प्रेत मुक्ति कहानी की तात्विक समीक्षा शैलेश मटियानी लेखक ने अपनी कहानी के माध्यम से भारतीय समाज के कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है। इस कहानी का अध्य
प्रेत मुक्ति कहानी की तात्विक समीक्षा | शैलेश मटियानी
प्रेतमुक्ति सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं के बाह्य आडम्बरों से होने वाली मानवीय संवेदनाओं के ह्रास की कहानी है। किशनराम के जीवन के माध्यम से लेखक ने सरल, निश्छल, आडम्बरहीन, परिश्रमी और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व को प्रदर्शित किया है। दूसरी ओर पाण्डेजी के चरित्र के द्वारा एक ऐसा व्यक्तित्व दिखाया है जिसके अन्तर में अनुभूति की तरलता है, प्रेम है, उदारता है, करुणा है और सहानुभूति है। किन्तु इन सब पर एक झीना आवरण चढ़ा है धार्मिक, शास्त्रीय और सामाजिक मान्यताओं का, जिनके कारण किशनराम के मरने की आशंका पर वे उसे प्रेतमुक्ति के सम्बन्ध में दिये गये वचन को पालन करने या न करने की द्विविधा में पड़े रहते हैं। जिसके कारण उनका मन इतना कमजोर हो गया है कि जलती चिता को देखकर उसकी स्वाभाविक स्थिति लुप्त हो जाती है। लेखक ने इन दोनों व्यक्तित्वों के माध्यम से मानो यह घोषणा की है कि धार्मिक और शास्त्रीय सम्बन्धों के आडम्बरों से संचालित व्यक्ति मन का दुर्बल, भीरु और समाज का हित करने में असमर्थ हो जाता है जबकि एक अनपढ़, अज्ञान, परिश्रमी और कर्त्तव्यनिष्ठ व्यक्ति समाज और मानव-जीवन का अधिक हितैषी है। अतः धर्म की गहराई को बिना समझे उसके बाह्य स्वरूपों पर यदि जीवन को निछावर न किया जाय तो वह समाज के लिए कहीं अधिक हितकर होगा। यही इस कहानी का उद्देश्य है।
प्रेत मुक्ति कहानी की प्रमुख विशेषताएं
कहानी की समस्त विशेषताओं को पृथक्-पृथक् निम्न प्रकार से देखा जा सकता है-
आञ्चलिकता
प्रस्तुत कहानी में आञ्चलिक तत्व काफी उभरते हुए प्रतीत होते हैं। पाण्डेजी और किशनराम के निवास स्थान, जीवन, रहन-सहन, विचारधारा, वेश- विन्यास आदि का चित्रण उसे एक निश्चित भू-भाग की कहानी बना देता है। शूद्र वर्ण के लोगों की स्थितियों, मनोदशाओं और भावनाओं के चित्रण से तथा पाण्डेजी के घर की परिस्थितियों से आञ्चलिकता को जाना जा सकता है। पढ़ने-लिखने की एक ही स्थान पर सुविधा न होना, किशनराम का बचपन बीतते ही शादी का हो जाना, जैसी बातें ग्रामीण आञ्चलिक वातावरण को ही प्रस्तुत करती हैं।
सामाजिक सन्दर्भ
प्रस्तुत कहानी में निम्न मध्यमवर्गीय समाज की स्थितियों और परिस्थितियों का यथार्थ निरूपण हुआ है। सम्पूर्ण कहानी सामाजिक सन्दर्भों में ही विकास पाती है। जातिगत बन्धन, धार्मिक मान्यताओं की समस्याएँ आदि सभी कहानी को सामाजिक बनाने वाले तत्व हैं।किशनराम की शादी बचपन में हो गयी। जब वह अपनी पत्नी के साथ मार्ग में पाण्डेजी को मिलता है उस समय का दृश्य देखिए-
