पाजेब कहानी बाल मनोविज्ञान की कहानी है जैनेन्द्र कुमार कहानी एक छोटी सी पाजेब के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन इसके माध्यम से लेखक ने बच्चों के मनोभावों
पाजेब कहानी बाल मनोविज्ञान की कहानी है | जैनेन्द्र कुमार
जैनेंद्र कुमार की कहानी "पाजेब" बाल मनोविज्ञान का एक बेहतरीन उदाहरण है। यह कहानी एक छोटी सी पाजेब के इर्द-गिर्द घूमती है, लेकिन इसके माध्यम से लेखक ने बच्चों के मनोभावों, उनकी सोच और उनके व्यवहार को बड़ी गहराई से उजागर किया है।
कहानी के पहले ही प्रसंग से बुआ द्वारा मुन्नी और आशुतोष के लाड़-प्यार का संक्षिप्त वर्णन है। बुआ मुन्नी को पाजेब खरीद कर देती है, जिससे मुन्नी की आभूषण की लालसा की ओर संकेत शुरू में ही मिल जाता है। बुआ आशुतोष को उसके जन्मदिन पर साइकिल देने का आश्वासन देती है। परिवार में यदि एक बच्चे को कुछ दिया जाए तो दूसरे बच्चों में ईर्ष्या पैदा होती है। यह ईर्ष्या भी बच्चों की स्वाभाविक लालसा से उत्पन्न होती है। आशुतोष बुआ से कोई वस्तु नहीं पाता, पर साइकिल का आश्वासन पाकर संतुष्ट हो जाता है। मुन्नी द्वारा पाजेब की माँग और आशुतोष द्वारा साइकिल की माँग में केवल रुचि भेद का ही में किया जाने वाला अंतर भी है। परिवार में लड़के का जन्मदिन एक महत्त्वपूर्ण तिथि है, जिसे अंतर नहीं है, बल्कि जैविक अंतर भी है और परिवार में लड़की तथा लड़के के पालन-पोषण उल्लासपूर्वक मनाया जाता है, पर लड़की का जन्मदिन मनाने की परम्परा भारतीय परिवारों में प्रायः नहीं है। मुन्नी पाजेब पाकर फुदकती-नाचती सबको दिखाती फिर रही है और आशुतोष अपने जन्मदिन पर मिलने वाली साइकिल की कल्पना में मग्न है। उनकी बाल सुलभ चेष्टाओं का लेखक ने कुशल अंकन किया है। बच्चों की स्वाभाविक इच्छाओं, उनकी भोली चेष्टाओं की निर्व्याज अभिव्यक्ति कहानी के शुरू में ही मिल जाती है। यह मानो कहानी की प्रस्तावना है। प्रस्तावना में ही लेखक मनोवैज्ञानिक तेवर अपना लेता है, जो बालकों के आपसी संवादों, उनकी बाल सुलभ चेष्टाओं द्वारा प्रकट होता है।
इसके बाद एक पाजेब के न मिलने की सूचना दी जाती है। एक पाजेब का खो जाना चोरी में बदल जाता है। घर में अक्सर चीजें ठीक अवसर पर नहीं मिलती और खो भी जाती हैं, पर चाँदी की एक पाजेब का खो जाना परिवार के लिए एक महत्त्वपूर्ण घटना है। वह एक वस्तु की अनुपस्थिति नहीं आभूषण की अनुपस्थिति है। आभूषण का भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों में विशेष महत्व है। इसलिए पाजेब का खोना तुरन्त चोरी में बदल जाता है। पाजेब भी एक वस्तु है, पर वह चाँदी की है, इसलिए उसका खो जाना सरासर चोरी मान लिया जाता है। चोरी शक को जन्म देती है और शक के घेरे में घर का नौकर वंशी, फिर बालक आशुतोष और एक पड़ौसी का बालक छुन्नू आ जाते हैं। कहानी का सम्पूर्ण घटनाक्रम इस संक्षिप्त चोरी के चारों ओर घूमता है। एक मामूली घटना अनेक प्रसंगों में फैलती जाती है। वंशी, आशुतोष, छुन्नू से पूछताछ होती है, घरों में तनाव बढ़ता है और आशुतोष की माँ तथा पड़ोसन छुन्नू की माँ के बीच कहा सुनी हो जाती है।
