भारत में प्रेस मीडिया की स्वतंत्रता प्रेस की स्वतंत्रता आज एक सार्वभौमिक मुद्दा बन गया है। स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक जनमत हमेशा प्रेस की स्वतंत्रता को
भारत में प्रेस मीडिया की स्वतंत्रता
प्रेस की स्वतंत्रता आज एक सार्वभौमिक मुद्दा बन गया है। स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक जनमत हमेशा प्रेस की स्वतंत्रता को मनुष्य की स्वतंत्रता का एक महत्त्वपूर्ण अंग मानता रहा है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्तावों तथा मानवाधिकार घोषणा-पत्र में भी इसका उल्लेख किया गया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रस्ताव के अनुसार- 'संवाद-स्वतंत्रता मनुष्य का एक मौलिक अधिकार है और यह उन तमाम स्वतंत्रताओं की कसौटी है, जिनके लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ कृत-संकल्प है। संवाद-स्वतंत्रता के अधीन विना रोकटोक के सर्वत्र खबरें एकत्र करने और उन्हें प्रकाशित करने का अधिकार समझना चाहिए।' मानवाधिकार घोषणा-पत्र की धारा 19 में लिखा है कि- 'प्रत्येक व्यक्ति को विना किसी हस्तक्षेप के अपने विचार रखने का अधिकार है। प्रत्येक व्यक्ति को अभिव्यक्ति का अधिकार मिलना चाहिए। इस अधिकार में लिखित या व्यक्ति के पसंद की किसी और विधा में मुद्रित समाचार या विचार का आदान-प्रदान भी शामिल है।' अमेरिका के प्रेस आयोग का मानना है कि- 'प्रेस की स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए आवश्यक है। जिस समाज में मनुष्य को अपने विचारों को एक दूसरे तक पहुँचाने की स्वतंत्रता नहीं है, वहाँ अन्य स्वतंत्रताएँ भी सुरक्षित नहीं रह सकतीं।'
प्रेस कानून
भारत एक लोक-कल्याणकारी राज्य है, क्योंकि इसमें भारतीय नागरिकों को ही नहीं अपितु विदेशियों को भी, जो भारत में रह रहे है, विभिन्न प्रकार के मौलिक अधिकार व उपचार दिये गये हैं। ये अधिकार व उपचार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 32 में वर्णित है। इनमें सबसे प्रमुख अधिकार हमारी वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के द्वारा भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। इस स्वतंन्त्रता को कोई भी, किसी भी माध्यम द्वारा व्यक्त कर सकता है; पर जहाँ तक प्रेस की स्वतन्त्रता का सवाल है, यह अधिकार संविधान में प्रत्यक्ष रूप से न देकर अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया है। प्रेस विचार प्रकट करने का एक बहुत बड़ा शक्तिशाली माध्यम है, पर प्रेस इस स्वतन्त्रता का अनुचित लाभ उठाकर गैर-जिम्मेदार व स्वच्छन्द न बन जाय, इस कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से प्रतिबन्ध लगाये गये जो इस प्रकार हैं-
- भारत की सार्वभौमिकता तथा अखण्डता,
- राज्य की सुरक्षा
- विदेशी राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के हित में,
- सार्वजनिक व्यवस्था
- शिष्टाचार व सदाचार के हित में
- न्यायालय अवमानना
- मानहानि एवं
- अपराध-उद्दीपन के मामले में।
