कर्मन की गति न्यारी साधो | हिन्दी कहानी कार्यक्रम भव्य ही प्रतीत हो रहा था।राजभाषा विभाग का कार्यक्रम था। छत्तीसगढ़ी भाषा,संस्कृति, छत्तीसगढ़ी अस्मिता
कर्मन की गति न्यारी साधो | हिन्दी कहानी
कार्यक्रम भव्य ही प्रतीत हो रहा था।राजभाषा विभाग का कार्यक्रम था। छत्तीसगढ़ी भाषा,संस्कृति, छत्तीसगढ़ी अस्मिता को सर्मिर्पत यह कार्यक्रम आज मेरे ही शहर में हो रहा था।
मैं जैसे ही पहुँची, अफरातफरी सी मच गई। लोग धड़ाघड़ आकर मेरे पैर छूने लगे। मैं किसी को पहचानती थी, किसी को नहीं। मगर आशीर्वाद स्वरूप हाथ सभी के सिर पर चला ही जाता। जैसे ही मुझे मंच पर ले जाया जाने लगा,मैंने मना कर दिया। आयोजक एकदम गिड़गिड़ाने लगे..”.आपके बिना मंच की शोभा पूरी नहीं होगा दीदी।“ ”मंच पूरी तरह शोभायमान है मगनलालजी“...मैंने दृढता़ से कहा। आखिर प्रथम पंक्ति में विशिष्ट अतिथियों के बीच मुझे सादर बैठाकर वे अपनी आसंदी संभालने चले गए।
अपनी कुर्सी पर बैठते ही मैंने एक नजर मंच पर आसीन महानुभावों पर डाली। मैं बरसों से कहीं आती जाती नहीं सो मैं किसी को ठीक से नही पहचान रही थी। मैंने अपने बगल में बैठी कवियित्री मंजूश्रीजी से पूछा....आप मंचस्थ महानुभावों को पहचानती हैं क्या। बोलीं...कुछ कुछ को। जो मंच के बीचोंबीच विराजमान हैं,वह हैं राजभाषा विभाग के मुख्यसचिव। उनके बायीं ओर राजभाषा विभाग के कोई पदाधिकारी। फिर राजभाषा के ही हमारे जिला प्रभारी, उनके बाद हमारे क्षेत्र के विधायक महोदय के पिताश्री जिनकी पुस्तक के विमोचन का भव्य समारोह अभी कुछ दिन पहले ही हुआ था, मैं भी गई थी उसमें कविता पाठ करने, उनके बाद.....उनके बाद.कहने लगी...बाकी भी हैं जी, सत्ताधारी दल से ही संबंधित महाप्रभु....
मेरा ध्यान मुख्य सचिव के दायीं ओर विराजमान एकमात्र महिला पर गया। इतने महिमामय पुरूषों के बीच स्वथ्य, सुंदर, शालीन वस्त्रविन्यास में संवरी मंच पर शोभायमान वह खूब जंच रही थीं।
सभा में कुछ कुछ कार्यक्रम चल ही रहे थे। मेरे आसन ग्रहण करते ही कार्यक्रम की सबसे महत्वपूर्ण घोषणा होने लगी..”.यह हमारा परम सौभाग्य है कि हम अकिंचन आज अपने क्षेत्र में विराजमान उन महान विभूतियों का सम्मान कर पा रहे हैं जिन्होंने देश विदेश में हमारे अँचल का मान बढ़ाया। गौरव दिलाया। इस क्रम में सर्वप्रथम हैं हमारी दीदी जिनकी लेखनी के कमाल से हम सभी अभिभूत हैं। जिन्हें किसी परिचय की जरूरत ही नहीं। कृपया वे पधारें और हमें उपकृत करें...“
