रागदरबारी उपन्यास में रुप्पन बाबू का चरित्र चित्रण रुप्पन बाबू वैद्य जी के छोटे पुत्र और बद्री पहलवान के छोटे भाई थे। वे शरीर से बद्री पहलवान के सामने
रागदरबारी उपन्यास में रुप्पन बाबू का चरित्र चित्रण
श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास रागदरबारी भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। यह उपन्यास स्वतंत्रता के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन की जटिलताओं और कुरीतियों को बड़ी ही निर्ममता से उजागर करता है। उपन्यास के माध्यम से लेखक ने भारतीय समाज में व्याप्त राजनीति, सामाजिक संरचना, और मानवीय मूल्यों के ह्रास को बेबाक शब्दों में व्यक्त किया है।रागदरबारी में रुप्पन बाबू का चरित्र एक ऐसा पात्र है जो पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है। वह एक ओर तो भारतीय समाज की कमजोरियों को उजागर करता है, तो दूसरी ओर युवा पीढ़ी के सामने आने वाली चुनौतियों को भी दर्शाता है।
रुप्पन बाबू वैद्य जी के छोटे पुत्र और बद्री पहलवान के छोटे भाई थे। वे शरीर से बद्री पहलवान के सामने कुछ भी नहीं थे, पर अपने आपको बहुत बड़ा नेता समझते थे। उनका परिचय श्रीलाल शुक्ल ने इस प्रकार दिया है-
"रुप्पन बाबू अठारह साल के थे। वे स्थानीय कॉलेज की दसवीं कक्षा में पढ़ते थे पढ़ने से और खास तौर से दसवीं कक्षा में पढ़ने से उन्हें बहुत प्रेम था। इसलिए वे उसमें पिछले तीन साल से पढ़ रहे थे।
रुप्पन बाबू स्थानीय नेता थे। उनका व्यक्तित्व इस आरोप को काट देता था कि इण्डिया में नेता होने के लिए पहले धूप में बाल सफेद करने पड़ते हैं। उनके नेता होने का सबसे बड़ा आधार यह था कि वे सबको एक निगाह से देखते थे। थाने के दरोगा और हवालात में बैठा हुआ चोर, दोनों उनकी निगाह में एक थे। इसी तरह इम्तहान में नकल करने वाला विद्यार्थी और प्रिंसिपल उनकी निगाह में एक थे। वे सबको दयनीय समझते थे। सबका काम करते थे, सबसे काम लेते थे। उनकी इज्जत थीं कि पूँजीवाद के प्रत्येक दुकानदार उनके हाथ सामान बेचते नहीं, उन्हें अर्पित करते थे। शोषण के प्रतीक इक्के वाले उन्हें शहर तक पहुँचाकर किराया नहीं, आशीर्वाद माँगते थे। उनकी नेतागिरी का प्रचार किया और अन्तिम सभा वहाँ का कॉलेज था, जहाँ उनका इशारा पाकर सैकड़ों विद्यार्थी तिल का ताड़ बना सकते थे और जरूरत पड़े तो उस पर चढ़ भी सकते थे।
रुप्पन बाबू के चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
जन्मजात नेता
रुप्पन बाबू के पिता वैद्य जी शिवपालगंज के नेता थे। उनके पुत्र होने के कारण रुप्पन बाबू को यह नेतागिरी उत्तराधिकार में मिली थी। रुप्पन बाबू का शरीर अधिक बलिष्ठ नहीं था, पर वैद्यजी के पुत्र होने के कारण उनका प्रभाव सभी पर पड़ता था । सभी उनसे दबते थे। रुप्पन बाबू का प्रभाव लड़कों पर तो था ही, वहाँ के मास्टर और प्रिंसीपल तक उनसे दबते थे। अध्यापक का एक प्रसंग इस प्रकार है-
"खन्ना मास्टर के साथ मालवीय भी थे। दोनों पुलिया पर बैठे थे। रुप्पन बाबू होली के उत्सव में निरन्तर भाँग पीते रहने के कारण थके हुए थे। अपनी थकान उतारने के लिए वे उस समय नये सिरे से भाँग पीकर रंगनाथ के साथ टहलने निकले थे। पुलिया पर दो आदमियों को बैठा देखकर उन्होंने स्वाभाविक तरीके से कहा- "कौन है, बे ?""कौन रुप्पन बाबू नमस्कार, रंगनाथ जी ! मैं खन्ना हूँ।" 'दूसरा कौन है। "मालकीय है। नमस्कार रुप्पन बाबू ।"