"चौदह वर्ष की उम्र में ही शादी हो जाने के बाद किशनराम दुर्गुन के लिए अपनी पत्नी को उसके मायके ले जा रहा था और वे मिडिल स्कूल से लौट रहे थे। छोटी-सी ठिगनी साँवली लड़की बीड़ी पीते हुए उसके पीछे चली आ रही थी और जब किशनराम ने महाराज- महाराज कहकर पाण्डेजी को प्रणाम किया था तो उसने जल्दी में बीड़ी को अपनी हथेली में घिस लिया और फिर रो पड़ी थी।" लेकिन बहुत दिन के बाद जब पाण्डेजी काशी से लौटकर आए तो किशनराम और उसकी पत्नी की प्रेमगाथा ही बदल गयी थी- "इस बार अधजले प्यार को अपनी हथेली में घिस लेने के बजाय किशनराम की घरवाली ने उसके कलेजे के साथ उसे बुझा दिया है।"
शूद्र वर्ण की असमर्थता देखिए- "महाराज आजकल तड़प रहा हूँ तो इसलिए म्लेच्छ योनि का पहले ही ठहरा, उस पर यह सांसारिक कुटिल चित्त की हाय-हाय है। गरुड़ पुराण सुनने को तो पहले ही हक नहीं ठहरा फिर सुनाए भी कौन ? कभी-कभी जंगल में आँखें बन्द करके लेट जाता हूँ। गुसाई ज्यू कि कोई आकाश में उड़ता गरुड़ पक्षी ही मुझे मुर्दा समझकर मेरे माथे पर बैठकर टिटकारी छोड़ जाय महाराज तारण-तरण की तो इतनी चिन्ता नहीं है मगर आत्मा इसी पाप से डरी है कि कहीं प्रेत- योनि में गया तो उस भौनी, छोरी को न लग जाऊँ।"
मनोवैज्ञानिकता
प्रेतमुक्ति में चरित्रों का विकास, मनोवैज्ञानिक भावभूमि पर किया गया है। किशनराम के सम्बन्ध में पाण्डेजी के मन में भ्रांतिपूर्ण विचार घर कर गया है। कि उसे प्रेतयोनि भी हो सकती है। यही कारण है कि वे जलती हुई चिता को देखकर उसके मरने की आशंका कर बैठते हैं। उनका मन स्वाभाविक स्थिति को खो बैठता है। उनके मन में कभी पानी को सूँघकर देखने की इच्छा होती है। कभी तालाब में उसके शव की छाया दिखायी पड़ती है। कभी लगता है कि उनकी पीठ पर लदी पोटली को कोई नीचे खींच रहा है। कभी शूद्र तर्पण से हाथों के अशुद्ध हो जाने की आशंका में हाथों में सुरती जैसी गन्ध आती मालूम पड़ती है, इन सबके पीछे मनोवैज्ञानिक कारण है उनकी भावनाओं के तद्रूप होने का । पाण्डेजी की सहानुभूति, स्वाभाविक संवेदना और मन की उदारता जिसके कारण यह भी भूल गये थे कि वह एक शूद्र का तर्पण कर रहे हैं आदि में भी मनोवैज्ञानिक कारण है। इसी प्रकार पाण्डेजी को देखकर किशनराम की पत्नी का हथेली पर ही बीड़ी बुझा लेना और फिर रो पड़ना, किशनराम का बड़ी और छोटी बहू रानी से प्रेम और ममत्व, प्रेतयोनि से भय आदि सभी स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि को पुष्ट करने वाले हैं।
व्यंग्यात्मकता और अनुभूत्यात्मकता
शैलेश मटियानी ने अपनी प्रेतमुक्ति कहानी में धार्मिक आडम्बरों तथा समाज की अर्थहीन मान्यताओं और परम्पराओं पर शास्त्रोक्त दर्शन पर और धार्मिक अंध-विश्वासों पर भी व्यंग्य किया है। पाण्डेजी की द्विविधाएँ, झूठी धारणाएँ और शंकाएँ बहुत कुछ इस व्यंग्य का आधार रही हैं। व्यंग्य के कुछ स्थल द्रष्टव्य हैं-
