विद्यापति के काव्य में प्रेम और श्रृंगार विद्यापति, मैथिली साहित्य के एक महान कवि हैं, जिन्होंने अपने काव्य में प्रेम और श्रृंगार को अद्भुत रूप से
विद्यापति के काव्य में प्रेम और श्रृंगार
विद्यापति, मैथिली साहित्य के एक महान कवि हैं, जिन्होंने अपने काव्य में प्रेम और श्रृंगार को अद्भुत रूप से चित्रित किया है। उनकी रचनाओं में राधा-कृष्ण के प्रेम को केंद्र में रखकर श्रृंगार रस का अद्वितीय सम्मिश्रण देखने को मिलता है। विद्यापति प्रेम, शृंगार के ही कवि थे। उनकी प्रसिद्धि का आधार ही उनका शृंगार वर्णन है । उनके पदों में प्रेम और उनके नाना प्रकार के व्यापारों का वर्णन हुआ है।
प्रेम का क्रमिक विकास
प्रेम का सर्वप्रथम कारण बनता है रूप। विद्यापति ने राधा तथा कृष्ण के नख-शिख का वर्णन बड़े विस्तार के साथ किया है। रूप जन्म देता है मिलनातुरता की इस मानवीय वृत्ति का भी बड़े विस्तार के साथ चित्रण विद्यापति ने किया है। मिलन सरलता से नहीं हो पाता भाँति-भाँति की बाधायें तथा शंकायें आ उपस्थित होती हैं, विद्यापति ने उन बाधाओं और शंकाओं को भी पहचाना है और यह भी दिखाया है कि किस प्रकार इस पथ का पथिक 'चलनन निभृत पथ न मानय भीति' । यद्यपि यह मिलन केवल क्षण भर के लिए ही (तिला एवं संगम) हो पाता है, किन्तु उस क्षण में तन और मन सदा के लिए रसप्लावित हो जाते हैं, विद्यापति ने इन दोनों स्थितियों को भी पहचाना है। प्रेम के क्षणों में मान, मान-भंग तथा विदग्ध-विलास का भी अपना-अपना स्थान है, विद्यापति ने कितने ही पदों में उनका भी वर्णन किया है। बिना विरह के प्रेम अधूरा है। सच तो यह है कि विरह ही प्रेम को पुष्ट करता है। विरह के कितने ही कारण भी हो सकते हैं विद्यापति ने कई कारणों के साथ विरह का भी मार्मिक चित्रण किया है। इस प्रकार विद्यापति का प्रेम-निरूपण सर्वांग है, पूर्ण है।
प्रेम एक अनुभूति है
प्रेम एक सुखद, मार्मिक अनुभूति भी है। जिन पदों में विद्यापति ने अनुभूति के रूप में प्रेम का वर्णन किया है वे विशेष रूप से देखने योग्य बन पड़े हैं। यथा-
सखि की पूछसि अनुभव मोय ।
कसे हो पिरित अनुराग बखानिए, तिल-तिल नूतन होय ॥
जनम अवधि हम रूप निहारल, नयन न तिरपित भेल ।।
से हो मधुबोल स्त्रवनहि सुनल स्रुति-पथ परस न भेल ॥
कत मधु-जामिनि रभस गमाओल न बूझल कइसन केल ।।
लाख-लाख जुग हिय-हिय राखल तड़यो हिय जुड़ल न गेल ।।
कत विदग्ध जन रस अनुमोदई अनुभव काहू न पेख ॥
विद्यापति कह प्राण जुड़ाएल लाखे न मिलन एक ।
यह पद घोषित करता है कि प्रेम-तत्व अपने में कितना विलक्षण है। आरम्भ में कौन जानता है 'जीवन का साधारण आकर्षण इतना गम्भीर हो उठेगा' तन की भूख धीरे-धीरे मन की प्यास बन जायेगी। युग-युग तक वह प्यास बुझ नहीं पायेगी। सामीप्य, अधिक सामीप्य और अधिक सामीप्य की लालसा गहन होती चली जाएगी। वास्तव में यह अनुभव ही ऐसा है कि चतुर-से-चतुर व्यक्ति भी उसकी सही पकड़ नहीं कर पाता।
प्रेम अपनी भी उपेक्षा करता है
मन जब किसी में सर्वांग डूब जाता है तो प्रेमी को अपनी सुधि-बुधि ही नहीं रहती, बस वही, बस वही दिखता है। ऐसी स्थिति में प्रबोध की बात व्यर्थ है। इस लगन, गहरी लगन, अपनी उपेक्षा और प्रबोध की निरर्थकता को भी विद्यापति ने पहचाना है-
सजनी अपद न मोहिं प्रबोध !
