हिन्दी एकांकी पूर्ण रूप से एक नयी विधा है। आधुनिक कहानी की भाँति हिन्दी एकांकी पर भी पश्चिम का प्रभाव है। कुछ आलोचकों के मत में एकांकी को पश्चिम से जो
हिन्दी एकांकी पूर्ण रूप से एक नई विधा है
हिन्दी एकांकी पूर्ण रूप से एक नयी विधा है। आधुनिक कहानी की भाँति हिन्दी एकांकी पर भी पश्चिम का प्रभाव है। कुछ आलोचकों के मत में एकांकी को पश्चिम से जोड़ना बहुत ठीक नहीं है, क्योंकि रूपक और उपरूपक के कुछ भेद यथा-व्यायोग, भाण, प्रहसन, वीथी, सट्टक, विलासिका, प्रकारणिका आदि एक ही अंक के थे। अतः भारत में 'एकांकी' की परंपरा रही है। भास का 'उरुभंग' और 'मध्यम व्यायोग' एकांकी के निकट है। किन्तु तुलना करने पर आधुनिक एकांकी एवं संस्कृत के रूपक में स्पष्ट अंतर दिखता है। कथावस्तु एवं शिल्प-दोनों दृष्टियों से रूपक एवं एकांकी में अंतर है। आधुनिक एकांकी की मूल प्रेरणा जीवन का द्वन्द्व और संघर्ष है। मानसिक विश्लेषण को आधार बनाकर आधुनिक एकांकी जीवन की अभिव्यक्ति को अपना मुख्य उद्देश्य मानता है। संस्कृत के रूपक में संघर्ष या द्वन्द्व का प्रायः अभाव था ।
एकांकी का उद्भव एवं विकास पश्चिम में भी नया ही है। पश्चिम में प्राचीन काल में बड़े-बड़े नाटक ही खेले जाते थे। नाटक के बीच दृश्य-परिवर्तन के लिए समय निकालने के लिए, छोटे-छोटे नाटक खेले जाते थे जिन्हें 'कर्टन रेंजर्स' कहते थे। ऐसे नाटकों का स्वतंत्र विकास वहाँ भी नहीं हो पाया। आप सोच रहे होंगे कि एकांकी का विकास क्यों हुआ ? इसका उत्तर है- समय की कमी के कारण। विश्व युद्ध के बाद आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के युग में मनुष्य के पास समय की कमी हो गयी। जीवन की भाग-दौड़ में वह कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक कार्य करना चाहता है, यहाँ तक कि मनोरंजन के लिए भी वह कम-से-कम समय देना चाहता है। वर्तमान युग में व्यक्ति की व्यस्तता और समय के अभाव के कारण अनेक ऐसी विधाओं का विकास हुआ है जो आकार में लघु है। एकांकी का विकास भी इसी कारण हुआ है।
प्रसिद्ध एकांकीकार डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार "एकांकी में एक घटना होती है और वह नाटकीय कौशल से चरम सीमा तक पहुँचती है।" एकांकी में एक सम्पूर्ण कार्य एक ही स्थान और समय में होना चाहिए। एकांकी में वर्णित कथावस्तु अलग-अलग स्थानों एवं कालों में घटित नहीं होनी चाहिए। अधिकांश एकांकी एक ही अंक और एक ही दृश्य में समाप्त हो जाते हैं जिससे प्रभाव की एकता एवं घटनाओं की एकसूत्रता बनी रहती है।
एकांकी के तत्व
नाटक के समान एकांकी में भी छ: तत्व होते हैं-
(1) कथावस्तु (2) चरित्र चित्रण (3) परिवेश (4) संरचना शिल्प (5) रंगमंचीयता और (6) प्रतिपाद्य । लेकिन नाटक के समान एकांकी में न तो कथावस्तु के विस्तार का अवकाश रहता है और न ही पात्रों की बहुलता का। ऐसा भी नहीं कि नाटक को छोटा करके एकांकी बना लिया जाए। एकांकी सर्वथा स्वतंत्र विधा है। नाटक में घटनाओं की बहुलता रहती है, जबकि एकांकी पात्र, घटना, संवाद आदि की दृष्टियों से सीमित होता है। नाटक में अनेक अंक होते हैं, किंतु एकांकी में एक ही अंक होता है।
