कहानी का साहित्य की अन्य विधाओं से सम्बन्ध

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कहानी का साहित्य की अन्य विधाओं से सम्बन्ध कहानी साहित्य की एक बहुमुखी विधा है जो अन्य विधाओं से गहराई से जुड़ी हुई है। इन विधाओं के बीच संबंध को समझ

कहानी का साहित्य की अन्य विधाओं से सम्बन्ध


हानी, साहित्य की एक ऐसी विधा है जो अपनी संरचना, शैली और विषय-वस्तु के आधार पर अन्य विधाओं से गहराई से जुड़ी हुई है। कहानी को एक केंद्रीय बिंदु मानकर अगर हम अन्य साहित्यिक विधाओं की ओर देखें तो कई समानताएं और अंतर हमें स्पष्ट दिखाई देंगे। आइए, हम कहानी के अन्य विधाओं से संबंध को विस्तार से समझते हैं - 

कहानी और उपन्यास

कहानी और उपन्यास दोनों ही कथा-साहित्य के अंग हैं। दोनों के मूल तत्वों में पर्याप्त समानता है। इसलिए प्रायः उपन्यास को कहानी का बड़ा रूप कहा जा सकता है, पर यह बात तर्कसंगत नहीं है। कहानी और उपन्यास में मौलिक भेद है। प्रसिद्ध समीक्षक गुलाबराय जी का यह कथन उपयुक्त ही है- "हम यह नहीं कह सकते कि कहानी छोटा उपन्यास है, अथवा उपन्यास बड़ी कहानी। यह कहना ऐसा ही असंगत होगा जैसे चौपाया होने की समानता के आधार पर मेंढक को छोटा बैल और बैल को बड़ा मेंढक कहना। दोनों के शारीरिक संस्कार और संगठन में अन्तर है। बैल चारों पैरों पर समान बल देकर चलता है तो मेंढक उछल-उछल कर सस्ता तय करता है। इसी प्रकार कहानीकार भी बहुत-सी जमीन छोड़ता हुआ छलाँग मार कर चलता है। दोनों के गतिक्रम में भेद है।"
 
कहानी का साहित्य की अन्य विधाओं से सम्बन्ध
कहानी को हमने जीवन की एक झलक या झाँकी कहा है। झाँकी प्रायः क्षणिक परन्तु प्रभावपूर्ण होती है। कहानीकार केवल एक ही दृश्य पर सारा आलोक केन्द्रित करके उसके प्रभाव को तीव्रतम बना देता है। उपन्यासकार पूर्ण चिड़िया ही नहीं, वरन उसके पास बैठी हुई दूसरी चिड़ियों को तथा जहाँ तक उसकी निगाह दौड़ सके, पूरे दृश्य का सावधानी के साथ अवलोकन करता है, किन्तु कहानीकार धनुर्विद्या-विशारद वीर अर्जुन की भाँति अपने निशाने को अचूक बनाने के लिए केवल आँख को और ज्यादह से ज्यादह, सिर को, जिसमें आँख अवस्थित है, लक्ष्य कर तीर छोड़ता है। 

वास्तव में कहानी की संवेदना उपन्यास की अपेक्षा कहीं अधिक तीव्र होती है। उपन्यास की भाँति उसमें न तो अधिक पात्र होते हैं और न अधिकं घटनायें संक्षिप्तता के कारण वह कहीं अधिक व्यंजना प्रधान होती है। वह छोटे मुँह बड़ी बात करती है और उसका रूप गागर में सागर के समान होता है। उसमें सुनार की सौ चोटों की जरूरत नहीं, वरन् लुहार की एक गहरी चोट ही काम कर जाती है।डॉ० जगन्नाथ प्रसाद ने एक अत्यन्त सुन्दर उदाहरण द्वारा कहानी और उपन्यास के भेद को स्पष्ट किया है 

"यदि बन्द दरवाजे के भीतर से एक छोटे से छिद्र के सहारे बाहर के किसी उपवन में ताका जाए तो गुलाबों का एक राजा अपनी हरी-हरी डाल पर मस्ती से झूमता दिखाई पड़ेगा। वह अपनी उत्फुल्लता और रमणीयता में आपूर्ण खिला मिलेगा। इसके उपरान्त,यदि दरवाजा पूर्ण खोल दिया जाय तो विशाल उपवन का मनोहर दृश्य सामने खुल पड़ेगा। अवश्य ही उस उपवन के व्यापक प्रसार में वह गुलाब भी एक तरफ दिखाई पड़ेगा। इस उदाहरण में छिद्र के माध्यम से दिखाई पड़ने वाला गुलाब कहानी के रूप में कहा जायेगा और उपवन की दिव्य सामूहिकता उपन्यास की प्रतिनिधि मानी जायगी। दोनों ही अपने दो रूपों में सर्वथा पूर्ण हैं।"
 