कहा जा सकता है कि 'पाजेब' एक मामूली घटना (एक पाजेब का घर में न मिलना) पर आधृत एक कहानी है। निश्चित रूप से इस कहानी का आधार बड़ी मामूली घटना है, पर इससे लेखक ने यह संकेत देना चाहा है कि आधुनिक कहानी में घटना मुख्य नहीं रही, बल्कि घटना में निहित अर्थ मुख्य हो गया है। इस कारण छोटी-से-छोटी घटना कहानी का आधार हो सकता है, जैसे कोई मामूली व्यक्ति आधुनिक हिंदी उपन्यास का आधार हो सकता है, तो अब घटना का चित्रण, उसका विवरण कहानी की उत्कृष्टता की कसौटी नहीं रहा, बल्कि उसका निहितार्थ अथवा उसकी संवेदना की मार्मिकता मुख्य हो गई है। इस प्रकार 'पाजेब' कहानी एक मामूली घटना पर आधृत होकर भी गैरमामूली कहानी हो गई है।
कहानी का घटनाक्रम आगे बढ़ता है तो हम पाते हैं कि पिता द्वारा प्यार के प्रदर्शन, सच बोलने पर इनाम के लालच के बावजूद आशुतोष पाजेब चुराने के आरोप को स्वीकार नहीं करता। किंतु बार-बार पूछे जाने पर पूछताछ की यातना से मुक्ति पाने के लिए या किसी अज्ञात डर या आशंका के कारण वह स्वीकार कर लेता है कि उसने पाजेब छुन्नू को दी। बालक चोरी के आरोप से इंकार करने पर भी चोरी में शामिल कर लेता है। बालक बुद्धि को चोरी के आरोप से मुक्त होने के लिए यही मार्ग सूझा कि उसे छुन्नू के सिर डाल दे। उसने यह कल्पना भी नहीं की थी कि छुन्नू से भी पूछताछ की जाएगी और उसका झूठ पकड़ा जाएगा। उसका यह आचरण बाल मनोविज्ञान का सूचक है। “मैंने बुलाकर कहा, अच्छा सुनो। देखो, मेरी तरफ देखो, यह बताओ कि पाजेब तुमने छुन्नू को दी है न? 'वह कुछ देर कुछ नहीं बोला। उसके चेहरे पर रंग आया और गया। मैं एक-एक छाया ताड़ना चाहता था। मैंने आश्वासन देते हुए कहा कि कोई बात नहीं। हाँ-हाँ, बोलो डरो नहीं । ठीक बताओ बेटे कैसा हमारा सच्चा बेटा है। मानो बड़ी कठिनाई के बाद उसने अपना सिर हिलाया। मैंने बहुत खुश होकर कहा कि दी है न छुन्नू को ? उसने सिर हिला दिया । "
छुन्नू से पूछताछ की जाती है तो वह चोरी से इंकार करता है और आरोप को आशुतोष के कंधे पर सरका देता है। बच्चों का एक दूसरे पर यह आरोप-प्रत्यारोप बालक बुद्धि का ही परिचायक है। पर चोरी का आरोप अपने पुत्र पर लगते देख कर धुन्नू की माँ उसकी पिटाई करती है। दोनों बच्चों की माताओं में कहा सुनी होती है। बच्चे जो कल घनिष्ठ मित्र थे, आरोप-प्रत्यारोप के बीच एक-दूसरे के शत्रु की तरह व्यवहार करते हैं। पाजेब की चोरी तो संदिग्ध थी, पर आशुतोष और छुन्न के बीच तनाव, उनकी माताओं के बीच झगड़ा एक वास्तविकता बन गया।
