विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित 'आवारा मसीहा' एक ऐसी जीवनी है जिसने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन और साहित्य को एक नए आयाम पर पहुंचा दिया। इस पुस्तक ने न
विष्णु प्रभाकर और आवारा मसीहा
विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखित 'आवारा मसीहा' एक ऐसी जीवनी है जिसने शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन और साहित्य को एक नए आयाम पर पहुंचा दिया। इस पुस्तक ने न केवल शरतचंद्र के जीवन के अज्ञात पहलुओं को उजागर किया बल्कि उनके साहित्य की गहराई को समझने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आवारा मसीहा शीर्षक जीवनी में प्रसिद्ध बंग साहित्यकार शरत् के जीवनवृत्त को विष्णुजी ने चौदह वर्षों की कठिन तपस्या से प्रामाणिक रूप प्रदान किया है। क्योंकि उपलब्ध प्रसिद्ध घटनाओं के आधार पर किसी भी व्यक्ति की जीवनी प्रस्तुत करना आसान कार्य है परंतु शरत् ने तो अपने जीवन की घटनाओं को अधिकाधिक छिपाया है। कहा जाता है कि शरत् से एक बार श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा था- "शरत् अपनी आत्मकथा लिखो।" उनका उत्तर था कि गुरुदेव यदि मैं जानता कि मैं बड़ा आदमी बनूँगा तो मैं किसी और प्रकार का जीवन जीता। 'आवारा मसीहा' में तीन खंड हैं जिन्हें लेखक ने दिशाहारा, दिशा की खोज एवं दिशांत नाम से सूचित किया है। प्रथम पर्व 75 पृष्ठों का, द्वितीय पर्व 91 पृष्ठों का और अंतिम पर्व अपेक्षाकृत वृहद है जिसमें 271 पृष्ठ हैं। चित्र प्रायः सभी पर्वों में हैं और अनेक दुर्लभ पत्र भी शरत के हस्ताक्षर सहित इस ग्रंथ में हैं।
विष्णु जी ने 'आवारा मसीहा' में यथासंभव वास्तविक तथ्यों को ही प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है परंतु यह कार्य उनके लिये आग के दरिया में डूबने और तैरने की भाँति था क्योंकि शरत् के जीवनवृत्त से परिचित होने के लिये न केवल बंगला साहित्य को पूरी-पूरी छानबीन करनी आवश्यक थी बल्कि शरत् को जानने वाले मित्रों के पास जाकर उनसे परिचय प्राप्त करने का दुष्कर कार्य भी अत्यावश्यक था इसलिये विष्णुजी को बर्मा में रंगून जाकर भी रहना पड़ा जहाँ शरत् के जीवन का अधिकांश समय व्यतीत हुआ था और सन् 1959 में प्रारंभ किया गया यह कार्य सन् 1973 में पूर्ण हो सका।
शरत् से प्रभावित होकर उनकी जीवनी के लेखन की ओर अग्रसर हुए प्रभाकर जी ने कहा भी है- "मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि मैं किस भारतीय या विदेशी लेखक से प्रभावित हुआ हूँ। कोशिश करने पर इतना अवश्य जाना जा सकता है कि मैं शरत्चंद्र के अधिक पास हूँ...। उनको पढ़कर मैंने लिखना नहीं सीखा लेकिन कई कारणों से मैं उनकी तरह ही मानवीय करुणा, संवेदना का पक्षपाती बन गया।" इस प्रकार शरत् के जीवनवृत्त को पूर्ण करने में जितनी भी कठिनाइयाँ उनके सामने आती थीं, उनके उत्साह में और भी वृद्धि हो जाती थी और वे महान् कथा-शिल्पी के जीवन की गहराई को समझने का दृढ़ संकल्प करते थे। साहित्यकार अपने साहित्य के द्वारा पाठक को अपने व्यक्तिगत जीवन का जो कुछ परिचय देता है वह पर्याप्त नहीं होता, केवल इतने ही परिचय से उसकी तृप्ति नहीं होती और विशेषकर उस लेखक के बारे में जिनके संबंध में अनेक विसंगत बातें प्रचारित होकर उनके जीवन-चरित्र को दूषित कर रही हैं। इन सब बातों से उनका वास्तविक रूप और जटिल बन जाता है।
