रंगभूमि उपन्यास का उद्देश्य मुंशी प्रेमचंद प्रेमचन्द पहले उपन्यासकार थे जो क्रान्तिकारी परिवर्तन का महान् संदेश लेकर उपन्यास-रचना के क्षेत्र में उतरे।
रंगभूमि उपन्यास का उद्देश्य | मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद, हिंदी साहित्य के एक ऐसे स्तंभ हैं जिन्होंने अपने उपन्यासों के माध्यम से भारतीय समाज का एक जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है। 'रंगभूमि' उनका ऐसा ही एक उत्कृष्ट कृति है जो भारतीय समाज की जटिलताओं, विरोधाभासों और चुनौतियों को बड़ी गहराई से उजागर करता है।
उपन्यासकार प्रेमचन्दजी के शब्दों में, “साहित्यकार का काम केवल पाठकों का मन बहलाना नहीं है, यह तो भाटों और मदारियों, विदूषकों और मसखरों का काम है। साहित्यकार का पद इससे कहीं ऊँचा है। वह दूसरा पथ-प्रदर्शक होता है, वह हमारे मनुष्यत्व को जगाता है-हममें सद्भावों का संचार करता है, हमारी दृष्टि को फैलाता है-कम से कम उसका यही उद्देश्य होना चाहिये।'
प्रेमचन्द की उपर्युक्त मान्यता ही उनके साहित्यिक स्वरूप को प्रकट करती है।अतः उनके उपन्यास केवल मनोरंजन की वस्तु नहीं हैं, वरन् वे सोद्देश्य हैं और वह उद्देश्य है- मानव मन का परिष्कार करना। प्रेमचन्द से पूर्व हिन्दी उपन्यासों की सर्जना किसी विशेष साहित्यिक लक्ष्य को सामने रखकर नहीं की गई थी। उनमें मनोरंजन की सामग्री जुटाने का ही प्रयास किया गया था। मानव-जीवन की वास्तविकता से उनका कोई सम्बन्ध न था । प्रेमचन्द पहले उपन्यासकार थे जो क्रान्तिकारी परिवर्तन का महान् संदेश लेकर उपन्यास-रचना के क्षेत्र में उतरे। उन्होंने ही सर्वप्रथम हिन्दी उपन्यास में उद्देश्य-पक्ष की महत्ता स्थापित करते हुए उसके विकास की दिशा मोड़ी। मानव-जीवन से असम्बद्ध हिन्दी का उपन्यास- साहित्य प्रेमचन्द का सक्रिय दिशा-निर्देश पाकर जीवन की वास्तविकता की ठोस चट्टान पर आ खड़ा हुआ। वायवी लोकों की परिक्रमा समाप्त हुई। जिन्दगी के सम-विषम धरातल मिले और उन पर कलम का आविष्कार हुआ। प्रेमचन्द ने बेधड़क होकर कहा- "मुझे वह कहने में हिचक नहीं कि मैं और चीजों की तरह कला को भी उपयोगिता की तुला पर तोलता हूँ, क्योंकि जो दलित हैं, पीड़ित हैं, वंचित हैं-चाहे यह व्यक्ति हो या समूह, उसकी हिमायत और वकालत करना, उस (साहित्यकार का) फर्ज है।" वे यह भी मानते हैं कि "वही साहित्य चिरायु हो सकता है जो की मौलिक-प्रवृत्तियों पर अवलम्बित हो। ईर्ष्या और प्रेम, क्रोध और लोभ, भक्ति और विराग, दुख और लज्जा, ये भी हमारी मौलिक प्रवृत्तियाँ हैं, इन्हीं की छटा दिखाना साहित्य का परम उद्देश्य है और बिना उद्देश्य के तो कोई रचना हो ही नहीं सकती।"
