ईदगाह कहानी का सारांश Idgah Kahani Ka Saransh मुंशी प्रेमचंद हामिद की सादगी और मासूमियत ही इस कहानी की जान है। वह मेले में खिलौने खरीदने के बजाय अपनी
ईदगाह कहानी का सारांश Idgah Kahani Ka Saransh मुंशी प्रेमचंद
प्रेमचंद की कहानी "ईदगाह" एक ऐसा रत्न है जो हिंदी साहित्य के आकाश में चमकता रहता है। यह कहानी मात्र एक कहानी नहीं, बल्कि एक भावनात्मक यात्रा है जो पाठक के दिल को छू लेती है। कहानी का नायक, हामिद, एक अनाथ बच्चा है जिसकी दुनिया बहुत सीमित है। उसके लिए ईद का मेला एक ऐसा उत्सव है जो उसके जीवन में एक नई उम्मीद जगाता है।हामिद की सादगी और मासूमियत ही इस कहानी की जान है। वह मेले में खिलौने खरीदने के बजाय अपनी दादी के लिए एक चिमटा खरीदता है। यह निर्णय उसकी परिपक्वता और दयालुता का प्रतीक है। हामिद के इस छोटे से कृत्य में प्रेमचंद ने मानवीय मूल्यों को बहुत खूबसूरती से उजागर किया है।
ईद की सुबह गाँव के सभी मुस्लिम परिवारों के पुरुष और बच्चे ईदगाह जाने की तैयारियों में प्रसन्नता से व्यस्त होते हैं। सभी बच्चे ईद के मेले पर खर्च के लिए घर-परिवार के सामर्थ्य के अनुसार पैसे प्राप्त करते हैं; पर मातृ-पितृहीन बालक हामिद की बूढ़ी दादी अमीना; एक तो इस बात के लिए चिन्तित होती है कि बच्चा हामिद ईदगाह के मेले में किसके साथ जाएगा, दूसरे उसके पास हामिद को देने के लिए विशेष पैसे भी नहीं होते। फहीमन के कपड़े सीने के एवज में उसे जो आठ आने मिले थे, वृद्धा अमीना ने उन्हें ईद के दिन के लिए ही ईमान की तरह बचा कर रख छोड़ा था। पर दूध वाले का तकाजा करने के बाद उसके पास मात्र आठ पैसे उसके बटुए में बच रहे थे । उन्हीं से उसे ईद का यह पुण्य त्यौहार निभाना था।
जो हो, गाँव के लोग मेला देखने चले, तो बच्चों के साथ हामिद भी चल दिया। वे लोग उछलते-कूदते शहर के दामन तक आ पहुँचे। सड़क के दोनों ओर बनी चार दीवारी में अमीरों के बागों के पेड़ों को कंकड़-पत्थर मार खुश होते बच्चे आगे बढ़ते रहे । ऊँची-ऊँची इमारतों, अदालत, कालेज, क्लब आदि पर अपनी-अपनी राय प्रकट करते हुए महमूद, मोहसिन, हामिद आदि बालक पुलिस लाइन के पास आ पहुँचे। अपनी-अपनी जानकारी के अनुसार बालकों ने पुलिस पर नुक्ताचीनी की, उसे चोरों का संरक्षक बताया; रिश्वतखोर कहा और रिश्वत में मिलने वाले ढेर सारे रुपयों की बात को लेकर आश्चर्य प्रकट किया। इस प्रकार अपनी बाल-मानसिकता में उछलता कूदता, टीका-टिप्पणियाँ करता बालकों का दल ईदगाह के मेले पर आ पहुँचा। वहाँ बड़ों ने सामूहिक नमाज अदा की। और बच्चों ने भीड़ की सामूहिकता पर आश्चर्य प्रकट किया।
आपस में गले मिलने के बाद बच्चे मिठाइयाँ और खिलौनों की दुकानों पर टूट पड़े। अपनी-अपनी इच्छानुसार बालक मिठाइयाँ और खिलौन खरीदते रहे; पर बेचारा हामिद अपनी बालक बुद्धि के अनुसार तरह-तरह के तर्क करके उन चीजों को खरीदने से बचता रहा। मोहसिन ने भिश्ती खरीदा, तो महमूद ने सिपाही, नूरे ने वकील तो सम्मी ने धोबी; पर हामिद मिट्टी के बने इन खिलौनों को टूट जाने वाले कह कर उनकी निंदा करता रहा। मन-ही-मन वह उन्हें छू कर देखने के लिए ललचाता रहा। इसी प्रकार मिठाइयों की भी वह निंदा करता रहा और बच्चे उसे दिखा-दिखाकर खाते रहे।
खिलौने-मिठाइयों के बाद लोहे की चीजों की दुकानें थीं, अतः वहाँ कोई आकर्षण न देख सभी बालक आगे निकल गए। अकेला हामिद ही वहाँ रुक गया। एक दुकान पर चिमटा देख उसे तत्काल ध्यान आ गया कि वृद्धा दादी जब रोटियाँ सेकती हैं, तो उनकी उंगलियाँ जलती हैं। यदि वह चिमटा खरीद कर उसे देगा, तो वह खुश तो होगी ही, रोज-रोज उंगलियाँ जलने से बच जाएंगी।
हिम्मत करके दुकादार से दाम पूछा, उसने छ: पैसे बताया, अंत में तीन पैसे देकर उसने चिमटा खरीद लिया। हामिद का चिमटा देख उसके साथ आये खिलौनों की तुलना और बहस करते हुए स्वीकार कर लिया कि चिमटा वास्तव में 'रुस्तमे हिन्द' है। घर पहुँचने के बाद सभी के खिलौने तो एक-एक करके टूट गए; पर हामिद का चिमटा बचा रहा। जब दादी ने चिमटा देखा और जाना कि दिए गए तीन पैसों से वह उसे खरीद लाया है, तो पहले छाती पीट ली; फिर उसकी भावना को सुन-समझ वृद्धा अमीना विभोर होकर अपनी असमर्थता, हामिद की सद्भावना पर आँसू बहाने लगी, जबकि बुजुर्गों की तरह बालक हामिद; रो रही दादी को चुप कराने लगा। इसी मोड़ पर पहुँच कर कहानी समाप्त हो जाती है।
"ईदगाह" एक ऐसी कहानी है जिसे हर उम्र का व्यक्ति पढ़ सकता है और उससे कुछ न कुछ सीख सकता है। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि जीवन की छोटी-छोटी खुशियों का आनंद लेना चाहिए और दूसरों के लिए कुछ करने की कोशिश करनी चाहिए। प्रेमचंद की यह अमर कृति हमेशा हमारे दिलों में जिंदा रहेगी।
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