भारतीय साहित्य का स्वरूप एवं उसकी अवधारणा भारतीय साहित्य एक विशाल और समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है, जो हज़ारों वर्षों से विकसित होता आ रहा है
भारतीय साहित्य का स्वरूप एवं उसकी अवधारणा
भारतीय साहित्य एक विशाल और समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है, जो हज़ारों वर्षों से विकसित होता आ रहा है। यह साहित्य न केवल भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक पहचान को दर्शाता है, बल्कि मानवीय अनुभवों, भावनाओं और विचारों को भी गहराई से व्यक्त करता है। भारतीय साहित्य की अवधारणा बहुआयामी है, जिसमें धर्म, दर्शन, कला, इतिहास और समकालीन जीवन के विविध पहलू शामिल हैं। यह साहित्य विभिन्न भाषाओं, बोलियों और साहित्यिक शैलियों में रचा गया है, जो भारत की बहुलता और एकता को प्रदर्शित करता है।
भारतीय साहित्य का आरंभ
भारतीय साहित्य का आरंभ वैदिक साहित्य से माना जाता है, जो लगभग 1500 ईसा पूर्व से प्रारंभ होता है। वेद, उपनिषद, ब्राह्मण ग्रंथ और आरण्यक जैसे ग्रंथों में ज्ञान, दर्शन और आध्यात्मिकता का गहन चिंतन मिलता है। इन ग्रंथों में मानव जीवन के मूल प्रश्नों, जैसे अस्तित्व, मृत्यु, ईश्वर और मोक्ष के बारे में गंभीर विचार किया गया है। वैदिक साहित्य ने भारतीय दर्शन और चिंतन की नींव रखी, जो आगे चलकर उपनिषदों और वेदांत में और विकसित हुआ।भारतीय साहित्य में महाकाव्यों का भी विशेष स्थान है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्य न केवल साहित्यिक कृतियाँ हैं, बल्कि भारतीय जीवन और संस्कृति के आदर्शों को भी प्रस्तुत करते हैं। रामायण में मर्यादा, धर्म और कर्तव्य का संदेश है, तो महाभारत में न्याय, धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष का चित्रण है। इन महाकाव्यों में जीवन के विविध पहलुओं को गहराई से उकेरा गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं।
भारतीय साहित्य में काव्य और नाटक की परंपरा भी अत्यंत समृद्ध है। कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट और भारवि जैसे महान कवियों और नाटककारों ने संस्कृत साहित्य को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया। कालिदास की रचनाएँ, जैसे अभिज्ञानशाकुंतलम्, मेघदूत और रघुवंश, साहित्यिक सौंदर्य और भावनात्मक गहराई का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। नाटकों में शृंगार, वीर, करुण और हास्य रसों का सुंदर समन्वय देखने को मिलता है।मध्यकालीन भारतीय साहित्य में भक्ति आंदोलन का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस काल में कबीर, तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई और जायसी जैसे संतों और कवियों ने भक्ति साहित्य की रचना की। इन रचनाओं में ईश्वर के प्रति प्रेम, भक्ति और समर्पण की भावना प्रमुख है। तुलसीदास की रामचरितमानस और सूरदास के सूरसागर जैसे ग्रंथों ने भारतीय साहित्य को नई दिशा दी और लोकप्रिय बनाया।
भारतीय साहित्य में विविधता
आधुनिक भारतीय साहित्य में भी विविधता और गहराई देखने को मिलती है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र, रवीन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत और निराला जैसे लेखकों और कवियों ने भारतीय साहित्य को नई ऊर्जा और दृष्टि प्रदान की। टैगोर की रचनाएँ, जैसे गीतांजलि, न केवल भारत में बल्कि विश्व साहित्य में भी मान्यता प्राप्त की। प्रेमचंद की कहानियों और उपन्यासों में समाज के सामान्य जन के जीवन और संघर्ष का सजीव चित्रण मिलता है।
