सिपाही की माँ एकांकी की तात्विक समीक्षा मोहन राकेश एक मां के असीम प्रेम और देशभक्ति के भावों को बड़े ही प्रभावी ढंग से उजागर करती है। यह एकांकी न केवल
सिपाही की माँ एकांकी की तात्विक समीक्षा | मोहन राकेश
मोहन राकेश का एकांकी "सिपाही की माँ" एक मार्मिक कृति है जो एक मां के असीम प्रेम और देशभक्ति के भावों को बड़े ही प्रभावी ढंग से उजागर करती है। यह एकांकी न केवल व्यक्तिगत स्तर पर मातृत्व के बंधन को दर्शाता है, बल्कि एक व्यापक स्तर पर देश के प्रति एक मां के समर्पण को भी चित्रित करता है।
समीक्षकों एवं आचार्यों ने एकांकी के निम्नलिखित तत्व स्वीकार किये हैं -
- कथानक अथवा कथावस्तु,
- पात्र और उनका चरित्र-चित्रण,
- कथोपकथन अथवा संवाद,
- भाषा-शैली,
- देश-काल एवं वातावरण,
- उद्देश्य,
- संकलन-त्रय
- शीर्षक ।
इन्हीं तत्वों के आधार पर मोहन राकेश के एकांकी 'सिपाही की माँ' की समीक्षा प्रस्तुत है -
कथानक अथवा कथावस्तु
बिशनी वृद्धा है। उसका पुत्र मानक फौज का सिपाही है। वह बर्मा की लड़ाई पर गया है। पहले मानक जल्दी-जल्दी अपनी माँ को चिट्ठियाँ लिखता था। अब दो महीने से उसकी चिट्ठी नहीं आई है। मानक की माँ बिशनी और बहन मुन्नी दोनों उसकी चिट्ठी की रोज प्रतीक्षा करती हैं। डाक वाली गाड़ी इस गाँव में सप्ताह में एक दिन केवल मंगलवार को आती है। मानक की चिट्ठी न आने से माँ विशनदेई और बेटी मुन्नी दोनों बहुत चिन्तित हैं। मुन्नी एक अनुमान प्रस्तुत करती है कि शायद मैदान की लड़ाई के कारण चिट्ठी लिखने की फुरसत नहीं मिलती होगी। मानक माँ का अकेला पुत्र है। मुन्नी अपनी माँ बिशनी के घुटने पर सिर रखकर उसे धैर्य बँधाती है और चिन्ता न करने को कहती है।
बिशनी चरखा कात रही है। बिशनी बुढ़िया है। उसके सभी बाल सफेद हो गये हैं और चेहरे पर झुर्रियाँ हैं। मुन्नी के पूछने पर बिशनी बताती है कि बर्मा यहाँ से कई सौ कोस दूर है। वहाँ गाड़ी मोटर नहीं जाती। कलकत्ता से पानी के जहाज में बैठकर बर्मा तक जाते हैं। गाँव के चौधरी ने मुन्नी को बताया कि लड़ाई में कभी-कभी पानी का जहाज समुन्दर में डूब जाता है। मुन्नी शंका व्यक्त करती है कि शायद भैया की चिट्ठी वाला जहाज समुन्दर में डूब गया होगा, क्योंकि बर्मा से चिट्ठी भी तो जहाज से आती होगी। तभी बिशनी की पड़ौसिन कुन्ती वहाँ आयी और उसने मानक की चिट्ठी के बारे में पूछा।
बिशनी की पुत्री मुन्नी की सभी सहेलियों की शादी हो चुकी है। कुन्ती आशा प्रकट करती है कि मानक जल्दी घर आ जाये तो मुन्नी की भी शादी हो जाये। बिशनी और कुन्ती दोनों मानक के छः महीने में घर लौट आने की कल्पना करती हैं।तभी बुड्ढा और कमजोर दीनू कुम्हार हाँफता हुआ बाहर से आकर बताता है कि दो जवान छोकरियाँ कहीं से आयी हैं। उनका पहराबा देखकर शर्म आती है। वे घर-घर जाकर आटा और चावल माँग रही हैं। वे तेरे घर की तरफ ही आ रही हैं। दीनू के चले जाने पर कुन्ती बिशनी को बताती है कि वे लड़कियाँ क्रिस्तान हैं। इस तरह की औरतें मर्दों को घर में रखती हैं और स्वयं बाहर घूमती हैं।