छुन्नू की माँ तो कह रही है कि उसका लड़का ऐसा काम नहीं कर सकता। उसने पाजेब नहीं देखी। जिस पर आशुतोष की माँ ने कहा कि नहीं तुम्हारा छुन्नू झूठ बोलता है।नतीजा यह हुआ कि छुन्नू की माँ ने छुन्नू को खूब पीटा और खुद भी रोने लगी। कहती जाती कि हाय रे, अब हम चोर हो गए। यह कुलच्छिनी औलाद जाने कब मिटेगी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि पाजेब के खोने की मामूली घटना से निकलने वाले सूत्र फैलते जाते हैं और उनमें उलझनें पैदा होने लगती हैं। ये उलझनें विभिन्न पात्रों के द्वंद्व तथा अंतर्द्वद्व को कुशलता से चित्रित कर जाती हैं। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लेखक का बल किसी घटना या प्रसंग के विस्तृत वर्णन पर नहीं है, बल्कि उससे उत्पन्न मानसिक उथल-पुथल, चित्तवृत्तियों के परिवर्तनों पर है। इसे यों भी कहा जा सकता है कि इस कहानी में बाह्य स्तर पर जो कुछ घटित होते दिखाया गया है, उससे अधिक आन्तरिक स्तर पर घटित होते दिखाया गया है। ऐसा जैनेन्द्र की कहानियों में अक्सर दिखाई देता है। कहा जा सकता है कि लेखक का बल बाह्य घटना के बजाए आन्तरिक घटना पर अधिक है।
कहानी के इस हिस्से में कहानीकार ने पाजेब की तथाकथित चोरी के प्रसंग को लेकर छोटी-छोटी घटनाओं या प्रसंगों का जो तानाबाना बुना है, उसमें बच्चों के साथ उनके परिवार के व्यक्ति भी शामिल कर लिए गए। रोचक बात यह है कि पहले आशुतोष और छुन्नू चोरी से इन्कार करते हैं, बाद में डराने-धमकाने पर उसे स्वीकार कर लेते हैं और उस आरोप को एक-दूसरे पर डाल कर उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं। इन बाल सुलभ चेष्टाओं से बाल मनोविज्ञान उद्घाटित होता है।
कहानी में दूसरा मोड़ शाम को उपस्थित होता है, जब दफ्तर से लौट कर आशुतोष के पिता को सूचना मिलती है कि आशुतोष ने पाजेब की चोरी के रहस्य को खोल दिया है और उसने सब कुछ बता दिया है। बाप के डर से आशुतोष जो कुछ नहीं बता सकता था, वह सब कुछ उसने माँ की ममता के आगे उड़ेल दिया। बाप से बच्चे डरते हैं और माँ को अपना हमराज़ समझते हैं, यह भी एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। बाल मनोविज्ञान के इस तथ्य का उदघाटन लेखक ने बड़े सहज ढंग से कर दिया है।
“शाम को दफ्तर से लौटा तो श्रीमती ने सूचना दी कि आशुतोष ने सब बतला दिया है। कहने लगी कि मैंने बड़े प्यार से पूछ-पूछकर यह सब उसके पेट से निकाला है। दो-तीन घंटे मैं मगज मारती रही। हाय राम, बच्चे का भी क्या जी होता है।"
गहरी से गहरी बात को सरल शब्दों, छोटे छोटे वाक्यों और संक्षिप्त संवादों से कह देने की कला में जैनेन्द्र माहिर हैं। उनकी कहानी कला की यह विशेषता यों तो इस पूरी कहानी में विद्यमान है, पर कहानी के इस भाग में भी उसके दर्शन होते हैं।
“मुझे क्रोध आने लगां डपटकर कहा कि सच क्यों नहीं बोलते जी ? सच बताओ कितनी इकन्नियाँ थीं और कितना क्या था ?" वह गुम सुम खड़ा रहा, कुछ नहीं बोला। "बोलते क्यों नहीं ?" वह नहीं बोला। “सुनते हो! बोलते नहीं तो......... आशुतोष डर गया। और कुछ नहीं बोला।इस बार भी वह नहीं बोला तो मैंने पकड़कर उसके कान खींच लिए। वह बिना आँसू लाए गुम सुम खड़ा रहा। "अब भी नहीं बोलोगे ?"वह डर के मारे पीला हो आया। लेकिन बोल नहीं सका।