एक महिला कार्यकर्ता आकर मुझे सादर मंच तक ले गई। राजभाषा सचिव, प्रभारी महानुभाव, दो तीन और संबंधित महानुभाव मंच से आकर विनम्र खड़े हो गए । सबसे पहले तो मंच पर आसीन वह गरिमामयी महिला ही। उन्होंने स्वागतथाल लिये खडी रमणी की थाल से रोली लेकर मुझे तिलक लगाया,माला पहनाया और मेरे पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया। उनके ऐसी श्रद्धा से प्रणाम करने पर मेरा जी भर आया। लगभग पूरी सभा ही अभिभूत सी हो गई। मैंने प्यार से उन्हे उठाकर गले लगाया। उनके सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। मुख्य सचिव महोदय ने फौरन थाल से शाल लेकर मुझे उढ़ाया। प्रशस्ति पत्र, स्मृतिचिन्ह, पुष्प गुच्छ और श्रीफल आदि देकर झुककर प्रणाम किया। अन्य महानुभाओं ने पैर छूकर प्रणाम किया। पूरे सभागार ने तालियाँ बजाईं। तस्वीरें खींची गईं। मैं सादर अपनी सीट पर ले जायी गई। मेरे बाद कुछ और भी व्यक्तित्वों के सम्मान हुये।
सम्मान के बाद नियत कार्यक्रम। वक्ताओं के भाषण। मंच पर आसीन लगभग सभी सदस्य बोले। बोले कि आधुनिकता की अँधी दौड़ में हम छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति को बिसार रहे हैं। यह जमीन से जुड़ी संस्कृति है। युगों पुरानी। हमारे रग रग में समायी। इसे बिसारकर हम अपनी ही पहचान खो रहे हेैं। इस संबंध में कई खामिया भी गिनाई गईं। जनता की। सरकार की। मुख्यसचिव महोदय ने अपने भाषण में उनकी चिंताओं को ध्यान में रखते हुये बताया कि उन चिंताओं के लिये सरकार क्या कुछ कर रही हेै। मंचआसीन वह महिला भी बोलीं कि माननीय मुख्य मंत्री जी ने छत्तीसगढ़ी भाषा संस्कृति के विकास के लिये क्या क्या किये... ”स्कूलों में एक दिन छत्तीसगढ़ी बोलना अनिवार्य कर दिया। कार्यक्रमों में छत्तीसगढ़ी व्यंजनों, रीति रिवाजों को प्राथमिकता दी। छत्तीसगढ़ी पर्व त्योहारों में स्वयं शिरकत करते हैं। अमुक कार्यक्रम में ऐसे मगन होकर ढोल बजाया. कि आदिवासी भी झूम उठे...।“
कार्यक्रम चल ही रहे थे कि मेरे पास बैठी कवियित्री मंजूश्री मेरे कान के पास मुँह लेजाकर बोली... आज देखा आपने अपनी उस अनिताराज का जलवा?
अनिताराज! मुझे जैसे हजार वोल्ट का करेंट लगा....तड़पकर मैं इधर उधर देखने लगी....कहाँ...कहाँ है वह अनिताराज? उसे तो मैं हजारों लाखों की भीड में पहचान लूंगी। मैं सिर घुमा घुमाकर हर महिला को गौर से देखने लगी। कुर्सियों में बैठी महिलाओं को,कार्यकर्ता महिलाओं को, इधर उधर आती जाती महिलाओं को...कौन है कौन है इसमें अनिताराज। वह इस भव्य कार्यक्रम में आ कैसे गई। उसे घुसने किसे दिया? मगर वह है कहाँ?ँ कहीं हो, मैं तो उसे हर हाल में पहचान लूंगी, भले उस घटना को बीस बरस हो चुकेे हैं। बल्कि उससे भी ज्यादा ही।़ कितना ही बदल गई हो, पर नहीं भूल सकती। नहीं भूल सकती वह दृश्य जब एक शिक्षिका कक्षा के छोटे छोटे बच्चों को उत्तेजित कर रही है...खींच लो,खींच लो रे इस औरत की साड़ी, हरामखोर बहुत बड़ी आदमिन बनती हेै। नंगा करो इस बड़ी आदमिन को...। हतप्रभ बच्चे नहीं उठ रहे हैं तो वह शिक्षिका खुद ही टूट पड़ी थी और खींचने लगी थी उस प्रतिष्ठित महिला की साड़ी। अप्रत्याशित आघात से घायल अभागिन साड़ी समेटती भागी जा रही है और....और.....