"पाण्डेजी अपने बाहरी आचार संस्कार में शूद्रों को जितना अछूत समझते थे आत्मिक संस्कार में नहीं। पिताजी और माँ से उन्होंने उदार संवेदना और मानवीयता पायी थी।" ऐसे पाण्डेजी को जब शंका होती है कि किशनराम मर गया होगा तो वे द्विविधा में पड़ जाते हैं कि वह शूद्र का तर्पण करें या न करें। एक तरफ तो वह यह कहते हैं कि जाति तो सिर्फ मिट्टी की होती है। मिट्टी छूट जाने के बाद केवल आत्मा रह जाती है। दूसरी ओर वे मरने के बाद भी उसका तर्पण करने से झिझकते हैं। चोरी-चोरी तर्पण कर देते हैं। तो पिता का श्राद्ध कैसे करें इस समस्या में उलझ जाते हैं। किशनराम यथार्थ में मरा नहीं है फिर भी पाण्डेजी की ऐसी स्थिति हो जाने के कारण लेखक ने उस पर भी व्यंग्य किया है। समाज की व्यवस्था पर भी व्यंग्य है – “किशनराम के माता-पिता मर गये तो वह मामा के यहाँ गया। लोहारगीरी का काम करते हुए उँगलियाँ कटवा बैठा। इतने पर भी उसके मामा ने उसे वहाँ से भगा दिया। जब ससुराल गया तो उसकी पत्नी को तो रोक लिया गया किन्तु उसे विदा कर दिया ..... 'इस प्रकार उसका जीवन एक दुःखी जीवन लथपथ रहती है। वह जैसे लोहे का हो गया है । कठोर परिश्रम के कारण उसकी देह पसीना से था और प्रकृति ने दुर्भाग्य की चोटों से पीट-पीटकर थोड़ा बहुत फैला दिया था। वह इतना परिश्रमी होने के साथ-साथ पाण्डेजी की श्रद्धा भी करता था फिर भी जाति का बन्धन बदले में उसे पूरी सहानुभूति न दे पाया। यही इस कहानी के व्यंग्यात्मक स्वर हैं।
अनुभूत्यात्मकता और संवेदनशीलता
प्रेतमुक्ति कहानी में संवेदनाओं और अनुभूतियों को भी अभिव्यक्त किया है। पाण्डेजी, कुसुमावती, चन्द्रा बहूरानी, किशनराम सभी पात्र अनुभूतिशील और मानवीय संवेदनाओं से युक्त हैं। पाण्डेजी की मानवीय संवेदनाएँ परम्परागत सामाजिक व्यवस्था और आचार-विचार से दब जाती हैं। फिर भी उनका हृदय अत्यन्त संवेदनशील है। उदाहरणार्थ किशनराम को कठोर परिश्रम से लथपथ देखकर उन्हें लगता था कि उसके सारे आँसू शरीर के जोड़-जोड़ से नितर जाते हैं। उन्हें विचित्र-सी कल्पना हो आती थी किशनराम अभिशप्त इन्द्र है और उसकी सारी देह में आँखें ही आँखें फूट आयी हैं। काशी से लौटने पर किशनराम की दुखान्त गाथा सुनकर उनका मन भर आता है और अन्त में "मन के उदार होते- होते पाण्डेजी यह भी भूल गये कि वह एक शूद्र का तर्पण कर रहे हैं।"
किशनराम के रोने पर कुसुमावती बहूरानी अपने हाथों से आँसू पोंछ देती हैं और पाण्डेजी के पूछने पर कहती है – “हिया-हिया तो सभी का एक सा होता है! केवल! मैंने आँसू पोंछे तो मेरे पाँव के पास की मिट्टी उठाकर कपाल से लगाते हुए बोला- वौराण ज्यू पारस मणि ने लोहे का तसला छू दिया है मेरे जन्म-जन्म के पापों का तारण हो गया है। किशनराम प्रेतयोनि से इसलिए डरता है-कहीं प्रेत योनि में गया तो कहीं भौंनी छोरी को न लग जाऊँ जिसे जीते जी अपना सारा इक हुकम होते हुए भी एक कठोर वचन तक न कह सका कि जाने दे रे किशनराम पुतली तैसी उड़ती छोरी है। जहाँ उसकी मर्जी चाहे वहीं बैठने दे उसे ही मरने के बाद दागते कैसे देख सकूँगा।
