राग दरबारी उपन्यास में सामाजिक जीवन का यथार्थ

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राग दरबारी उपन्यास में सामाजिक जीवन का यथार्थ श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास भारतीय समाज के

राग दरबारी उपन्यास में सामाजिक जीवन का यथार्थ


श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं, खासकर सामाजिक संरचना, राजनीति और मानवीय रिश्तों का एक तीखा व्यंग्यात्मक चित्रण प्रस्तुत करता है।

राग दरबारी उपन्यास में समसामयिक वातावरण का वर्णन अत्यन्त सजीव शैली में किया गया है। इस उपन्यास का घटना स्थल है-शिवपालगंज। यहाँ शिक्षा, सहकारिता, ग्राम-सभा, प्रशासन, राजनीति आदि प्रत्येक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाएँ वस्तुतः सम्पूर्ण देश के वातावरण को उजागर करने में समर्थ हैं। उपन्यासकार का यह कथन दृष्टव्य है- "कुछ ही दिनों में रंगनाथ को शिवपालगंज के बारे में ऐसा लगने लगा कि महाभारत की तरह जो कहीं नहीं है, वह यहाँ है और जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है। उसने देखा कि जिसकी प्रशंसा से सभी मशहूर अखबार पहले पृष्ठ से ही मोटे-मोटे अक्षरों में चिल्लाना शुरू कर देते हैं, जिसके सहारे बड़े-बड़े निगम, आयोग और प्रशासन उठते हैं, वही दाँव-पेंच और पैंतरेबाजी की अखिल भारतीय प्रतिभा यहाँ कच्चे माल के रूप में इफरात में फैली पड़ी है।" इसी तथाकथित कच्चे माल का विश्लेषण यहाँ प्रस्तुत है - 

शिक्षा की दुर्गति

राग दरबारी उपन्यास में सामाजिक जीवन का यथार्थ
मास्टर मोतीराम आपेक्षिक घनत्व पढ़ा रहे हैं, परन्तु वे स्वयं नहीं जानते कि आपेक्षिक घनत्व क्या होता है ? वे उल्टी-सीधी बातें करके विद्यार्थियों को बहलाते हैं, इधर-उधर की बातें करके घण्टा पूरा करना चाहते हैं। वे केवल इतना कहकर काम चलाते हैं कि सही तरीके का सही और गलत तरीके का गलत नतीजा निकलता है और बस, वह उदाहरण की बात करते हुए आटा-चक्की की और डीजल इंजिन की बात करने लग जाते हैं। जब एक लड़का पीछे पड़ ही जाता है, तो वे यह कहकर अपना पीछा छुड़ाते हैं, किताब में पढ़ लेना। आपेक्षिक घनत्व का अध्याय जरूरी (इम्पॉर्टेण्ट) है।
 
प्रिंसीपल साहब गाँव की राजनीति में सक्रिय भाग लेते हैं और मैनेजर वैद्य जी को खुश करना अपना एकमात्र धर्म समझते हैं। शिक्षण संस्थाओं में अध्यापकों और प्रिंसीपल के मध्य कैसे और कितने झगड़े चलते हैं-इसका उदाहरण मास्टर खन्ना का मामला है। विद्यार्थी उल्टी-सीधी पोशाक पहनकर नंगे पाँव, हाथ-मुँह धोए बिना कॉलेज चले आते हैं। अनुशासन का नितांत अभाव है। प्रिंसीपल को सरकारी दफ्तरों के कर्मचारियों की भी खुशामद करनी पड़ती है। मलेरिया इन्स्पेक्टर को लक्ष्य करके वे कहते हैं-"इस कॉलेज के पीछे गधे तक को आप कहना पड़ता है।" खन्ना मास्टर साहब के बारे में मलेरिया विभाग का क्लर्क कहता है- "मैं जानता हूँ। इतिहास में एम. ए. हैं, पर उन्हें अपने बाप तक का नाम नहीं मालूम। सिर्फ पार्टीबन्दी के उस्ताद हैं। अपने घर पर लड़कों को बुला-बुलाकर जुआ खिलाते हैं।"

