जूठन आत्मकथा की समीक्षा ओमप्रकाश वाल्मीकि

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जूठन आत्मकथा की समीक्षा ओमप्रकाश वाल्मीकि यह एक ऐसा दस्तावेज है जो हमें जाति व्यवस्था के क्रूर चेहरे से रूबरू कराता है और हमें सोचने पर मजबूर करता है

जूठन आत्मकथा की समीक्षा ओमप्रकाश वाल्मीकि


मप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा 'जूठन' सिर्फ एक किताब नहीं है, बल्कि दलित समाज के संघर्ष, पीड़ा और अमानवीय व्यवहार का एक जीवंत चित्रण है। यह एक ऐसा दस्तावेज है जो हमें जाति व्यवस्था के क्रूर चेहरे से रूबरू कराता है और हमें सोचने पर मजबूर करता है कि एक इंसान को सिर्फ अपनी जाति के आधार पर इतना अपमान और यातना क्यों सहनी पड़ती है?

ओमप्रकाश वाल्मीकि द्वारा रचित आत्मकथा 'जूठन' दलित वर्ग की उपेक्षा और अभावमय जीवन पर आधारित है। इस आत्मकथा के रूप में वाल्मीकि जी ने अपनी ही व्यथा कथा प्रस्तुत की है। आचार्यों और समीक्षकों ने आत्मकथा के निम्नलिखित तत्व स्वीकार किये हैं-
  1. कथानक, 
  2. पात्र और उनका चरित्र-चित्रण, 
  3. संवाद योजना अथवा कथोपकथन, 
  4. भाषा-शैली 
  5. देश, काल और वातावरण, 
  6. उद्देश्य तथा 
  7. शीर्षक। 

इन्हीं के आधार पर 'जूठन' आत्मकथा का विवेचन प्रस्तुत है -
 

कथानक

जूठन आत्मकथा की समीक्षा ओमप्रकाश वाल्मीकि
जूठन आत्मकथा का कथानक उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के बरला गाँव से आरम्भ हुआ है। यह गाँव तगा अर्थात् त्यागी ब्राह्मणों का है। यहाँ की मलिन बस्ती में ओमप्रकाश का जन्म हुआ। ओमप्रकाश के नाम के पीछे लगा 'वाल्मीकि शब्द स्पष्ट करता है कि उनका जन्म सफाई करने वाली और मैला उठाने वाली जाति में हुआ था। ओमप्रकाश से पहले उनके गाँव के किसी वाल्मीकि ने स्कूल में पढ़ने का साहस नहीं किया, जबकि बरला गाँव में ही इण्टर कॉलेज था। 

ओमप्रकाश पिटा, ताने सुने, `पर वह पढ़ता रहा। उसके मामा सहारनपुर में नौकरी करते थे। गाँव से परेशान होकर उसने अपने मामा के पास रहकर पढ़ने का निश्चय किया। उसके मामा देहरादून में नौकरी करते थे। उनका लड़का जसवीर ओमप्रकाश को वहाँ ले गया था। वहीं के एक पुस्तकालय में ओमप्रकाश अम्बेडकर और दलित शब्दों से परिचित हुआ। रायपुर की आर्डिनेन्स फैक्ट्री में नौकरी के लिए ट्रेनिंग होनी थी। ओमप्रकाश उसके लिए चुन लिया गया और ट्रेनिंग के बाद उसे जबलपुर के पास की फैक्ट्री में नौकरी मिल गयी । वहाँ उसने शतरंज खेलना सीखा और नाटक क्लब बनाया। इसके बाद उसने बम्बई के पास अम्बरनाथ में ट्रेनिंग की और अच्छा वेतन पाने लगा। ओमप्रकाश अपनी भाभी की बहन से शादी करना चाहता था, पर उसका मामा उसे अपनी लड़की से बाँधना चाहता था। ओमप्रकाश ने मामा की बात नहीं मानी और अपनी भाभी की बहन चन्द्रकला से विवाह किया। पिता की मृत्यु से पूर्व उनकी माता की मृत्यु हो चुकी थी। वह नौकरी करता हुआ साहित्य रचना करने लगा था, 'जूठन' उनका पहला प्रकाशित उपन्यास है।
 