शरत् पर चरित्रहीनता का आरोप लगाया जाता था और रंगून के एक सज्जन ने विष्णु जी को बताया था—“वे एक स्त्री के साथ रहते थे। मैं उनका पड़ौसी था लेकिन उनके कमरे में कभी नहीं गया। वे अफीम खाते थे और शराब पीते थे। वे एक निकृष्ट प्रकार का जीवन बिता रहे थे।" यह सत्य है कि शरत् शराब पीते थे और कुत्ता भी उन्होंने निकृष्ट श्रेणी का पाला था। साथ ही स्त्रियों के साथ भी उनके अनैतिक संबंधों की अनेक बातें उनके जीवन से अनायास जुड़ गयी थीं किन्तु शरत् ने कभी भी अपने संबंध में प्रचलित प्रवादों का खंडन नहीं किया। इसलिए उनके व्यक्तिगत जीवन के संबंध में मिथ्या धारणाओं एवं प्रवादों का जो प्रचलन हुआ, उनके घेरे को काटकर उन तक पहुँचना सरल कार्य कार्य नहीं था परंतु शरत् के जीवनीकार विष्णुजी ने उसे काटकर तटस्थ भाव से एक स्वस्थ जीवन-दर्शन की स्थापना की है और बंगला, अंग्रेजी एवं हिन्दी ग्रंथों का गहन अध्ययन-मनन कर तथा पत्र-पत्रिकाओं से सामग्री एकत्र कर लगभग चार सौ तेरह पृष्ठों की यह विशाल गाथा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह ग्रंथ लेखक के अनुसंधाता रूप को स्पष्ट करने में सफल रहा है और जिस कथाशिल्पी की जीवनी से पाठक बहुत दिनों तक अ रिचित से रहे वह अब पाठकों के लिए सहज ही सुलभ हो गयी। इसीलिए लेखकों, विचारकों एवं पत्र-पत्रिकाओं के संपादन ने 'आवारा मसीहा' की विशेषताओं का गुणगान किया और डॉ० प्रभाकर माचवे के शब्दों में "आधुनिक कलाकारों के लिए बर्नार्ड शा ने 'टैम्प प्राफेट' (आवारा-मसीहा) शब्द प्रयुक्त किया था। शरत्चंद्र पर यह विशेषण सौ प्रतिशत लागू होता है। ऐसे व्यक्ति के बारे में सामग्री खोजना अपने आप में आवारापन ओढ़े बिना संभव नहीं था। धीरे-धीरे शरत् की छाया विष्णु पर पड़ गई और इस प्रकार जीवनीकार जीवनी से एकाकार हो गया। यही इसकी विशेषता है।" स्वयं श्री विष्णु प्रभाकर ने नागपुर की एक गोष्ठी में कहा था- "कमलेश्वर का कहना तो यह था कि उनका सारा साहित्य एक तरफ व दूसरी तरफ मात्र एक पुस्तक 'आवारा मसीहा' असंदिग्ध रूप से रखी जा सकती है।'
वस्तुतः 'आवारा मसीहा' का विमोचन दिल्ली में जीवनी कला संगम द्वारा गार्डन थियेटर के मंच पर प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्रकुमार की अध्यक्षता में किया गया और इस अवसर पर राजधानी के अनेक नए-पुराने साहित्यकार उपस्थित थे तथा यह अपने में एक ऐतिहासिक संगम था। साथ ही हैदराबाद में 16 अप्रैल, 1974 को विष्णु जी का आठ साहित्यिक संगठनों द्वारा अभिनंदन किया गया था। इसी प्रकार विष्णुजी को अनेक प्रशंसायुक्त पत्र भी प्राप्त हुए और उनमें से एक पत्र का यह अंश दर्शनीय है- " अब तक प्रकाशित सभी किस्तें पढ़ चुका हूँ। उसमें उपन्यास से कहीं अधिक चुम्बकीय कथा - रस है। आपने वाकई कमाल कर दिया। सिनेमा के रील की तरह शरत् की जीवनी मन की आँखों के सामने तिरती-सी लगती है।"