भगवान के नाम पर जनता को धैर्य देना

वैद्य जी कहते हैं-"शान्त रहो, इस कुव्यवस्था का अन्त होने ही वाला है।" 
"जान पड़ा कि आकाशवाणी हो रही है- घबराओ नहीं वसुदेव, कंस का काल पैदा हो गया है।" 
न्याय की स्थिति - अदालतों में मुकदमे तय नहीं होते हैं। वे पीढ़ियों तक चलते रहते हैं। 
लेखक का कथन दृष्टव्य है-"पुनर्जन्म के सिद्धान्त का ईजाद दीवानी की अदालत में हुआ होगा। इसके सहारे वादी-प्रतिवादी सोचते हुए चैन से मर सकते हैं कि मुकदमे का फैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है।"
 

लड़कियों की दुर्गति

लंगड़ कहने को एक मामूली-सा आदमी है, परन्तु वह एक बहुत बड़े सामाजिक अभिशाप की ओर संकेत करता है- "इस देश में लड़कियाँ ब्याहना भी चोरी करने का बहाना हो गया है।" एक रिश्वत लेता है, दूसरा कहता है कि क्या करे बेचारा ? बड़ा खानदान है, लड़कियाँ ब्याहनी हैं। सारी बदमाशियों का तोड़ लड़कियों के ब्याह पर होता है।
 

बेशर्मी के साथ बेईमानी

दूसरों को बेईमान कहना प्रायः हरेक का स्वभाव बन गया है। लेखक के अनुसार हर भला आदमी इसका प्रयोग मल्टी-विटामिन टिकियों की तरह दिन में तीन बार खाना खाने के बाद कर सकता है। अपनी कोऑपरेटिव में गबन की बात सुनकर वैद्य जी सौ पर शून्य लगाते हुए कहते हैं-"कोऑपरेटिव में गबन हो गया, तो कौन-सी बात हो गयी। कौन-सी यूनियन है, जिसमें ऐसा गबन न हुआ हो। अब तो हम यह भी कह सकते हैं कि हम सच्चे आदमी हैं। गबन हुआ है और हमने छिपाया नहीं है।"
 

राजनीति का स्वरूप

प्रत्येक बड़े नेता का एक विरोधी है। सभी ने स्वेच्छा से अपना-अपना विरोधी पकड़ रखा है। यह जनतन्त्र का सिद्धान्त है। विरोधीगण अपनी बात बकते रहते हैं और नेतागण चुपचाप अपनी चाल चलते रहते हैं। कोई किसी से प्रभावित नहीं होता। यह आदर्श विरोध है।
 

नगरों में असुरक्षा का वातावरण

रिक्शे वाला बद्री पहलवान से कहता है-"पहलवानी तो अब दिहात में ही चलती है, हमारे उधर तो अब छुरेबाजी का जोर है ! "
 

वाचालता का वातावरण

वैद्य जी रिक्शे वाले को परामर्श देते हैं कि उसे अपनी तन्दुरुस्ती की ओर ध्यान देना चाहिए। वह बद्री पहलवान के पहलवाननुमा शरीर को लक्ष्य करके उत्तर देता है- “पर अब पहलवानी में क्या रखा है। लड़ाई में जब ऊपर से बम्ब गिरता है, तो नीचे बड़े-बड़े पहलवान ढेर हो जाते हैं। हाथ में तमंचा हो, तो पहलवान हुए तो क्या और न हुए तो क्या ?"
 