पात्र और उनका चरित्र चित्रण

इस उपन्यास में सौ से अधिक पात्र हैं। इसमें सवर्ण, दलित और मध्यवर्गीय सभी प्रकार के पात्र हैं। पात्रों का पूर्ण परिचय दिया गया है और चरित्र पर भलीभाँति प्रकाश डाला गया है। ओमप्रकाश के पिता अनपढ़ मजदूर हैं। वे बेगार भी करते हैं। वे अपने पुत्र ओमप्रकाश को पढ़ाना चाहते हैं । उनका विश्वास है कि पढ़कर इसकी जात (जाति) बदल जायेगी। वे शरीर से पुष्ट और स्वभाव के क्रोधी हैं। कल ओमप्रकाश की परीक्षा थी, लेकिन मना करने पर भी फौजसिंह उसे अपनी ईख बोने की बेगार के लिए ले गया। ओमप्रकाश के पिता को जब यह मालूम हुआ तो वे लट्ठ लेकर उससे लड़ने चले। ओमप्रकाश की माता ने उन्हें बहुत मुश्किल से रोका। इसी प्रकार जब कलीराम हैडमास्टर ने ओमप्रकाश को स्कूल के पूरे मैदान में झाडू लगाने को कहा और यह क्रम तीन दिन तक चला। तीसरे दिन उसके पिता ने उसे झाडू लगाते देखा, उस समय की स्थिति उपन्यास में इस प्रकार है-

"मेरी हिचकियाँ बँध गयीं थीं। हिचक-हिचक कर पूरी बात पिताजी को बता दी कि तीन दिन से रोज झाडू लगवा रहे हैं। कक्षा में पढ़ने भी नहीं देते। "
 
पिताजी ने मेरे हाथ से झाडू छीनकर दूर फेंक दी, उनकी आँखों में आग की गर्मी उतर आयी थी। हमेशा दूसरों के सामने तीर-कमान बने रहने वाले पिताजी की लम्बी-लम्बी घनी मूँछें गुस्से में फड़फड़ाने लगी थीं। चीखने लगे- "कौण सा मास्टर वो द्रोणाचार्य की औलाद जो मेरे लड़के से झाडू लगवावे है ।

संवाद योजना अथवा कथोपकथन

वैसे तो कथोपकथन अथवा संवाद नाटक के अनिवार्य अंग हैं, पर उपन्यास और कहानी में भी इनका उपयोग किया जाता है। इस उपन्यास के संवाद पात्रोचित एवं स्वाभाविक हैं। उदाहरण के रूप में कुछ संवाद प्रस्तुत हैं- 

पूछने वाली महिला ने आश्चर्य से हिरम को देखा। मुझे ऊपर से नीचे तक देखते हुए उसी सुर में बोलीं- 
"तू भी पढ़े है ? " 
मैंने 'हाँ' में गर्दन हिलाई। 
"तू कोण सी किलास में है?" 
'नौवीं की परीक्षा दी है। " 
उसकी आँखें ताज्जुब से भर गईं-"तू दिक्खे तो इससे छोटा है।" 
"जी हाँ" मैंने कहा । 
'चूहड़ों के जाकत (बच्चे) भी पढ़ने जावै हैं-मदरसे में।" उसे आश्चर्य हो रहा था।
 

भाषा शैली

इस उपन्यास के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि भलीभाँति सुशिक्षित हैं। इस उपन्यास की भाषा परिनिष्ठित हिन्दी है। अनपढ़ और देहाती लोगों की भाषा स्थानीय है। इस उपन्यास की परिनिष्ठित भाषा का एक उदाहरण प्रस्तुत है- 
"इस बार बस्ती के लोगों ने बेगार करने से मना कर दिया था। दिहाड़ी (दैनिक मजदूरी) दोगे तो जायेंगे, इस बात पर तनातनी हो गयी थी। जो व्यक्ति बुलाने आया था, वह तहसील का कोई चतुर्थ श्रेणी का मुलाजिम था। लेकिन उसका रौब-दाब किसी अधिकारी से कम नहीं था। बात-बात में अबे-तबे कर रहा था। जब सभी ने जाने से मना कर दिया तो वह जोर-जबरदस्ती पर उतर आया था। लेकिन सभी लोग एक-एक कर इधर-उधर खिसकने लगे थे। उसे बैरंग लौटना पड़ा था। " शैली पूरे उपन्यास की वर्णनात्मक है। इस गद्यांश में भी ओमप्रकाश ने घटना का वर्णन ही किया है।

देश, काल और वातावरण

इस उपन्यास का देश अर्थात स्थान प्रमुख रूप से मुजफ्फरनगर जिले का बरला गाँव है। गाँव में अधिकांश आबादी तगों की थी। गाँव से बाहर चूहड़ों का मोहल्ला या बस्ती थी । कथानक में इसी बस्ती का वर्णन अधिक है। जैसे- उसी बगड़ में हमारा परिवार रहता था। पाँच भाई, एक बहन, दो चाचा, एक ताऊ का परिवार । चाचा और ताऊ अलग रहते थे। घर में सभी कोई न कोई काम करते थे। फिर भी दो जून की रोटी नहीं चल पाती थी । तगाओं के घरों में साफ-सफाई से लेकर खेती-बाड़ी, मेहनत-मजदूरी सभी काम होते थे। ऊपर रात-बेरात बेगार करनी पड़ती। बेगार के बदले में कोई पाई-पैसा या अनाज नहीं मिलता था। बेगार के लिए ना करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। उम्र में बड़ा हो तो 'ओ चूहड़े' बराबर या उम्र में छोटा हो तो अबे चूहड़े' यही तरीका था सम्बोधन का ।

