भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता और उसके आधार तत्व

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भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता उसके आधार तत्वों में निहित है, जो इसे एक सूत्र में बाँधते हैं। यह एकता विविधता के बीच से झलकती है और भारतीय संस्कृति और

भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता और उसके आधार तत्व


भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता उसकी विविधता के बीच से उभरती है, जो इसकी समृद्ध परंपरा और गहन अवधारणाओं पर आधारित है। यह साहित्य हज़ारों वर्षों से विकसित होता आ रहा है और इसकी एकता का आधार भारतीय संस्कृति, दर्शन, धर्म और जीवन मूल्यों में निहित है। भारतीय साहित्य की यह एकता भाषा, काल और क्षेत्र की सीमाओं से परे है, जो इसे एक सूत्र में बाँधती है। इस एकता के मूल में भारतीय चिंतन की वह धारा है, जो सत्य, धर्म, न्याय और मोक्ष जैसे सार्वभौमिक मूल्यों को केंद्र में रखती है।भारतीय साहित्य की एकता के आधार तत्वों को निम्नलिखित रूपों में देख सकते हैं - 
  1. भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का पहला आधार उसकी आध्यात्मिक और दार्शनिक गहराई है। वैदिक साहित्य से लेकर उपनिषदों तक, भारतीय साहित्य ने मानव जीवन के मूल प्रश्नों, जैसे अस्तित्व, मृत्यु, ईश्वर और मोक्ष, पर गहन चिंतन किया है। वेदों में प्रकृति, ईश्वर और मानव के बीच संबंधों की व्याख्या की गई है, तो उपनिषदों में आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म की अवधारणाओं को गहराई से समझाया गया है। यह आध्यात्मिक चिंतन भारतीय साहित्य की नींव है, जो इसे एक सूत्र में बाँधता है।
  2. दूसरा आधार भारतीय साहित्य की नैतिक और धार्मिक मूल्यों पर आधारित अवधारणा है। रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में धर्म, अधर्म, न्याय और कर्तव्य के प्रश्नों को गहराई से उठाया गया है। रामायण में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के चरित्र के माध्यम से धर्म और कर्तव्य का संदेश दिया गया है, तो महाभारत में धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष को दर्शाया गया है। ये महाकाव्य न केवल साहित्यिक कृतियाँ हैं, बल्कि भारतीय जीवन मूल्यों के दर्पण भी हैं।
  3. तीसरा आधार भारतीय साहित्य की लोककल्याण की भावना है। भारतीय साहित्य सदैव समाज के कल्याण और मानवता के उत्थान के लिए प्रतिबद्ध रहा है। भक्ति साहित्य में संत कवियों ने ईश्वर के प्रति प्रेम और भक्ति के माध्यम से समाज में समरसता और एकता का संदेश दिया। कबीर, तुलसीदास, सूरदास और मीराबाई जैसे संत कवियों की रचनाओं में सामाजिक समानता, भक्ति और मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति हुई है। यह साहित्य न केवल धार्मिक है, बल्कि सामाजिक सुधार और लोककल्याण का माध्यम भी है।
  4. चौथा आधार भारतीय साहित्य की बहुलता में एकता की अवधारणा है। भारत एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक देश है, और इसकी साहित्यिक परंपरा भी विविध भाषाओं और बोलियों में विकसित हुई है। संस्कृत, तमिल, हिंदी, बांग्ला, मराठी, गुजराती, तेलुगु और कन्नड़ जैसी भाषाओं में रचा गया साहित्य भारतीय साहित्य की समृद्धि को दर्शाता है। यह विविधता भारतीय साहित्य की एकता को कमजोर नहीं करती, बल्कि इसे और मजबूत बनाती है। सभी भाषाओं और क्षेत्रों का साहित्य भारतीय संस्कृति और मूल्यों को प्रतिबिंबित करता है, जो इसकी एकता का प्रमाण है।
  5. पाँचवा आधार भारतीय साहित्य की सतत विकासशील प्रकृति है। भारतीय साहित्य सदैव परिवर्तनशील और गतिशील रहा है। यह साहित्य न केवल अतीत की झलक प्रस्तुत करता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के प्रश्नों से भी जूझता है। आधुनिक भारतीय साहित्य में भी समकालीन समस्याओं, जैसे सामाजिक असमानता, राजनीतिक संघर्ष और मानवीय मूल्यों के प्रश्नों को उठाया गया है। प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, महादेवी वर्मा और निराला जैसे लेखकों ने भारतीय साहित्य को नई दिशा और ऊर्जा प्रदान की है।
  6. भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अंतिम आधार उसकी सार्वभौमिकता है। भारतीय साहित्य न केवल भारत के लोगों के लिए है, बल्कि यह सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रेरणा और ज्ञान का स्रोत है। यह साहित्य मानवीय अनुभवों, भावनाओं और विचारों को व्यक्त करता है, जो सभी काल और सभी स्थानों के लिए प्रासंगिक हैं। भारतीय साहित्य की यह सार्वभौमिकता इसे विश्व साहित्य में एक विशिष्ट स्थान प्रदान करती है।