कहानी और नाटक

कहानी की तुलना उपन्यास की भाँति नाटक से भी की जा सकती हैं। कहानी और नाटक में घनिष्ठ सम्बन्ध है। कहानी को रोचक और आकर्षक बनाने के लिए उसमें नाटकीय गुणों का समावेश आवश्यक है। कथोपकथन, दृश्य चित्रण, मार्मिकता, घटनाओं की विचित्रता,आकस्मिक रूप में पात्रों का आना-जाना और आकस्मिक - अन्त इसी प्रकार की नाटकीय विशेषताएँ हैं, जिनके उपयोग से कहानी अधिक सरस और सजीव बन जाती है।
 
नाटक और कहानी में सामीप्य होते हुए भी दोनों में मौलिक अन्तर है। कहानी में विषय की जो एक निष्ठता होती है, वह नाटक में नहीं होती। नाटक में विषय की विविधता देखने को मिलती है। यही नहीं, नाटक दृश्य-काव्य के अन्तर्गत आता है और कहानी श्रव्य-काव्य कही जाती है। नाटक की रचना रंगमंच पर अभिनय के लिए की जाती है, इसलिए उसे रंगमंच के बंधनों से बँधकर चलना पड़ता है। कहानी पर ऐसा कोई बंधन नहीं होता।
 

कहानी और एकांकी

श्रव्य काव्य के जिस क्षेत्र में कहानी और उपन्यास आते हैं, दृश्य-काव्य के क्षेत्र में एकांकी और नाटक आते हैं। कहानी और एकांकी नाटक दोनों कलाओं का मुख्य लक्ष्य यही है कि क्षणिक अवकाश में हम अधिक से अधिक आनन्द और मनोरंजन प्राप्त कर सकें। इस लक्ष्य-बिन्दु पर कहानी और एकांकी दोनों को समान रूप से सफलता प्राप्त हुई है।
 
कहानी के भी वे ही तत्व हैं जो एकांकी के हैं। वास्तव में एकांकी कहानी का नाटकीय रूप है ओर कहानी एकांकी का कथात्मक रूप। तात्विक दृष्टि से समानता होते हुए भी दोनों में मौलिक अन्तर है। एकांकी में पात्र और उनके संभाषण प्रमुख होते हैं, कहानी में घटना-प्रसंगों की प्रमुखता होती है। एकांकी की रचना रंगमंच के लिए होती है कहानी में ऐसा कोई बंधन नहीं होता। शिल्प-विधान की दृष्टि से कहानी जहाँ वर्णन प्रधान होती है, एकांकी को यह रूप नहीं दिया जा सकता। कहानी का रूप पात्रात्मक, आत्म-चरित्रात्मक हो सकता है। एकांकी को वह रूप नहीं दिया जा सकता।
 

कहानी और निबन्ध

निबन्ध और कहानी में पर्याप्त समानता है। अपने 'साहित्य विवेचन' नामक ग्रन्थ में जैनेद्र सुमन और योगेन्द्र मल्लिक लेखक द्वय ने इस सम्बन्ध में लिखा है--"जिस प्रकार आख्यायिका का सृजन एक विशिष्ट उद्देश्य के प्रतिपादन के लिए होता है और उसके प्रतिपादन के साथ ही वह समाप्त हो जाती है, वैसे ही निबन्ध भी एक विशिष्ट उद्देश्य को पूर्ण करने के लिए लिखा जाता है और उसके पूर्ण होने पर वह समाप्त हो जाता है। दोनों के आकार, रूप-रेखा और उद्देश्य में साम्य है। जिस प्रकार उपन्यास के किसी एक अध्याय को हम आख्यायिका नहीं कह सकते, उसी प्रकार दार्शनिक या साहित्यिक ग्रन्थ के किसी एक विशिष्ट अध्याय को निबन्ध नहीं कहा जा सकता। आख्यायिका और निबन्ध दोनों का ही स्वतन्त्र अस्तित्व है । आख्यायिका में जब तक आख्यायिका शैली की सम्पूर्ण विशेषताएँ उपलब्ध न हों, वह आख्यायिका नहीं कही जा सकती। उसी प्रकार निबन्ध कहलाने के लिए भी निबन्ध की वैयक्तिक विशेषताओं की उपस्थिति आवश्यक है। इतना होते हुए भी निबन्ध और कहानी को एक नहीं कहा जा सकता। दोनों में पर्याप्त अन्तर है। निबन्ध में जहाँ लेखक स्वयं प्रकट होकर अपनी बात कहता है, अपने उद्देश्य को प्रकट करता है, वह अपने विचारों का प्रतिपादन करता है, कहानी में लेखक पात्रों के माध्यक से यह कार्य सम्पन्न करता है। वह स्वयं प्रकट नहीं होता। निबन्ध में कथानक को स्थान नहीं दिया जाता, परन्तु कहानी की आधार-भूमि उसका कथानक ही 'होता है।
 

