तुम चंदन हम पानी निबंध का सारांश विद्यानिवास मिश्र एक गहरा दार्शनिक चिंतन है जो व्यक्ति के आत्म-समर्पण और सेवा भाव के बारे में बात करता है यह निबंध
तुम चंदन हम पानी निबंध का सारांश | विद्यानिवास मिश्र
विद्यानिवास मिश्र का निबंध "तुम चंदन हम पानी" एक गहरा दार्शनिक चिंतन है जो व्यक्ति के आत्म-समर्पण और सेवा भाव के बारे में बात करता है। यह निबंध एक साधारण सी बात को लेकर एक गहरी समझ विकसित करता है।
समकालीन सन्दर्भ में विद्यानिवास मिश्र का चिंतन हमारे परंपरागत नैतिक मूल्यों को मात्र समझने का माध्यम ही नहीं है, अपितु मनुष्य को एक स्वच्छ जीवन जीने की प्रेरणा देने वाला विचारात्मक सूत्र भी है। मिश्रजी का मूल्य-बोध प्राचीन वाङ्मय से प्रेरणा पाकर नवीन चिंतन-धारा से केवल प्रभावित ही नहीं हुआ है, बल्कि और भी अधिक विकसित हुआ है। इस रूप में वे भारतीय सांस्कृतिक चिंतनधारा के पुरोधा भी माने जाते हैं। भारतीय संस्कृति व चिंतन आज विज्ञान व तकनीक के युग में क्या प्रासंगिकता रखता है अथवा मनुष्य में सहयोग व भावनात्मक संवेदना का ह्यास किस स्तर तक हो उठा है इसकी स्पष्ट झलक उनके लेखन व चिंतन में देखने को मिलती है। मिश्र के लेखन में मात्र भारतीय संस्कृति का शास्त्रीय और लोक पक्ष ही प्रस्तुत नहीं होता, अपितु इसमें जीवन जीने की नई दष्टि भी समाहित नजर आती है। भाषा साहित्य संस्कति समाज राज इत्यादि मानवीय संदर्भों के व्यापक दर्शन उनके निबंधों में होते रहते हैं। विद्यानिवास मिश्र के लेखन की विशेषता भी यही है; जो परंपरागत मनुष्य को आधुनिकता से व आधुनिक मनुष्य को उसकी परंपरा की जड़ से जोड़ती है।
सन् 1957 में प्रकाशित मिश्र के निबंध-संग्रह 'तुम चंदन हम पानी' पर आधारित यह शोध आलेख उनकी चिंतनधारा के माध्यम से मानवीय मूल्यों की परख व उसकी पहचान को रेखांकित करता है। साथ ही समकालीन सन्दर्भ में उनके मूल्य-बोध की प्रासंगिकता का विश्लेषण भी प्रस्तुत करता है। घर में पिताजी एवं दो पितृव्य पूजा-पाठ बहुत निष्ठापूर्वक करते हैं, इसलिए तीन होरसे तो कम-से-कम घर में ही हैं प्रतिदिन इन पर प्रायः मलयागिरि चंदन ही घिसा जाता है। रक्तचंदन या देवी चंदन तो नवरात्र में या रविवार को ही इन होरसों पर घिसता है। इसलिए चंदन से लेखक की बड़ी पुरानी जान-पहचान है। पाँच-छह वर्ष के थे, तभी अपने बड़े पितृव्य के पास जाकर चुपचाप बैठ जाते थे और उनका महिम्न स्त्रोत्र पूर्वक चंदन घिसना लेखक देखा करता था।
पूजा समाप्त होने पर गौरी, गणेश, पार्थिव शिव, एकादश रुद्र और श्री दुर्गासप्तशती तथा श्रीमद्भागवत पर चढ़ने से जो चंदन अवशिष्ट रहता था, उसको पितृव्य मेरे भाल पर या ग्रीवा में चर्चित करते और तब अपने भाल पर तिलक लगाते। इसके बाद प्रसाद देते, जिसके लोभ से लेखक इतनी देर तक बैठा रहता था। लेखक सोचता है प्रभुजी चंदन क्यों हैं? हम जिनके प्रति अपने को अर्पित कर रहे हैं, उन्हें अपने जीवन के साथ घिसने में सार्थकता क्या है ? लेखक को कभी-कभी तब यह ध्यान आता है कि काठ के टुकड़े की तरह सामान्य रूप से हमारे अंतस के कोने में पड़ा हुआ चिदंश जब तक हमारे जीवन के साथ सम्पृक्त नहीं होता, वह तब तक निर्गुण, निरामोद और निर्व्यक्त बना