प्रेतमुक्ति कहानी का शिल्प विधान
प्रेतमुक्ति कहानी, शैलेश मटियानी द्वारा रचित, एक ऐसी कहानी है जो भारतीय समाज के अंधविश्वासों, रीति-रिवाजों और सामाजिक असमानता को गहराई से उजागर करती है। इस कहानी का शिल्प विधान अत्यंत प्रभावशाली है और इसे कई स्तरों पर समझा जा सकता है। कहानी के तत्वों के आधार पर प्रेतमुक्ति कहानी की समीक्षा निम्नलिखित है -
कथावस्तु
प्रेतमुक्ति की कथावस्तु आञ्चलिक तत्वों से युक्त है। उसमें पूर्व दीप्ति पद्धति और चेतन पद्धति दोनों का प्रयोग किया गया है। आरम्भ, विकास और अन्त की दृष्टि से कहानी में स्वाभाविक विकास कम है। पाण्डेजी की आशंका से प्रारम्भ होकर अतीत के सन्दर्भ में विकसित होती हुई कहानी जब उस घटना तक पहुँचती है कि पाण्डेजी को किशनराम की टोपी दिखाई दी। यहाँ तक कथ्य का पूर्ण विकास हो जाता है और जब अन्त में सौतेली माँ को फूँककर लौटता हुआ किशनराम पाण्डेजी को प्रणाम करता है। यही कहानी की चरम सीमा है। सम्पूर्ण कथानक धार्मिक और सामाजिक व्यवस्थाओं पर व्यंग्य के स्वरों में अभिव्यक्त हुआ है।
चरित्र-चित्रण
प्रेतमुक्ति के सभी पात्र संवेदनशील और भावानुभूतियों से सञ्चालित हैं। किशनराम सीधा-सादा अशिक्षित, कर्त्तव्यनिष्ठ और शास्त्रों पर विश्वास रखने वाला पात्र है। वह उदार है, कृतज्ञ है, सहानुभूति से परिपूर्ण है और दुःखों से पीड़ित होते हुए भी जीवन के लक्ष्य की खोज में प्रयत्नशील है। दूसरी ओर पाण्डेजी उदार, पढ़े-लिखे, शास्त्रीय मान्यताओं को मानने वाले और संवेदनशील व्यक्ति हैं किन्तु वह सामाजिक और धार्मिक भय से आक्रान्त रहते हैं। अत: उनके हृदय में धार्मिक मान्यताओं और मानवीय संवेदनाओं का द्वन्द्व दिखाया गया है। कुसुमावती और चन्द्रा भी सहानुभूतिपूर्ण पात्र हैं। सभी पात्रों का स्वतन्त्र व्यक्तित्व है जिसके सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य पक्षों का निरूपण हुआ है। पात्रों की मनःस्थितियों के निरूपण में लेखक ने विशेष सफलता पाई है।
संवाद
प्रस्तुत कहानी में संवाद अधिक नहीं हैं। स्वगत कथनों की अधिकता है। किन्तु जहाँ-जहाँ संवाद शैली का प्रयोग है उसके माध्यम से चरित्रों को सशक्त अभिव्यक्ति मिली है। जैसे- "किशनराम भवानी को तू भूला नहीं है रे ! जैसा दगा वह कर गयी तेरे साथ, किसी और के साथ करती तो वह थू-थू थूकता और दूसरी ले आता, परन्तु तेरा मोह तो घटा ही नहीं उससे।" "गुसाईं जी डालपात टूटा वृक्ष तो फिर से पंगुर जाता है लेकिन जड़ से उखाड़ा हुआ वृक्ष क्या करे .... महाराज आपने तो उसे पुर पुतली की भाँति मेरे आगे पीछे उड़ता हुआ देखा ही था ? उस छोटी-सी छोरी को गँवा देने के बाद सयानी औरत ले आता तो मुझे लगता कि मेरे आगे पीछे चील झपट्टा मार रही है। मगर मैंने उस पुर पुतली का सुख कभी नहीं खोना चाहा गुसाई ज्यू । "
वातावरण
