जूठन आत्मकथा का उद्देश्य ओमप्रकाश वाल्मीकि जूठन का उद्देश्य स्पष्ट रूप से दलितों में भी निम्न स्तर के हरिजनों अथवा वाल्मीकियों की निकृष्टतम स्थिति से
जूठन आत्मकथा का उद्देश्य ओमप्रकाश वाल्मीकि
ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' सिर्फ एक किताब नहीं है, बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त आवाज है। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिसने अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों और अपमानों का सामना किया, सिर्फ इसलिए कि वह एक दलित परिवार में पैदा हुआ था।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपने आत्मकथा 'जूठन' की रचना दलित वर्ग पर उच्च वर्ग के द्वारा किये गये अत्याचारों को रेखांकित करने के उद्देश्य से की है। उन्होंने 'लेखक की ओर से' शीर्षक से जो भूमिका इस आत्मकथा की लिखी है, वह इसी ओर संकेत करती है- “दलित जीवन की पीड़ाएँ असहनीय और अनुभवदग्ध हैं। ऐसे अनुभव जो साहित्यिक अभिव्यक्तियों में स्थान नहीं पा सके। एक ऐसी समाज व्यवस्था में हमने साँसें ली हैं जो बेहद क्रूर और अमानवीय है। दलितों के प्रति असंवदनशील भी।"
अपनी व्यथा कथा शब्दबद्ध करने का विचार काफी समय से मन में था। लेकिन प्रयास करने के बाद भी सफलता नहीं मिली थी। कितनी बार लिखना शुरू किया और हर बार लिखे गये पन्ने फाड़ दिए। कहाँ से शुरू करूँ और कैसे ? यही दुविधा थी। कुछ मित्रों की राय थी आत्मकथा के बजाय उपन्यास लिखो।
अचानक दिसम्बर 1993 में राजकिशोर जी का पत्र आया कि वे 'आज के प्रश्न' श्रृंखला में 'हरिजन से दलित' पुस्तक की योजना बना रहे हैं। वे चाहते थे, उस पुस्तक के लिए दस ग्यारह पृष्ठों में अपने अनुभव आत्मकथात्मक शैली में लिखूँ। उनका आग्रह था - अनुभव सच्चे एवं प्रमाणिक हों। पात्रों का नाम चाहे बदल भी सकते हैं। राजकिशोर जी के इस प्रश्न ने मेरे मन में बेचैनी पैदा कर दी थी। कुछ दिन दुविधा में निकल गये। एक पंक्ति तक नहीं लिख पाया। इसी बीच राजकिशोर जी का दूसरा पत्र आ गया था, अल्टीमेटम के साथ। जनवरी 94 के अन्त तक सामग्री भेजो। पुस्तक प्रेस में जाने के लिए तैयार है। पता नहीं राजकिशोर जी के उस पत्र में ऐसा क्या था, मैंने उसी रात अपने शुरुआती दिनों के कुछ पृष्ठ लिख डाले और अगले ही दिन राजकिशोर जी को भेज दिये। सप्ताह भर उत्तर की प्रतीक्षा की। फोन पर बात हुई उस सामग्री को वे छाप रहे थे।
'हरिजन से दलित' पुस्तक में पहला ही शीर्षक था- 'एक दलित की आत्मकथा'। पुस्तक छपते ही पाठकों के पत्रों का सिलसिला शुरू हो गया था। दूर-दराज ग्रामीण क्षेत्रों तक से पाठकीय प्रतिक्रियाएँ मिली थीं। दलित वर्ग के पाठकों को भी उन पृष्ठों में अपनी पीड़ा दिखाई दे रही थी। सभी का आग्रह था- मैं अपने अनुभवों को विस्तार से लिखूँ ।
इन अनुभवों को लिखने में कई प्रकार के खतरे थे। एक लंबे जद्दोजहद के बाद मैंने विस्तार से सिलसिलेवार लिखना शुरू किया। तमाम कष्टों, यातनाओं, उपेक्षाओं, प्रतारणाओं को एक बार फिर जीना पड़ा। उस दौरान गहरी मानसिक यन्त्रणाएँ मैंने भोगीं। स्वयं को परत-दर-परत उधेड़ते हुए कई बार लगा-कितना दुखदायी है यह सब कुछ लोगों को यह अविश्वसनीय और अतिरंजनापूर्ण लगता है।
कई मित्र हैरान थे, अभी से आत्मकथा लिख रहे हो। उनसे मेरा निवेदन है- उपलब्धियों की तराजू पर यदि मेरी इस व्यथा-कथा को रखकर तौलोगे तो हाथ कुछ नहीं लगेगा। एक मित्र की यह भी सलाह थी कि आत्मकथा लिखकर अनुभवों का मूलधन खो रहा हूँ। कुछ का यह भी कहना था कि खुद को नंगा करके आप अपने समाज की हीनता को ही बढ़ायेंगे। एक बेहद आत्मीय मित्र को यह भय सता रहा था कि आत्मकथा लिखकर आप अपनी प्रतिष्ठा ही न खो बैठें।
