गबन उपन्यास का नामकरण की सार्थकता | मुंशी प्रेमचंद

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गबन उपन्यास का नामकरण की सार्थकता मुंशी प्रेमचंद गबन शब्द का सीधा अर्थ है चोरी करना या किसी चीज़ को अनधिकृत रूप से ले लेना। उपन्यास में यह शब्द रमानाथ

गबन उपन्यास का नामकरण की सार्थकता | मुंशी प्रेमचंद


प्रेमचंद का उपन्यास 'गबन' हिंदी साहित्य का एक अत्यंत महत्वपूर्ण रत्न है। इस उपन्यास का शीर्षक 'गबन' ही अपने आप में एक गहन अर्थ समेटे हुए है। यह शीर्षक न केवल उपन्यास की केंद्रीय घटना को बयां करता है बल्कि इसके माध्यम से गहरे सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयामों को भी उजागर करता है।

'गबन' शब्द का सीधा अर्थ है चोरी करना, या किसी चीज़ को अनधिकृत रूप से ले लेना। उपन्यास में यह शब्द रमानाथ के धन के गबन से सीधे जुड़ा हुआ है। लेकिन प्रेमचंद ने इस शब्द को सिर्फ एक घटना के लिए ही सीमित नहीं रखा है। उन्होंने इसे एक प्रतीक के रूप में प्रयोग किया है जो व्यक्तिगत, सामाजिक और नैतिक पतन को दर्शाता है।

शीर्षक किसी भी रचना का प्राण-बिन्दु होता है। एक प्रकार से समस्त रचना का वह एक-दो शब्दों में संक्षिप्तीकरण होता है। उसका उदय रचनाकार के हृदय से होता है। पात्र अथवा घटनाओं के आधार पर उपन्यासों का नामकरण होता है। प्रस्तुत उपन्यास का शीर्षक ऐमचन्दजी ने घटना के आधार पर चुना है, कथा-नायक के नाम पर नहीं। अब देखना यह है कि उक्त शीर्षक कहाँ तक इस रचना के उपयुक्त है।
 
वस्तुतः उपन्यास की सर्वाधिक प्रमुख घटना गबन है। इसमें पूर्व की समस्त घटनायें कारण-रूप में गबन के कार्य की परिस्थितियाँ तैयार करती हैं और ग़बन के बाद की समस्त घटनाएँ इसके परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। वस्तुतः कथा का पूर्वार्द्ध उन परिस्थितियों का चित्रण है, जिसके जाल में रमानाथ को गबन जैसा जघन्य कार्य करना पड़ता है और उत्तरार्द्ध की समस्त घटनाएँ गबन के परिणामस्वरूप प्रस्तुत की गई हैं। 

गबन उपन्यास का नामकरण की सार्थकता | मुंशी प्रेमचंद
गबन की घटना के दो प्रमुख कारण हैं—एक तो जालपा की नारी-सुलभ आभूषणप्रियता, दूसरे रमानाथ द्वारा अपनी आर्थिक स्थिति का मिथ्या प्रदर्शन। उपन्यास के प्रारम्भ में स्पष्ट कर दिया गया है कि जालपा में बाल्यकाल से ही आभूषण-प्रेम है। वह बिल्लौर के फिरोजी रंग के कृत्रिम चन्द्रहार को पहनकर अनेक उत्सव-समारोहों पर न जाने कहाँ-कहाँ नहीं घूमी है। अपनी माँ मानकी के वास्तविक चन्द्रहार की चमक ने तो उसे इतना अधीर कर दिया है कि अब उसका नकली चन्द्रहार फीका पड़ गया और उसने वैसा ही चन्द्रहार लेने का आग्रह किया। मानकी ने उसे आश्वासन दिलाया कि ऐसा चन्द्रहार तेरी ससुराल से विवाह के अवसर पर आयेगा। फिर तो वह अपनी उस विवाह-बेला की उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगी, जब उसकी ससुराल से चन्द्रहार आयेगा। किन्तु दुर्भाग्य से विवाह के समय चन्द्रहार न चढ़ाया गया। जालपा की मानस-कली मुरझा गई। चन्द्रहार तो मिला नहीं और जो भी आभूषण थे, उनसे भी रमानाथ द्वारा प्रवंचित हो जाने पर उसके चित्त को भारी ठेस पहुँची। वह सास-ससुर तथा पति सभी की ओर से उदास हो गई। जालपा जैसी सुन्दरी नारी की उदासीनता रमानाथ कहाँ तक सहन करता । वह उसे आश्वासन देता रहा और अपनी आर्थिक स्थिति का काल्पनिक चित्र उसके सामने प्रस्तुत करता रहा। यदि वह अपनी वस्तुस्थिति उसके सामने स्पष्ट कर देता तो सम्भवतः उसे गबन करने को विवश न होना पड़ता। ऐसा करना एक तो वह अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझता था, दूसरे उसका अपना निजी विचार था कि आभूषणों के अभाव में जालपा उससे प्रेम नहीं करेगी। अतः वह सारे प्रयासों से जालपा को सन्तुष्ट रखना चाहता था।
 
