सूरज का सातवाँ घोड़ा उपन्यास की तात्विक समीक्षा | धर्मवीर भारती

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सूरज का सातवाँ घोड़ा उपन्यास की तात्विक समीक्षा धर्मवीर भारती धर्मवीर भारती का उपन्यास सूरज का सातवाँ घोड़ा हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण कृति

सूरज का सातवाँ घोड़ा उपन्यास की तात्विक समीक्षा | धर्मवीर भारती


र्मवीर भारती का उपन्यास "सूरज का सातवाँ घोड़ा" हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण कृति है। यह उपन्यास अपनी अनूठी शैली, गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और समाज के विभिन्न पहलुओं पर गहराई से विचार करने के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। इसका प्रकाशन साल 1952 में हुआ था | भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों ने उपन्यास-कला के सात तत्त्व निर्धारित किए हैं- कथानक, पात्र एवं चरित्र-चित्रण, संवाद अथवा कथोपकथन, देशकाल एवं वातावरण, भाषा-शैली, शीर्षक एवं उद्देश्य। इन तत्वों के आधार पर धर्मवीर भारती के लघु उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की समीक्षा प्रस्तुत है- 

कथावस्तु या कथानक

धर्मवीर भारती के लघु उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' का कथानक भारतीय समाज के निम्न-मध्य वर्ग से सम्बन्धित है। यद्यपि कथानक का विषय सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक आदि किसी भी प्रकार का हो सकता है, तथापि सामाजिक पारिवारिक जीवन की कथाएँ अधिक लोकप्रिय होती हैं। धर्मवीर भारती जी के प्रिय विषय सामाजिक ही हैं। उनके पहले उपन्यास 'गुनाहों का देवता' में प्रेम के वायवी और शारीरिक रूपों का विश्लेषण किया गया था और 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' उपन्यास का प्रतिपाद्य भी प्रेम ही है। उपन्यास के 'उपोद्घात' में कथावस्तु की प्रेम सम्बन्धी अनिवार्यता पर चिंतन करते हुए भारती जी ने लिखा है-"मैं अक्सर सोचता था कि जिन्दगी में अधिक-से-अधिक दस बरस ऐसे होते हैं, जब हम प्रेम करते हैं। उन दस बरसों में खाना-पीना, आर्थिक संघर्ष, सामाजिक जीवन, पढ़ाई-लिखाई, घूमना-फिरना, सिनेमा और साप्ताहिक पत्र, मित्रगोष्ठी इन सबसे जितना समय बचता है, उतने में हम प्रेम करते हैं। फिर इतना महत्व इसे क्यों दिया जाए। सैर-सपाटा, खोज-शिकार, व्यायाम, मोटर चलाना, रोजी-रोजगार, ताँगे वाले, रिक्शे वाले और पत्रों के सम्पादक सैकड़ों विषय हैं जिन पर कहानियाँ लिखी जा सकती हैं, फिर आखिर प्रेम पर ही क्यों लिखा जाये ? " और फिर माणिक मुल्ला के कथन के माध्यम से इस प्रश्न का उत्तर भी दे दिया- "हर व्यक्ति के मन में एक विरहिणी नारी रहती है, जो प्रेम के विविध रूपों को जीती है।"
 
'सूरज का सातवाँ घोड़ा' उपन्यास का प्रमुख विषय प्रेम है। माणिक मुल्ला के जीवन में आयी तीन स्त्रियों के नाम हैं-जमुना, लिली और सत्ती । इन स्त्रियों के अन्य पुरुषों यथा-तन्ना, महेसर दलाल, चमन ठाकुर आदि से हुए सम्बन्धों में प्रेम के जिन विविध आयामों को अभिव्यक्ति दी गई है, वही उपन्यास का मुख्य विषय है। इसमें जो प्रेम कहानियाँ कही गई हैं, वे वस्तुत: अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह पूरे एक समाज का चित्र और आलोचन है। जिस प्रकार उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर सम्बद्ध, आश्रित और संभूत हैं, उसी प्रकार उनकी कहानियाँ भी। धर्मवीर भारती ने लिखा है- " कथा शैली भी कुछ अनोखे ढंग की है, जो है तो वास्तव में पुरानी ही, पर इतनी पुरानी कि आज के पाठक को थोड़ी नयी या अपरिचित सी लग सकती है। बहुत छोटे से चौखटे में काफी लम्बा घटनाक्रम और काफी विस्तृत क्षेत्र का चित्रण करने की विवशता के फलस्वरूप यह ढंग अपनाना पड़ा है।" इस उपन्यास के कथानक को सात दोपहरी, चार अनध्यायों और प्रारम्भ में उपोद्घात के रूप में प्रस्तुत किया गया है। 