शैलेश मटियानी लोक-जीवन का अत्यधिक समीप से अध्ययन करने वाले आञ्चलिक कहानीकार हैं। प्रस्तुत कहानी में सुईंयाल नदी और उसके परवर्ती ग्राम का थोड़ा- बहुत बाह्य चित्रण मिलता है। किन्तु पात्रों की मनःस्थितियों के द्वारा किसी भी अविकसित गाँव की परिस्थितियों को जाना जा सकता है।
शीर्षक और भाषा शैली
कहानी का सम्पूर्ण कथानक किशनराम की प्रेतमुक्ति पर केन्द्रित है। कहानी की सोद्देश्यता भी उसी के आधार पर स्पष्ट होती है अतः शीर्षक उपयुक्त: है। उसमें कौतूहल, जिज्ञासा और संक्षिप्तता का समावेश है। उसमें पात्रों के भावों और विचारों से अनुकूलन है। अनेक स्थानों पर स्थानीय शब्दों का प्रयोग आया है, जैसे-हिया, छारी, गुसाईं, हलिया, पंगुर, बोराण, ज्यू इत्यादि । लोकोक्तियों, सूक्तियों और मुहावरों का भी प्रयोग किया गया है। शैली में वर्णनात्मकता है। कहीं-कहीं कलात्मकता और काव्यात्मकता के भी दर्शन होते हैं और भाषा अलंकृत हो गयी है, जैसे- "कठोर परिश्रम के कारण उसकी देह देखने से ही यह अनुभूति हो पाती थी कि उसके सारे आँसू शरीर के जोड़-जोड़ से वितर जाते हैं .........किशनराम अभिशप्त इन्द्र है और उसके शरीर में आँखें ही आँखें फूट आयी हैं।"उन्होंने अनुभव किया था कि इस बार अधजले प्यार को अपनी हथेली पर घिस लेने पर किशनराम की पत्नी ने उसके कलेजे के साथ उसे बुझा दिया।आत्मा फाँसी के फन्दे पर लटकती धिक्कारती रहती है कि किशनराम अब मसानधार की तरफ जाते हुए अपनी घर वाली को राँड़-पातर मत, कह रे कसाई! अंगुलियाँ चरस भरी हुई बीड़ी जैसी सुलगती हुई मेरे कपाल को दागती रहती है कि अरे पातरा ! मगर यह दो ठूंठ तूने मेरा कलेजा ही नहीं निकाल लिया होता, तू आज इस वृद्धावस्था में तू नहीं तो कोई और तो होती ।"
उद्देश्य
प्रस्तुत कहानी का उद्देश्य है सामाजिक और धार्मिक खोखलेपन को दूर करके स्वस्थ मानवता सम्पन्न समाज की स्थापना करना जिसमें मानव का सबसे बड़ा धर्म उसकी मानवता में ही मुखर हो उठे। धर्म-दर्शन और शास्त्रों पर व्यंग्य करके लेखक ने यह दिखाया है कि विचारधाराएँ अगर उथली होंगी तो मानव जीवन आडम्बर की ओर आकर्षित हो जायेगा। इस प्रकार यह कहानी सामाजिक, जातिगत और परम्परागत भेद को व्यक्त करने वाली है। जैसा प्रेमचन्द युगीन कहानियों में हुआ था। अब युग बहुत आगे बढ़ गया है थोथी विचारधारायें समाप्त होने लगी हैं। जाति मतभेद अधिक महत्व का नहीं रहा है। उथली धार्मिक दृष्टि और आडम्बर का सम्मान अब नहीं होता। शास्त्रों का अध्ययन सभी कर सकते हैं। अत: जैसा इस कहानी का वातावरण है अब कहीं-कहीं पिछड़े गाँवों में ही मिलता है। लेखक ने उसी का चित्रण करके मानवीय संवेदनाओं को उभारने का प्रयत्न किया है।
इस प्रकार प्रेतमुक्ति कहानी का शिल्प विधान अत्यंत प्रभावशाली है। लेखक ने अपनी कहानी के माध्यम से भारतीय समाज के कई महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाया है। इस कहानी का अध्ययन हमें समाज के बारे में गहराई से समझने में मदद करता है।
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