राज्य की सुरक्षा तथा भारत की सम्प्रभुता एवं अखण्डता सर्वोपरि है और प्रेस इस सुरक्षा, अखण्डता तथा विदेशी राज्यों से मित्रता बनाये रखने में तो सहायक ही है, साथ ही सार्वजनिक व्यवस्था अर्थात् देश में साम्प्रदायिक दंगों, हिंसात्मक कार्यों और अन्य उपद्रवों को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः पत्रकारों का उत्तरदायित्व है कि वे निष्ठावान् और न्यायनिष्ठ, निष्पक्ष और विवेकशील होकर नीर-क्षीर-अन्वेषी की तरह हमेशा रिपोर्टिंग करते समय इस बात का ध्यान रखे कि वे कोई भी अपुष्ट, अप्रामाणिक तथा सुनी-सुनायी बातों पर आधारित समाचार न भेजें। साथ ही कोई भी ऐसे भाषण, अभिव्यक्तियाँ जो कि हिंसात्मक अपराध को उकसाती हों या प्रोत्साहित करती हों, न छापें; अन्यथा उन्हें जुर्माने के साथ-साथ सजा भी दी जा सकती है। नवीन जनसंचार-क्रान्ति के परिप्रेक्ष्य में मुक्त प्रेस की अवधारणा पर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है। 'प्रसार भारती' में दूरदर्शन को विशेष छूट देने का प्रस्ताव किया गया है। इधर इन जनसंचार माध्यमों की स्वायत्तता कुछ बढ़ती दिखायी भी दे रही है। दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भी भारतीय संचार में सोत्साह प्रवेश करती जा रही हैं। ग्लोबल केबल टी. वी. के कारण अब किसी चैनल को पूर्णतः नियंत्रित कर पाना संभव नहीं है, इसलिए खुली पत्रकारिता पर विचार करना ही होगा। तीसरा एक और कारण है। पिछले दिनों यह चर्चा जोरों से उभरी है कि सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया जाये। उनका तर्क यह है कि लोकतंत्र, जनता और प्रशासन के बीच कुछ भी गोपनीय नहीं रहना चाहिए। विचारणीय यह है कि वाक्-स्वातंत्र्य कैसा हो, जन-अधिव्यक्ति कहाँ तक हो, समाचारपत्र सत्य समाचार और तत्सम्बन्धी विचार को किस रूप में प्रकाशित करें, जिससे मुक्त प्रेस की परिकल्पना भलीभूत हो सके और अराजकता भी न बढ़ने पाये। शासन एवं प्रशासन में पारदर्शिता लोक-हित-रक्षा-हेतु आवश्यक है। इसी सोच के तहत पिछले दिनों संसद ने सूचना-अधिकार- विधेयक पारित कर दिया और अब 12 अक्टूबर, 2005 से सूचना प्राप्ति का कानून सारे देश में विधिवत् लागू हो गया है। कुछ संवेदनशील मामलों को छोड़कर हर प्रकार की सूचना प्रत्येक नागरिक प्राप्त कर सकता है।
मुक्त प्रेस या मीडिया की माँग के पीछे मुख्यतः निम्नलिखित कारण हैं -
राज्याश्रय
प्रत्येक समाचारपत्र के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती आती है सत्ता या सरकार बनाम जनता की। लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद अधिकतर सरकारें सामन्ती पद्धति से ग्रस्त हैं। उनमें नौकरशाही व्याप्त है। बहुत कम शासन हैं जिन्हें सच्चे अर्थों में कल्याणकारी राज्य कहा जा सकता है। अखबार मुख्यतः जनता के प्रतिनिधि होते हैं, सत्ता पक्ष के नहीं। इसलिए उन्हें सरकारी पक्षधरता से परहेज़ करना होता है। ऐसा देखा जा रहा है कि जो अखबार प्रतिष्ठान के विरुद्ध लिखता रहता है