पात्र एवं चरित्र चित्रण 

सूरज का सातवाँ घोड़ा उपन्यास की तात्विक समीक्षा | धर्मवीर भारती
उपन्यास में कथा को आगे बढ़ाने का कार्य पात्र करते हैं। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' नामक लघु उपन्यास में भारती जी ने माणिक मुल्ला को केन्द्रीय पात्र के रूप में रखा है। उसके जीवन में आने वाली तीन स्त्रियाँ -जमुना, लिली और सत्ती लेखक के प्रेमदर्शन को विविध रूपों में प्रस्तुत करती हैं। महेसर दलाल, बुआ, तन्ना, चमन ठाकुर, कम्मो, रामधन आदि अन्य पात्र हैं जो कथावस्तु के संघटन और उद्देश्य पूर्ति में सहायक बनते हैं। लेखक ने पात्रों के आन्तरिक और बाह्य व्यक्तित्व को सूक्ष्मता से उभारा है। माणिक मुल्ला का परिचय इस उपन्यास में इन शब्दों में दिया गया है- "मुल्ला उनका उपनाम नहीं, जाति थी। वे कश्मीरी थे। कई पुश्तों से उनका परिवार यहीं बसा हुआ था। वे अपने भाई और भाभी के साथ रहते थे।" उपन्यास की स्त्री पात्र जमुना अभुक्त काम की शिकार है। उसके विचार अपरिपक्व हैं, जो प्रेम कहानियाँ पढ़-पढ़कर उच्छृंखल और अनैतिकता के स्तर तक गिर गए हैं। कभी दस वर्षीय माणिक मुल्ला को दाब लेने और चिकोटी काटने में तृप्ति का अनुभव करती है, तो कभी तन्ना के साथ रहने और रोने-धोने में। वृद्ध जमींदार से विवाह करके भी सुखी है और विधवा हो जाने के पश्चात् तांगे वाले रामधन के साथ रहकर सन्तुष्ट है। 

तन्ना सर्वाधिक दयनीय और पीड़ित पात्र है। महेसर दलाल, चमन ठाकुर, बुआ आदि भोगविलास में सुख की खोज करते हैं। लेखक ने इन पात्रों की मार्क्सवादी व्याख्या भी की है। धर्मवीर भारती के शब्दों में, "जमुना मानवता की प्रतीक है, मध्यवर्ग (माणिक मुल्ला) तथा सामंतवर्ग (जर्मीदार) उसका उद्धार करने में असफल रहे; अन्त में श्रमिक वर्ग (रामधन) ने उसको नयी दिशा दिखायी।" लेखक ने लिली, सत्ती और जमुना के नन्हे निष्पाप बच्चों को भविष्य का घोड़ा कहा है, जो समाज को नयी दिशा देंगे।
 

संवाद अथवा कथोपकथन

इस लघु उपन्यास के संवाद सरस, रोचक, पात्रानुकूल, जीवन्त और सार्थक हैं। लेखक ने कथा विस्तार, पात्रों की मनः स्थिति के विश्लेषण और उद्देश्यपूर्ति का कार्य संवादों के माध्यम से पूर्ण किया है। उदाहरण के लिए चौथी दोपहर को सुनायी गई कहानी के कुछ संवाद द्रष्टव्य हैं- 

