में है। प्रतीक के रूप में ये उद्धरण दृष्टव्य है- “शराबखाने के लगभग सौ गज आगे एक पीपल का पेड़ था, जिस पर एक भूत रहता था। भूत काफी पुराना था और आजादी मिलने, जमींदारी टूटने, गाँव-सभा कायम होने, कॉलेज खुलने-जैसी सैकड़ों घटनाओं के बावजूद मरा न था । जिन्हें उसके वहाँ होने की खबर थी, वे सूरज डूबने के बाद उधर से नहीं निकलते थे। अगर कभी निकल जाते, तो उन्हें तरह-तरह की आवाजें सुनने में आतीं। उन आवाजों से आदमी को बाद में बुखार आने लगता था, बुखार से आदमी ज्यादातर मर जाता था, अगर नहीं मरता था तो लोग कहते थे कि पंडित राधेलाल भूत अच्छा झाड़ते हैं।"
उपन्यासकार ने यह भी दिखाया है कि चारों ओर अंग्रेजी का बोलबाला किस प्रकार राष्ट्रभाषा हिन्दी का मजाक उड़ा रहा था। इस प्रकरण के निष्कर्ष-रूप में रामप्रसाद मिश्र ने लिखा है- “उपन्यासकार ने भारत के सांस्कृतिक दैन्य, टुच्ची पत्रकारिता, ज्योतिषियों के एकछत्र पाखण्ड साम्राज्य के मार्मिक अंकन किये हैं, जो कलात्मक न होकर, भाषणात्मक हो गये हैं, किन्तु यथार्थ से निष्पन्न हैं, प्रशस्त हैं।"
भाषा शैली
भाषा सरल सामान्य हिन्दी है, जिसमें स्थानीय शब्दों की प्रचुरता है । 'राग दरबारी' की भाषा के सम्बन्ध में यह कथन दृष्टव्य है- "उपन्यासकार ने अंचल का परिचय नहीं दिया, किन्तु उन्नाव उत्तर प्रदेश) जिले के कुछ ग्रामों के नाम तथा इस दबंग जिले की प्रकृति से मेल खाती चरित्र-वस्तु स्पष्ट कर सकते हैं। अवधी का जो रूप (वैसवाड़ी) उन्नाव, फतेहपुर, रायबरेली (डलमऊ तहसील) में प्रचलित है, उसके शब्दों का बहुत ही सटीक प्रयोग 'राग दरबारी' की कला का वैभव बन गया है।"
'राग दरबारी' में लेखक ने बहुज्ञता-प्रदर्शन अथवा पाण्डित्य-प्रदर्शन का प्रयास किया है। यह प्रायः एक असफल प्रयास है। उपन्यासकार बड़ी तेजी और चतुराई के साथ वेद, उपनिषद, पुराण इत्यादि से लेकर राम, मीरा, तुलसी इत्यादि तक पहुँच जाता है। इतना ही नहीं, वह गाँधी, नेहरू, सुभाष इत्यादि को भी लपेट में लेने का प्रयास करता चलता है। वह विदेशी चित्रकारों, चिन्तकों के बारे में भी अपनी जानकारी दिखाने का प्रयास करता हुआ भी दिखाई देता है।
नामकरण
ग्रन्थ का नामकरण प्रायः चार आधारों में से किसी एक पर किया जाता है- घटना- विशेष, स्थान-विशेष, पात्र - विशेष अथवा संवेदना-विशेष। 'राग दरबारी' शीर्षक उपर्युक्त किसी भी आधार के अन्तर्गत नहीं आता है। कथानक, संवाद, चरित्र-चित्रण, देश-काल, भाषा-शैली किसी में भी इसका न तो कोई उल्लेख है और न इनमें से किसी के साथ इसका कोई सम्बन्ध दिखाई देता है, अतः शीर्षक की उपयुक्तता के बारे में पाठक को स्वयं ही अनुमान लगाना पड़ेगा। एक आलोचक के मतानुसार 'राग दरबारी' का हमारी अमीर अधिक अमीर तथा गरीब अधिक गरीब छाप लोकतांत्रिक सत्ता' का प्रतीकात्मक अर्थ किया जा सकता है। इस प्रकार शीर्षक का अर्थ हुआ-उपन्यास-कला (राग) द्वारा हमारे विचित्र लोकतांत्रिक समाज एवं सत्तालोक (दरबारी) का चित्रण । उपन्यास के लगभग अन्त में सर्वाधिक सशक्त एवं प्रभावी पात्र वैद्य जी के 'दरबार' में जो शक्ति प्रभाव से ऊभ-चूभ राग गूँजता है, उसका भी उल्लेख किया जा सकता है। वैसे उपन्यास से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दरबार ही प्रधान है और शक्ति बल ही प्रधान राग है। उपन्यास के कलात्मक अंत में वैद्य जी (मदारी) की शक्ति, उनके अभूतपूर्व उद्गार ( डुगडुगी), उनके दो सबलतम सहायकों-बद्री पहलवान और छोटे पहलवान (बंदरों) के वर्तमान और सम्भाव्य क्रिया-कलाप आदि उपन्यास के प्रतीकात्मक अर्थ को खोजने में सहायक होते हैं।
उद्देश्य
यद्यपि सोद्देश्यता किसी कृतित्व के गौरव का लक्षण नहीं है, तथापि उसको नितांत व्यर्थ भी नहीं कहा जा सकता है। 'राग दरबारी' उपन्यास किसी सोद्देश्यता के दर्शन नहीं कराता है।इस प्रकार 'राग दरबारी' देश-काल-प्रधान उपन्यास है। इसमें परिस्थितियों का अंकन तथा उसी के समानान्तर श्रेष्ठ मनोविश्लेषण किया गया है।
'राग दरबारी' उपन्यास को हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों की पंक्ति में प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इसके चुभते व्यंग्य तथा सजीली कसावट अत्यन्त उच्च कोटि की है। इसके विषय में यह कथन सर्वथा उपयुक्त है- "राग दरबारी' स्वातन्त्र्योत्तर भारत की लगभग तीन शताब्दियों के साहसिक और जानदार दस्तावेज के रूप में सम्मान पाते रहने का अधिकारी है।"
COMMENTS