वह ग्राहकों के बीच ज्यादा लोकप्रिय होता है। सरकारी तंत्र की ओर से अखबारों पर तरह-तरह के दबाव डाले जाते हैं। आज इसके दो रूप हैं- पहला भय, दूसरा प्रलोभन। हमारे नेता और हुक्मरान निर्भीक पत्रकारों को जब झेल नहीं पाते तो या तो हिंसक कार्यवाही पर उतर आते हैं या फिर किसी बहाने उत्कोच देकर उनका मुँह बन्द कर देते हैं। पत्रकार कल्याण के नाम पर चलायी गयी अधिकतर योजनाएँ हानिकारक हैं। जैसे- पत्रकार कालोनी, रेल बस यात्रा का मुक्त पास, विशेष चिकित्सा, संचार आदि की सुविधाएँ। इनके द्वारा पत्रकारों का तुष्टीकरण किया जाता है जिससे प्रेस की प्रखरता, मुक्तता किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित होती है। स्वायत्तता के लिए जरूरी है कि अखबार स्वावलम्बी हो अर्थात् उसका लागत मूल्य और लाभांश विज्ञापन से नहीं, बल्कि शुल्क से प्राप्त हो जाये। मुक्त प्रेस की वही आदर्श स्थिति होगी।
पत्रोद्योगों की गतिविधि
हमारे देश के प्रमुख दैनिक समाचारपत्र व्यापारिक धरानों से सम्बन्धित हैं। उनके लिए पत्रकारिता न व्यसन है, न मिशन। वह मात्र व्यवसाय है। दूसरे वह सरकार पर अपना दबाव बनाये रखने अथवा अपनी रक्षा करने का एक औज़ार भी है। इन घरानों से प्रकाशित अखबार अपनी बिक्री बढ़ाने के लिए भाँति-भाँति के हथकण्डे अपनाते हैं। वे जनरुचि का मात्र एकपक्षीय पोषण करते चलते हैं, बल्कि कुरुचियों को बढ़ावा देते हैं। शायद इसी लिए अधिकाधिक उत्तेजक, अश्लील, पीत साहित्य प्रकाशित करते रहते हैं। खोजी या अपराध पत्रकारिता इन्हीं की देन है।
विज्ञापन वृत्ति
अखबारों का राजस्व आज मुख्यतः विज्ञापन पर आधारित है। सरकारी और व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों में विज्ञापन वितरण की कालाबाजारी हो रही है। जिस पत्रकार को डराना होता है, सरकारी जन-सम्पर्क निदेशालय उसके विज्ञापन काट देता है। दूसरी और जिसे कूटनीतिक जाल में फँसाना होता है, उसके विज्ञापन बढ़ा देता है। इन विज्ञापनों से यौन अपराध और हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। पाठकों का जायका बिगड़ रहा है। मुक्त प्रेस के लिए ज़रूरी है कि वह विज्ञापन-वृत्ति से भरसक बचे।
अतिनियमन
इन दिनों अनेक देशों में सरकारी गोपनीयता, मानहानि, न्यायालय अवमानना, विशेषाधिकार हनन आदि के नाम पर कई कठोर नियम लागू हैं। इनसे मुक्त प्रेस सदैव बाधित होता रहता है। आवश्यकता यह है कि इनको कुछ शिथिल किया जाये : जैसे- समाचार का स्रोत न बताना अच्छा नियम नहीं है। स्रोत को घोषित कर देने से समाचार में प्रामाणिकता आ जाती है। इससे पत्रकार की निष्पक्षता सिद्ध होती है और उसकी जवाबदेही बढ़ जाती है। इसी प्रकार न्यायालय अवमानना के प्रतिषेध को शिथिल करना अपेक्षित है, ताकि प्रेस को पूरी तरह मुक्त किया जा सके।
सेवा की नयी शर्तें