नहीं जाता यह दृश्य मेरे जेहन से। गोकि इसे दिमाग से निकालने की मैंने हजारहाँ कोशिश की। समय के प्रवाह ने स्मृति के गह्वर मेें ढकेला भी, पर किसी कोने में कुंडली मारे बैठा ही रहता हेै। जिक्र आते ही ”किंग कोबरा“ की तरह फन काढ़कर खड़ा हो जाता है। अंग प्रत्यंग डस लेता है।और किंग कोबरा के विषाक्त दंश ने घायल कर ही दिया मुझे भरी सभा में।
मंच से अब वह दमकता सरकारी अमला जा चुका है। वहाँ कविगण विराजमान हो चुके हैं। मंजूश्रीजी भी अब वहीं विराजमान हो चुकी हैं। कविसम्मेलन आरंभ हो चुका है। कवितायें पढ़ी जा रही हैं। मगर मैं अब भला क्या कवितायें सुन रही हूँ। मैं वहाँ हूँ ही कहाँ! किंग कोबरा मुझे पटककर दाँत गड़ाकर गहरे अतीत में ले गया है....
वह सन दो हजार था। मैं ससुराल से खाली हाथ होकर अपने मायके आई थी। मायके छत्तीसगढ़ का एक छोटा सा शहर। घर में माँ अकेली। घर बड़ा सा। बंगलानुमा। मेरे अन्य भाई बहन दूर दराज शहरों में बसे अपनी अपनी नौकरी चाकरी घर गृहस्थी में फँसे। बीच बीच में माँ को देखने आते रहते। घर नौकरों के सहारे चलता रहता। ससुराल से मैं लुटी पिटी आई थी। यहाँ जैसे मुझमें जीवन का संचार हो गया। बिस्तर लगी वयोवृद्ध माँ की सेवा,दिवंगत पिता के बर्बाद होते बँगले की सार सँभार। मुझे तो जैसे लक्ष्य मिल गया। भिड़ गई मैं । कि सोचा, घर का ऊपरी हिस्सा किराये से दे दिया जाये तो सूना पड़ा घर आबाद हो जायेगा। मैंने माँ से बात की। वे राजी हो गईं। मैंने गत्ते के एक टुकड़े में ”मकान किराये से देना है“ लिखकर बाहर टाँग दिया। शाम को एक व्यक्ति आया। देखकर मैं अचंभित। बल्कि विचलित। काला कलूटा, नाटा, बल्कि बौना। बताया कि मकान किराये से लेने आया है। विस्मित हो मैं उसके बार में पूछने लगी। और विस्मित हुई कि वह तो बातचीत में माहिर निकला। बल्कि तेज तर्रार। नाम बताया ”अनिल राज“। बताया कि वह अनुसूचित जाति के गरीब बच्चों के लिये एक स्कूल चलाता है, सरकारी योजना के तहत। स्वयं भी इसी वर्ग का है इसलिये उसे कोई्र घर किराये से नहीं दे रहा। मुझे दया आ गई। प्रभावित भी हुई, काला कलूटा बौना, कैसे आत्म विश्वास से बातें कर रहा है। माँ से बात की। माँ को जँचा नहीं। बोलीं...हमारी तरफ तो इस वर्ग के लोग हम लोगों की तरह ही हैं, सीधे, सरल। पर सब एक जैसे नहीं होते बेटा। पहले पता कर लो, कहाँ का है, किस जाति का है। चाल स्वाभाव कैसा है।