तभी दो लड़कियाँ बिशनी के दरवाजे पर आकर थोड़ा दाल-चावल माँगती हैं। एक लड़की बताती है कि हम रंगून से आये हैं और एक धरमशाला में ठहरे हैं। बिशनी लड़कियों से पूछती है कि बर्मा से यहाँ तक आने में कितने दिन लगते हैं? एक लड़की जवाब देती है कि दिनों की कोई गिनती नहीं है। घने जंगलों से होकर आना पड़ता है। बिशनी के घर में ज्यादा चावल नहीं हैं, फिर भी वह मुन्नी के द्वारा एक कटोरी चावल उन लड़कियों को दिला देती है। लड़कियों के चले जाने पर बिशनी और मुन्नी यह कल्पना कर लेती हैं कि मानक अपने आप आ रहा होगा, इसलिए उसने चिट्ठी नहीं भेजी है।
रात होने पर बिशनी और मुन्नी अलग-अलग चारपाइयों पर सोती हैं। अँधेरे में बिशनी सपना देखती है कि उसका बेटा मानक घायल अवस्था में माँ के पास आता है। वह माँ को बताता है कि उसे कई गोलियाँ लगी हैं और दुश्मन अभी भी उसका पीछा कर रहा है। तभी दूसरा घायल सिपाही आता है और मानक को मारने की धमकी देता है। मानक उसे धक्का देकर गिरा देता है। दोनों सिपाही लड़ते हुए बाहर चले जाते हैं। बाहर से गोलियाँ चलने की आवाज आती है तो बिशनी उठ बैठती है। वास्तव में वह सपना देख रही थी। मुन्नी बुझी हुई ढिबरी जला कर बाहर रखती है और अपनी माँ से कहती है कि तुम हर समय भैया के सपने देखा करती हो।
मुन्नी अपनी माँ को बताती है कि भैया मेरे लिए कड़े लायेंगे जो तारो और बन्तो के कड़ों से भी अच्छे होंगे। माँ उसे आश्वासन देती हैं कि तेरे कड़े सच्चे मोतियों के बने होंगे। मुन्नी उठकर ढिबरी बुझा देती है और अपनी माँ को सो जाने को कहती है। माँ बिशनी अँधेरे में बुदबुदाती रहती है।
पात्र और चरित्र चित्रण
पात्रों का नाटक और एकांकी दोनों में बड़ा महत्व है। पात्र ही निराकार कथानक को साकार रूप प्रदान करते हैं। इस एकांकी में तीन पुरुष पात्र और पाँच नारी पात्र हैं। स्त्री पात्र बिशनी, मुन्नी, कुन्ती और दाल-चावल माँगने वाली दो लड़कियाँ हैं। पुरुष पात्र दीनू कुम्हार, बिशनी का पुत्र मानक और उसका दुश्मन सिपाही है।
एकांकी के रचयिता मोहन राकेश ने सभी पात्रों के चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। बिशनी बुढ़िया है। उसके चेहरे पर झुर्रियाँ हैं और उसके सभी बाल सफेद हो गये हैं। उसका इकलौता पुत्र मानक फौज का सिपाही है और बर्मा की लड़ाई पर गया है। बिशनी मानक की चिट्ठी न आने से परेशान है। वह चाहती है कि मानक आ जाये तो कहीं अच्छा-सा लड़का देखकर मुन्नी की शादी कर दी जाये।
मुन्नी बिशनी की इकलौती पुत्री है। उसकी उम्र चौदह साल है। मुन्नी आशा करने वाली लड़की है। मानक की चिट्ठी न आने से माँ बिशनी जब निराश और चिन्तित होने लगती है तो मुन्नी उसे आशा बँधाती है कि अगले मंगल को भैया की चिट्ठी अवश्य आ जायेगी। कभी मुन्नी अपनी माँ को यह भी समझाती हैं कि भैया आ रहे होंगे, इसलिए उन्होंने चिट्ठी नहीं भेजी है। माँ बिशनी जब सपने में अपने बेटे मानक को देखकर चिल्ला उठती हैं तो मुन्नी उसे सपने न देखने की सलाह देती है। मुन्नी भी आशा करती है कि उसका भाई जल्दी घर आ जाये और उसे सच्चे मोतियों के ऐसे कड़े बनवा दे जो तारो और बन्तो के कड़ों से भी अच्छे हों।
