जूठन आत्मकथा का सारांश ओमप्रकाश वाल्मीकि आत्मकथा जूठन दलित समाज के जीवन की कठोर वास्तविकता को बड़े ही सटीक ढंग से उजागर करती है। यह किताब लेखक के बचपन
जूठन आत्मकथा का सारांश | ओमप्रकाश वाल्मीकि
ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा लिखी गई आत्मकथा जूठन दलित समाज के जीवन की कठोर वास्तविकता को बड़े ही सटीक ढंग से उजागर करती है। यह किताब लेखक के बचपन और किशोरावस्था के अनुभवों को बयान करती है, जिसमें उन्हें अपनी जाति के कारण झेले गए भेदभाव और उत्पीड़न का ब्योरा दिया गया है।
जूठन शब्द का अर्थ होता है बचा हुआ खाना। यह शब्द इस आत्मकथा में एक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया गया है जो दलित समाज को मिलने वाले अपमान और अमानवीय व्यवहार को दर्शाता है। लेखक को बचपन से ही अपने परिवार के साथ जूठन इकट्ठा करने के लिए जाना पड़ता था। यह कार्य उनके लिए न केवल शारीरिक रूप से थकाऊ था बल्कि मानसिक रूप से भी पीड़ादायक था।
'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज है। जीवन की सुख-सुविधा एवं तमाम नागरिक सहूलियतों से वंचित दलित जीवन की त्रासदी उनके व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार, बस्ती एवं पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है। दलितों के जीवन यथार्थ को लेखक की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है-"हमारा घर चन्द्रभान तगा के घेर से सटा हुआ था। उसके बाद कुछ परिवार मुसलमान जुलाहों के थे। चन्द्रभान तगा के घेर के ठीक सामने एक छोटी-सी जोहड़ी थी, जिसने चुहड़ों के बस्ती और गाँव के बीच एक फासला बना दिया था। जोहड़ी का नाम डब्बोवाली था। डब्बोवाली नाम कैसे पड़ा कहना मुश्किल है। हाँ, इतना जरूर है कि इस डब्बोवाली जोहड़ी का रूप एक बड़े गड्ढे के समान था, जिसके एक ओर तगाओं के पक्के मकानों की ऊँची दीवारें थीं जिनसे समकोण बनाती हुई झींवरों के दो तीन परिवारों के कच्चे मकानों की दीवारें थीं। उसके बाद फिर तगाओं के मकान थे।"
वर्ण व्यवस्था पर आधारित इस ग्राम व्यवस्था में भंगियों, चमारों, धोबियों, कुम्हारों तथा अनेक अछूत जाति के लोगों को उच्च समझी जाने वाली जातियों से अलग-थलग और थोड़ी दूरी पर गंदी बस्तियों में अत्यंत कठोर परिस्थितियों में जीवन बिताने के लिए विवश किया जाता है। जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, बड़ी-बूढ़ी यहाँ तक कि नई नवेली दुल्हनें भी इसी डब्बोवाली के किनारे खुले में टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अंधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली त्यागी महिलाएँ, चूँघट काढ़े, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं। इसी जगह गाँव भर के लड़ाई-झगड़े, गोलमेज कॉन्फ्रेंस की शक्ल में चर्चित होते थे। चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध मिनट में साँस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सुअर, नंग-धड़ंग