भारतीय भाषाओं का उद्भव

भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता और उसके आधार तत्व
दक्षिण भारत में तमिल और उर्दू के अतिरिक्त भारत की लगभग सभी भाषाओं का जन्मकाल एक है। तेलुगु भाषा के प्राचीनतम् कवि नन्नय हैं जो ग्यारहवीं शती के बताए जाते हैं। कन्नड़ का जो प्रथम ग्रन्थ उपलब्ध होता है, वह राष्ट्रकूट वंश के राजा नृपतुंग (814-877ई०) का 'कविराजमार्ग' है। मलयालम की सर्वप्रथम कृति 'रामचरितम्' है, जिसे तेरहवीं शती का कहा जाता है। मराठी तथा गुजराती का उद्भव काल कमोवेश एक ही है। मराठी के आरम्भिक साहित्य का आविर्भाव बारहवीं शताब्दी में हुआ तो गुजराती का प्राचीनतम् उपलब्ध ग्रन्थ भारतेश्वर का 'बाहु-बलिरास' 1185 ई० में रचा गया है। यही बात पूरब की भाषाओं पर भी लागू होती है । बंगला के चर्यागीतों को पंडित हर प्रसाद शास्त्री आठवीं से 13वीं शती के बीच लिखा बताते हैं। असमियां साहित्य के प्राचीनतम् उदाहरण तेरहवीं शताब्दी के अंतिम समय के हैं जिनमें हेम सरस्वती रचित 'प्रहलादचरित' और 'हरगौरी संवाद' सर्वश्रेष्ठ हैं। तेरहवीं शताब्दी में उड़िया में भी व्यंग्यात्मक काव्य व लोकगीतों के दर्शन होने लगते हैं। इसी तर्ज पर पंजाबी और हिन्दी में भी ग्यारहवीं शताब्दी से व्यवस्थित साहित्य-रचना होने लगती है। मात्र तमिल और उर्दू ही ऐसी भाषाएं हैं जिनका जन्मकाल भिन्न है। तमिल संस्कृत की तरह प्राचीन भाषा है, यद्यपि कुछ विद्वान इसे संस्कृत से भी प्राचीन मानते हैं और उर्दू का उद्भव पन्द्रहवीं शताब्दी से पूर्व नहीं स्वीकार किया जा सकता। जबकि कुछ विद्वान इसे खींचकर तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के बाबा फरीद, अब्दुल हमीद नागोरी तथा अमीर खुसरो तक ले जाते हैं।
 
उद्भव के अतिरिक्त आधुनिक भाषाओं के साहित्य के विकास के विभिन्न चरण भी एक जैसे हैं। प्रायः सभी भाषाओं के इतिहास का प्रारम्भिक काल भी पन्द्रहवीं शताब्दी तक है। मुगल वैभव के अन्त अर्थात सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक पूर्व मध्यकाल समाप्त हो जाता है। उत्तर मध्यकाल का समापन अंग्रेजी सत्ता के आरंभ के साथ होता है। यहीं से आधुनिक काल का आरम्भ भी हो जाता है। अधिकांश भारतीय भाषाओं के साहित्य चार चरणों में विभाजित हैं और सबका विकासक्रम भी एक जैसा ही है।

साहित्यिक विकास का क्रम

भारत के राजनैतिक, सांस्कृतिक विकासक्रम के समानान्तर साहित्यिक विकास का क्रम भी है। बीच-बीच में तमाम व्यवधानों के बावजूद भी इस देश में समान राजनीतिक व्यवस्था रही है। मुगलों के शासनकाल के डेढ़ सौ वर्षों में तो उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम में घनिष्ठ सम्बन्ध कायम रहा। मुगल सत्ता के खंडित हो जाने पर भी यह सम्पर्क टूटा नहीं। मुगलों के पूर्व राज्य-प्रसार के प्रयास न होते रहे हों, ऐसा नहीं है। राजपूतों का कोई एकछत्र सम्राट तो नहीं हुआ किन्तु उनके वंशज देश के कई भागों में शासन करते रहे। भिन्न शासन के बावजूद उनकी सामन्ती-व्यवस्था प्रायः एक जैसी थी। मुसलमानों की शासन-प्रणाली में भी मूलभूत समानता ही थी। अंग्रेजों ने केन्द्रीय शासन-प्रणाली कायम कर इस एकता को और मजबूतबना दिया। इनके परिणमस्वरूप पूरे देश की राजनीतिक स्थितियों - परिस्थितियों में काफी समानता रही है।
 