शरत् एक ऐसे महान लेखक थे जिनकी कृतियों में क्षेत्रीयता की सीमाओं को तोड़कर मानवीयता के स्तर पर साहित्य को एक विस्तार दिया गया है और उनकी यह जीवनी भारतीय साहित्य का एक नवीन रूप प्रस्तुत करती है। इस दृष्टि से 'आवारा मसीहा' निस्संदेह एक महान उपलब्धि है और उसका अध्ययन करते समय पाठक एक उच्च भावभूमि पर अपन को पाता है। श्री इलाचंद्र जोशी के अनुसार- "पाठक पढ़ते-पढ़ते वह सारी पाठ सामग्री (शरत् के जीवन संबंधी) खो जाने के बावजूद भी अपने को एक बहुत ऊँचे धरातल पर उठा हुआ पाता है। यहीं पर विष्णुजी की विजय का रहस्य छिपा हुआ है.... अपने अनासक्त साहित्य प्रेम के कारण ईमानदारी की उस सीमा तक वे पहुँच गये हैं, जहाँ से बड़ी सहजता से पक्ष निंदा की बात भूलकर तथ्यों की विशुद्ध सच्चाई को पकड़ने में समर्थ हैं। बिहारी के निम्न दोहे की सच्चाई यहीं पर प्रमाणित होती है-'अनबूड़े, बूड़े, तरै जै बूड़े सब अंग' । विष्णु शरत् साहित्य में पूरी तरह डूबने के कारण तिर गये हैं। एक उच्चकोटि के जीवनी लेखक को जिस तरह अपने प्रतिपादित विषय का निर्वाह करना चाहिये उन्होंने बिल्कुल वैसा ही किया। उनकी शैली के संबंध में मैं यह कहना चाहूँगा कि वे आरोपित कौशल का चमत्कार नहीं दिखाना चाहते बल्कि सहज और एकांत सरल भाव से अपनी बात कह जाते हैं। निहायत मासूमियत और भोलेपन के साथ उनकी कला की श्रेष्ठता और सुंदरता का जादू उनकी शैली की इस मासूमियत और भोलेपन पर आधारित है।"
श्री विश्वंभर मानव के अनुसार- "शरत् के जन्म से लेकर मृत्यु तक यह जीवनी बहुत व्यवस्थित ढंग से लिखी गई है। जीवन का छोटे-से-छोटा ऐसा कोई अंश नहीं जो पाठक की उत्सुकता को जाग्रत कर उसकी तृप्ति न करता हो। घटनाएँ कहीं भी नाटकीय नहीं हैं। कहने का आशय यह है कि शरत् का सहज मानवीय रूप ही इसमें उभरकर सामने आता है। उन्हें असाधारण बनाने का प्रयत्न जैसा कि ऐसे ग्रंथों में प्रायः होता है, कहीं नहीं पाया जाता। आवारा मसीहा इस बात का प्रमाण रहेगा कि श्री विष्णु प्रभाकर ने अपने कठिन उत्तरदायित्व का निर्वाह अत्यंत योग्यतापूर्वक किया है। हमारा विश्वास है कि यह रचना उन्हें प्रतिष्ठा प्रदान करेगी और साहित्य के क्षेत्र में उनके नाम को जीवित रखेगी।"
आवारा मसीहा की विशेषताएँ
आवारा मसीहा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नवत् हैं-
- आवारा मसीहा में विष्णु जी ने शरतचंद्र के जीवन का वर्णन करने के साथ-साथ समकालीन परिस्थितियों एवं आन्दोलनों का विश्लेषण भी किया है।