बच्चे, रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण इसका एक जीता जागता और एक गलाजत भरा चित्र उपस्थित करने के बाद लेखक ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए लिखा है कि, "बस यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श-व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।" यह टिप्पणी लेखक की जीवन दृष्टि को संकेतित करती है, जो पूरी आत्मकथा में स्थान-स्थान पर अत्यंत तीव्रता और आक्रोश के साथ व्यक्त हुई है।
गाँव का पूरा खाका प्रस्तुत करने के बाद लेखक ने अपनी जाति (चूहड़ा या भंगी) के प्रति ऊँची जाति, विशेष कर त्यागियों के दुर्व्यहार की भी चर्चा की है। हमारे परिवार को तगाओं के घरों में साफ-सफाई से लेकर, खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी सभी काम होते थे। ऊपर रात- बेरात बेगार करनी पड़ती। बेगार के बदले में कोई पैसा या अनाज नहीं मिलता था। बेगार के लिए न कहने की हिम्मत किसी में नहीं थी। गाली-गलौज, प्रताड़ना अलग नाम लेकर पुकारने की किसी को आदत नहीं थी। उम्र में बड़ा हो तो 'ओ चूहड़े', बराबर या उम्र में छोटा है तो 'अबे चूहड़े के' यही तरीका या सम्बोधन था। बेगार, गाली-गलौच और घोर प्रताड़ना के साथ 'ओ चूहड़े', 'अबे चूहड़े' जैसे सम्बोधन का जिक्र करते हुए लेखक ने बताया है कि, "अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चूहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप समझा जाता था। सामाजिक स्तर पर इन्सानी दर्जा नहीं था। वे चूहड़े को जरूरत की वस्तु समझते थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंको।"
उस समय देश को आजादी मिले आठ साल हो गए थे। सर्वत्र गाँधीजी के अछूतोद्धार की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती थी। कानूनी तौर पर सरकारी स्कूलों के द्वार अछूतों के लिए खोल दिए गए थे। लेकिन जनसामान्य की मानसिकता अभी पहले जैसी ही बनी हुई थी। इसलिए स्कूल में प्रवेश पाने की कठिनाई के कारण लेखक को पढ़ने-लिखने के लिए उसके पिता ने सेवाराम मसीही की शरण में भेजा। वहाँ से भी किसी खटपट के कारण उसे अलग होना पड़ा। "हमारे मोहल्ले में एक ईसाई आते थे। नाम था सेवक राम मसीही। चूहड़ों के बच्चों को घेरकर बैठे रहते थे। पढ़ना-लिखना सिखाते थे। सरकारी स्कूलों में तो कोई घुसने नहीं देता था। सेवक राम मसीही के पास सिर्फ मुझे भेजा गया था। भाई तो काम करते थे। बहन को स्कूल भेजने का सवाल ही नहीं था। मास्टर सेवक राम मसीही के खुले, बिना कमरों, बिना टाट-चटाई वाले स्कूल में अक्षर ज्ञान शुरू किया था। एक दिन सेवक राम मसीही और मेरे पिताजी में कुछ खटपट हो गई थी। पिताजी मुझे लेकर बेसिक प्राइमरी विद्यालय गए थे जो कक्षा पाँच तक था। वहाँ मास्टर हरफूल सिंह थे। उनके सामने मेरे पिताजी ने गिड़गिड़ाकर कहा था, 'मास्टर जी, थारी' मेहरबान्नी हो जागी जो म्हारे इस जाकत (बच्चा) कूबी दो अक्षर सिखा दोगे।"