सांस्कृतिक एकता

सांस्कृतिक परिस्थितियों के परिपेक्ष्य में यह समानता और भी अधिक स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। बीती सहस्राब्दी में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक आन्दोलन चले जिनका प्रभाव देशव्यापी था। जब बौद्ध धर्म का हास हुआ तो उसकी कई शाखाएं हो गयीं। बौद्ध धर्म की शाखाओं और शैव-शाक्त धर्मों के संयोग से नाथ सम्प्रदाय की उत्पत्ति हो गयी जो ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में उत्तर में तिब्बत तक, दक्षिण में पूर्वी घाट के प्रदेशों तक, पश्चिम में महाराष्ट्र और पूरब में प्रायः सर्वत्र अपना क्षेत्र विकसित किये हुए था। इसमें यद्यपि योग की प्रधानता थी फिर भी नाथों-सिद्धों व शैवों की साधना में जीवन के विचार और भाव पक्ष के प्रति उदासीनता नहीं थी। इनमें से बहुतों ने सिद्धान्त-प्रतिपादन और आत्माभिव्यक्ति के लिए कविकर्म को साधन बनाया। भारतीय भाषाओं के विकास का जो प्रथम चरण है; उसमें इन नाथों, सिद्धों व शैवों का प्रभाव पूरी तरह है। इसके पश्चात संत-सम्प्रदाय और नवागत सूफी सम्प्रदाय के विचारों का भी प्रचार-प्रसार देश के विभिन्न भागों में हुआ। सन्त, वेदान्त दर्शन से प्रभावित थे तथा निर्गुण, भक्ति की साधना करते थे, उसका प्रचार भी। यद्यपि सूफी भक्त भी निर्गुण ब्रह्म की ही उपासना करते थे, किन्तु उनका माध्यम उत्कट प्रेमानुभूति था। सूफी सन्तों का देश के उत्तर-पश्चिम से लेकर दक्षिण के बीजापुर और गोलकुंडा के राज्यों में भी बहुत प्रभाव था। इसके पश्चात् वैष्णव आन्दोलन का सूत्रपात हुआ जो बड़ी तीव्र गति से पूरे देश में व्याप्त हो गया। राम और कृष्ण-भक्ति की अनेक पद्धतियों का देश भर में प्रसार हो गया। इसके दूसरी ओर मुस्लिम-संस्कृति व सभ्यता का प्रसार भी कमतर होने की बजाय बढ़ रहा था। ईरानी संस्कृति के वैभव-विलास, अलंकरण-सज्जा, जैसे आकर्षक तत्त्व भारतीय जीवन में बड़ी तेजी से अपना स्थान बना रहे थे। इसका परिणाम यह हो रहा था कि एक नयी दरबारी और नागर संस्कृति का आविर्भाव हो रहा था। लेकिन शीघ्र ही यह संस्कृति आर्थिक पराभव के कारण अपना प्रभाव खो बैठी तथा उसमें रुग्ण विलासिता ही शेष रह गयी। इसी समय पश्चिमी व्यापारियों का आगमन हुआ जो अपने साथ बाजार, पाश्चात्य शिक्षा-संस्कार और मसीही धर्म लेकर आये। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभुत्व पूरे देश पर स्थापित हो गया और वे सक्रिय रूप से योजना बनाकर अपनी शिक्षा, संस्कृति व धर्म का प्रचार करने लगे। प्राच्य व पाश्चात्य के इस सम्पर्क और संघर्ष से ही उस देश व काल का जन्म हुआ जिसे हम 'आधुनिक भारत' कहते हैं।
 

साहित्यिक एकता

अब साहित्यिक आधार-तत्त्व को लें। भारतीय भाषाओं का परिवार मूलतः एक नहीं है फिर भी उनका साहित्यिक स्रोत एक समान ही है। पुराण, महाकाव्य, भागवत, संस्कृत का अभिजात्य साहित्य, अर्थात् कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, श्रीहर्ष, भास और जयदेव आदि की कृतियाँ, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में रचित बौद्ध, जैन तथा अन्य धार्मिक साहित्य भारत की समस्त भाषाओं के साहित्य को उत्तराधिकार के रूप में मिला। उषनिषद, षड्दर्शन, स्मृतियां आदि शास्त्र ग्रन्थ एवं नाट्यशास्त्र, ध्वन्यालीक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, रसगंगाधर जैसे काव्यशास्त्र के अमर गन्थों का उपयोग सभी भाषाओं के साहित्य ने किया है। ये आधुनिक भाषाओं के अक्षय प्रेरणास्रोत हैं। इनके समन्वयकारी प्रभाव से प्रेरित साहित्य में एक प्रकार की मूलभूत समानता अपने-आप आ गयी है। अतः कह सकते हैं कि समान राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक आधारभूमि पर पुष्पित-पल्लवित भारतीय साहित्य में समानता जन्मजात और सहज घटना है। 

भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यह सदैव परिवर्तनशील और गतिशील रहा है। यह साहित्य न केवल अतीत की झलक प्रस्तुत करता है, बल्कि वर्तमान और भविष्य के प्रश्नों से भी जूझता है। आधुनिक भारतीय साहित्य में भी यह एकता देखी जा सकती है, जहाँ नए विषयों और शैलियों के बावजूद, भारतीय संस्कृति और मूल्यों की झलक मिलती है।इस प्रकार, भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता उसके आधार तत्वों में निहित है, जो इसे एक सूत्र में बाँधते हैं। यह एकता विविधता के बीच से झलकती है और भारतीय संस्कृति और दर्शन की समृद्ध परंपरा को प्रदर्शित करती है। भारतीय साहित्य की यह एकता न केवल भारत के लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है, बल्कि विश्व साहित्य में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है।

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