भामह का अलंकारवाद भामह, संस्कृत काव्यशास्त्र के एक महान आचार्य थे, जिन्होंने अलंकारवाद को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उनके ग्रंथ 'काव्यालंकार' ने अलंकारो
भामह का अलंकारवाद
भामह, संस्कृत काव्यशास्त्र के एक महान आचार्य थे, जिन्होंने अलंकारवाद को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। उनके ग्रंथ 'काव्यालंकार' ने अलंकारों के सिद्धांत को व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत किया और इस प्रकार वे अलंकारशास्त्र के प्रवर्तक माने जाते हैं।भामह का मानना था कि काव्य का सारा सौंदर्य अलंकारों पर ही निर्भर करता है। उन्होंने अलंकारों को काव्य का प्राण कहा है। जैसे एक सुंदर स्त्री के मुख पर आभूषण उसकी शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार अलंकार काव्य को सुंदर बनाते हैं। उनके अनुसार, अलंकारों के बिना काव्य नीरस और बेजान हो जाता है।
आचार्य भामह ने नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित विषयों का प्रतिपादन न करके काव्यशास्त्र विषयक विषयों का ही प्रतिपादन किया है। इनकी प्रसिद्ध रचना काव्यालंकार है। भामह के अनुसार काव्य आदि में 'रस' उतनी प्रमुख वस्तु नहीं है, जितने अन्य काव्य लक्षण हैं। भामह के अनुसार शब्द और अर्थ का सहित (एक ही प्रकार का होना काव्य है। इसमें आनन्द प्रदान करने वाला तत्त्व 'वक्रोक्ति' है। इस प्रकार काव्य का मूल तत्त्व अलंकार है और 'किसी विलक्षण भाव को विलक्षण रूप से प्रकट करना ही अलंकार है।'
कवि भामह ने काव्य से प्राप्त होने वाले आनन्द की विशद् व्याख्या नहीं की है। उनके जो संक्षिप्त उल्लेख हमें प्राप्त होते हैं उनके अनुसार काव्य से होने वाला अनुभव आनन्द प्रदान करने वाला होता है। भामह ने इसका सम्बन्ध कवि से माना है, जबकि अभिनवगुप्त आदि ने श्रोता अथवा पाठक से माना है भामह के अनुसार काव्य से प्राप्त होने वाला आनन्द काव्य के संगीत आदि से प्राप्त इन्द्रियबोध द्वारा उत्पन्न आनन्द है । यह किसी स्थायीभाव का उत्कृष्ट स्थिति में अनुभव न होकर काव्य रचना में वर्णित वस्तु का मानस-साक्षात्कार है। यह भाव-स्वरूप न होकर विषय-स्वरूप है।
आचार्य भामह के मतानुसार काव्य के तीन गुण हैं— माधुर्य, ओज और प्रसाद । प्रसाद गुण के कारण काव्य रचना का अर्थ बालक से लेकर वृद्ध तक सबकी समझ में सरलता से आ जाता है। इस सरलता के साथ-साथ भाषा में ध्वनियों आदि की मधुरता का संयोग होने से मन को जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वह माधुर्य गुण है। जब भाषा में समास-युक्त पदों का प्रयोग हो तो ओज गुण होता है।
किन्तु ये गुण काव्य-रचना के लिये मुख्यतया आवश्यक नहीं है। काव्य का प्रमुख गुण वक्रोक्ति है। यदि काव्य में वक्रोक्ति न हो और तीनों गुण हों तब भी वह काव्य की श्रेणी तक न पहुँचकर साधारण केवल गीत रह जाता है। अतः काव्य के हेतु 'रस' भी उतना आवश्यक नहीं है, जितनी वक्रोक्ति (अलंकार)। भामह मतानुसार केवल "महाकाव्य" में ही रस स्वतन्त्र रूप में चित्रित होता है।
प्रस्तुत विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि भामह अलंकारवादी आचार्य थे। अलंकार का अर्थ है भाषा की सजावट, पर अलंकार केवल बाह्य सजावट न होकर अभिव्यंजना से आन्तरिक सम्बन्ध रखते हैं। भावों की अभिव्यंजना का विशेष प्रकार ही अलंकार है। यदि कोई बात साधारण रीति से भली-भाँति व्यक्त नहीं हो पाती तो हम किसी प्रसिद्ध या प्रचलित वस्तु का आश्रय लेते हैं जैसे किसी वस्तु की बहुत अधिक मिठास के लिये हम गुड़ जैसी मीठी शब्दावली का प्रयोग करते हैं। कभी-कभी हम कही जाने वाली बात को कर्णप्रिय बनाने के लिये ध्वनियों का प्रयोग इस प्रकार करते हैं जिससे कि हमारी परिष्कृत रुचि का संकेत प्राप्त होता है। जब ये वृत्तियाँ अभिव्यंजना की आन्तरिक पद्धति बन जाती हैं तो अर्थालंकारों का जन्म होता है और जब केवल भाषा के बाह्य सौन्दर्य को प्रकट करती हैं तो शब्दालंकार कहलाती हैं। इस प्रकार अलंकारों के दो भेद हैं-शब्दालंकार तथा अर्थालंकार । काव्यगत सौन्दर्य के ये ही प्रतिमान हैं। बाह्य अलंकारों की प्रधानता चमत्कार को जन्म देती हैं।
अलंकारों के निम्न छः भेद हैं-
1. साधर्म्य मूलक, 2. अतिशय मूलक, 3. संगति मूलक, 4. नाद संगति मूलक, 5. विरोध मूलक तथा 6. गोपन मूलक । इन्हें भी वर्गीकृत करके तीन वर्ग बनाये गये हैं-साम्य, विरोध तथा सान्निध्य । ध्वनि, रूप एवं गुण अथवा क्रिया के आधार पर जिन अलंकारों का विधान किया जाता है वे साम्य मूलक अलंकार हैं। परस्पर विरोधी पदार्थ देखने पर जो प्रभाव होता है उसके हेतु विरोध मूलक अलंकारों की योजना की जाती है। जो वस्तु एक के पश्चात् दूसरी अनिवार्य क्रम में आती है उसके कारण एक को देखने पर दूसरी का सम्बन्ध हम स्वयं स्थापित कर लेते हैं; इससे सान्निध्य मूलक अलंकारों की रचना हुई हैं।
इस प्रकार भामह का अलंकारवाद भारतीय काव्यशास्त्र का एक महत्वपूर्ण अंग है। उनके विचारों ने काव्य सौंदर्य को समझने में हमारी मदद की है। भामह के योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा।भामह का अलंकारवाद भारतीय काव्यशास्त्र का एक मूलभूत सिद्धांत है। उन्होंने अलंकारों को काव्य सौंदर्य का आधार मानकर काव्यशास्त्र में एक नया अध्याय जोड़ा। भामह के विचारों ने काव्य को समझने और सराहने के हमारे तरीके को बदल दिया।
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