- शरत् के रंगून के प्रवासी जीवन का उल्लेख करते समय विष्णु जी ने वहाँ के वातावरण का चित्रण करते हुए कहा है- "बम में हर व्यक्ति को जीवन में एक बार पाँगी बनना होता है। उसकी अवधि सात दिन से लेकर जीवन पर्यंत हो सकती है। उस वेश में उन्हें खूब सम्मान मिलता है और वे बहुत कुछ करने को स्वतंत्र होते हैं। चुरुट सिनेमा में कुछ भी वर्जित नहीं होता।"
- आवारा मसीहा में विष्णु जी ने शरत् का जीवन चरित्र स्पष्ट करने के साथ-साथ अन्य कई पात्रों के चरित्र का अंकन भी प्रमुखता से किया है। इन अन्य पात्रों में शरत् के माता-पिता, शरत् के ननिहाल के लोग, शरत् का मित्र राजू, तत्कालीन साहित्यिक जगत के कुछ प्रसिद्ध व्यक्ति एवं प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं के संपादक तथा राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम से संलग्न देशभक्त जिनमें देशबन्धु चितरंजन दास व सुभाषचंद्र बोस प्रमुख हैं, किसी भी पात्र का अतिरंजित वर्णन विष्णु प्रभाकर जी ने नहीं किया है।
- विष्णुजी ने पहान व्यक्तियों के चित्रण के साथ-साथ निम्न वर्ग एवं तथाकथित छोटे लोगों का भी चरित्र इस कृति में अंकित किया है। इनमें शरत् के संपर्क में आई पतिता नारियाँ, विधवाएँ एवं मद्यप पात्र भी रखे जा सकते हैं और जितनी तल्लीनता के साथ लेखक शरत् की मानवीय मूर्ति का गठन करता है, उतनी ही तल्लीनता के साथ उसने सामान्यजनों में भी छिपी मानवता की व्याख्या की और लेखक भी मानो शरत् की आवाज का समर्थन करते हुए पतितों का उद्धारक बन गया है। नर्तकी कालिदासी की चर्चा के प्रसंग में विष्णुजी लिखते हैं-"कितनी महान हैं यह । पथभ्रष्ट हो जाने पर भी मनुष्य के अंतर की सद्वृत्तियाँ पूरी तरह नष्ट नहीं होती। बाहरी रूप ही मनुष्य का असली परिचय नहीं है। अनेक सती नारियाँ अनेक कुकर्म करती हैं। चोरी, जालसाजी, झूठी गवाही कुछ भी उनसे नहीं छूटता। इसके विपरीत दुराचारिणियों के हृदय में भी दया-भावना बनी रहती है।
- शरत् की जीवनी को उसकी कृतियों के संपर्क में रखकर देखना और इस ग्रंथ के बीच-बीच में शरत् के कथा जगत के पात्रों से शरत् के परिवार के व्यक्तियों की तुलना भी निस्संदेह सराहनीय है। इस प्रकार शरत् के पिता मोतीलाल स्वप्नद्रष्टा कल्पनाशील व्यक्ति थे जो घर जंवाई बनकर रहने पर अपनी स्वाभिमानी प्रवृत्ति को तुष्ट नहीं कर सके और इस प्रसंग में 'काशीनाथ' उपन्यास का उदाहरण देकर विष्णुजी ने लिखा है- "काशीनाथ में काशीनाथ भी तो घर-जंवाई होकर रहता है। उसे भी मानसिक सुख नहीं है।"
- शरत् का नारी-संसार एक छोटा-सा द्वीप है और दलित एवं अपमानित भारतीय नारी शरत् की सहानुभूतिमय दृष्टि पाकर अपने को धन्य समझने लगी। गणिका वर्ग से उनका परिचय आत्मीयता से परिपूर्ण था और बालसखा राजू के साथ वे एक नर्तकी कालिदासी के पास जाया भी करते थे। यहीं उन्होंने देखा कि दुराचारिणी व वेश्या नारी भी पहले मनुष्य है बाद में और कुछ तथा वेश्याओं व तथाकथित असती नारियों को देवदास एवं चस्त्रिहीन आदि में उन्होंने नायिकाओं के रूप में प्रस्तुत किया है। विष्णु जी ने अनेक स्थलों पर इस बात को स्पष्ट किया है कि शरत् ने नारी के इस रूप को व्यक्तिगत अध्ययन के आधार