यशपाल का हिंदी कथा साहित्य में योगदान यशपाल को हिंदी कथा साहित्य के सबसे प्रभावशाली और प्रतिष्ठित लेखकों में से एक माना जाता है। उन्होंने अपने यथार्
यशपाल का हिंदी कथा साहित्य में योगदान
यशपाल को हिंदी कथा साहित्य के सबसे प्रभावशाली और प्रतिष्ठित लेखकों में से एक माना जाता है। उन्होंने अपने यथार्थवादी और सामाजिक चेतना से ओत-प्रोत उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से हिंदी साहित्य को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
हिन्दी कथा साहित्य में यशपाल का एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान है। आलोचक उन्हें प्रेमचन्द की यथार्थवादी परम्परा का सशक्त और योग्य प्रतिनिधि तथा चितेरा मानते हैं। प्रेमचन्द के प्रारम्भिक काल में हिन्दी कहानी के क्षेत्र में दो शैलियाँ और दृष्टिकोण उभर रहे थे-एक शैली और दृष्टिकोण प्रसाद का व्यष्टिवादी दृष्टिकोण था जो व्यक्ति को आधार बनाकर जीवन्त रूप प्रदान कर रहा था। इसके विपरीत दूसरा दृष्टिकोण स्वयं प्रेमचन्द का था जो समष्टिवादी था। प्रेमचन्द का कथा-साहित्य समष्टि चिन्तन, समष्टि-सत्य, समष्टि-मंगल और समष्टि यथार्थ से प्रेरित था और प्रसाद का व्यष्टि-सत्य, व्यष्टि-हित तथा व्यष्टि-यथार्थ से अनुप्राणित था। इनमें से यशपाल ने प्रेमचन्द की समष्टिवादी परम्परा को अपनाया। वह एक प्रकार से प्रेमचन्द के पूरक बनकर हिन्दी - साहित्य में उतरे। प्रेमचन्द जिस स्थिति के प्रति केवल संकेत देकर रह गए थे, यशपाल ने उस संकेत को स्थूल और स्पष्ट रूप प्रदान किया। यशपाल के पास एक निश्चित समाजवादी दृष्टिकोण है जो आर्थिक विषमता को ही मानव-जीवन की सारी विकृतियों, समस्याओं और विषमताओं का मूल कारण मानता है। यहीं यशपाल प्रेमचन्द से भिन्न हो जाते हैं परन्तु यथार्थ चित्रण के रूप में वह प्रेमचन्द की जीवन्त यथार्थवादी परम्परा का ही अनुगमन करते हैं। इन दोनों की इसी समानता को लक्ष्य कर पं. शान्तिप्रिय द्विवेदी ने लिखा था- "प्रेमचन्द के बाद यशपाल ही सही मायने में जनसाधारण के लिए हिन्दी कथा-साहित्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी रचनाएँ एक ओर साहित्यिकों के लिए हैं तो दूसरी ओर जनता के लिए भी आकर्षक हैं। भाषा और शैली की दृष्टि से ऐसा जान पड़ता है मानो प्रेमचन्द जी नए युग में नया शरीर धारण कर पुनः सजीव हो उठे हों। यशपाल, एक शब्द में प्रेमचन्द की तिरोहित प्रतिमा की तरुण शक्ति हैं।"
हिन्दी के कथा-साहित्य को यशपाल की देन को निम्न शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है -
प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाना
यशपाल की हिन्दी कथा-साहित्य को सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाया है। यह परम्परा समष्टि-मंगल भावना से अनुप्राणित रही है। यशपाल मार्क्सवादी समाज शक्ति से गहरे रूप से प्रभावित हैं, इसी कारण कटु यथार्थ के प्रति उनका प्रबल आग्रह रहा है। वह जब सामाजिक समस्याओं को उठाते हैं तो प्रेमचन्द के समान उनका समाधान किसी आश्रम, सदन आदि के रूप में नहीं खोजते । यशपाल उनका समाधान समस्त सामाजिक विधान में ही खोजते हैं। हमारा सामाजिक विधान अर्थ की विषमता से पीड़ित है, इसलिए वह उसके आर्थिक पक्ष पर ही प्रहार करते हैं। नारी की सारी समस्यायें भी इसी आर्थिक धुरी पर घूमती रहती हैं। इसलिए यशपाल नारी की आर्थिक स्वतंत्रता के प्रबल समर्थक हैं । यशपाल से पूर्व हिन्दी कथा - साहित्य में यह अर्थवादी दृष्टि कहीं नहीं दिखाई देती । इसलिए इसे यशपाल की एक महत्वपूर्ण देन माना जाना चाहिए। यशपाल सामाजिक या सामूहिक विकास के सन्दर्भ में ही व्यक्ति के विकास की बात सोचते हैं। यही उनका समाज-चिन्तन और सामाजिक मूल्यों का दृष्टिकोण है। वह व्यक्ति को सामान्य मनुष्य के रूप में मानकर उसके लिए सामाजिक मूल्यों का निर्धारण करते हैं। यशपाल की एक अनन्य विशेषता यह है कि वह समस्याओं को उठाकर बड़े साहस के साथ उनका समाधान प्रस्तुत करते हैं और यह समाधान आदर्शवादी और अव्यावहारिक न होकर यथार्थवादी और व्यावहारिक होता है।
मध्य वर्ग को महत्व