बड़ी मुश्किल से सरकारी स्कूल में उसे दाखिला मिल सका। वहाँ अध्यापकों से लेकर ऊँची जाति के विद्यार्थियों द्वारा उसे जिस प्रकार से प्रताड़ित किया जाता था, उसे देखकर रोंगटे खड़े हो जाते थे। दलित बालक ओमप्रकाश वाल्मीकि को चूहड़ा समझकर हेडमास्टर कालीराम लेखक को पढ़ाई से अलग कर दिन भर लेखक से झाडू लगवाता है। लेखक के शब्दों में- "दूसरे दिन स्कूल पहुँचा। जाते ही हेडमास्टर ने फिर से झाड़ू के काम पर लगा दिया। पूरे दिन झाडू देता रहा। मन में एक तसल्ली थी कि कल से कक्षा में बैठ जाऊँगा। तीसरे दिन मैं कक्षा में जाकर चुपचाप बैठ गया। थोड़ी देर बाद उनकी दहाड़ सुनाई पड़ी, अबे, ओ चूहड़े के, कहाँ घुस गया... अपनी माँ...' उनकी दहाड़ सुनकर मैं थर-थर काँपने लगा था। एक त्यागी (सवर्ण) लड़के ने चिल्लाकर कहा, 'मास्साब, वो बैट्ठा है कोणे में।' हेडमास्टर ने लपककर मेरी गर्दन दबोच ली थी। उनकी उंगलियों का दबाव मेरी गर्दन पर बढ़ रहा था। जैसे कोई भेड़िया बकरी के बच्चे को दबोचकर उठा लेता है। कक्षा के बाहर खींचकर उन्होंने मुझे बरामदे में ला पटका। चीखकर बोले, 'जा लगा पूरे मैदान में झाडू, नहीं तो.......मैं मिर्ची डाल के स्कूल से बाहर काढ़ (निकाल) दूँगा।” इससे इन्कार करने पर उसे स्कूल से निकाल दिया जाता है। अपने पिता के प्रोत्साहनपूर्ण साहस के सहारे वह सारी यातनाओं को झेलकर भी पाँचवीं की परीक्षा पास कर लेता है।
स्कूल के मास्टर से लेकर गाँव-घर के सामन्त व सेठ-साहूकार तक सभी दलित जीवन को लीलने के लिए तैयार बैठे थे। 'जूठन' दलित जीवन की मर्मान्तक पीड़ा का दस्तावेज हैं। जीवन का सुख-सुविधा और तमाम नागरिक सहूलियतों से वंचित दलित जीवन की त्रासदी उनके व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार, बस्ती और पूरी सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है। दलितों का जीवन ऐसा था कि कोई सामन्त व सेठ साहूकार दलितों को नाम से पुकारने की किसी को आदत नहीं थी। उनके संबोधन का तरीका यह होता था, अगर उम्र में बड़ा हो तो 'ओ चूहड़े', बराबर या उम्र में छोटा है तो 'अबे चूहड़े के ।' छुआछूत व अस्पृश्यता का एक ऐसा माहौल था कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस या अन्य किसी जानवर को छूना बुरा नहीं माना जाता था। यदि चूहड़े (मनुष्य) का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था। यानी दलितों का समाज में कोई मान-सम्मान, इज्जत, अस्मिता, तथा अपनी पहचान कुछ भी नहीं थी सिवाय 'चूहड़े' के। सामाजिक स्तर पर इनसानी दर्जा खत्म कर दिया गया था। वाल्मीकि जी अपने स्कूल की बात बताते हैं कि, दलित विद्यार्थियों का पानी की पर्याप्त मात्रा के बाद भी प्यास बुझाना मुश्किल था, “परीक्षा के दिनों में प्यास लगने पर गिलास से पानी नहीं पी सकते थे। हथेलियों को जोड़कर ओक से पानी पीना पड़ता था। पिलाने वाला चपरासी भी बहुत ऊपर से पानी डालता था। कहीं गिलास हाथों से छू न जाए।" सवर्ण अध्यापक उन्हें बात ही बात में मारते थे, या कहते थे कि भंगी या चमारों के लड़के पढ़ नहीं सकते क्योंकि इनका जन्म पढ़ने के लिए नहीं हुआ है।" जूठन में