'रंगभूमि' ही नहीं, अपितु प्रेमचन्द के उपन्यास साहित्य का समग्र रूप में एक ही उद्देश्य होता है—दलित, पीड़ित और शोषितों के दुःख-दर्द को समाज के सामने रखते औचित्य के आदर्शों की स्थापना करना। मानव-जीवन की वास्तविकता 'रंगभूमि' की चित्रपटी मालूम हुए है—संसार के मंच पर अभिनय करने वाले मनुष्यों की रंगस्थली, सूरदास उसका नायक है। वह अंधा-अपाहिज है तो क्या, दुनिया में आया है तो अभिनय उसे भी करना पड़ेगा। यहाँ किसी के साथ कोई रू-रियायत नहीं होती। यह 'रंगभूमि' के उद्देश्य का एक पक्ष है। और जब खेलना ही है, तो ढंग से खेले, मन लगाकर खेले। सूरदास को सच्चाई तथा ईमानदारी के साथ उपन्यासकार ने जीवन का खेल मन लगाकर खिलाया है और उसने इस खेल में प्राणों की बाजी भी लगवा दी है—यह उद्देश्य का दूसरा पक्ष है।
पाश्चात्य तथा पूर्वी सभ्यता का तुलनात्मक विवेचन भी 'रंगभूमि' में प्रस्तुत है, जिसके द्वारा प्रेमचन्द भारतीय समाज के सम्मुख यह सांस्कृतिक प्रश्न उठाते हैं कि हमारी अनुकरण की प्रवृत्ति में कहाँ तक औचित्य है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम भटक रहे हों ? वह भारतीय संस्कृति के पथ भ्रष्ट होने की आशंका से भी ग्रस्त है और सावधान होकर आगे बढने का संकेत करते हैं जिससे हम और हमारा सांस्कृतिक अस्तित्व सुरक्षित रह सके। चाहे पांडेपुर के किसान-मजदूर और भिखारी हों, चाहे बनारस और उदयपुर के राजघराने, एक-दूसरे से कटकर चलने से कुछ हासिल नहीं होगा। कुटिल क्लार्क और जॉन सेवक हमें कहीं का न छोड़ेंगे, हमारे इन्द्रदत्त, विनय आदि निरीह जनता को मार डालेंगे या मर जाने के लिए बाध्य कर देंगे तथा हमारी संस्कृति को भी नष्ट कर देंगे।
पूँजीवाद को, जिसे प्रेमचन्दजी पश्चिमी सभ्यता की घातक देन मानते हैं, की विकासकालीन परिस्थितियाँ भी 'रंगभूमि' के पट पर अंकित हुई हैं। यह महाजनी सभ्यता शोषण के आधार पर फली फूली है। सूरदास और पांडेपुर की जनता की अधोगति पर जॉनसेवक की प्रगति का प्रासाद खड़ा होता है। जॉनसेवक का वाणिज्य-व्यवसाय इन्द्रदत्त और सूरदास की लाश पर और असंख्य उजड़े हुए गरीबों की आहों-कराहों पर विकसित होता है तथा फूलता-फलता है ।
आस्थावादी प्रेमचन्द 'रंगभूमि' में गीताकार के कर्म-योग की भाँति यह महान् सन्देश देते हैं—“जीवन एक खेल है, इसे खेलो, हारो तो घबराओ नहीं, जीतो तो घमण्ड में चूर न हो ।” -मरते-मरते भी सूरदास कह जाता है—“हम हारे, तो क्या, मैदान से भागे तो नहीं, रोये तो नहीं, धांधली तो नहीं की। फिर से खेलेंगे, जरा दम ले लेने दो, हार-हारकर तुम्हीं से खेलना सीखेंगे और एक न एक दिन हमारी जीत होगी, जरूर होगी।"
राजा महेन्द्रकुमार सिंह सूरदास की मूर्ति को तोड़कर मिटा देते हैं और स्वयं उसके नीचे दबकर मर जाते हैं। इस घटना के द्वारा प्रेमचन्द कहना चाहते हैं कि धन और वैभव आत्म-बल और सेवा-भावना के सम्मुख पराजित हो जाते हैं।