भारत में पत्रकारों के लिए समय-समय पर कुछ एवार्ड घोषित तो किये गये, किन्तु अभी तक सबको यथोचित वेतनमान नहीं मिल पाया। बड़े प्रेसों में किसी एक विशिष्ट सम्पादक को शो-पीस बनाकर और भारी वेतन देकर प्रतिष्ठा-प्रतीक के रूप में स्थापित कर दिया जाता है। शेष संवाद सूत्रों को कलम-जीवी स्ट्रिंगर बनाकर छोड़ दिया जाता है। उन्हें एक परिचय-पत्र देकर मारो-खाओ के लिए प्रेरित किया जाता है। स्थायीकरण और सेवा-निवृत्तिक लाभ प्रायः नहीं मिलते हैं। ऐसी स्थिति में बौद्धिक आखेट या कलम की | माफ़िया-गीरी करना इन अल्पवेतन भोगी पत्रकारों की नियति हो गयी है। चूंकि अधिकतर कर्मचारी इसी श्रेणी के होते हैं, इस लिए किसी भी प्रेस का अब मुक्त रह जाना सम्भव नहीं हैं।वर्णनात्मक अथवा छिद्रान्वेषी पत्रकारिता ही कहना अधिक उपयुक्त है।
संवेदनशून्यता
पिछले दो दशको में जो पत्रकारिता उभरी है उसे निषेध-मूलक या अपराध पत्रकारिता ने यथार्थ के नाम पर नग्नता तथा अमानुषिकता का इतना चित्रण किया है। कि मानव-मन की मंगलाशाएँ मिटने लगी हैं। मुक्त प्रेस के लिए इस मनोवृत्ति पर अंकुश लगाना होगा। हमें जोखिम भरे जासूसी किस्सों के साथ-साथ हर समस्या के विधेयात्मक विकल्प भी सुझाने होंगे। पत्रकार तथ्य भी बताता है और तथ्यों की ओर संकेत भी करता है। दर्पण का कार्य करता है। दर्पण एक ओर सच्चाई को यथावत् दिखा देता है, तो दूसरी ओर अँधेरे को रोशन भी कर देता है।
हड़बड़िया लेखन पर रोक
अखबारी लेखन परिस्थितिवश शीघ्रता में किया जाता है। फिर भी उसे अविचारित नहीं होना चाहिए। आवश्यकता यह है कि हमारे संवाददाता घटनास्थलों पर जायें और हर पक्ष से स्वयं संपर्क करें। टेलीफ़ोन करके घटना का निष्कर्ष जान लेना, किसी पक्ष द्वारा बताये गये विवरण की पुष्टि किये विना लिख देना अथवा लेन-देन के सहारे समाचार की स्टोरी बनाना कदापि क्षम्य नहीं है। यह मनोवृत्ति जब तक रहेगी, मुक्त प्रेस तब तक नहीं दिखेगा।
विशिष्टों का चरित्र हनन
समाचारपत्रों की यह चरित्रहन्ता प्रवृत्ति दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। अधिकतर समाचार राजनीतिज्ञों के दैनिक कार्यकलाप पर ही केन्द्रित हैं। वे कभी उन्हें चरितनायक बनाते हैं, कभी खलनायक; कभी ब्याजनिन्दा करते हैं, कभी ब्याज-स्तुति फूहड़ प्रचार इधर कम हुआ है और कूटनीतिक दाँव-पेंच ज्यादा बढ़ गये हैं, किन्तु इन दोनों अतियों से प्रेस की ही हानि हुई है। आवश्यकता यह है कि संस्था और समूह का कवरेज अधिक हो और व्यक्ति का कम-से-कम ।
शब्द और कर्म में समन्वय
मुक्त प्रेस अर्थात् शुद्ध प्रेस के लिए आवश्यक है कि हम जो कहें उसे स्वयं भी करके दिखायें। पत्रकार मात्र द्रष्टा नहीं है, वह भी सहकर्त्ता है। उसे लोक-शील का ध्यान रखना होगा और जो शुभ है, जितना कहना आवश्यक है, उसे अच्छी नीयत के साथ प्रस्तुत करना होगा। उसका उद्देश्य मूर्ति-भंजन का नहीं, बल्कि प्रतिमा-सृजन का होना चाहिए। अब इसे विकास पत्रकारिता का रूप देना होगा। मुक्त प्रेस के लिए रचनाधर्मी आस्था आवश्यक होती है। इस प्रकार, मुक्त प्रेस के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने वाले इन तत्त्वों को नियंत्रित करने की चुनौती हमारे सामने है। हमें इनके निराकरण के उपाय खोजने होंगे। इस सम्बन्ध में कुछ प्रस्ताव विचारणीय हैं -