मैं बौने से अभिभूत सी थी। समझाया,माँ, बेचारे ने शुरू में ही बता दिया कि अनुसूचित जाति का है। अब और क्या खोद खोदकर जाति पूछना। जात पाँत तो हम मानते भी नहीं। बेचारे ने तो पहली ही मुलाकात में सब बातें स्पष्ट बता दीं। स्कूल सरकारी योजना के तहत है। किराया देते समय बकायदा लिखा पढ़ी होगी । किराया सरकार देगी। जाँच के लिये सरकारी अधिकारी आते ही रहेंगे। फिर सोचो माँ, ऐसा काला कलूटा बौना हुलिया किसी और का होता तो वह हीनताग्रस्त हो सड़ता रहता। यह आदमी अपनी हीनता पर विजय पा लिया है। क्या यह तारीफ की बात नहीं। क्या हमें इसका हौसला नहीं बढ़ाना चाहिए। इसका अपना हौसला देखिये, तंग गली कूचों में रहनेवाले, भयानक गंदगी में घुसकर कूड़ा बीनते, बात बात पर अश्लील गालियाँ निकालते, दारिद््रय के मारे बच्चों को ढूंढ कर लाता है। घर घर जाकर ऐसे माता पिता को समझाने में कितनी माथापच्ची करता होगा। माता पिता भी कैसे....किसी बच्चे की माँ ही भाग गई है, किसी की माँ चोरी करना सिखा रही है। किसी का बाप शराबी, जुआरी, किसी का गाँजा अफीम अफरा तफरी में शामिल। अघिकतर माता पिता तो अवैेध धंधा करने वाले दादाओं के क्षुद्र प्यादे । गरीबी , अशिक्षा, सही गलत से बेखबर, कुसंस्कार में पलते ये बच्चे। शिक्षा पाकर इनमें कुछ तो सुधार होगा। शिक्षा ही नहीं कपड़े लत्ते, जूते चप्पल, किताब कॉपी बस्ता, पौष्टिक भोजन , यहाँ तक कि इन्हें छात्रवृति के पैसे भी देती है सरकार। जब सरकार इतना कर रही है तो हम इतना भी न करें कि इन्हंे मकान किराये से दे दें।ं मुझे तो लगता है अच्छी शिक्षा, संस्कार पाकर ये अभागे बच्चे चमक जायेंगे। हमें तो सहज ही में पुण्य करने का अवसर मिल रहा है माँ। तू डर मत , मैं हूँ न।उलझन में पड़ी माँ ने जैसे मौन स्वीकृति दे दी।
बौने ने आकर ऊपर अपना डेरा जमाया। उसके साथ उसका परिवार भी। परिवार में उसकी पत्नी, दो छोटे बच्चे, छोटा भाई, उसकी पत्नी, एक और अविवाहित भाई, प्रौढ़ माता पिता। स्कूल और घर दोनो हो गया उसका तो। परिवार के सभी सदस्य किसी न किसी रूप मे स्कूल से जुडे़। पत्नी और छोटे भाई की पत्नी शिक्षिका, छोटा भाई लिपिक, उससे छोटा चपरासी, माँ मध्यान्ह भोजन बनाने वाली। पिता भी ऐसे ही कुछ। पढ़े लिखे के नाम पर सिर्फ वह बौना और उसकी पत्नी, एम. ए.पास। छोटा भाई बारहवीं पढ़ा उसकी पत्नी दसवीं। सबसे छोटा भाई दसवीं भी नहीं। बौना सिर्फ वही दिखता। बाकी सदस्यों की ऊंचाई भी थी तो कम पर दिखने में बौने नहीं लगते थे। पत्नी तो बिल्कुल भी बौनी नहीं लगती। सुंदर ही दिखती। नाम था अनिताराज। स्कूल पाँचवीं कक्षा तक था सो कुछ शिक्षिकायें बाहर से भी रखनी पड़ी थीं। कक्षायें सुबह दस बजे से शाम साढ़े चार बजे तक लगतीं। छुट्टी होते ही स्कूल घर बन जाता। दिन भर स्कूल का शोरगुल , शाम होते ही पारिवारिक घरेलू आवाजें, हलचलें। सूना घर सचमें आबाद हो गया।