तोड़ि जोड़िअ जहाँ गाँठ पड़ए तहाँ तन परम विरोध ॥
सलिल सनेह सहज धिक सीतल ई जानए सब कोई।
से यदि तपत कए जतने जुड़ाइअ तइऔ थिरत रस होई ॥
गेल सहज हे कि रिति उपजाइअ कुल ससि नीली रंग ।
अनुभव पुन अनुभवए अचेतन पड़ए हुतास पतंग ।
प्रेम के व्यापारों का वर्णन
यह सत्य है कि प्रेम एक मानसिक विप्लव है पर प्रेम का रूप तभी खिलता है. जब शारीरिक और मानसिक दोनों व्यापार एक विप्लव का रूप धारण कर लेते हैं। यह प्रेम यात्रा, रूप के आकर्षण से प्रारम्भ होती है और मार्ग में भाँति-भाँति की बाधाओं, शंकाओं, कौतुक, अभिसार, छलना, मान, मान-भंग, विदग्ध-विकास तथा विरह आदि को पार करती हुई आगे बढ़ती है। इन सारी स्थितियों में जो नाना प्रकार के शारीरिक और मानसिक व्यापार उभरते हैं वे सब मिलकर ही भव्य प्रेम का रूप खड़ा करते हैं। इस दृष्टि से विद्यापति प्रेम के कुशल चितेरे हैं। उन्होंने प्रेम-क्षेत्र के प्रत्येक व्यापार को अपने पूर्ण यथार्थ रूप में चित्रित किया है। प्रेम चाहे रूपाकर्षण जनित ही हो, उसका प्रथम व्यापार दर्शन की अटोक ललक और मिलनातुरता की तीव्रता ही है। विद्यापति ने इन स्थितियों को और इनके अन्तर्गत आने वाले नाना व्यापारों का सजीव चित्रण किया है। प्रेमी-प्रेमिका को मिलन पूर्व अनेक हिदायतें विद्यापति की दूतियाँ दिखायी देती हैं-मिलनातुर नायिका को उसकी सखी क्या-क्या हिदायतें दे रही हैं-
प्रथमहि अलक तिलक लेव सजि। चंचल लोचन काजर आंजि ॥
आएब बसन आँग लेब गोए। दूरहि रहब तें अरथित होए ।।
सखी कहती है अपनी टेढ़ी निगाहों से उसके हृदय में कामदेव को जागृत करना तथा अपने आधे उरोजों को ढके रहना और उनका आधा भाग ही खुला रखना।
कवि ने समागम का बड़ा ही भावोन्मादपूर्ण वर्णन किया है। प्रथम स्पर्श को पाते ही नायिका चन्द्र-किरण के स्पर्श से मलिन कमालिनी की भाँति कुम्हला जाती है और बार-बार 'नहीं-नहीं' करती है। उसकी आँखों से आँसू झरने लगते हैं। प्रियतम के आलिंगन करते ही थर-थर काँपने लगती है।
नहिं नहिं कहइ नयन झर नीर ! सूति रहिल रहि सयनक ओर।
आँचल लेइ बरत पर झाँप। थिर नहीं होइअ थर-थर काँप ॥
इस प्रकार की अनेक स्थितियों के चित्रों का विद्यापति ने बड़ी ही सजीवता के साथ अंकन किया है, जिसमें कहीं मुग्धा नायिका की भयभीत स्थित का, कहीं मुँह ढँककर सोने का, कहीं ऐंठने का, कहीं रूठने का, कहीं बलपूर्वक रति-क्रीड़ा करने आदि का भी वर्णन मिलता है। अभिसार के नाना चित्र विद्यापति ने सजाये हैं। इस कारण विद्यापति पर मांसलता का भी आरोप लगाया जाता है। पर यह भी माना जाता है कि मानसिक छलना से मुक्त कवि ही प्रेम के सच्चे स्वरूप का उद्घाटन कर सकता है और विद्यापति सर्वथा मुक्त दृष्टि पथिक रहें हैं।
आचार्य चन्द्रबली पाण्डेय के अनुसार-“विद्यापति काम कला और रस के पथिक हैं, कुछ विषय-वासना और भोग-विलास के नट नहीं ।"
रति गोपन व्यापार