कुन्ती भी बुढ़िया है, पर उसका स्वास्थ्य बिशनी से अच्छा है। वह बिशनी की पड़ौसिन है । कुन्ती बताती है कि मुन्नी की सभी सहेलियों की शादी हो चुकी है। वह बिशनी को सलाह देती है कि वह कहीं अच्छा-सा लड़का देख ले, जिससे मानक के आते ही मुन्नी की शादी कर दी जाये।
दीनू कुम्हार भी बुड्ढा और कमजोर है। उसकी हड्डियाँ निकल आयी हैं। वह बाहर से दो ऐसी लड़कियों को देख आया है जो ऐसे कपड़े पहने हैं, जिन्हें देखकर शरम आती है। दीनू बिशनी को यह भी बताता है कि दोनों लड़कियाँ तेरे ही घर की ओर आ रही हैं।
दोनों भिखमंगी लड़कियाँ रंगून की रहने वाली हैं। वे नीले रंग का गन्दा फ्राक पहने हैं जो घुटनों तक आता है। वे लड़कियाँ अपना घर-बार लड़ाई में तबाह हो जाने के कारण पैदल चलकर रंगून से भारत आयी हैं। उनका भाई रास्ते में मारा गया है। उनके साथ की दस औरतें धर्मशाला में ठहरी हैं। वे आटा, दाल, चावल माँगती हैं, जिससे सबका पेट भर सके मानक बिशनी का बेटा और मुन्नी का भाई है। सिपाही उसका दुश्मन है। दोनों को गोलियाँ लगी हैं। दोनों घायल हैं। मानक भागकर अपने घर में आता है। उसका पीछा करता हुआ सिपाही भी आ जाता है। दोनों एक-दूसरे को मारना चाहते हैं और लड़ते हुए बाहर चले जाते हैं। सभी पात्र जीवन्त हैं। लेखक मोहन राकेश ने इनके चरित्र पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।
कथोपकथन अथवा संवाद
कथोपकथन अथवा संवाद नाटक और एकांकी दोनों के प्राण होते हैं। इनमें संवाद अथवा कथोपकथनों का ही, महत्व सबसे अधिक होता है। इन्हीं के कारण पात्र जीवन्त जान पड़ते हैं। संवाद अथवा कथोपकथन कथानक को आगे बढ़ाते हैं और पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं। पात्र एक-दूसरे के विषय में जो कुछ कहते हैं, उससे उनके और दूसरों के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।
संवाद सरल, सुबोध और छोटे होने चाहिए। बड़े संवाद अभिनय को नीरस बना देते हैं। संवादों की भाषा पात्रों की योग्यता के अनुसार होनी चाहिए। इस एकांकी के संवाद न बहुत छोटे हैं और न बहुत बड़े हैं। संवाद कथानक को आगे बढ़ाते हैं और पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालते हैं। इस आधार पर इस एकांकी के संवाद आदर्श माने जा सकते हैं। उदाहरण के रूप में संवादों का एक स्थल प्रस्तुत है-
बिशनी - चौधरी कहता था कि कई सौ कोस दूर है। जाने चौधरी को भी पता है या नहीं ? जब जो उसके मुँह में आता है, कह देता है।
मुन्नी- चौधरी यह भी कहता है कि वहाँ गाड़ी मोटर नहीं जाती। पानी वाले जहाज में बैठकर वहाँ जाते हैं।
बिशनी-यह तो मानक भी कहता था कि कलकत्ते से ब्रम्मा पानी वाले जहाज में बैठकर जाते हैं। मानक कलकत्ते के समुन्दर में पानी वाले जहाज देखकर आया था।
मुन्नी-ब्रम्मा से चिट्ठी भी तो फिर माँ, जहाज में ही आती होगी। अगर हमारी चिट्ठी वाला जहाज डूब गया हो तो......
बिशनी-ऐसी काली जबान न बोल। मुँह अच्छा न हो तो बात तो आदमी अच्छी करे। मानक कहता था कि जहाज इत्ता बड़ा होता है कि हमारे जैसे चार गाँव एक जहाज में आ जाएँ । इत्ता बड़ा जहाज कैसे डूब सकता है?