कथानक
एकांकी का कथानक भी इतिहास, राजनीति, पुराण, लोकतंत्र, समाज या चरित्र विशेष से लिया जा सकता है। उसका संबंध जीवन की किसी एक घटना या पहलू से होता है। इसके कथानक के मुख्य पाँच भाग होते हैं। (1) प्रारंभ (2) नाटकीय स्थल (3) द्वंद्व (4) चरम सीमा और (5) परिणति । उदाहरण के लिए हम डॉ. रामकुमार वर्मा के एकांकी 'दीपदान' को लें। इसमें कथानक एक महत्वपूर्ण घटना पर आधारित है- कथानक का विस्तार इसमें नहीं है। पन्ना धाय द्वारा चित्तौड़ के राजकुमार की जीवन-रक्षा के लिए अपने पुत्र को बलिदान करना ही इसकी कथावस्तु है, पर इसे नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया गया है।
कथानक का प्रारंभ नाटकीय ढंग से तुलजा भवानी की पूजा के अवसर पर होता है। शामली का आकार पन्ना धाय से यह कहना कि सिपाहियों ने महल को चारों ओर से घेर लिया है, नाटकीय स्थल है। कथानक में द्वन्द्व उस समय आता है जब पन्ना कुँअर की जगह अपने पुत्र चंदन को सुलाने की बात सोचती है। कथानक में रनवीर द्वारा चंदन पर तलवार से आघात करना चरम सीमा है।
चरित्र चित्रण
एकांकी में पात्रों की बहुलता नहीं रहती। साधारणतया एक ही मुख्य पात्र होता है। मुख्य पात्र के आगे-पीछे सारी घटनाएँ घूमती हैं। 'दीपदान' में पन्ना ही मुख्य पात्र है। उसके कार्य एवं संवादों से उसका चरित्र उभरा है। पन्ना के दृढ़, स्वामी भक्त एवं राष्ट्र-भक्त चरित्र के साथ रनवीर के अत्याचारी रूप को उभार कर एकांकीकार ने चरित्रों की स्पष्ट पहचान कराई है।
परिवेश
एकांकी में किसी कार्य विशेष की प्रधानता रहती है। यह कार्य किसी काल-विशेष में घटित होता है और इसके घटने का कोई स्थान होता है। इन्हें देश-काल और वातावरण अथवा परिवेश कह सकते हैं। ऐतिहासिक एकांकियों में तो परिवेश का और भी अधिक महत्व होता है।एकांकी में एक स्थान, एक काल एवं कार्य की प्रधानता रहती है। दीपदान एकांकी से आप स्पष्ट पहचान सकते हैं कि इसमें एक स्थान मेवाड़, एक काल तथा एक कार्य की योजना की गई है। राजपरिवार से संबंधित परिवेश का यथार्थ चित्रण इस एकांकी में है।
संरचना शिल्प
आप जान चुके हैं कि संरचना-शिल्प का संबंध एकांकी की भाषा शैली और संवाद योजना से है।एकांकी एक संक्षिप्त नाटकीय विधा है जो एक ही स्थान पर, एक ही समय में घटित होने वाली एक घटना को केंद्र में रखती है। इसकी संरचना नाटक की तुलना में अधिक संकुचित होती है, लेकिन प्रभावशाली होने के लिए इसमें नाटकीय तत्वों का कुशलतापूर्वक उपयोग किया जाता है।
भाषा शैली