इस व्यापार को भी विद्यापति ने बड़ी सजीवता से उठाया है। रति-गोपन के लिए प्रिया बड़ी-बड़ी कुशल युक्तियों का सहारा लेती है। कहीं वह स्वप्न के बहाने रति को छिपाती है, कहीं होंठ पर क्षत के चिन्ह की भ्रमर द्वारा दंशित बताकर बहाना करती है, कहीं उरोजों पर अंकित नख-क्षत को मयूर के द्वारा नाखून मार देने का बहाना बनाती है। कभी यह कहती है कि मेरे उरोजों को कीर ने दाड़िम समझ अपनी चोंच मारकर यह घाव कर दिया इत्यादि । इस तरह की अनेकों रति-गोपन सम्बन्धी बातें विद्यापति के पदों में मिलती हैं, जिनमें उक्ति-वैचित्र्य के साथ-साथ नारी की विदग्धता के मनमोहक चित्र भी बड़ी ही मार्मिकता के साथ अंकित हैं ।
मान मन भंग
यह भी प्रेम क्षेत्र का एक सहज क्रिया-व्यापार है। विद्यापति इस क्षेत्र में भी कुशल ही सिद्ध हुए हैं। नायिका मान करे है, कारण है कृष्ण का रात कहीं अन्यत्र बिताना। उनकी लाल, लाल आँखें, हृदय पर लगी कैसर, होठों पर लगा काजल, मस्तक पर लगा महावर आदि ने उनकी कलई खोल दी है। पर कृष्ण कोई कम चतुर नहीं हैं, वे कितना मासूम स्पष्टीकरण देते हैं-मैंने रात भर जागकर महादेव जी की पूजा की थी -
पुज लौं पशुपति जामिनि जागि।
गमन बिलम्ब भेल तेहि लागि ।
लागल मृगमद कुंकम दाग ।
उचरइत मन्त्र अधर नहिं राग ||
रजनि उजागरि लोचन घोर।
ताहि लागि तोहे मोसे बोलसि चोर ||
अतिरंजना का आरोप
विद्यापति पर यह भी आरोप है कि उनका प्रेम-व्यापार चित्रण ऊहात्मक (अतिरंजनात्मक) हो उठा है। यह कोई अनहोनी बात भी नहीं है। डॉ. देवीशरण रस्तोगी की मान्यता है कि— प्रत्येक भूख का, चाहे वह मानसिक हो या शारीरिक, वर्णन करते समय कवियों की वाणी अतिरंजनात्मक हो ही जाती है। असल चीज तो यह है कि उपहासास्पद स्थिति नहीं उत्पन्न होनी चाहिए। यदि अतिरंजना के प्रयोग से कवि भूख और उसकी उत्कृष्टा को उपस्थित कर सका है, तो वह वाणी का आभूषण ही मानी जायेगी, दोष नहीं। यदि इस दृष्टि से देखा जाए तो पता चलेगा कि विद्यापति की सखी शिक्षा, मिलन, कौतुक, अभिसार, छलना, मान, मान-भंग, विदर्ध-विलास तथा विरह-सम्बन्धी जिन उक्तियों को अतिरंजनात्मक कहकर छोड़ दिया जाता है, वे उपेक्षा की वस्तु नहीं हैं। उनमें प्रेम और उससे सम्बन्धित अनेक स्थितियों का सच्चा वर्णन हुआ है। तन और मन की भाँति-भाँति की भूख-प्यास को निर्द्वन्दन्तापूर्वक उपस्थित करने में शैली की अतिरंजनात्मकता बड़ी दूर तक सहायक सिद्ध हुई है -
पथगति पेखल मो राधा ।
तखनुख भाव पराव पए पीड़लि रहल कुमुद-निधि साधा।
आध बदन-ससि बिहसि दिखा ओलि आधापिहित निअ बाह ।
किछु एक भाग बलाहक झांपक किछक गरासल राहू ॥
प्रेम काम की एकता
प्रेम का पूर्ण रूप वहीं फलित होता है जहाँ काम और प्रेम दोनों एक साथ उपस्थित हों। विद्यापति ने प्रेम के इस रूप को भी वर्णन का विषय बनाया है। शायद इसी से उन्होंने यह तथ्य भी स्पष्ट कर दिया है-
काम प्रेम दुहु एक मत भए
दुहु करवाने की न न कराबे ।
उपसंहार
यह संक्षिप्त विवरण विद्यापति के प्रेम वर्णन की कतिपय विशिष्टाओं का ही उद्घाटन करने में सक्षम हो सका है। पर यह मानना पड़ेगा कि विद्यापति का प्रेम-चित्रण मार्मिक, यथार्थ, रसपूर्ण और कलात्मक है। उसमें मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार के व्यापारों की सुखद व्यंजना बड़े ही कौशल के साथ की गयी है।
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