भंग पीने के आदी
रुप्पन बाबू भंग पीने के आदी बन चुके थे। उनके पिता वैद्य जी नियमित रूप से भंग पीते थे। उनके परिवार में भंग पीना नशा नहीं माना जाता था। उसे भगवान् शंकर की बूटी माना जाता था। भंग पीकर वे कभी-कभी बहक भी जाते थे। उनकी बात का कोई इसलिए बुरा न मानता था, क्योंकि वे वैद्यजी के पुत्र थे।
स्त्री प्रेम के लिए लालायित
अभी रुप्पन बाबू के बड़े भाई बद्री पहलवान का विवाह नहीं हुआ था। छोटे होने के कारण रुप्पन बाबू का विवाह कैसे हो सकता था। बेला ने जो प्रेम-पत्र बद्री पहलवान को लिखा था, वह रंगनाथ ने उठा लिया और समझा कि यह प्रेम पत्र रुप्पन बाबू के लिए लिखा गया है। उसने वह पत्र देखकर समझ लिया कि बेला मुझसे प्रेम करती है। उन्होंने भी बेला को प्रेम-पत्र लिखा। इस मनःस्थिति का वर्णन श्रीलाल शुक्ल के शब्दों में इस प्रकार है- “जिसका नाम रुप्पन बाबू था, उसके मन में बेचैनी पैदा होने के दिन एक और घटना हुई थी, पर उस घटना का इस बेचैनी से कोई सम्बन्ध नहीं था । इस लड़के को उस दिन से एक लड़की की जरूरत थी और इस बात को पहचानकर उसने भूल से यह मान लिया था कि उसे सिर्फ बेला की जरूरत है। इसके बाद अपनी इस इच्छा को, जो कि कीड़ों-मकोड़ों, चिड़ियों, जानवरों आदि में मौसम के हिसाब से और आदमी में मौसम हो या न हो, प्रकट होती है। उसने प्रेम भी नाम दे दिया। यह शब्द हमारे शब्दकोश को में शायद कविता के फरेब से आया है। उस लड़के ने यह सोचना शुरू कर दिया कि वह बेला को प्रेम करता है और पूरे तथ्यों की जानकारी न होने से उसने यह भी सोच लिया कि बेला को भी उससे प्रेम होगा। फिर उसने बेला को एक प्रेम-पत्र लिखा, जिसका जवाब बेला ने तो दिया, पर जिसके लिए उसे कई जगह और कई बार जवाब देना पड़ा। रुप्पन को जब पता चला कि बद्री पहलवान बेला से विवाह कर रहे हैं तो उसे बहुत बुरा लगा।
स्पष्ट वक्ता
रुप्पन बाबू अपने आपको बहुत बड़ा नेता ही नहीं, शक्तिशाली भी समझते थे। यही कारण था कि वे अपने पिता से भी नहीं दबते थे। कॉलेज में खन्ना मास्टर ने एक ग्रुप बना लिया था। जो प्रिंसीपल को परेशान कर रहा था और मुकदमेबाजी चल रही थी। रुप्पन बाबू को लगा कि खन्ना मास्टर को दबाया जा रहा है, इस कारण वे उसके पक्षधर बन गये। इससे प्रिंसीपल ने उन पर आरोप लगाये कि वे खन्ना मास्टर की पत्नी के कारण मेरे विरोधी बन गये हैं। वैद्य जी ने इस पर विश्वास कर लिया और एक बार रुप्पन बाबू से कहा-“मैं जानता हूँ रुप्पन! तुम अचानक अपने गुरु से क्यों द्रोह करने लग गये हो और खन्ना मास्टर तुम्हारे क्यों सगे बन गये हैं। स्पष्ट बात तो यह है कि मुझे तुम्हारा वहाँ आना-जाना उचित नहीं जान पड़ता।"
इसे सुनकर रुप्पन बाबू कुछ देर चुपचाप खड़े रहे, फिर उन्होंने गले में लगे हुए रूमाल को कसा। हाथ में झोला लटकाते हुए बोले- "समझ गया। आप मेरे करैक्टर पर शुबह करते हैं। वे उँगली उठाकर भविष्यवाणी करने वाले पोज में बोले-"इन्हीं प्रिंसीपल साहब ने आपके कान भरे हैं। मैं जानता हूँ। इसका नतीजा अच्छा न होगा।" अचानक उन्होंने घूमकर कहा-"और बद्री दादा गाँव-गाँव उनकी थड़ी-थुड़ी हो रही है। वे बेला को अपने घर बैठाये ले रहे हैं। उनसे कुछ कहने की हिम्मत नहीं होती। उनके करैक्टर पर।"