इस उपन्यास का काल अर्थात् समय स्वतन्त्र भारत का है। इस समय दलित जातियों के बालकों को भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिल चुका था। उनके बच्चे भी उच्च जाति के बच्चों के साथ बैठकर पढ़ सकते थे।
 
जहाँ तक वातावरण का प्रश्न है, लेखक जहाँ भी रहा है, वहाँ के वातावरण का उसने विस्तृत और जीता-जागता वर्णन किया है। शहरों में चाहे सफाई रहने लगी हो, पर 'गाँवों की दशा अच्छी नहीं थी। ओमप्रकाश का घर जिस गाँव में था, वहाँ की दलित बस्ती का वातावरण इस प्रकार का था -

"जोहड़ी के किनारे पर चूहड़ों के मकान थे, जिनके पीछे गाँव भर की औरतें, जवान लड़कियाँ, बड़ी-बूढ़ी, यहाँ तक कि नई-नवेली दुलहनें भी इसी डब्बों वाली के किनारे खुले में टट्टी-फरागत के लिए बैठ जाती थीं। रात के अँधेरे में ही नहीं, दिन के उजाले में भी पर्दों में रहने वाली महिलाएँ, घूँघट काढ़े, दुशाले ओढ़े इस सार्वजनिक खुले शौचालय में निवृत्ति पाती थीं। तमाम शर्म-लिहाज छोड़कर वे डब्बों वाली के किनारे गोपनीय जिस्म उघाड़कर बैठ जाती थीं। इसी जगह गाँव भर के लड़ाई-झगड़े, गोलमेज कान्फ्रेन्स की शकल में चर्चित होते थे। चारों तरफ गन्दगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गन्ध कि मिनट भर में साँस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सुअर, नंग-धड़ंग बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े, बस यह था वह वातावरण, जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाये तो उनकी राय बदल जायेगी । "
 

उद्देश्य

इस उपन्यास का उद्देश्य यह रेखांकित करना है कि दलित जाति में भी निम्न स्तर के लोगों का जीवन कितना कष्टपूर्ण था। यदि इस जाति का कोई बालक पढ़ना चाहता था तो उसके सामने कितनी परेशानियाँ आती थीं। ओमप्रकाश पढ़-लिखकर नौकरी पा गया था पर उसे दलित जाति का दंश सदा झेलना पड़ा था।
 

शीर्षक

इस उपन्यास का शीर्षक है-जूठन । 'जूठन' शब्द का अर्थ है - खाने के उपरान्त थाली या पत्तल में बचा हुआ खाना। पहले इस प्रकार की प्रथा थी, इस प्रकार का चलन था कि दावत या भोज में पत्तलों पर जो खाना बच रहता था, उसे जूठन कहते थे। इसका अर्थ-खाने से बचा हुआ, अस्वच्छ। इस खाने को एक विशेष जाति के दलित ले जाते थे और खाते थे। इन्हें मेहतर या चूहड़ कहा जाता था। बाद में ये वाल्मीकि कहे जाने लगे। इसी प्रकार की एक जूठन का इस उपन्यास में वर्णन है उससे मालूम हो जायेगा कि जूठन क्या होती है ?
 
"शादी-ब्याह के मौकों पर जब मेहमान या बराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाजों के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठे रहते थे। बारात के खाना खा चुकने पर जूठी पत्तलें उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे। पूरी के बचे खुचे टुकड़े, एक आध मिठाई का टुकड़ा या थोड़ी बहुत सब्जी पत्तल पर पाकर बाछें खिल जाती थीं। जूठन चटखारे लेकर खाई जाती थी। जिस बारात की पत्तलों से जूठन कम उतरती थी, कहा जाता था कि भुक्खड़ (भूखे लोग आ गये हैं बारात में, जिन्हें ऐसे मौकों पर खाने को कुछ नहीं मिला। सारा चट कर गये। अक्सर ऐसे मौकों पर बड़े-बूढ़े बारातों का जिक्र बहुत ही रोमांचक लहजे में सुनाया करते थे कि उस बारात में इतनी जूठन आई कि महीनों तक खाते रहे थे।"

इस प्रकार जूठन उपन्यास में उपन्यास के सभी तत्त्वों का निर्वाह सफलतापूर्वक हुआ है। 'जूठन' एक ऐसी किताब है जिसे हर व्यक्ति को पढ़ना चाहिए। यह किताब हमें यह सिखाती है कि हम सभी बराबर हैं और किसी को भी अपनी जाति, धर्म या रंग के आधार पर कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। यह किताब हमें यह भी सिखाती है कि हमें हमेशा अन्याय के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए।'जूठन' सिर्फ एक किताब नहीं है, बल्कि एक क्रांति है। यह एक ऐसी क्रांति है जो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ रही है और एक समान समाज के निर्माण का सपना देख रही है।

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