यशपाल की एक अन्य महत्वपूर्ण देन, जो प्रेमचन्द से भिन्न है, यह है कि उन्होंने अपने कथा-साहित्य में मध्य वर्ग का ही प्रधान रूप से चित्रण कर मध्य वर्ग की यथार्थ स्थिति का पहली बार अंकन करने का प्रयत्न किया है। मध्य वर्ग समाज का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है। ऊपर से सफेदपोश रहने वाला यह वर्ग भीतर से कितना पीड़ित, अभावग्रस्त, थोथे जीवन-मूल्य के प्रति आस्था अनास्था के संघर्षों में उलझा और यथार्थवादी दृष्टि वाला होता है, यह हिन्दी में सबसे पहले प्रभावशाली रूप में यशपाल के कथा-साहित्य में ही उभरा है। यशपाल स्वयं इस वर्ग के अंग हैं, इसलिए उनके द्वारा किया गया इस वर्ग का चित्रण स्वानुभूतिपूर्ण होने के कारण अधिक यथार्थ और मार्मिक बन पड़ा है। यह वर्ग पढ़ा-लिखा होने के कारण विचारशील होता है। संसार में जितनी भी राज्य क्रान्तियाँ हुई हैं, सब इसी वर्ग के चिन्तन से प्रेरित रही हैं। इसलिए इस वर्ग में छाया असन्तोष भावी जन-क्रान्ति की सूचना दे रहा है।
साम्यवादी दृष्टिकोण
हिन्दी में प्रगतिवाद के उदय के साथ साम्यवादी विचारधारा का चित्रण होना प्रारम्भ हो गया था। यशपाल ने अपने कथा साहित्य के माध्यम से इस विचारधारा को पहली बार सशक्त स्वर प्रदान किए थे। उनके प्रारम्भिक उपन्यास और कहानियाँ इसी विचारधारा से अनुप्रेरित होकर लिखी गई थीं। 'साम्यवाद' को हौआ मानने वाले आलोचक इसके लिए आज तक यशपाल का कटु आलोचना करते आए हैं। इन लोगों को हिंसा का नाम तक नहीं सुहाता, परन्तु इतिहास के सत्य को नकारना स्वयं अपनी कमजोरी और अज्ञान का ही प्रमाण देना है। प्रेमचन्द भी जन क्रान्ति के समर्थक होते हुए उसका हिंसक रूप धारण करना पसन्द नहीं करते थे। परन्तु प्रेमचन्द की इस धारणा के अपने विशिष्ट कारण थे। उनका अन्तर्मन कहीं न कहीं भावी हिंसक क्रान्ति की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में सोचता रहता था। परन्तु वह संकोचवश इस तथ्य को प्रकट नहीं कर पाते थे। यशपाल ने प्रेमचन्द के इसी संकोच पर से परदा हटाते हुए स्पष्ट शब्दों में जन-क्रान्ति का आह्वान किया था। यह हिन्दी कथा-साहित्य को यशपाल की मौलिक देन थी। यशपाल स्वयं सक्रिय क्रान्तिकारी रहे हैं, इसलिए न्यायोचित हिंसा का महत्व और प्रभाव जानते हैं।
साम्यवादी विचारधारा के सन्दर्भ में यशपाल की दूसरी मौलिक देन थी, आर्थिक विषमता को ही सारी सामाजिक विकृतियों और समस्याओं का मूल कारण मानना। अपने 'मनुष्य के रूप' शीर्षक उपन्यास में उन्होंने वर्तमान समस्त सामाजिक विकृतियों और रूढ़ियों को दूर करने का एकमात्र उपाय साम्यवाद को माना है। हिन्दी कथा-साहित्य में इतनी स्पष्टता के साथ साम्यवाद का खुला समर्थन अन्यत्र दुर्लभ है।
महान उपलब्धि
यशपाल के दो उपन्यासों को हिन्दी कथा साहित्य की महान उपलब्धि माना जा सकता है। ये दो उपन्यास हैं- 'दिव्या' और 'झूठा सच' । दिव्या के माध्यम से उन्होंने पहली बार ऐतिहासिक यथार्थवाद का अत्यन्त निखरा हुआ रूप प्रस्तुत किया है। उन्होंने अन्य ऐतिहासिक उपन्यासकारों के समान अपने अतीत को नितान्त भव्य, गौरवमय और स्वर्णिम न मानकर इतिहास की एक नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। इस दृष्टि से हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों में 'दिव्या' का अपना एक विशिष्ट और अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान माना जाना चाहिए। 'झूठा सच' हिन्दी का एक ऐसा उच्च कोटि का उपन्यास है, जो प्रेमचन्द के 'गोदान' के पश्चात् हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास माना जाना चाहिए। इतनी विशाल कथा-भूमि को लेकर एक जन-समाज और उसकी संस्कृति के उखड़ने, भटकने और संघर्ष झेलते हुए पुन: नए सिरे से स्थापित होने की भयानक संघर्षपूर्ण, साहस भरी और साथ ही करुणा से ओतप्रोत कहानी को इतनी निस्संगता के साथ हिन्दी में तो कहा ही नहीं गया, अन्य भारतीय भाषाओं में भी कहा गया है, इसके सम्बन्ध में सन्देह है। व्यापकता और महानता की दृष्टि से इस उपन्यास को निस्संकोच तॉल्स्ताय के 'युद्ध और शान्ति' जैसे विश्व-प्रसिद्ध उपन्यास के समकक्ष रखा जा सकता है।
इस प्रकार यशपाल हिन्दी कथा साहित्य के एक ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपनी कृतियों द्वारा स्वस्थ जनवादी दृष्टिकोण और व्यंग्यपूर्ण सशक्त शैली का प्रणयन कर अपने समकालीनों और परवर्ती कलाकारों को प्रेरणा प्रदान की है। यशपाल ने हिंदी कथा साहित्य को नई दिशा दी और इसे समाज के प्रति जागरूक बनाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम बनाया। उनके उपन्यास आज भी प्रासंगिक हैं और नए पाठकों को प्रेरित करते रहते हैं।
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