- पत्रकार उभयपक्षीय तथ्य अवश्य प्रस्तुत करें और सूचना के स्रोत घोषित करें ।
- चरित्र हनन की प्रवृत्ति समाप्त की जाये तथा विकास पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाय।
- ऐसी जन-अदालतों की स्थापना की जाये, जिनमें कुछ जनप्रतिनिधि समय-समय पर ऐसे संवादों की समीक्षा करें और उनके आधार पर प्रेस-मालिक अपने प्रेस-कर्मियों के साथ न्यायोचित बर्ताव करें।
- समाचार के साथ पत्रकार अपनी टिप्पणी न दें।
- अधिकाधिक कवरेज वे स्वयं करें और छपाई-प्रबंधन की भरसक व्यवस्था करें अर्थात् पत्र किसी प्रकार का मंच न बने, इसका ध्यान रखें।
- अपने पत्र को जनजागरण से अवश्य जोड़ें। जनरुचि के पोषण की जगह जनरुचि का शोधन कहीं ज्यादा उपयोगी होता है।
- शुद्ध प्रेस के लिए आज के पत्रकार को इस संक्रमणशील समाज से सामंजस्य बैठाना होगा, ताकि आधुनिकता और परम्परा दोनों के बीच संतुलन कायम रहे।
- मुक्त प्रेस के लिए अपेक्षित है- मुक्त व्यक्तित्व। उसमें सत्याग्रही शुचिता होनी चाहिए। पत्रकार बुद्धिजीवी वर्ग का व्यक्ति है- सर्वथा विवेकवान् और चरित्रवान् । नैतिक बल के विना मुक्त प्रेस को चरितार्थ नहीं किया जा सकता है। वह सदाचार तथा शिष्टाचार पूर्वक राष्ट्रीय संस्कृति को संरक्षा प्रदान करता है।
- विज्ञापन की निर्भरता समाप्त या न्यूनतम कर दी जाये। अखबार पाठक के सहारे छपें तो पाठकीयता अवश्य बढ़ेगी।
- अखबारों से गोपनीयता के प्रतिबन्ध हटा दिये जायँ। केवल राष्ट्रद्रोही समाचारों पर ही यह प्रतिबन्ध लगाया जाये। इसके लिए एक परामर्श-मण्डल की आवश्यकता होगी। सेंसर का जो अधिकार अभी प्रशासकों के पास है, उसे निरस्त किया जाये।
- मानहानि के मामलों को निपटाने के लिए उसकी प्रक्रिया को सरल बनाया जाये। भारतीय प्रेस परिषद् की शाखाओं का नेटवर्क देश में अवश्य होना चाहिए।
- अपराध पत्रकारिता पर तत्काल रोक लगा दी जाये। इससे विमानवीकरण-वृत्ति को बढ़ावा मिल रहा है।
विचार
पत्रकारिता को प्रश्रय दिया जाये। इसके लिए पाठक मंच बनाने होंगे, जन-सर्वेक्षण करना होगा और राष्ट्रीय मुद्दों पर जनमत-संग्रह करना होगा। पत्रकारों का विशेषज्ञों के साथ समय-समय पर सम्पर्क अवश्य होना चाहिए। आज के अखबार मात्र मध्यवर्ग तक सीमित हैं। आवश्यकता है कि ग्रामीण पत्रकारिता को वरीयता दी जाय और हर वर्ग के प्रतिनिधियों के विचार समय-समय पर प्रकाशित किये जायँ।
इस पत्रकारिता के सर्वांगीण विकास के लिए संचार प्राधिकरण गठित करने की आवश्यकता है जो प्रशिक्षण, नवनियमन, पत्र-संग्रहालय, जन-सम्पर्क आदि की सम्यक् व्यवस्था करे।
वस्तुतः विचारों की स्वतंत्रता प्रत्येक सभ्य समाज की प्राथमिक आवश्यकता है। उसके बना चिंतन कुंठित हो जाता है और तब विमानवीकरण अवश्यम्भावी हो जाता है। किन्तु मुक्ति कभी मर्यादित होना अत्यावश्यक है। उसके विना अराजकता का हावी हो जाना अवश्यम्भावी है । अस्तु, दोनों के मध्य-बिन्दु पर चिन्तन तथा तदनुकूल कार्यान्वन करना आवश्यक है।
COMMENTS