प्रत्यक्ष प्रदर्शन की विधा होने के कारण एकांकी की शैली नाटकीय होती है। उसमें विचारों भावों की अभिव्यक्ति केवल भाषा के द्वारा ही नहीं, पात्रों की वेश-भूषा, उनकी भाव-भंगिमा, कार्य, रंगमंच के दृश्य और वातावरण, गीत-संगीत, ध्वनि-प्रकाश आदि के द्वारा भी होती है। रेडियो के लिए लिखे जाने वाले एकांकियों की शैली मंच पर खेले जाने वाले एकांकियों से भिन्न होती है। रेडियो में ध्वनि का विशेष महत्व है जबकि मंच पर अभिनीत होने वाले एकांकियों में रंग-निर्देश का। कुछ एकांकी ऐसे भी होते हैं जो पहले रेडियो पर प्रसारण के लिए लिखे जाते हैं और बाद में उन्हें मंच के अनुरूप बना लिया जाता है। उस स्थिति में उनके शिल्प में परिवर्तन करना आवश्यक हो जाता है। डॉ. रामकुमार वर्मा का 'दीपदान' ऐसा ही एकांकी है।
एकांकी की भाषा सहज, स्वाभाविक, सजीव और रोचक होनी चाहिए। भाषा जन-जीवन के जितना निकट होगी, उसे समझना उतना ही सहज होगा। एकांकी की भाषा भावों की अभिव्यक्ति के साथ चरित्र-चित्रण का साधन भी है। उसी के द्वारा पात्रों के स्वभाव की विशेषताओं, गुण-दोषों आदि पर भी प्रकाश पड़ता है, इसलिए एकांकी के प्रत्येक पात्र की अपनी भाषा होती है। सभी पात्रों के लिए समान भाषा से एकांकी की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। अच्छे एकांकियों में भाषा पात्रों के अनुसार बदलती है।
संवाद
एकांकीकार कम-से-कम संवादों में भावों को व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। संवाद परिस्थिति एवं पात्रों की मनोदशा को प्रकट करने वाले होने चाहिए। 'दीपदान' एकांकी के मुख्य पात्र पन्ना के संवाद उसके चरित्र की दृढ़ता को प्रकट करते हैं- "चित्तौड़ राग-रंग की भूमि नहीं है। यहाँ आग की लपटें नाचती हैं।"
रंगमंचीयता और अभिनेयता
नाटक के समान रंगमंचीयता एकांकी का भी प्राण-तत्व है। एकांकीकार के लिए भी अभिनेयता अथवा रंगमंचीयता का ध्यान रखना उतना ही आवश्यक है जितना कि नाटककार के लिए। एकांकी की वास्तविक सफलता भी रंगमंच पर अभिनीत होने में ही है। एकांकी में संक्षिप्तता आवश्यक है, अतः एकांकीकार के रंग-निर्देश संक्षिप्त होने चाहिए। एकांकी के लिखित रूप को निर्देशक अभिनेताओं तथा अन्य रंगकर्मियों के सहयोग से दर्शकों तक संप्रेषित करता है, अतः उसकी सफलता अभिनेताओं के अभिनय पर निर्भर करती है।
प्रतिपाद्य
एकांकीकार अपनी रचना के द्वारा कोई-न-कोई संदेश देता है। वह स्पष्ट शब्दों में न कहकर कथानक, कार्य-व्यापार, चरित्र आदि के माध्यम से अपना उद्देश्य दर्शकों-पाठकों तक पहुँचाने का प्रयत्न करता है। एकांकीकार ने एकांकी में क्या कहा है, यह एकांकी को ठीक से समझने पर पता चलेगा। 'दीपदान' एकांकी को ही लें। इसमें त्याग एवं बलिदान का आदर्श रखा गया है। देश के लिए पुत्र जैसे अनमोल रत्न को भी माँ ने बलिदान कर दिया है। देश की बलिवेदी पर सर्वस्व त्याग की प्रेरणा देना इस एकांकी का उद्देश्य है।
इस प्रकार हिंदी एकांकी को पूरी तरह से एक नई विधा मानना उचित नहीं होगा, क्योंकि इसकी जड़ें भारतीय नाट्यशास्त्र में मिलती हैं। हालांकि, इसकी संरचना, विषय और शैली के कारण इसे नाटकीय परंपरा का एक विकास माना जा सकता है। यह एक ऐसी विधा है जिसने हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है और आधुनिक भारतीय समाज के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती है।
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