दलितों को किस प्रकार 'बेगार' करनी पड़ती थी उसे भी लेखक ने बताया है। सवर्ण जमींदार दलितों से जबर्दस्ती अपने खेत में काम करवाते थे। यदि कोई नहीं करता तो उसे दंड भी दिया जाता था। इस प्रथा ने दलितों के मान-सम्मान को कुचल दिया है। ऐसा ही प्रसंग लेखक के जीवन में भी आया है। जब लेखक दसवीं कक्षा में होते हैं तब वे अपनी परीक्षा की तैयारी करते हैं। उनके दो पेपर लिखना भी बाकी होता है। तीसरे पेपर की तैयारी शुरू करते हैं। तब गाँव का सवर्ण जमींदार लेखक के पास आता है और जबरदस्ती से बेगार करने ले जाता है। किंतु लेखक आने के लिए तैयार नहीं होते फिर भी वह क्या कहता है, लेखक बताते हैं- "रात को पढ़ लियो अब मेरे साथ चल ईख बोना है। फौजी ने आदेश दिया। मैंने उससे बहुत कहा कि मुझे पढ़ना है, कल मेरा पेपर है, लेकिन वह नहीं माना। जबरदस्ती बाँह पकड़कर खींचते हुए खेत पर ले गया। डरा-धमकाकर काम पर लगा दिया। गालियों की बौछार में मेरा मस्तिष्क दहकने लगा। मेरे भीतर आग भर गई थी उस रोज त्यागियों के ये जुल्म मेरी स्मृति में बहुत गहरे तक भरे हुए हैं जिनकी तपिश में मैं अनेक बार झुलसा हूँ।"
अपनी शिक्षा-दीक्षा की अमानवीय परिस्थितियों के साथ ही लेखक ने फसलों की कटाई- बुवाई बड़ी जातियों के घरों और पशुशालाओं की सफाई के बदले मिलने वाली अधिक गाली और कम मजदूरी को बड़े मार्मिक ढंग से दर्शाया है। 'जूठन' में भी 'बेगारी' प्रथा का चित्रण आया है। लेखक के पूरे परिवार को माँ से लेकर भाई सभी को हिंदू, मुसलमानों के घर में साफ-सफाई करनी पड़ती थी। गाय, भैंस, बैल का गोबर उठाना पड़ता था। गोबर और मूत्र पूरे दलान में फैलाने पर दुर्गन्ध होती थी फिर भी उन्हें गोबर ढूंढ़कर निकालना पड़ता था। इन सभी के बदले उन्हें पैसे नहीं दिए जाते बल्कि क्या मिलता था ? इस प्रसंग को लेखक व्यक्त करते हैं-"इन सब कामों के बदले मिलता था दो जानवर के पीछे फसल के समय पाँच सेर अनाज यानी लगभग ढाई किलो अनाज । दस मवेशी वाले घर से साल भर में 25 सेर (लगभग-12, 13 किलो) अनाज, दोपहर को प्रत्येक घर में एक बची-खुची रोटी, जो विशेष रूप से चूहड़ों को देने के लिए आटे में भूसी मिलाकर बनाई जाती थी। कभी-कभी जूठन भी भंगन की टोकरी में डाल दी जाती थी ।
आत्मकथा के निर्धारित अंश के अंत में लेखक ने जूठन की अमानवीय प्रथा का अत्यंत मार्मिक चित्रण किया है। शादी-ब्याह के अवसरों पर जब मेहमान और बाराती खाना खा रहे होते हैं तो चूहड़े दरवाजों के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते हैं। खाने की समाप्ति के बाद जूठी पत्तलें उनके टोकरों में डाल दी जाती हैं, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी करके कुछ खा लेते हैं और शेष भविष्य के लिए सुखाकर सुरक्षित रख लेते हैं। सुखदेव सिंह की लड़की की शादी पर जूठन की आस में ही लेखक के माँ-बाप और भाई-बहनों ने एक पखवाड़े तक उनके यहाँ रात-दिन बेगारी की थी। इसका वर्णन करते हुए लेखक ने लिखा है, "बारात खाना खा रही थी। माँ टोकरा लिए दरवाजे के पास बैठी थी। मैं