चुंगी में नौकरी करने के बाद उसने अन्त में जालपा की उदासीनता दूर करने के लिए ऋण लेकर आभूषण क्रय किए। जालपा को इससे अत्यन्त प्रसन्नता हुई। उसके जीवन में उल्लास भर गया। वह अब रमानाथ का विशेष स्वागत-सत्कार करने लगी। पति सेवा की भावना उसमें इतनी प्रबुद्ध हो गई कि जालपा रमानाथ के सभी कार्यों में बिना कहे स्वेच्छा से रूचि लेने लगी। उसके भोजन का स्वाद ही बदल गया। फिर रमानाथ ऋण का भारी बोझ लेकर भी उसे प्रसन्न क्यों न करना चाहता ? आभूषण बन जाने के बाद जालपा ने समाज में अपने परिचय की परिधि वृहत्तर की, जिसमें सहेलियों का सारा व्यय जालपा पर ही पड़ने लगा। संकोचशील रमानाथ इस अपव्यय का भी निवारण न कर सका। वह तो प्राण-पण से जालपा जैसी देवी को सन्तुष्ट करने में प्रवृत्त था। जालपा के वस्त्राभूषण तथा श्रृंगार प्रसाधनों में आय से अधिक व्यय होने लगा, जिसके परिणामस्वरूप ऋण-भार 'असह्य हो गया। अन्त में रतन के रुपये जमा करके उसने अपना ऋण-भार कुछ कम करना चाहा, किन्तु रतन के निरन्तर के तकाजों ने एक दिन उसे विवश कर दिया कि वह चुंगी के रुपये का गबन कर ले। फलतः उसने ऐसा ही किया और इस दुर्घटना ने अन्त में उसके ऐसे पैर उखाड़े कि वह बेचारा कलकत्ता भाग गया।

गबन के उत्तरार्द्ध की समस्त घटनाएँ भी इसी घटना से सम्बद्ध हैं। देवीदीन तथा जग्गो, गबन के कारण पकड़े जाने के भय से भागे हुए रमानाथ को अपने घर आश्रय देते हैं। यदि भय से वह पलायनवादी न हो जाता तो देवीदीन तथा जग्गो का उपन्यास में उल्लेख ही नहीं होता । गबन के दण्ड-विधान में पुलिस द्वारा पकड़े जाने के भय से ही रमानाथ दिन-रात देवीदीन के घर ही पड़ा रहता है, कहीं उत्सव समारोहों में भी नहीं जाता। दुर्भाग्य से जब एक ड्रामा की टिकिट सुरक्षित कराने जाता है तो विलक्षण वेश-भूषा में, भय से विकृत आकृति द्वारा वह पुलिस द्वारा पकड़ा जाता है। पुलिस के सामने वह चुंगी से सरकारी रुपया गबन करने का अपराध स्वयं स्वीकार कर लेता है, जिसका अनुचित लाभ उठाकर पुलिस क्रान्तिकारियों के अभियोग में उसे अपना मुखबिर बना लेती है। गबन करने के अपराध के कारण वह एक लम्बी अवधि तक पुलिस के चंगुल में फँसा रहता है।
 
जालपा गबन करके भागे हुए अपने पति की खोज में प्राचीन परम्पराओं से अपने नारीत्व का परिचय देती है। गबन की घटना से वह आत्म-भर्त्सना करती है। अपनी आभूषणप्रियता तथा रंगीन आकांक्षाओं-भरे जीवन को वह इस घटना का मूल कारण बताती है। रमानाथ को तो वह इतना ही दोष देती है कि उन्होंने तथ्य का गोपन किया और अपनी स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर बताया। गबन के बाद स्वयंसिद्धा, स्वावेलम्बिनी जालपा का आदर्श नारीत्व उभरता है। वह आभूषणप्रियता को तिलांजलि देकर समस्त आभूषणों को बेच कर गबन की हुई अवशेष धनराशि जमा करती है और ऋण-भार से मुक्ति-लाभ करती है। यहाँ तक कि अपने बेशकीमती वस्त्रों को भी गंगा की पवित्र जलराशि को समर्पित कर स्वयं त्याग-तपस्या का जीवन व्यतीत करती है। गबन करके भागे हुए पति की खोज में ही वह कलकत्ता पहुँचती है, जहाँ वह एक साहससम्पन्न शूरवीर, निडर, निर्भीक एवं स्वाभिमानिनी नारी का परिचय देती । गबन के अपराध से भयभीत पति को वह पुलिस के कठोर पहरे में भी पत्र द्वारा अवगत कराती है कि वह गबन के अभियोग से मुक्त है। उसे निर्भीक होकर अपने बयान बदल देने चाहिए। मिलने पर उसके मुखबिर होने की भर्त्सना करती है और निर्दोष क्रान्तिकारियों के विरुद्ध वयान देने का निषेध करती है। 