भाषा शैली
नाटक और एकांकी दोनों में ही भाषा पात्रों के अनुकूल होनी चाहिए। भाषा ही निराकार भावों को साकार रूप प्रदान करती है। इस एकांकी के सभी पात्र कम पढ़े-लिखे हैं । लेखक मोहन राकेश ने इस एकांकी की भाषा पात्रों के अनुसार ही रखी है। ये पात्र बर्मा को ब्रम्मा और क्रिश्चियन को क्रिस्तान कहते हैं। इस एकांकी का कुछ अंश भाषा के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत है-
“पहले जब घर-बार था तब और बात थी माँ जी ! अब घर-बार उजड़ गया है तो भीख का ही आसरा है। जापानी जहाजों ने बम मार-मारकर सारा शहर उजाड़ दिया है। रोज वहाँ गोलाबारी होती है। यहाँ तो आप लोग स्वर्ग में रहती हैं माँ जी ! लड़ाई की वजह से हमारा मुल्क तो बिल्कुल तबाह हो गया है। फौज को छोड़कर और कोई वहाँ नहीं रहा ।
देश काल एवं वातावरण
इस एकांकी का देश अर्थात् स्थान पंजाब का कोई गाँव है, जहाँ हफ्ते में एक दिन घोड़ा गाड़ी से डाक पहुँचती है। बिशनी की पुत्री मुन्नी कुर्ता और शलवार पहने है। इससे भी इस एकांकी का स्थान पंजाब ही जान पड़ता है। जिस समय को लेकर यह एकांकी लिखा गया है, उस समय कुर्ता शलवार पंजाब में ही पहनी जाती थी। इस एकांकी का काल अर्थात् समय सन् 1940 के आस-पास का है। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था और जापान ने बर्मा पर आक्रमण कर दिया था। उस समय तक बर्मा भारत से अलग हो चुका था। उसकी राजधानी रंगून बन गयी थी।
जहाँ तक वातावरण का प्रश्न है, इस एकांकी का वातावरण घरेलू है। पूरा एकांकी बिशनी के घर में ही अभिनीत होता है। बिशनी का चर्खा कातना, मुन्नी का उसकी गोद में बैठना, पड़ौसिन कुन्ती और पड़ौसी दीनू का आना, दरवाजे से बर्मी लड़कियों का आटा, दाल और चावल माँगना, रात में आँगन में चारपाइयों पर सोना, ढिबरी जलाना और बुझाना इस एकांकी का वातावरण घरेलू ही सिद्ध करता है।
उद्देश्य
कोई काम बिना उद्देश्य के नहीं होता तो फिर पढ़े-लिखे और विचारशील साहित्यकार की रचना बिना उद्देश्य के कैसे हो सकती है? इस एकांकी का उद्देश्य सिपाही के परिवार की अनिश्चित स्थिति का वर्णन करना है। जिस मानक के सहारे उसकी बहन मुन्नी क्वारी बैठी है, जिसके सहारे माँ बिशनी मुन्नी की शादी की आशा कर रही है, वह लड़ाई में मारा भी तो जा सकता है। बिशनी जो स्वप्न देखती है, उसमें मानक और उसका दुश्मन सिपाही दोनों ही घायल हैं और एक-दूसरे को मारना चाहते हैं। दोनों के घर से बाहर निकल जाने के बाद बन्दूक छूटने की आवाज आती है। पता नहीं यह गोली मानक को लगी या उसके दुश्मन सिपाही को ।
शीर्षक
किसी भी रचना का शीर्षक उसका सिर होता है। जिस तरह सिर से आदमी की पहचान होती है, उसी तरह शीर्षक से रचना की पहचान होती है। शीर्षक सदा छोटा और रचना का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो पढ़ने वाले के मन में उत्सुकता उत्पन्न करे। इस एकांकी का शीर्षक 'सिपाही की माँ' सर्वथा उचित है। इस एकांकी में सिपाही की माँ की चिन्ता का वर्णन किया गया है। उसकी माँ दिन में अपने बेटे मानक की चर्चा करती है और रात में उसी के सपने देखती है ।
संकलन त्रय
संकलन-त्रय को अंग्रेजी में 'थ्री यूनिटीज' (Three Unities) कहते हैं। संकलनत्रय की कल्पना भारतीय नाटकों की नहीं है। यह कल्पना अंग्रेजी साहित्य से आयी है। संकलनत्रय निम्नलिखित हैं-
- कार्य संकलन-यूनिटी ऑफ वर्क (Unity of Work),
- स्थान संकलन- यूनिटी ऑफ प्लेस (Unity of Place),
- समय संकलन-यूनिटी ऑफ टाइम (Unity of Time)।
कार्य संकलन का तात्पर्य यह है कि एकांकी में एक ही कार्य होना चाहिए। इस एकांकी में एक ही कार्य है-सिपाही के जीवन की अनिश्चितता के कारण उसके परिवारीजनों की चिन्ता । इस कार्य का इस एकांकी में अच्छी तरह निर्वाह हुआ है।
स्थान संकलन का तात्पर्य यह है कि पूरे एकांकी का अभिनय एक ही स्थान पर होना चाहिए। इस एकांकी में इस संकलन का भी निर्वाह हुआ है, क्योंकि इसका अभिनय एक ही स्थान पर अर्थात् बिशनी के आँगन में हो जाता है।
समय संकलन का तात्पर्य यह है कि जितने समय में वास्तविक घटना हुई हो, एकांकी के अभिनय में उतना ही समय लगना चाहिए। इस एकांकी में समय संकलन का निर्वाह नहीं हुआ है। इसका पहला दृश्य दिन में और दूसरा रात में अभिनीत होता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि मोहन राकेश के इस एकांकी में संकलनत्रय का निर्वाह पूर्ण रूप से नहीं हुआ है।
एकांकी के तत्वों की कसौटी पर कसने पर यह एकांकी सिद्ध करता है कि इसमें एकांकी के तत्वों का लगभग पूरा निर्वाह हुआ है। एकांकी के तत्वों के आधार पर इसे सफल एकांकी कहा जा सकता है।
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