'और प्यारे बन्धुओ ! देखा तुम लोगों ने! खुली हवा में घूमने और सूर्यास्त से पहले खाना खाने से सभी शारीरिक और मानसिक व्याधियाँ शान्त हो जाती हैं, अतः इससे क्या निष्कर्ष निकला ? " 
"खाओ, बदन बनाओ।" हम लोगों ने उनके कमरे में टंगे फोटो की ओर देखते हुए एक स्वर में कहा । 
"लेकिन माणिक मुल्ला !" ओंकार ने पूछा, "यह आपने नहीं बताया कि लड़की को आप कैसे जानते थे, क्यों जानते थे, कौन थी यह लड़की ?" 
अच्छा! आप लोग चाहते हैं कि मैं कहानी का घटनाकाल भी चौबीस घंटे रखूँ और उसमें आपको सारा महाभारत और एनसाइक्लोपीडिया भी सुनाऊँ।"
 
इस प्रकार उपन्यास के संवाद सरल, रोचक और कथानक की वृद्धि में सहायक हैं। यद्यपि कहीं-कहीं संवाद काफी बड़े हैं, पर उन्हें समझने में कठिनाई नहीं होती।
 

देशकाल एवं वातावरण

देशकाल के अनुकूल वातावरण की प्रस्तुति से कथानक में स्वाभाविकता आती है। लेखक ने तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश को जीवन्त करने का सफल प्रयास इस उपन्यास में किया है। उन्होंने प्रेम की अपेक्षा उस जीवन को अधिक मर्मस्पर्शी रूप में प्रस्तुत किया है, जिसे निम्न-मध्यवर्गीय समाज जी रहा है। उस समय का आर्थिक संघर्ष, समाज में व्याप्त निराशा, कटुता और शोषण ही रचना का वास्तविक सरोकार है। इस उपन्यास में कुछ स्थानों पर बाहरी वातावरण का भी चित्रण हुआ है। उदाहरण के लिए तीसरी दोपहर का चित्रण प्रस्तुत है-"हवा बिल्कुल रुक गयी है और इतनी उमस है कि सुबह पाँच बजे भी हम लोग पसीने से तर थे। हम लोग उठकर खूब नहाये, मगर उमस इतनी भयानक थी कि कोई भी साधन काम न आया यहाँ तो जिस दिन ऐसी उमस होती है उस दिन सभी काम रुक जाते हैं। सरकारी दफ्तरों में क्लर्क काम नहीं कर पाते, सुपरिन्टेन्डेट बड़े बाबुओं को डाँटते हैं, बड़े बाबू छोटे बाबुओं पर खीझ उतारते हैं. और चपरासी गाली देते हुए पानी पिलाने वालों से, भिश्तियों से और मालियों से उलझ जाते हैं। दुकानदार माल न बेचकर ग्राहकों को खिसका देते हैं और रिक्शे वाले इतना किराया माँगते हैं कि सवारियाँ परेशान होकर रिक्शा न करें।" इस प्रकार लेखक ने वातावरण का सफल चित्रण किया है। 

भाषा शैली

इस उपन्यास की भाषा सरल, व्यावहारिक और सामान्य बोलचाल में प्रयोग होने वाली है। लेखक ने अपनी भाषा-शैली के सम्बन्ध में लिखा है-"इनकी शैली में बोलचाल के लहजे की प्रधानता है और मेरी आदत के मुताबिक उनकी भाषा रूमानी, चित्रात्मक, इन्द्रधनुष और फूलों से सजी हुई नहीं है।" इस उपन्यास में हिन्दी की शब्दावली के साथ ही लेखक ने अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों का प्रयोग सहज रूप से किया है। इस उपन्यास की भाषा साधारण बोलचाल की तथा कहीं-कहीं अरबी-फारसी के शब्दों से युक्त भी है। कुछ पात्र आंचलिक भाषा का प्रयोग भी करते हैं । यत्र-तत्र मुहावरों और सूक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। उदाहरण के लिए एक गद्यांश प्रस्तुत है-
 
"इस बीच जमुना का ब्याह हो गया, महेसर दलाल गुजर गये, पहला बच्चा होने में पत्नी मरते-मरते बची और बचने के बाद वह तन्ना से गन्दी छिपकली से भी ज्यादा नफरत करने लगी। छोटी बहन ब्याह के काबिल हो गई और तन्ना सिर्फ इतना कर पाये कि सूखकर काँटा हो गये, कनपटियों के बाल सफेद हो गये, झुककर चलने लगे, दिल का दौरा पड़ने लगा, आँखों से पानी आने लगा और मेदा इतना कमजोर हो गया कि एक कौर भी हजम नहीं होता था । "
 