दूसरे के अपमान से दुःख
रुप्पन बाबू को यह पसन्द नहीं था कि कोई किसी निर्बल या दीन का अकारण अपमान करे। एक बार एक नेता ने लंगड़ को लँगड़ऊ कह दिया। नेता ने लंगड़ के बार-बार तहसील में नकल लेने के लिए जाने पर मजाक किया कि तुम तहसील के सामने झोंपड़ी डाल लो। इससे तुम्हें आना-जाना नहीं पड़ेगा। रुप्पन बाबू की मनोदशा ठीक नही थी। उन्हें नेता का यह मजाक अच्छा नहीं लगा। सहसा रुप्पन बाबू को ऐसा आभास हुआ कि यह आदमी लँगड़ को लँगड़ऊ कहकर लंगड़ का मजाक उड़ा रहा हैं। हम लोग भी इसे लंगड़ कहते हैं। पर वह क्या है? इसका असली नाम क्या है ? सहसा रुप्पन बाबू को कई नाम याद आये। लंगड़े को लंगड़ कहा जाता था, अंधे को सूरा कहा जाता है। रूप्पन बाबू के पास एक काना रोगी आता था। वैद्यजी उसे शुक्राचार्य कहते थे। एक वृद्ध जो कम सुनते थे, उन्हें बहरे बाबा कहा जाता था। उस नेता की दोनों आँखें भैंगी थी। रुप्पन बाबू ने उसे चिढ़ाने के लिए कहा- "ऐ ऐंचाना परशाद ! तुम इन्हें लंगड़ऊ क्यों कहते हो ?"
रुप्पन बाबू की बात सुनकर नेता परेशान हुआ और बोला कि फिर इन्हें क्या कहें? रुप्पन बाबू ने जब लंगड़ से उसका नाम पूछा तो उसने बताया कि उसके पिता उसे लंगड़ परसाद कहा करते थे।
रुप्पन का खन्ना मास्टर के पक्षपाती होने का फल
वैद्य जी को विश्वास हो गया कि रुप्पन खन्ना मास्टर का पक्षपाती है और मेरा विरोध कर रहा है। जिस दिन डिप्टी डाइरेक्टर कॉलेज के प्रधान के चुनाव की जाँच करने आने वाले थे, उस दिन सरकारी बँगले के सामने दो बिसाते बिछ। एक पर वैद्यजी, प्रिंसीपल साहब और उनके गुरगे लोग थे। दूसरी पर रुप्पन बाबू, रामाधीन भीखमखेड़वी तथा उनके आदमी, खन्ना मास्टर तथा उनके ग्रुप के लोग थे। डिप्टी डाइरेक्टर साहब शाम तक नहीं आये तो दोनों ओर बहुत से लोग उठकर चले गये। वैद्य जी के कहने से प्रिंसीपल साहब ने खन्ना और उनके ग्रुप के मास्टरों के इस्तीफे टाइप करा लिये थे। छोटे पहलवान ने बलपूर्वक उनसे इस्तीफे के कागजों पर हस्ताक्षर कराये।
इसके बाद वैद्य जी ने अपने स्थान पर कॉलेज का अध्यक्ष भी बद्री पहलवान को घोषित करते हुए कहा- "यह रुप्पन! यह मूर्ख है, नीच है, पशु है, पतित है, विश्वासघाती है ।इसके कुछ देर बाद वैद्य जी काँपते हुए और चीखे-“तू नेता बनता है, मेरा विरोधी बनता है, तू नेता बनना चाहता है, तो देख अभी तुझे नेता बनाता हूँ। मुझे आशा थी कि मेरी वृद्धावस्था में शान्ति बनी रहेगी। ग्राम सभा का झगड़ा समाप्त कर चुका हूँ। सरकारी संघ था, उसे बद्री को दे चुका हूँ। सोचा था, इस कॉलेज का भार तुझे देता जाऊँगा, देने के लिए इसके अतिरिक्त मेरे पास और क्या है? पर नीच, तू विश्वासघाती निकला। जा, अब तुझे और कुछ नहीं मिलेगा। सब लोग सुन लें मेरे बाद बद्री ही इस कॉलेज का मैनेजर बनेगा। रुप्पन को कुछ नहीं मिलेगा।
इस प्रकार रुप्पन का चरित्र समाप्त होता है। वे छात्र नेता बनकर अध्यापकों के नेता बने थे। वैद्य जी ने उनकी नेतागिरी समाप्त कर दी।
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