रमानाथ का मानव भी जगता तो है, किन्तु एक बार गबन के कारण जब वह पुलिस के चंगुल में फँस जाता है तो फिर उसके हथकण्डों से निकल नहीं पाता। वह क्रान्तिकारियों के विरुद्ध बयान देता है, जिससे दिनेश को मृत्यु-दण्ड और अवशेष अनेक क्रान्तिकारियों को कारावास होता है। ये सभी घटनायें गबन की घटना का ही तो परिणाम हैं। अन्त में जालपा दिनेश के परिवार की सेवा करके अपने पति के पाप का प्रायश्चित करने लगती है। उसे रमानाथ के अमानवीय कार्य से उसके प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है। जोहरा के माध्यम से जालपा पुनः रमानाथ के जीवन की दिशा दल देती है। वह गबन की घटना को स्वीकार करके जज के सामने स्पष्ट कर देता है क गबन के कारण दण्ड- भय से वह पुलिस के चक्कर में फँस गया और दण्ड से मुक्ति-लाभ के लोभ से उसने पुलिस का मुखबिर बनकर निर्दोष व्यक्तियों के विरुद्ध अपना बयान दिया है। गबन की घटना के सत्य से प्रभावित होकर ही जज पुनः अभियोग सुनता है और सभी निर्दोष मुक्त हो जाते हैं। जालपा तथा जोहरा अपने बयानों में गबन की घटना का पुलिस द्वारा अनुचित लाभ उठाने पर बल देकर ही रमानाथ की झूठे बयान से रक्षा करती हैं। रमानाथ स्वयं भी गबन की घटना का पुलिस द्वारा पूरा-पूरा लाभ उठाये जाने की बात कहकर ही झूठा बयान देने के अपराध से मुक्त होता है । 

जोहरा की कथा भी गबन करने वाले रमानाथ के कारण ही उपन्यास में उभरती है और एक बार उभरकर मूल कथा का अंग बन जाती है। जालपा तथा रमानाथ का सम्पर्क उसके जीवन की दिशा ही बदल देता है। वह वेश्यावृत्ति का परित्याग कर एक लोकरोविका, साध्वी नारी का जीवन-व्रत ले लेती है। रतन की कथा प्रारम्भ में गबन की परिस्थितियाँ उत्पन्न करती है और बाद में गबन के कारण भागे हुए पति की म्लानमना पत्नी जालपा को धैर्य बँधाने में सहायक होती है । 

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि 'गबन' उपन्यास की सर्वाधिक प्रधान घटना है, जिसके कारण उपन्यास को 'गबन' नाम दिया गया है। सभी पूर्ववर्ती घटनाएँ इस घटना के कारण हैं, जिन्होंने रमानाथ को गबन करने को बाध्य कर दिया और अनन्तरवर्ती समस्त घटनाएँ गबन के परिणामस्वरूप अंकित की गई हैं। क्या पात्र और क्या घटनाएँ, सभी के मूल में गबन का प्राधान्य है । गबन सभी में प्राणों की भाँति समाया है। ऐसी स्थिति में यह स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है कि 'गबन' सर्वथा उपन्यास का उपयुक्त नाम है और शीर्षक की दृष्टि से 'गबन' उपन्यास का असंदिग्ध रूप से सर्वोत्तम शीर्षक है। 

गबन उपन्यास का शीर्षक सिर्फ एक शब्द नहीं है, बल्कि यह एक विचार है, एक संदेश है। यह हमें बताता है कि कैसे भौतिकवादी मूल्य व्यक्ति को अपने मूल्यों से दूर ले जा सकते हैं और कैसे समाज की अपेक्षाएं व्यक्ति को अपराध के रास्ते पर धकेल सकती हैं। प्रेमचंद ने गबन के माध्यम से हमें एक ऐसा दर्पण दिखाया है जिसमें हम खुद को देख सकते हैं।

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