चूंकि ऊपर आने जाने का रास्ता बाहर से था सो बच्चों के आने जाने में कोई परेशानी नहीं थीं। मगर बाथरूम टॉयलेट ऊपर नहीं था। नीचे आँगन के उस पार था जैसा पुराने जमाने के घरों में होता था। सो इसके लिये उन लोगों को नीचे आना पड़ता। नीचे ऊपर आने जाने के लिये सीढ़ी आँगन में थी। सो वे सब उसी सीढ़ी से नीचे आते जाते। सबेरे से ही पूरा परिवार नीचे उतरकर आँगन में। पानी के लिये नल की सुविधा थी। ऊपर भी। नीचे भी। पर नल में पानी समय समय पर ही आता। सो वे सब आँगन के बड़े से कुयें से ही पानी निकाल निकाल कर शौचआदि से निवृत्त होते। कुयें की जगत पर ही दातौन करते, नहाते धोते। कपड़े पहनते। आँगन से लगी बड़ी सी बाड़ी के तार में कपड़े सुखाते। जब तक ये लोग आँगन बाड़ी में जमे रहते मैं सामान्यतया उधर जाती ही नहीं। उन लोगों के नीचे उतरने के पहले ही नित्यकर्म आदि से निवृत हो लेती। माँ तो बिस्तर से लगी थीं। उनकी तो सारी सेवा मैं उनके कमरे में ही करती। आँगन बाड़ी पर कभी मैं सामने पड़ जाऊं तो वे लोग नमस्ते जरूर करते। बौना ओैेेर उसकी पत्नी गुडमार्निंग कहते। कभी कभी थोड़ी गपशप भी हो जाती। मैं कहती, इन बच्चों को स्कूल लाने में आप लोगों को बड़ी दिक्कत होती होगी। हँसकर बताती अनिता राज....”विशेष दिक्कत नहीं, क्योंकि हम लोग तो खुद ही ऐसे ही घरों के हैं। मेरे पति के मातापिता बीड़ी बनाते थे और मेरे पिता ठेला चलाते थे। माँ कूड़ा बीनती थीं।“ आहः कैसी संघर्ष गाथा! मैं द्रवित हो उठती। पर्व त्योहारों में मैं तरह तरह के व्यंजन बनाती तो थाली भर भरकर ऊपर भिजवा देती। वे तो बौद्ध थे। हमारे पर्व त्योहार नहीं मनाते थे। व्यंजन वगैरह बनाना भी शायद उन्हें नहीं आता था। पर मेरे व्यंजन बड़े शौक से खाते। हमें असली खुशी यह थी कि घोर गंदगी में सड़ने वाले ये दरिद्र बच्चे शिक्षा पा रहे हैं। हमारे घर। दस बजते बजते ऊपर से शिक्षिकाओं और बच्चों की आवाजें आने लगतीं.... बोलो..दो दूनी चार, दो तिया छह....। बच्चों का समवेत स्वर....दो दूनी चार, दो तिया छह...। हमारे प्रदेश का नाम क्या... बोलो...छत्तीसगढ़। हमारे देश का नाम क्या,...भारत। हमारा झंडे का नाम क्या, तिरंगा। आवाजे सुनकर हम माँ बेटी का कलेजा भर आता। बीच बीच में कभी मेरे भाई बहन आते तो उनकी भी छाती भर आती। स्कूल था, सो आयोजन भी होते.रहते.....पंद्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी, गाँधी जयन्ती, अंबेडकर जयन्ती, शिक्षक दिवस, पर्यावरण दिवस,। इन आयोजनो में अनिलराज अपने अधिकारियों, नेताओं और शहर की नामी हस्तियों को आमंत्रित करता। मुझे तो खैर करता ही। मैं उस बौने की कार्यकुशलता, वाक्पटुता, प्रबंधन, मंचसंचालन देखकर विस्मित होती रहती। वैसे तो उसका पूरा परिवार ही आयोजन को सफल बनाने में लगा रहता। पर अतिथियों के स्वागत सत्कार से लेकर उनकी विदाई तक पूरे आयोजन में उसकी सर्वांग संवरी पत्नी छायी रहती। बाकी शिक्षिकायें उसका सहयोग करतीं। हमारी माताजी तो उस दिन अभिभूत सी हो गई जब पंद्रह अगस्त के अपने कार्यक्रम में झंडा फहराने के लिये माँ से निवेदन करने आया। विह्वल सी माँ बोलीं... ”इस झंडे को फहराने के लिये कितने सपूतों ने अपनी जान कुर्बान की है बेटा। इसके लिये तुम किसी योग्य व्यक्ति को आमंत्रित करो।