सारा आकाश एक यथार्थवादी उपन्यास है राजेन्द्र यादव भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार के जीवन की जटिलताओं को बेहद सटीकता से चित्रित करता है उपन्यास समाज के विभि
सारा आकाश एक यथार्थवादी उपन्यास है | राजेन्द्र यादव
सुप्रसिद्ध कहानीकार राजेन्द्र यादव द्वारा लिखित उपन्यास 'सारा आकाश' एक यथार्थवादी उपन्यास है। प्रस्तुत उपन्यास में उपन्यास के प्रमुख पात्र समर और प्रभा के माध्यम से समकालीन समस्याओं की ओर संकेत किया गया है। 'सारा आकाश' उपन्यास में मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार के आपसी तनाव, घुटन, टूटन यातना और यंत्रणा से उत्पन्न विकृतियों को उजागर किया गया है। उपन्यास में नायक समर को केन्द्र में रखकर संयुक्त परिवार की प्राचीन पुरातन पंथी मान्यताओं, विवशताओं तथा जड़ संस्कारों के प्रति आधुनिक मान्यताओं व जीवन दृष्टि को स्वीकार न करने के संघर्ष का चित्रण हुआ है। उपन्यासकार ने सरल पात्रों के द्वारा समाज में फैली बुराइयों, जैसे-गरीब परिवार की मुश्किल, दहेज न मिलने के कटु अनुभव, बेरोज़गारी व इससे उत्पन्न पारिवारिक समस्याएँ, कम उम्र में बेटियों का विवाह करने पर उनके कष्ट, सच्चे मित्र के गुण तथा परिवार में निरंतर चलते विवाद, मानसिक अशान्ति उत्पन्न करते हैं। साथ ही उपन्यासकार ने थोथी मान्यताओं और मर्यादाओं पर प्रश्न चिह्न लगाया है।
प्रस्तुत उपन्यास में समकालीन बोध के धरातल पर समय की पीड़ा के रेखांकन का प्रयास निश्चय ही सराहनीय है। संयुक्त परिवार की सार्थकता समाप्त हो जाने के बावजूद भी हम उसके मोह से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। कहीं हमारे संस्कार तो हमें इन निरर्थक मोह में जकड़े हुए नहीं हैं? संस्कारों के सन्दर्भ में उपन्यास की चेतना व्यवहारवादी है।
समर की कहानी के जिन अंशों को उपन्यास में जगह मिली है, वे मध्यवर्गीय दीन-हीन जीवन-यापन से जुड़े हैं। अभाव और निर्धनता इस जीवन को लगातार खोखला बना रहे हैं। घर-परिवार की नींव को यही आर्थिक दबाव अस्थिर करते रहने में सक्रिय रहा है। व्यक्ति की महत्वाकांक्षा और संयुक्त परिवार की इस व्यवस्था के स्वर आपस में टकराते रहे हैं। इस व्यवस्था को 19वीं शताब्दी के आरम्भ से ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि आज देशी और सभी विदेशी समाजशास्त्रियों ने संयुक्त परिवार की उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
प्रस्तुत उपन्यास 'सारा आकाश' की प्रस्तुति दो खण्डों में हुई है-'पूर्वार्द्ध' और 'उत्तरार्द्ध' । 'पूर्वार्द्ध' 'साँझ' है जिसे 'बिना उत्तर वाली दस दिशाएँ' घोषित किया गया है। 'उत्तरार्द्ध' 'सुबह है' जिसे 'प्रश्न-पीड़ित दस दिशाओं' के रूप में संकेतित किया गया है। पहले खण्ड में समर और प्रभा की विसंवादी (अबोलेपन) स्थिति का अंकन बहुत ही विस्तार से हुआ है। दूसरे खण्ड के आरम्भ होने से पहले ही दोनों करीब आ जाते हैं और दूसरा खण्ड इस नियति से उबरने के संघर्ष का चित्रण प्रतीत होता है।
उपन्यास के नायक समर के सम्बन्ध में किए गए चित्रण का प्रथम सोपान त्रासद है। इसमें परम्परा का मोह और उनसे मुक्त होने का संघर्ष तथा संयुक्त परिवार का उत्पीड़न है। व्यर्थ प्रथाओं के नाम पर घूँघट, दहेज, टोने-टोटके का आधारहीन मोह तथा जड़ संस्कारों और सड़ी-गली मान्यताओं से छूटने की घबराहट और छटपटाहट है। परिवार की छोटी बहू प्रभा को इस प्रकार की परिपाटी में बाँधना उसके व्यक्तित्व के विकास को कुंठित करना है। प्रभा एक शिक्षित, सभ्य और सुशील स्त्री है। उस पर पर्दे की प्रथा को लादना अर्थहीन है। ईर्ष्यावश उसे नीचा दिखाने का भाभी का षड़यन्त्र निंदा के योग्य है। परिणामतः संयुक्त परिवार इसी तरह के षड्यन्त्रों के कारण बदनाम होते जा रहे हैं।
उपन्यासकार का मानना है कि जब तक युवक पूर्ण शिक्षित होकर रोज़गार प्राप्त न कर ले, तब तक उसे गृहस्थ नहीं बनाना चाहिए। यह एक घोर अपराध है। यदि समर समर्थ व कमाऊ पति होता, तो समस्त असमर्थताएँ, और विवशताएँ कोसों दूर रहतीं। जब समर को प्रेस में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल जाती है तो दो दिन में ही घर का पूरा वातावरण सुखी, शांतिपूर्ण व आनंददायक हो जाता है। वहीं दूसरी ओर उपन्यासकार का उद्देश्य यह भी रहा है कि कन्याओं (बेटियों) और महिलाओं को शिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है।
निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि उपन्यासकार राजेन्द्र यादव ने नर और नारी दोनों को ही शिक्षित कर उन्हे समर्थ और रोज़गार प्राप्त करने के योग्य बनाने की वकालत की है। उनका मानना है कि घर परिवार, समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए नई पीढ़ी के सकारात्मक योगदान की आवश्यकता है। यह योगदान तभी हो सकेगा जब युवाओं को सशक्त बनाने के साथ ही महिलाओं को भी सशक्त बनाया जाए। उपन्यास का उद्देश्य यह भी है कि पुरुषों को अपनी अहंवादी प्रकृति और परम्परागत वर्चस्वता के मोह को छोड़ कर समाज में नर-नारी की समानता और समरसता पर ध्यान देना होगा।
COMMENTS