और मेरी छोटी बहन माया माँ से सिमटे बैठे थे। इस उम्मीद में कि भीतर से जो मिठाई और पकवानों की महक आ रही थी, वह हमें भी खाने को मिलेगी।" भोजन की समाप्ति के बाद अब चौधरी सुखदेव सिंह दिखाई दिए तो उसकी माँ ने कहा- चौधरी जी एक पत्तल में कुछ डालकर हमारे बच्चों को दे दो। वे भी तो इसी दिन का इंतजार कर रहे थे। इस पर चौधरी सुखदेव सिंह ने टोकरे की ओर इशारा करके कहा कि, “टोकरा भर जूठन ले जा रही है.... ऊपर से जाकतों (बच्चों) के लिए खाणा माँग री है? अपनी औकात में रह चूहड़ी। उठा टोकरा..... और चलती बन।" माँ ने इस अपमान का प्रतिकार करते हुए टोकरा वहीं बिखेर दिया और सुखदेव सिंह से कहा कि उसे उठाकर अपने घर में रख लो और सुबह बारातियों को नाश्ते में खिला देना। यह सुनकर सुखदेव सिंह माँ पर झपटा लेकिन शेरनी की तरह माँ ने उसका सामना किया।
इस घटना के बाद लेखक के परिवार से जूठन का सिलसिला समाप्त हो गया। वस्तुतः इस घटना के कारण ही लेखक ने आत्मकथा को 'जूठन' शीर्षक दिया है, जो इसकी अंतर्वस्तु के साथ ही उसके प्रतिपाद्य को भी रेखांकित करता है। उच्च और सम्मानित पद पर नौकरी प्राप्त करने के पच्चीस-तीस वर्ष बाद सुखदेव सिंह अपने पोते को लेखक के घर भेजता है, किसी इंटरव्यू के सिलसिले में और स्वयं उसके घर जाकर सम्मानपूर्वक भोजन करता है। इस प्रकार 'जूठन' शीर्षक आत्मकथा की समूची अंतर्वस्तु का संकेत निर्धारित अंश से मिल जाता है। 'जूठन' में आत्मकथाकार के जीवन की बहुत सारी घटनाएँ, उसके विद्यार्थी जीवन से लेकर नौकरी पेशे में रहते हुए इतने सारे अनुभव हैं, जिन्हें दलित समस्या की गंभीरता और सामाजिक महत्त्व को समझने के लिए जानना आवश्यक है। ऐसी कुछ घटनाएँ हैं। जैसे- पाँचवीं के बाद के स्कूल-जीवन की एक घटना को लिया जा सकता है। कक्षा में अध्यापक मनोयोगपूर्वक द्रोणाचार्य द्वारा अपने पुत्र अश्वत्थामा को भूख से तड़पते हुए देख पानी में आटा घोलकर पिलाने की घटना का जिक्र कर सभी विद्यार्थियों को करुणाभिभूत कर दिया। इस पर किशोर लेखक ने प्रश्न किया कि, "अश्वत्थामा को दूध की जगह आटे का घोल पिलाया गया और हमें चावल का माँड़ । फिर किसी भी महाकाव्य में हमारा जिक्र क्यों नहीं आया ?" इस प्रश्न से क्रुद्ध अध्यापक ने अपने उत्तर में उसे मुर्गा बनाकर शीशम की छड़ी से प्रहार करते हुए कहा कि, "चूहड़े के, तू द्रोणाचार्य से बराबरी करे है. ले तेरे ऊपर मैं महाकाव्य लिखूँगा......"उसने मेरी पीठ पर सटाक-सटाक छड़ी से महाकाव्य रंग दिया था। यह महाकाव्य आज भी मेरी पीठ पर अंकित है। भूख और असहाय जीवन के क्षणों में सामंती सोच का यह महाकाव्य मेरी पीठ पर ही नहीं, मेरे मस्तिष्क के रेशे- रेशे पर अंकित है। "
इस प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने, जातीय अपमान एवं उत्पीड़न के जीवंत वर्णन के माध्यम से एक दलित की आत्मव्यथा को प्रस्तुत किया है और भारतीय समाज के कई अनछुए पहलुओं को उजागर करते हुए समाज के समक्ष रखा है।
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