“ हाथ जोड़कर बोला....माँजी आपसे अघिक योग्य व्यक्ति और कौेन हो सकता है। आपने गरीब बच्चों के लिये यह इतना शानदार मकान दे दिया। इस योजना के तहत जितने भी स्कूल चल रहे हैं, सब गरीब गुजरे झोपड़ियों जैसे घरों में। खानदानी ब्राह्मण परिवार का ऐसा शानदार मकान! दरिद्र दलित बच्चों के लिए! आपका बड़ा कलेजा है माँजी। दिया आपने, अधिकारी सब तारीफ मेरी कर रहे हेैं।
खुश तो हम थे, पर धीरे धीरे कुछ बातें मेंरे दिमाग में कुलबुलाने लगीं। एक तो उनके तौर तरीके। शुचिता का जरा खयाल नहीं। टॉयलेट से आते हैं, तो बिना हाथ धोये कुयें से पानी खींचने लगते हैं। दूसरा लगा कि ये तो नैतिक मूल्यों को कोई महत्व ही नहीं देते। आँगन में वे आते जाते तो बातचीत, हँसी मजाक भी हो ही जाती। ऐसे में ही उसकी पत्नी ने बताया कि वह अँग्रेजी में एम.ए. करने वाली है। मैंने कहा कैसे करोगी, तुम्हे तो बिल्कुल अँग्रेजी नहीं आती। बोली...नहीं मैम, कोई दिक्कत नहीं। मेरे हसबैंड ने बात कर ली है। बात कर ली है! क्या बात? बताया उसने, ”अमुक परीक्षाकेंद्र के अधीक्षक से बात पक्की हो गई हेै। दस हजार में प्रथम श्रेणी दिलवा देंगे। मुझे तो सिर्फ जाकर परीक्षाहाल में बैठना है। उत्तर पुस्तिका लिखने से लेकर, टेबुलेशन वाले क्लर्कों से निपटना, सारा काम वह लोग करेंगे।“ मैं अवाक्....ऐसा सब कहीं होता है! हँसने लगी...खूब होता है मैम। कितने लोग ऐसी ही डिग्रियाँ लिये बैठे हैं। नौकरी में भी हैं। मेरा मन अब व्याकुल ...यह सब क्या हो रहा है मेरे घर में। यह सच है या इसका खयाली पुलाव। चूंकि दूसरी शिक्षिकायें भी वाशरूम वगैरह जाने के लिये नीचे उतरती ही रहती थीं, उनसे भी गपशप हो जाती थी। मैंने उनसे टोह लेनी चाही। जरा सी आत्मीयता दिखाते ही सब उगलने लगीं....यहाँ अधिकतर की डिग्री ऐसी ही है मैम। सही डिग्री वाले दो चार ”बेकारी के मारे“ यहाँ आ गए हैं। दुखती रग में ऊँगली रखते ही मवाद निकलने लगा....”आ गये हैं क्या भुगत रहे हैं मैम। हमें ही कहता है, घर घर जाकर बच्चे ढूंढ कर लाओ। थोड़ा सा वेतन, यानी मानदेय, उसमें भी आधा अपने धर लेता हेेै। घपला? लूट मची है लूट मैम। बच्चों की छात्रवृति, उनके कपड़ेलत्ते, किताब कापियाँ, जूते चप्पल बस्ते, मध्यान्ह भोजन, सबमें लूट । ”अधिकारी आते हैं जाँच करने?“ अरे वे क्या जाँच करेंगे मैम। खाते हैं, पीते हैं। तोहफे लेते हैं, लिफाफा जेब में रखते हैं। हँसते हँसते विदा होते हैं। कई बार कोई भारी सख्त अधिकारी आ जाये तो चुलबुली चालाक पत्नी को उसके होटल ही भेज देता है खुश करने। वह कुछ ज्यादा ही खुश कराके लौटती हेै।“