कहानी और रेखा चित्र

कहानी और रेखा चित्र को प्रायः लोग एक ही विधा मानते हैं, इसमें सन्देह नहीं कि साहित्यं के इन दोनों अंगों में पर्याप्त समानता है, परन्तु इनमें अन्तर भी कम नहीं। कहानी में जिन तत्वों को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है, रेखा-चित्र में उनकी आवश्यकता उतनी नहीं समझी जाती। कहानी में एक कथा होती है, जो एक निश्चित लक्ष्य को लेकर लिखी जाती है। कथा के घटना-प्रसंग एक दूसरे से जुड़े रहते हैं, रेखा-चित्र में ये सब बातें नहीं होतीं। उसमें न तो किसी चरित्र के भीतरी और बाहरी व्यक्तित्व का चित्रण होता है, न उसमें कथानक होता है, न विकास, न चरम बिन्दु और न अधिक पात्र होते हैं।
 

कहानी और संस्मरण

कहानी और संस्मरण को भी एक नहीं कहा जा सकता । संस्मरण किसी व्यक्ति के जीवन की वास्तविक घटनाओं को लेकर लिखा जाता है। उसमें वास्तविक चरित्र ही प्रकट किया जाता है। संस्मरण लेखक के लिए कल्पना का क्षेत्र खुला नहीं रहता, परन्तु कहानी के लिए यह बंधन नहीं है। उसमें कल्पना का पुट अधिक रहता है। संस्मरण में लेखक किसी पात्र के सम्बन्ध में अपनी ओर से बराबर टीका-टिप्पणी करता चलता है, परन्तु कहानी में इस प्रकार की टीका-टिप्पणी के लिए बहुत कम अवकाश होता है। यही नहीं, कहानी की शैली सांकेतिक अथवा व्यंजनाप्रधान होती है, संस्मरण की शैली विश्लेषणात्मक अथवा वर्णनात्मक होती है।
 

कहानी और जीवनी

जीवनी किसी व्यक्ति के पूर्ण जीवन को हमारे सामने रखती है। उसके चित्रण में सत्य के प्रति अधिक आग्रह होता है, परन्तु कहानी में यह बात नहीं है। कहानी में पात्र के जीवन के किसी एक अंग पर ही प्रकाश डाला जाता है। उसमें सत्य का आग्रह कम और कल्पना का पुट अधिक रहता है।
 

कहानी और गद्य गीत

गद्य-गीत भी कहानी की भाँति गद्य साहित्य का अंग है, फिर भी गद्य-साहित्य की इन दोनों विधाओं में पर्याप्त अन्तर है। गद्य-गीत में हृदय के, भाव-चित्रण की प्रमुखता होती है। कथक का उनमें विशेष स्थान नहीं है। उसमें पात्र के चरित्र-चित्रण पर ध्यान नहीं दिया जाता। वहाँ कथावस्तु और पात्रों के चरित्र-चित्रण की प्रमुखता रहती है। कहानी में यह बात नहीं है। शिल्प-विधान की दृष्टि से भी गद्य-गीत और कहानी में बड़ा अन्तर है। कहानी की भाँति गद्य-गीत में नाटकीयता का समावेश नहीं किया जा सकता। गद्य-गीत की भाँति कहानी को भावात्मक और कलात्मक रूप भी नहीं दिया जा सकता।
 

कहानी और गीत काव्य

गीत या प्रगीत काव्य मुक्तक काव्य के अन्तर्गत आता है। उसमें हृदय के किसी भाव का चित्रण रहता है। उसमें घटनाओं या कार्य-व्यापारों की योजना का कोई प्रश्न नहीं उठता। उनका धरातल पूर्णतः भावात्मक होता है और उसमें कल्पना तत्व के साथ-साथ संगीत तत्व का भी समन्वय रहता है। कहानी का रूप प्रगीत-काव्य की अपेक्षा स्थूल, इतिवृत्तात्मक और कथात्मक होता है। 

कहानी और खंड काव्य

कहानी के समान ही खण्ड-काव्य में भी एक कथा होती है। यह कथा किसी पात्र के जीवन की किसी प्रमुख घटना को आधार बनाकर विकसित होती है। पात्र का सम्पूर्ण चरित्र इसमें वर्णित नहीं होता, अपितु उसके चरित्र का एक अंश होता है। इसलिए खण्ड-काव्य में एकदेशीयता को अधिक महत्व दिया गया है। उसमें जीवन की एक झाँकी उपस्थित की जाती है। एक सामूहिक प्रभाव डालना उसका लक्ष्य होता है। कहानी में भी यह सब कुछ होता है, किन्तु कहानी के इतिवृत्त का विकास खण्ड-काव्य के इतिवृत्त की तुलना में अधिक कलात्मक और चमत्कारपूर्ण होता है। कहानी का अन्त आकस्मिक होता है, खण्ड-काव्य का अन्त ऐसा नहीं होता। इसके अतिरिक्त कहानी गद्यात्मक रचना होती है, खण्ड-काव्य पद्यात्मक। गद्य और पद्य का अन्तर दोनों को एक नहीं होने देता।

इस प्रकार कहानी साहित्य की एक बहुमुखी विधा है जो अन्य विधाओं से गहराई से जुड़ी हुई है। इन विधाओं के बीच संबंध को समझने से हम साहित्य को और बेहतर ढंग से समझ सकते हैं। कहानी के माध्यम से हम मानवीय जीवन, समाज और उसके मुद्दों को विभिन्न दृष्टिकोणों से देख सकते हैं।

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