रहता है ज्यों ही वह इस पार्थिव शरीर के शिलाखंड पर जीवन के छिड़काव से बार-बार रगड़ खाने लगता है, त्यों ही उसका गुण, उसका आमोद और उसका चैतन्य अभिव्यक्त हो उठते हैं। विश्वात्मा की सुषुप्त शक्ति स्फुरित हो जाती है। अभिनव मलयानिलों से लेखक यह संकेत पाया है कि मनुष्य महान है, वह दूसरे किसी महत्तर के प्रति अपितु क्यों हो। भुजंगों से लिपटा हुआ चंदन का वृक्ष ही स्वत: महान है, वह आस-पास के ककोल, निम्ब और कुटज तक को चंदन बना डालता है। विषयों से परिवृत मानव अपने यश से अपने परिवेश में प्रत्येक युग में सुरभि भरता आया है, उसे अर्पित होने की क्या आवश्यकता है। ये मलयानिल दक्षिण से नहीं पश्चिम से आए हैं।
लेखक को जय देव के प्रसिद्ध विरह गीत की कड़ियाँ बरबस याद आ जाती हैं- निंदति चंदनमिंदुकिरणमनुविंदति खेदमधीरम्व्यालनिलयमिलनेनगरलमिव कलयति मलयसमीरम् सा विरहे तव दीनामाधव मनसिजविशिखभयादिव भावनया त्वयि लीना।
अर्थात् माधव के विरह में राधा अंग में आलिप्त चंदन को अधिक्षिप्त करती हैं और चंद्रमा की शीतल किरणों से दुःख पाती हैं। सर्पों के वास से सम्पर्क होने के कारण मलय-समीर को विषतुल्य अनुभव करने लगती हैं, क्योंकि ये माधव के विरह में दीन हैं और पुष्पधंवा के बाणों से भयभीत होकर भावना के द्वारा माधव में ही लीन होने का उपाय रच रही हैं। शायद कुछ लोग 'प्रभुजी हम चंदन, तुम पानी' कहकर मानव की क्षुद्रता और दुर्बलता को गौरव देना चाहें और कहें कि जरा-सा उलट दिया, बात तो वही है, चाहे खरबूज गिरे छुरी पर या छुरी गिरे खरबूजे पर, खरबूजे का कटना अवश्यम्भावी है, चाहे प्रभुजी चंदन हों और हम पानी हों चाहे हम चंदन हों, प्रभुजी पानी हों, घिसना तो अवश्यम्भावी है, तो उनका तर्क तो बहुत ठीक है; परंतु चंदन तब तक नहीं घिसेगा। जब तक जरा-सा हमारा पानी नहीं लगेगा है। जरा-सा हमारा पानी लगने पर प्रभु का चंदन पसीज जाता है; और हमार छोटा-सा चंदन प्रभु के अपार कृपा सिंधु में होरसा समेत बह निकलेगा, फिर चंदन घिसने की बात भी समाप्त हो जाएगी। इस सम्भावना को वे लोग एकदम भूल जाते हैं वस्तुतः छोटाई -बड़ाई की यह सापेक्षता किसी बाहरी वस्तु की तुलना में नहीं की गई है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं अपने में ही छोटाई -बड़ाई दोनों से समवेत है और दोनों की सापेक्षता अपने में ही वह अल्प-मात्र आयास से अनुभव कर सकता है।
मेरे बड़े दादा मिट्टी सानकर पार्थिव शिव की सुंदर आकृति बनाते, उनके आस-पास मिट्टी का ही गौरी गणेश रचते और चारों ओर ग्यारह रुद्रों की पंक्ति मिट्टी की ही खड़ी करते, तदनंतर इनके ऊपर रुद्राभिषेक के मंत्रों से जलाभिसिंचन करते और इन पर चंदन चढ़ातें। चंदन - चर्चित हो जाने पर ही उन्हें वे अन्य गंध-मलय, धूप-दीप और नैवेद्यादि का अधिकारी मानते। इसलिए पहले चंदन को, जो प्रभु का ही जड़ीभूत रूप है, जीवन के संस्पर्श से शरीर को शिला की तरह दृढ़ आधार बनाकर घिसो; तब तक घिसो, जब तक नख न घिस जाएँ। "चंदन घिसत-घिसत घिस गन्यो नख मेरो, वासना न पूरत माँग को सँवार।" तुम्हारे चंदन का अर्चनीय तुम्हें तुम्हारे अनजाने में चंदन से तिलक कर जाएगा, “तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुवीर।” हाँ, केवल रक्तचंदन उतारने वाला पुजारी निष्काम भाव से चंदन नहीं घिसता । वह तो शक्ति का पुजारी होता है।