शैली की दृष्टि से धर्मवीर भारती ने इस उपन्यास में नाटकीय, वर्णनात्मक, संवादात्मक और मनोविश्लेषणात्मक शैलियों का प्रयोग मुख्य रूप से किया है। उनकी शैलीगत रोचकता का परिचायक एक अंश द्रष्टव्य है- "बेचारा मार्क्सवाद भी ऐसा अभागा निकला कि तमाम दुनिया में जीत के झण्डे गाड़ आया और हिन्दुस्तान में आकर इसे बड़े-बड़े राहु ग्रस गये। तुम ही क्या, उसे ऐसे-ऐसे व्याख्याकार यहाँ मिले हैं कि वह भी अपनी किस्मत को रोता होगा।"
 

शीर्षक

जिस प्रकार मनुष्य की पहचान उसके शीर्ष अर्थात् चेहरे से होती है उसी प्रकार किसी भी रचना की पहचान उसके शीर्षक से होती है। शीर्षक वही अच्छा माना जाता है जो संक्षिप्त, उद्देश्यपूर्ण, सार्थक और कथानक का परिचय देने वाला हो । इस दृष्टि से धर्मवीर भारती के उपन्यास का शीर्षक 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' सफल सिद्ध होता है। 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' एक कहानी में अनेक कहानियाँ नहीं, अनेक कहानियों में एक कहानी है। वह एक पूरे समाज का चित्र और आलोचन है और जैसे उस समाज की अनन्त शक्तियाँ परस्पर सम्बद्ध, परस्पर आश्रित और परस्पर संभूत हैं, वैसे ही उसकी कहानियाँ भी। लेखक ने अपने आशावादी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए कहा है कि सूरज के सात घोड़ों में छः घोड़े आहत हो चुके हैं और सातवाँ घोड़ा भविष्य का है जिससे उन्हें उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद है। इस प्रकार इस उपन्यास का शीर्षक सार्थक है। 

उद्देश्य

इस उपन्यास के महत्त्व को निरूपित करते हुए भारती जी ने उपोद्घात में लिखा है- "कहानियाँ चाहे छायावादी हों या प्रगतिवादी, ऐतिहासिक हों या अनैतिहासिक, समाजवादी हों या मुस्लिमलीगी, किन्तु उनसे कोई-न-कोई निष्कर्ष अवश्य निकलना चाहिए।" हिन्दी में अनेक कहानीकार इसीलिये लोकप्रिय हुए हैं कि उनकी कहानियाँ कल्याणकारी निष्कर्ष प्रस्तुत करती हैं। भारती जी ने माणिक मुल्ला द्वारा सुनायी गई प्रत्येक कहानी के अन्त में कल्याणकारी निष्कर्ष भी दिया है। उदाहरण के लिए दूसरी कहानी से निष्कर्ष निकाला गया है कि दुनिया का कोई भी श्रम बुरा नहीं। किसी भी काम को नीची निगाह से नहीं देखना चाहिये, चाहे वह तांगा हाँकना ही क्यों न हो।" लेखक ने उपन्यास के अन्त में आस्था, विश्वास और सत्यनिष्ठा के साथ उज्ज्वल भविष्य का स्वप्न देखा जो इस उपन्यास का उद्देश्य कहा जा सकता है। 

इस प्रकार स्पष्ट है कि डॉ. धर्मवीर भारती का उपन्यास 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' उपन्यास कला की दृष्टि से अत्यन्त सफल उपन्यास है। "सूरज का सातवाँ घोड़ा" एक ऐसा उपन्यास है जो हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं पर सोचने के लिए मजबूर करता है। यह उपन्यास हमें सिखाता है कि जीवन एक चक्र है और हमें हर स्थिति को स्वीकार करना चाहिए। यह उपन्यास हिंदी साहित्य का एक अनमोल रत्न है और इसे हर पाठक को अवश्य पढ़ना चाहिए।

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