जो सच है, उसे सबके सामने रख देने में संकोच क्यों? जो यह कहते हैं- हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता, यानी अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने का भाव-उनसे मेरा निवेदन है, इस पीड़ा के दंश को वही जानता है जिसे सहना पड़ा।इस प्रक्रिया में ऐसा कुछ है जो लिखा नहीं गया या मैं लिख नहीं पाया। मेरी सामर्थ्य से बाहर था । इसे आप मेरी कमजोरी मान सकते हैं।
'जूठन' उपन्यास या आत्मकथा के कवर के अन्तिम पृष्ठ पर किसी ने भी जो कुछ लिखा है, वह इस 'जूठन' उपन्यास के उद्देश्य पर प्रकाश डालता है। उसे अविकल रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है-
"आजादी के पाँच दशक पूरे होने और आधुनिकता के तमाम आयातित अथवा मौलिक रूपों को भीतर तक आत्मसात कर चुकने के बावजूद आज भी हम कहीं न कहीं सवर्ण और अवर्ण (असवर्ण) के दायरे में बँटे हुए हैं। सिद्धान्तों और किताबी बहसों से बाहर जीवन में हमें आज भी अनेक उदाहरण मिल जायेंगे, जिनसे हमारी जाति और वर्णगत असहिष्णुता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। 'जूठन' ऐसे ही उदाहरणों की श्रृंखला है, जिन्हें एक दलित व्यक्ति ने अपनी पूरी संवेदनशीलता के साथ भोगा है। इस आत्मकथा में लेखक ने स्वाभाविक ही अपने उस 'आत्म' की तलाश करने की कोशिश की है, जिसे भारत का वर्णतन्त्र सदियों से कुचलने का प्रयास करता रहा है, कभी परोक्ष रूप में, कभी प्रत्यक्षतः । इसलिए इस पुस्तक की पंक्तियों में पीड़ा भी है, असहायता भी है, आक्रोश और क्रोध भी और अपने आपको आदमी का दर्जा दिये जाने की सहज मानवीय इच्छा भी।"
प्राचीन आर्य वर्ण व्यवस्था में चार वर्ण माने जाते थे, वे ही पौराणिक काल में भी रहे । चार वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे। पहले तीन वर्णों अत् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के कार्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है, पर शूद्र का कर्त्तव्य इन तीनों वर्णों की सेवा करना बताया गया है। वेद पढ़ने के विषय में स्पष्ट आदेश है- स्त्रीशूद्रोनाधीयताम् । (इन्हें अर्थात् वेदों का स्त्रियाँ और शूद्र अध्ययन न करें) पुराण काल में तो शूद्रों के चलने के मार्ग अलग थे। जिन मार्गों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य चलते थे, उन पर शूद्रों का चलना निषिद्ध था। उस पर शूद्र चलेंगे तो वे मार्ग दूषित हो जायेंगे। उन्हीं पर चलने से सवर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की पवित्रता नष्ट हो जायेगी। प्रातःकाल शूद्रों को मुँह ढककर चलने का आदेश था। प्रातःकाल कोई सवर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य उनका मुँह नहीं देखता था । अंग्रेजी राज्य में भी यह शोषण आरम्भ रहा। जो दलित ईसाई बन गये, उनके बच्चे पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी पा गये। इसी पीड़ा से व्यथित होकर बहुत से दलित मुसलमान बन गये। मुसलमानों में जाति भावना बहुत कम है। एक पठान जुलाहे या नाई के घर का पानी पी सकता है, रोटी खा सकता है। हिन्दुओं में और विशेषकर सवर्णों में इतना साहस नहीं है। ईसाई भी वर्ण या जाति का अन्तर नहीं मानते। भक्ति भावना या भक्ति सम्प्रदाय में स्त्रियों और शूद्रों का भी प्रवेश हुआ। इस आधार पर भक्ति सम्प्रदाय के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई । मीराबाई, रसखान, कुंभनदास आदि प्रसिद्ध भक्त हुए ।
श्रीमद्भगवदगीता में भी चार वर्णों के कर्तव्य बताने के प्रसंग में कहा गया है- परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्। अर्थात् सब वर्णों की सेवा करना शूद्र का भी स्वाभाविक कर्म है।