मेरा दिमाग खराब। अरे इन्हें घर देकर तो मैं स्वयं दे रही हूँ भ्रष्टाचार में सहयोग। कैसे निकालूँ? कि एक और झटका। मुँह अँधेरे निवृत होने आँगन में जाती ही थी, उस दिन तड़के गई तो देखा...आठ दस गहरे साँवले, हृष्टपुष्ट युवक कुयें से पानी निकाल निकाल कर नहा रहे हैं। मैंने पूछा...कौन हो जी तुम लोग। अनसुनी किये। दो तीन बार पूछने पर बोले.... हम साक्षात्कार देने आये हैं मैम। हमें ”अनिलसर ने बुलाया हेै। मैं पूछने लगी... कहाँ से आये हो?कैसा साक्षात्कार? बताना पड़ा उन्हंे, ”महाराष्ट्र के गाँवों से आये हैं। सर और भी कई स्कूल खोलने वाले हैं। उन्हें शिक्षकों, क्लर्कों, चपरासियों वगैरह की जरूरत है, सो बुलाया है।“ मैं बोली...”.अरे ये अनिल सर तो यहीं के कर्मचारियों को सही वेतन नहीं दे पाते। तुम लोगों को क्या दे पायेंगे। इतनी दूर से आकर बिन पैसे के परदेस में कैसे रहोगे?“ बोले,अभी तो इसलिये आए हेैं कि नौकरी मिल जायेगी। मैं बोली...बिन पैसे की नौकरी करने? आश्वस्त से बोले, ”पैसा मिलने लगेगा मैम,जैसे ही सर को अनुदान मिलने लगेगा।“ बोली, ”अनुदान क्या ऐसे ही मिल जाता हेै! इसकी प्रक्रिया होती है, समय लगता है।“ वे हँसने लगे...”तब तो आप सर को नहीं जानतीं। अनुदान लेने में सर उस्ताद हेैं। एकदम गुरू घंटाल ।“ कि एक युवक बोल गया...”अभी तो हम ही लोग अनुदान दे रहे हैं।“ “तुम लोग अनुदान दे रहे हो? कैसे!“ बोले...”बिना पेैसे के कहीं नौकरी मिलती हेै मैम। हम लोग भी दे रहे हेैं। जात बिरादरी के हैं सो हमसे कम ले रहे हेैं।“ कितना? ”फिलहाल तो एक एक से दस हजार। आगे शिक्षकों का रेट अलग होगा, क्लर्कोे का अलग, चपरासियों का अलग।“ तुम लोगों के पास इतना पैसा है? ”कहाँ मैम, कैसे कैसे जुगाड़ किये हैं हम ही जानते हैं। किसी ने कर्ज लिया है, किसी ने जमीन बेची है, किसी ने मकान ही। एक बार नौकरी मिल जाये मैम फिर सब....“
और मेरा दिमाग एकदम बेकाबू... अरे बेवकूफों, तुम्हारे जैसे हृष्ट पुष्ट नौजवान को तो सेना में जाना चाहिए। क्या अपने जमीन मकान बेचकर परदेस में इस पापी के गलीच कारोबार में लगकर अपनी जवानी खराब कर रहे हो। जगह जगह सुरक्षाबलों की भर्ती चल रही है, जाओ वहाँ। चुने गए तो अपना उद्धार करोगे, अपने घर का , अपने गाँव का, देश का।
लड़के मुझे यों देखते रहे जैसे क्या फालतू बक रही है!बौखलायी सी मैं घर के भीतर गई। माँ को बताया। माँ बोलीं...ये लड़के जरूर उस बौने को बतायेंगे। बौना ऐबी है। जाने क्या करे।और सचमुच उन लड़कों से बतियाना भारी पड़ गया। बहुत भारी। वह बौना मानो मुझे सबक सिखाने पर तुल गया। दिन भर ऊपर धम धम। बच्चों को कुदा कुदा कर पढ़ाना, कबड्डी ,खिलाना, दौड़ लगवाना, ठाँय ठाँय ठोंकना। दिन भर घर के आँगनवाली सीढ़ी से हा हू करते चढ़ना उतरना, उनका परिवार ही नही,ं अन्य शिक्षिकायें भी । बच्चे भी। सारे दिन ही नहीं रात गये आँगन बाड़ी में इन्हीं की दबंगई। सोना मुश्किल। मेरा आँगन में निकलना मुश्किल। कभी निकलूं तो सारी शातिर आँखें तीर की तरह बेधती सी।।
