धान उत्पादन की पारम्परिक पद्धति, वर्तमान परिपेक्ष, जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण से प्रतिस्पर्धा के कारण पानी की बढ़ती मांग की पूर्ति हेतु टिकाऊ एवं आर्थ
धान की सीधी बुवाई धान उत्पादन की टिकाऊ एवं आर्थिक रूप से लाभकारी पद्धति
धान विश्व की सबसे महत्वपूर्ण खाधान फसलों में से एक है, एवं धान के उत्पादन में भारत विश्व में दूसरे स्थान के साथ ही विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक भी है। वर्ष २०२३-२४ में १३४ मिलियन मेट्रिक टन धान पैदा हुआ जो की वर्तमान वर्ष २०२४-२५ में रिकॉर्ड 142 मिलियन मीट्रिक टन तक पहुंचने की उम्मीद है। उत्पादन आंकड़ों के मुताबिक, धान उत्पादन में यह अभूतपूर्व वृद्धि यूपी, एमपी, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ राज्यों में धान का रकबा बढ़ने के कारण हुई है, जहां किसानों ने पिछले साल की तुलना में धान की अधिक रोपाई की है। वर्ष २०२४ में देश में धान का रकबा उच्चतम रिकॉर्ड ४९ मिलियन हेक्टेयर का अनुमान है, जो की गत वर्ष की तुलना में 2% की वृद्धि एवं पिछले पांच सालों के औसत से ६% अधिक है। उत्पादन के अलावा, चावल का बफर स्टॉक 31.06 मिलियन टन है, जो की आवश्यक बफर स्टॉक 10.25 मिलियन टन से कहीं अधिक है।
धान के रकबे एवं उत्पादन के साथसाथ, धान की मांग में भी बढ़ोतरी हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआरआरआई) के अनुमानों के अनुसार आने वाले २५ वर्षों में धान उत्पादन में २५% की वृध्धि की आवश्यकता होगी। धान की इस बढती हुई मांग की पूर्ति को बिना किसी नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव के साथ कृषि की टिकाऊ पद्धतियों को अपनाते हुए, कम श्रम, पानी, ऊर्जा और कृषि-रसायनों के अनुकूलतम उपयोग के साथ इस अतिरिक्त मात्रा का अधिक कुशलता से उत्पादन करना हमारी सबसे महत्वपूर्ण जरूरत है।
पारम्परिक तरीके से की जाने वाली धान की खेती के लिए ४०% सिंचाई जल की खफत हो जाती है, विभिन्न स्रोतों के अनुसार, एक किलोग्राम धान के उतपादन हेतु 5000 लीटर तक पानी की आवश्यकता होती है। धान उत्पादन की पारम्परिक पद्धति, वर्तमान परिपेक्ष, जलवायु परिवर्तन और शहरीकरण से प्रतिस्पर्धा के कारण पानी की बढ़ती मांग की पूर्ति हेतु टिकाऊ एवं आर्थिक रूप से लाभकारी नहीं रही है। श्रम और कृषि योग्य भूमि में कमी जैसे अन्य कारकों के साथ, बढ़ती मांग को पूरा करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए चावल की खेती में नए विचारों और नावोन्वेष की महती आवश्यकता है।
इन चुनौतियों से निपटने के संभावित समाधानों में से एक है, धान की सीधी बोवाई (डिएसआर) पद्धति। इस पद्धति में नर्सरी में पौध उगाने की बजाय, धान के बीज सीधे खेत में बोए जाते हैं। वर्तमान परिदृश्य में धान उत्पादन की यह पद्धति सबसे कुशल, टिकाऊ एवं आर्थिक रूप से व्यवहारिक साबित हो सकती है। हरियाणा के कुरुक्षेत्र जिले के किसानों एवं कृषि विज्ञान केंद्र, कुरुक्षेत्र के कृषि वैज्ञानिकों से हुई गहन चर्चा के आधार पर धान उत्पादन की सीधी बिजाई पद्धति अपेक्षाकृत लाभकारी एवं व्यावहारिक है|
सीधी बिजाई पद्धति के फायदे
- पैदावार में किसी तरह की कोई कमी नहीं
- सिंचाई जल में ३५ से ५० % तक की बचत
- खेती की उत्पादन लागत में भी कमी आती है
- कृषि रसायनों पर निर्भरता लगभग ख़त्म
- मृदा स्वास्थ्य के साथ हमारे स्वास्थ्य के लिए भी लाभाकरी
- रसायनों की मात्र न्यूनतम होने से धान की पराली को जानवर भी चाव से खाते है
- बाढ़ एवं किसी अन्य प्राकृतिक आपदा का अपेक्षाकृत कम प्रभाव
- खेती की लागत कम होने से कुल शुद्ध आय में वृद्धि
अपने संभावित लाभों के बावजूद, इस पद्धति की कुछ निश्चित सीमाएं भी है।
- बीज की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक लगती है
- सीधी बिजाई से पक्षियों एवं कीटों से सुरक्षा का विशेष ध्यान रखना पड़ता है
- खरपतवार के प्रति संवेदनशीलता एवं इनके प्रबंधन पर अतिरिक्त खर्च या श्रम की आवश्यकता|
- इस पद्धति में रोग एवं बिमारियों के प्रति अधिक सहनशीलता देखी गई है|
सारांश
धान उत्पादन की पारम्परिक विधि जल, पूंजी, ऊर्जा और श्रम-केंद्रित है, इसमें लगने वाले अधिक समय, श्रम एवं पानी को देखते हुए वर्तमान में आर्थिक रूप से व्यवहारिक नहीं कही जा सकती,क्यूंकि इस विधि में खेत की तैयारी, पडलिंग, नर्सरी एवं रोपाई हेतु समय, एवं श्रम के साथ अत्यधिक सिंचाई जल भी खर्च होता है। अतः धान की उत्पादकता को स्थिर बनाये रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग, घटते जल स्तर, मिट्टी के स्वास्थ्य में गिरावट जैसी समस्यों को विकराल होने से पहले ही हमें टिकाऊ एवं पर्यावर्णीय रूप से व्यव्य्हरिक कृषि पद्दतियों को अपनाना एवं उनके प्रचार प्रसार पर ध्यान देना आवश्यक है। धान उत्पादन की सीधी बिजाई पद्धति, न केवल लागत, आदान, ऊर्जा और समय की बचत करती है, बल्कि पर्यावरण अनुकूल भी है। अतः, वर्तमान परिवेश में एक टिकाऊ एवं आर्थिक रूप से लाभकारी पध्धति के तौर पर प्रचलन में है| इस पध्धति के कई सारे लाभ है, जैसे कि श्रम लागत में कमी, पानी और श्रमशक्ति की लागत में कमी, कम उत्पादन लागत, स्वस्थ मिट्टी, मीथेन उत्सर्जन में कमी, इत्यादि। उपरोक्त फायदों के अलावा इस पद्धति की कुछ सीमाएं है, जिनके लिए ठोस रणनीतिक प्रबंधन जैसे उचित किस्मों के चुनाव, खरपतवार नियंत्रण की समेकित प्रणाली, रसायनिक खाद एवं रसायनों का अनुकूलतम प्रयोग अदि| इसके अलावा सीधी बिजाई पध्धति को प्राकृतिक खेती के साथ अपनाना एक अच्छा विकल्प हो सकता है ।
- डॉ. शिवचरण मीणा, अनुसंधान अधिकारी, नीति आयोग
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