पर ही विश्लेषित किया है। एक स्थान पर उन्होंने शरत् से कहलाया भी है—‘“मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसे चरित्रों के घनिष्ठ संपर्क में आया हूँ और इसी कारण मैंने अत्यंत तीव्रता से यह अनुभव किया है कि वे वेश्याएँ समाज की सबसे अधिक शोषित और सबसे अधिक अत्याचार पीड़ित नारियाँ हैं। आर्थिक विषमता के कारण वे जिस प्रकार का गंदा और घृणित जीवन बिताती हैं, उससे उबरने के लिए वे जाने या अनजाने सब समय छटपटाती रहती हैं। उनकी यह छटपटाहट देखने का संयोग सबको सब समय नहीं मिलता पर जब कभी किसी को किसी कारणवश वह सुयोग मिल जाता है तब वह उसे जीवनभर नहीं भूलता। उनके अंतर के इस मूल विद्रोह को वाणी देने का निश्चय मैं बहुत पहले कर चुका था और अपने उस मिशन को कार्यान्वित करने में मैंने कोई बात उठा नहीं रखी।
- 'आवारा मसीहा' जीवनी में विष्णु जी का प्रयास यह रहा है कि वे उन कारणों का विश्लेषण कर सकें जिनके कारण शरत् जी बागी हो गए थे।
- यथार्थ जीवन में संयमित व अश्लील चरित्र का स्वामी समझे जाने वाले शरत् के औपन्यासिक प्रेम को भी कलुषित माना गया किंतु यह प्रेम शरत् के किशोरावस्था के अशरीरी प्रेम एवं सर्वगुण संपन्न पत्नी हिरण्मयी देवी के साथ बिताये सुदीर्घ तथा स्नेहिल दांपत्य जीवन का ही प्रतिरूप था। गाँव के अशिक्षित निम्नवर्ग को ही नहीं, वेश्याओं एवं दुराचारिणयों के मन की अनुभूतियों को व्यक्त करने के फलस्वरूप भी शरत् के प्रति प्रबल विद्रोह हुआ था परंतु शरत् के अनुसार- "मनुष्य से किसी भी अवस्था में घृणा नहीं करनी चाहिए। जो व्यक्ति खराब दिखाई देता है उसे सुधारने की चेष्टा करनी चाहिए, यह बहुत बड़ा काम है। भगवान के इस राज्य में मनुष्य जितना शक्तिशाली है, उतना ही दुर्बल भी है।"
- कला की दृष्टि से भी 'आवारा मसीहा' एक गरिमासम्पन्न कृति है और डॉ० भगवानशरण भारद्वाज के अनुसार- "उसमें एक धारावाहिक अन्विति है और संतुलन का निर्वाह बड़े सधे ढंग से हुआ है। लेखक ने विविध स्रोतों से प्राप्त सामग्री को इस कौशल से प्रस्तुत किया है कि उसमें कहीं पैबंद नहीं दिखाई पड़ते और एक सतत् आत्मीय प्रवाह उसे समग्रता में समेटे रहता है।"
गिरिराज किशोर के अनुसार- "भाषा की दृष्टि से विष्णु प्रभाकर अपने आपसे निकलकर ऊपर आए हैं। इस उम्र पर पहुँचकर एक नई विधा के लिए नई भाषा को 'तलाश लेना अपने आप में गौरव है। उसमें भावुकता का पुट है।" डॉ० वंदना खुशलानी के अनुसार- "आवारा मसीहा निर्विवाद रूप से हमारे साहित्य की अमूल्य निधि है और उच्च कोटि के जीवनीकार का जो उत्तरदायित्व होना चाहिए, उसे विष्णु जी ने बखूबी निभाया है।"
इस प्रकार 'आवारा मसीहा' एक ऐसी पुस्तक है जो शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के जीवन और साहित्य के प्रति रुचि रखने वाले हर व्यक्ति के लिए एक खजाना है। यह पुस्तक हमें शरतचंद्र के जीवन और साहित्य के बारे में कई नई बातें जानने का अवसर देती है।
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