सूरदास की गिरी हुई मूर्ति के सम्बन्ध में टिप्पणी देते हुए प्रेमचन्दजी कहते हैं—“कारीगरों ने मसालों से मूर्ति के पैर जोड़े और उसे खड़ा किया। लेकिन उस पर किये गये आघात के चिह्न अभी तक पैरों पर बने हुए हैं और मुख भी विकृत हो गया है।” मानो लेखक यहाँ यह संकेत कर रहा है कि आधुनिक परिस्थितियों में महाजनी व्यवस्था से मानवीय गरिमा क्षत-विक्षत हो गई है, स्वार्थ की कुटिलताओं ने चेहरे को बदरंग और भौंड़ा बना दिया है। सूरदास की प्रतिमा पर जैसे इस व्यवस्था से उत्पन्न विकृति के दाग साफ दिखाई पड़ रहे हैं पूँजीवाद के रथ को साथ लेकर औद्योगिक प्रगति निरन्तर अपने पथ पर बढ़ी चली जा रही है। उसे यह स्मरण रखने का भी अवकाश नहीं कि उसके कारण मानव का गौरव खंड-खंड हुआ पड़ा है।
'रंगभूमि' में एक स्थल पर लेखक कहता है—“धन का देवता आत्मा का बलिदान पाये बिना प्रसन्न नहीं होता।” अर्थात् वे कहना चाहते हैं कि “पूँजीवाद तो आ गया। सूरदास के आत्मबल के रोके भी न रुका, लेकिन याद रखो, इस पूँजीवाद में यन्त्रों के दानव के हाथों मानव का गौरव जो खण्ड-खण्ड हो गया है, उसे फिर अखंड करने की साधना, उसका पुनर्स्थापन करना होगा।”
'रंगभूमि' में अपने उद्देश्य के राजनैतिक पक्ष के साथ-साथ पूँजीवाद के सांस्कृतिक प्रभाव का भी चिन्तन है अतः उपन्यासकार भारतीय जनता को सावधान करते हुए यह कहता है कि अंग्रेज शासकों से किसी भी प्रकार की आशा रखना मूर्खता होगी। अतएव जनता को चाहिए कि वह अन्याय के खिलाफ बगावत का झंडा खड़ा कर दे, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति में असन्तोष भड़काए। आर्थिक और सामाजिक पक्ष में 'रंगभूमि' इस उद्देश्य को प्रकट कर रही है कि जागो और मिलकर अपनी राह के रोड़ों को हटाओ, आगे बढ़ो और प्रगति की मंजिल पर पहुँचो, जहाँ न तुम्हारे चेहरों पर पूँजीवाद के दाग हों और न मुख पर स्वार्थ की विकृति । तात्पर्य यह है कि जन-जन में राजनैतिक दासता के फलस्वरूप जो गाँधीजी के नेतृत्व में भारत में आन्दोलन चल रहा था, 'रंगभूमि' में प्रेमचन्द ने उसे भली प्रकार मुखरित करने की चेष्टा की है। ग्रामीण जीवन, राव-राजे, किसान-नागरिक, पूँजीपति और उनके अधीनस्थ मजदूर आदि की मानसिक विचारधाराएँ प्रकट करना भी 'रंगभूमि' का उद्देश्य है।
प्रेमचन्द ने भारतीय समाज को, जो सदियों से अन्धविश्वासी और रूढ़िग्रस्त होने के कारण मूक था, 'रंगभूमि' में वाचाल बना दिया है। निष्कर्ष रूप में डॉ. इन्द्रनाथ मदान के शब्दों में–“प्रेमचन्द की कला का मूल उद्देश्य न तो चरित्र-चित्रण है और न वस्तु-संगठन, वरन् सुधार है। साहित्य के दो कार्य हैं-एक जीवन की व्याख्या करना और दूसरा जीवन को परिवर्तित करना। प्रेमचन्द पिछले पर अधिक जोर देते हैं।"
COMMENTS