भारत देश अनेक भाषा-भाषी देश है। उत्तर-पश्चिम में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू; पूरब में बंगला, उड़िया और असमी ; पश्चिम में गुजराती और मराठी तथा दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ व मलयालम । इसके अलावा कुछ भाषाएं और भी हैं जिनका साहित्यिक और भाषा वैज्ञानिक महत्त्व कम नहीं है, जैसे- कश्मीरी, डोगरी, सिन्धी, कोंकणी, तुरु आदि। इनमें प्रत्येक भाषा का साहित्य प्राचीनता, विविधता और मात्रा की दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध है। विद्वानों ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि आधुनिक भाषाओं के साहित्य का ही संचयन किया जाय तो वह सम्पूर्ण यूरोप के संकलित साहित्य से कम नहीं होगा। "वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रन्शों का समावेश कर लेने पर तो उसका अत्यन्त विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है- ज्ञान का अपार भंडार, हिन्द महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक, हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म । इनमें प्रत्येक साहित्य का अपना स्वतन्त्र और प्रखर वैशिष्ट्य है, जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है।"
पंजाबी, सिंधी, हिन्दी और उर्दू की प्रदेश सीमाएं अत्यन्त मिली हुई हैं लेकिन उनके अपने साहित्य की विशेषता अत्यन्त प्रखर है। गुजराती और मराठी का सामान्य जन-जीवन भी परस्पर घुला-मिला है किन्तु उनके बीच किसी भी प्रकार का भेद संभव नहीं है। दक्षिण की समस्त भाषाएं द्रविड़ परिवार की हैं लेकिन कन्नड़ और मलयालम या तमिल और तेलुगु के स्वरूप के विषय में किसी भी प्रकार की भ्रान्ति नहीं है। यही बात बंगला, उड़िया और असमिया पर भी लागू होती है। असमिया और उड़िया बंगला के गहरे प्रभाव को पचाकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम रखे हुए हैं। इन सभी भाषाओं के साहित्य में अपनी विशेष विभूतियाँ हैं अध्ययन करने पर पता चलता है कि "तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु के द्विअर्थी काव्य और उदाहरण तथा अवधान साहित्य, मलयालम के संदेश काव्य एवं कीर गीत (कलिप्पादु) तथा मणिप्रवालम् शैली, मराठी के पवाड़े, गुजराती के आख्यान और फागु, बंगला का मंगल काव्य, असमियां के वगगीत और बुरंजी साहित्य, पंजाबी के रम्याख्यान तथा वीरगीत, उर्दू की गजल और हिन्दी का रीतिकाव्य तथा छायावाद आदि अपने-अपने भाषा-साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्जवल प्रमाण हैं।"
लेकिन यह अलगाव और अपना अलग वैशिष्ट्य आत्मा का नहीं है। जैसे अनेक धर्मों, विचारधाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति में एक अद्भुत एकता है, उसी प्रकार तमाम भारतीय भाषाओं व अभिव्यञ्जना की विविध पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। भारतीय साहित्य की प्रचुरता और विविधता तो अद्भुत है ही, मौलिक एकता भी कम रमणीय नहीं है।
भारतीय साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषता
भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह सदैव परिवर्तनशील और गतिशील रहा है। यह साहित्य न केवल अतीत की झलक प्रस्तुत करता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के प्रश्नों से भी जूझता है। आज के समय में भी भारतीय साहित्य नए विषयों, शैलियों और भाषाओं में लिखा जा रहा है, जो इसकी सजीवता और प्रासंगिकता को दर्शाता है।भारतीय साहित्य की अवधारणा में विविधता और एकता का अद्भुत संगम है। यह साहित्य न केवल भारत के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, बल्कि विश्व साहित्य में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। भारतीय साहित्य की यह समृद्ध परंपरा आने वाली पीढ़ियों के लिए ज्ञान, प्रेरणा और मार्गदर्शन का स्रोत बनी रहेगी।
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