आशुतोष शाम तक स्वीकार कर लेता है कि उसने पाजेब छुन्नू को दी, जिसने उसे पाँच आने में पतंग वाले को बेच दिया। वह स्वयं दूर खड़ा रहा और छुन्नू पाजेब लेकर पतंग वाले के पास गया, इसलिए वह पाजेब की चोरी में शामिल नहीं है। यह भोला तर्क बालक को ही शोभा देता है। बालक प्रायः सच बोलते हैं, पर जब आशुतोष के इस सच को, कि उसने चोरी नहीं की, पिता द्वारा स्वीकार नहीं किया गया और उसे निरन्तर संदेह की दृष्टि से देखा जाता रहा तब उसने अपनी जान बचाने के लिए छुन्नू का नाम ले दिया। सच को ठुकराए जाने पर ही उसने झूठ की शरण ली। तात्पर्य यह है कि आशुतोष को पिता की संदेहपूर्ण दृष्टि से बचने के लिए झूठ बोलना पड़ा।
आशुतोष और छुन्नू में दोस्ती है, पर अपनी जान बचाने के लिए उसने छुन्नू के कंधे पर चोरी का आरोप रख दिया। क्षण भर में दोस्ती शत्रुता में बदल गई और छुन्नू उसे घृणा भरी नजरों से देखने लगा। पर शाम तक आशुतोष और छुन्नू के बीच का तनाव समाप्त हो गया था, क्योंकि दोनों गली में गिल्ली डंडा खेल रहे थे। यहाँ भी बाल मनोविज्ञान की झलक मिलती है। बच्चों का निर्मल हृदय घर के दूषित वातावरण अथवा माता-पिता द्वारा किए गए गलत व्यवहार से भी दूषित होता है, यह भी कहानी के इस भाग में ध्वनित होती है।
शाम को पिता ने आशुतोष को आदेश दिया कि पतंग वाले को पाँच आने लौटा कर पाजेब वापस ले आओ। पर आशुतोष तैयार नहीं हुआ, क्योंकि पाँच आने छुन्न ने लिए थे। छुन्नू ने वे खर्च कर दिए या नहीं, यह उसने स्पष्ट नहीं किया। कभी वह 'हाँ' कहता; कभी 'ना', जिसका एक मतलब यह था कि दोनों ने मिलकर पैसे उड़ा दिए और दूसरा अर्थ यह था कि वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि पिता को क्या उत्तर दे। इसके उत्तरों से यह ध्वनि भी निकलती थी कि एक आवश्यकता आ पड़ी थी और वह यह नहीं सोच पा रहा था कि दूसरा झूठ कौन-सा गढ़े, क्योंकि आशुतोष बच्चा था, कोई चालाक गवाह नहीं, जो अवसर के अनुकूल झूठ गढ़ लेता है। उसकी दुविधा बढ़ती गई और उस मन स्थिति में वह पतंग वाले से पाजेब वापस लाने को तैयार नहीं हुआ। पिता ने उसे कोठरी में बंद कर दिया, पर आशुतोष जिद्दी बालक की तरह अपनी जिद पर अड़ा रहा। बालक आशुतोष के व्यवहार से उसकी द्वंद्वग्रस्त मनःस्थिति स्पष्ट होती है और जिद्दी बालक के मनोविज्ञान का भी पता चलता है।
इस प्रकार यह कहानी बाल मनोविज्ञान के लिए इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें बच्चों के मन की दुनिया को समझने में मदद करती है। यह हमें बताती है कि बच्चे कैसे सोचते हैं, कैसे महसूस करते हैं और कैसे व्यवहार करते हैं। कहानी के माध्यम से हम यह भी समझ सकते हैं कि बच्चों के मन पर परिवार, समाज और आसपास का वातावरण किस तरह प्रभाव डालता है।
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