मलयज में प्रभु की कृपा अधिक घिसती है और अपना जीवनयापन अल्पमात्र लगता है। रक्तचंदन उतरने में देवी की प्रेरणा कम, अपने जीवन का रस अधिक लगता है। लेखक तुलसीदास एवं कालिदास की तुलना करते हुए कहते हैं काव्य में एक पथ के पांथ हैं, तुलसीदास और दूसरे के कालिदास। तुलसी शील की छाह में हँहाते चलते हैं, और कालिदास बिजलियों की कौंध से आँखें मिलाते चलते हैं तुलसी में मलयज की तरह ताप-निवारण की क्षमता है, कालिदास में लोहित चंदन की तरह उन्मादन राग-विवर्धन की शक्ति है। एक तीसरा भी पंथ है, केशर या हल्दी के रंग में मलयज को संसक्त करके तिलक देने वालों का। रागात्मिका भक्ति के द्वारा दक्षिण एवं वाम पंथ के बीच सहज समाधान प्राप्त करने वालों के तिलक में बंकिमा और सादगी दोनों होती है। सूरदास, हितहरिवंश, व्यास आदि इसी पंथ के प्रणेता हैं। और एक चौथा चंदन भी है, जिसको वैष्णव जन गोपी-चंदन कहते हैं।
यह गोपी-चंदन बहुत ही उच्चतर भूमिका वाले सिद्ध भक्तों के लिए ही है। लेखक का मानना है तत्त्वत: हम ही चंदन हैं, हर्मी पानी हैं। हर्मी होरसा हैं, हमी कटोरी हैं, जिसमें चंदन रखा जाता है। हम ही अर्चनीय देवता हैं और हम ही अर्चक भक्त हैं पर यह विस्तार बोध भी तभी जगता है, जब हम प्रभु को चंदन और अपने को पानी मानकर चलते हैं। उदात्त रूपों का आकार सामने रखकर उनसे उनका सार ग्रहण करते हुए जीवन में उतारना है, यह ध्येय सामने रखकर चलते हैं और जो भी उदात्त गुण अर्जित करते हैं, उनको विश्वहित में विनियोजित करने का संकल्प लेकर चलते हैं। यही लेखक के चंदन-चर्चा की परमार्थिक परिभाषा है क्योंकि हमारे अक्षर अज्ञान के भीतर वह रागिनी अभी जागती है, जिसके किवाड़ चंदन के बनते हैं, जिसकी चौकी चंदन से गढ़ी जाती है, जिसके द्वार पर चंदन का बिरवा रोपा जाता है, जिसके गलहार भी चंदन के ही बनते हैं और जिस पर चंदन लिप्त हथेलियों की छाप पड़े बिना मंगल विधि नहीं पूरी होती ।
वह रागिनी ही जनता-जनार्दन की चंदन- खण्डिका है, जो एक कठोर विचार पीठिका पर बराबर ग्राम देवता की विलीयमान आनंदाश्रु बिंदुओं से परिषिक्त होकर घिसी जा रही है, घिसते घिसते वह अब सूत मात्र रह गई है। उसकी सुरभि बिखर रही है; पर देवता नहीं उठ रहा है। कारण मैं नहीं जानता केवल इतना जानता हूँ कि निर्ममता से इस चंदन के छोटी-सी टुकड़ी को न घिसो। इसे सँभालकर घिसो। देवता को जगाओ, जिसके उद्बोधन से प्रत्येक काष्ठ चंदन बन लहक उठे। जिन भुजंगों के विष के भय से पेड़ के पेड़ सूख-से गए, उनको भुजदंड बजाने वाले हिमवासी शंकर का इस तप्त मिट्टी के पिंड में आवाह्न करो। वे चंदन स्वीकारें, जिससे जन-चेतना और उमंगित होकर फैले, चंदन की महक प्रत्येक दिशा में फैले और चंदन का छिड़काव प्रत्येक पथ पर हो जाय। तभी हमारा बचा खुचा पानी सार्थक होगा और तभी चंदन की प्रचुरता हमें इतना उदार बनने की प्रेरणा देगी कि चंदन की कुटी छवाकर निंदक को भी अपने निकट रख सकें। तभी चंदन-चर्चित संस्कृति का मंगलास्पद रूप अपना नवोत्कर्ष पा सकेगा।
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