शूद्रों में भी हरिजन सबसे निचले स्तर पर हैं। इन सफाईकर्मियों को हरिजन नाम तो महात्मा गाँधी ने दिया। इन्हें उच्च वर्ण वालों ने बहुत सताया। इसी आधार पर इन्हें दलित कहा जाता है। दलित का अर्थ है-कुचला हुआ। जब से सुलभ शौचालय बने हैं अथवा फ्लस ढंग के शौचालय बने हैं, तब से कुछ स्थिति सुधरी है, अन्यथा वाल्मीकि कहे जाने वाले उच्च वर्ण वालों का मैला अर्थात् मल साफ ही नहीं करते थे, उसे सिर पर ढोते थे। स्वतंत्र भारत में काँग्रेस राज्य आया। उन्होंने महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहा और उनके सिद्धान्त मानते हुए अछूतोद्धार आरम्भ किया। दलित वर्ग में जाटव भी आते हैं, पर उनकी स्थिति वाल्मीकियों से श्रेष्ठ रही है। आज दलितों और विशेष रूप से वाल्मीकियों के प्रति कहीं न कहीं छुआछूत की भावना बनी हुई है। आज भी लोग न उनका छुआ पानी पीते हैं और न उनका खाना खाते हैं। इस उपन्यास अथवा आत्मकथा 'जूठन' का उद्देश्य दलित वर्ग के इन सबसे निचले और अत्यधिक सताये वर्ग के प्रति संवेदना उत्पन्न करना है। जो वर्ग हमारी ऐसी सेवा करता है, जिसे हम भी अपने लिए नहीं कर सकते, उसकी उपेक्षा और उसे सताना किसी प्रकार भी उचित नहीं कहा जा सकता। इस उपन्यास अथवा आत्मकथा 'जूठन' का उद्देश्य उनके प्रति उचित व्यवहार की प्रेरणा देता है। हम उच्च वर्ण का गर्व करने वाले और अपने आपको श्रेष्ठ समझने वाले यह विचार करने पर विवश हों कि वे कितना अनुचित कार्य कर रहे हैं।
क्या जन्म के आधार पर शिक्षा का अधिकार परिभाषित करना उचित है। शिक्षा और ज्ञान तो ऐसा प्रकाश है, जिसकी सभी को आवश्यकता है। क्या यह उचित है कि. सवर्ण का बुद्धिहीन बालक सभी शिक्षाएँ प्राप्त करने का अधिकारी है और दलित अथवा असवर्ण का बालक बुद्धिमान होने पर भी शिक्षा से वंचित रखा जाये।
ज्ञान की बात तो छोड़िये, शूद्र का तो तपस्या पर भी अधिकार नहीं था। तपस्या का सम्बन्ध तो शारीरिक कष्ट सहन और सहनशीलता की वृद्धि करना है। जो कम से कम सुविधाएँ पाकर उच्च वर्ण की सेवा करता है, क्या उसके मेधावी बालकों को केवल नीच जाति कहकर शिक्षा से वंचित करना उचित है ?
इस उपन्यास अथवा आत्मकथा 'जूठन' का उद्देश्य स्पष्ट रूप से दलितों में भी निम्न स्तर के हरिजनों अथवा वाल्मीकियों की निकृष्टतम स्थिति से परिचय कराना है। शासन के आदेश हैं कि सभी को शिक्षा पाने का अधिकार है, पर उच्च वर्ण के शिक्षकों की मनोवृत्ति नहीं बदली है। वे उसके प्रवेश में आनाकानी करते हैं और प्रवेश देना बहुत बड़ी कृपा मानते हैं। जो दलित बालक स्कूल में पढ़ने गया, उससे तीन दिन तक पूरे स्कूल और मैदान की सफाई कराई गयी। तर्क यह दिया गया कि यह तो तेरा खानदानी पेशा है। इनसे पूछा जाय कि अगर उसे झाडू ही लगानी होती तो अपने घर ही रहता, स्कूल में किताबें कापियाँ लेकर क्यों आता ? झाडू न लगाने पर हेडमास्टर माँ बहन की गालियाँ देता है और गुप्त अंग में मिर्च डालने की धमकी देता है। इण्टर साइन्स में साइन्स टीचर प्रैक्टीकल नहीं करने देता, जिससे शेष परीक्षा में अच्छे अंक लाने वाला ओमप्रकाश फेल हो जाता है। इसके बाद उसे गाँव के इण्टर कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता। उसे इण्टर करने के लिए देहरादून जाना पड़ता है। ओमप्रकाश की आकृति और योग्यता से कुछ लड़कियाँ आकर्षित होती हैं, पर उसकी जाति जानकर मन मार लेती हैं।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि के उपन्यास या आत्मकथा का उद्देश्य वाल्मीकियों की समस्या को स्पष्ट करना है।
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