गाँवों में आपसी रंजिश

रामाधीन बद्री पहलवान के रिक्शे को रोककर कहता है-“मेरे घर में डाका पड़ने वाला है, चिट्ठी आई है, पाँच हजार मँगाये हैं, आदि।" पता चलता है कि रामाधीन को मालूम है कि रुप्पन ने चिट्ठी डाली है। जोगनाथ दरोगाजी को भी समझाने का हौसला रखता है।
 

राजनीति के केन्द्र किसान

प्रत्येक नेता खेती की उपज का रोना रोता है और काश्तकारों के हितों के लिए चिन्तित दिखाई देता है।
 
जमींदारों के प्रभाव में कमी- जमींदारी के समाप्त होने के बाद इतना तो हो ही गया कि किसी जमींदार के निकलने पर पहले जैसा गार्ड ऑफ ऑनर नहीं दिया जाता है। यही हाल ब्राह्मणों के सन्दर्भ में हुआ है। अब उन्हें देखकर न कोई खड़ा होता है और न चरण स्पर्श करता है। केवल इतना कह भर देता है-"पाँव लागी महाराज!" रुप्पन बाबू कह देते हैं- “बैठा रह चुटइया। पुराने दिन लद गये।" चुटइया व्यंग्य करता है-"पंचायत के चुनाव तो हो गये। कौन-सा चुनाव है महाराज।"
 

राजनीति में भ्रष्टाचार

राजनीतिक दल कहते तो यह हैं कि सब चीजें खुले बाजार में मिलती हैं, परन्तु ऐसा होता नहीं है। वे लोग कुछ ऐसी चीजों की सूची बना लेते हैं, जो खुले आम खरीदी तो नहीं जातीं, पर खायी जाती हैं। इसी सिलसिले में लेखक ने राशन, परमिट, लाइसेन्सी शराब की दुकान आदि पर होने वाले भ्रष्टाचार व कालाबाजारो का वर्णन किया है। बद्री पहलवान वैद्य जी को तेरह सौ रुपया देते हैं। तब बात साफ होती है कि इस प्रकार के लेन-देन में वैद्य जी और दरोगा जी की साठ-गाँठ रहती है। लेखक ने नेताओं के तथाकथित त्याग पर व्यंग्य करते हुए लिखा है- “आज सभी यशस्वी नेता भोग करते हैं, फिर उसका त्याग करते हैं, फिर त्याग द्वारा भोग करते हैं।"
 

प्रशासन व्यवस्था

गयादीन कहता है -"कोई मोटर से कुचल जाए, तो मोटर वाला रफूचक्कर हो जाएगा। कुचला हुआ आदमी कुत्ते की तरह पड़ा रहेगा। अगर कहीं अस्पताल हुआ तो दो-चार दिन में मरते-मरते पहुँच जायेगा। अस्पताल में अगर कोई डॉक्टर हुआ भी तो पानी की बोतल पकड़ा देगा, क्योंकि उसके पास देने के लिए दवाई नहीं होगी। होगी तो चुराकर बेचने के लिए पहले ही निकालकर रख ली गयी होगी।"
 

उपसंहार

श्रीलाल शुक्ल ने देश के वातावरण का अत्यन्त व्यापक एवं सजीव चित्रण किया है। जीवन के व्यक्तिगत और सामाजिक किसी भी पहलू को अछूता नहीं छोड़ा गया है। उसने गयादीन के मुँह से देश की स्थिति के बारे में महत्वपूर्ण निष्कर्ष प्रस्तुत किया है- "शहर में हर दिक्कत के आगे एक राह है और देहात में हर राह के आगे एक दिक्कत है।" उपन्यास में निश्चित एवं व्यवस्थित कथावस्तु का अभाव है। उसी हिसाब से विभिन्न पात्र बिखरे हुए दिखाई देते हैं। सब कुछ वैद्य जी की बैठक में होता रहता है। इस बारे में कोई विवाद हो ही नहीं सकता है कि 'राग दरबारी' एक देश-काल-प्रधान उपन्यास है।

इस प्रकार श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'राग दरबारी' भारतीय साहित्य में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इस उपन्यास ने न केवल हिंदी साहित्य बल्कि भारतीय समाज के सामाजिक ताने-बाने को गहराई से उजागर किया है।

राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों पर व्याप्त रूढ़ियों, कुरीतियों और सामाजिक असमानता को बेबाक तरीके से प्रस्तुत करता है। यह उपन्यास एक छोटे से कस्बे के जीवन को केंद्र में रखकर लिखा गया है, लेकिन इसकी प्रासंगिकता पूरे देश के सामाजिक ढांचे से जुड़ी हुई है।

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