संताप में घुलती हम माँ बेटी विचारती....कानूनी कार्यवाही में जाने कितना समय लगे। इन दिनो कानून व्यवस्था चरमर। पूरा तंत्र भ्रष्टाचार में लिप्त। सो विनम्रता से बात बन जाये तो भलाई है। आखिर मैं ऊपर गई। बौना ऑफिस में बैठा था। नमस्कार किया...कैसे हैं अनिलजी। उसने सामान्यतः जवाब दिया। मैं बोली...अनिलजी, मेरे भाई रिटायर हो रहे हैं। सपरिवार यहीं रहने आयेंगे। आप लोग कोई और जगह देख लें। भाभी और बच्चे आ रहे हैं, आप लोग जल्दी ही मकान खाली कर दें, यही आग्रह करने आयी हूँ।
वह बौना बेहिचक बोला...मकान तो मैं खाली करूंगा नहीं।
मैं हतप्रभ...खाली नहीं करेंगे तो हमें करवाना पड़ेगा।
खाली तो मैं आपसे करवाऊंगा। हैं किस दुनिया में आप?
मेरे तलुये की लहर माथे में....मेरा मकान तुम मुझसे ही खाली करवाओगे?
बेधड़क बोला...बिल्कुल। तुमको मालूम नहीं तुम किससे बात कर रही हो।
मैं सन्नाटे में। आँखें फाड़े उसे देखने लगी।
वह शैतानी नजरों सेे मुझे देखता कहने लगा...बहुत खतरनाक आदमी हूँ मैं। मुझसे पंगा लेने की तो सोचना भी मत। अंबेडकर स्कूल में था तो अपने पाटीदार को ऐसा फँसाया कि उसे आत्महत्या करनी पड़ी। कितनों को ऐसे ही फँसाकर मरवाया है मैंने। दोनो डोकरियाँ चुपचाप एक तरफ पड़ी रहो। अब हमारा राज हो चुका है।मैं क्रोध से थर थर काँपने लगी। किसी तरह नीचे उतर कर आईं। माँ को बताया। दुख से बोलीं...मैंने पहले ही कहा था बेटा....
खबर मुझे अपने भाई बहनांे को भी करनी पड़ी। सभी ने मुझे ही लानत भेजी....”हम लोगों ने इतना बड़ा मकान ऐसे ही नहीं खाली छोड़ दिया था। किरायेदार से मकान खाली कराना आसान नहीं होता तिस पर इसवर्ग के प्रति तो कानून भी हमदर्द। मकान खाली कराना असंभव। फिर सब जानते हैं, यह आदमी दंदी फंदी फ्राड है, पर तूने शहर में किसी से पूछ ताछ तक नहीं की। हमसे तक नहीं पूछा। हम अपनी घर गृहस्थी, नौकरी चाकरी,बाल बच्चे,सारा तामझाम छोड़कर इतनी इतनी दूर से तेरी मदद के लिये नहीं आ सकते। हमारी मजबूरी समझ।
मैं धराशायी। किसी तरह बोली...ठीक है, मैंने मकान दिया है। मैं ही खाली कराउंगी।माँ अब गुमसुम। कुछ न कहतीं। संताप में घुलती मैं ही गुनती रहती...किस तरीके से बिना भारी बवाल उठे खाली हो जाये। सबसे पहले उन अघिकारी को फोन किया जो अक्सर निरीक्षण के लिये आते रहते थे। सुनकर बोले....इस संबंध में तो आप राजनैतिक नेताओं से दबाव डलवाईये। वह ऐसे खाली नहीं करेगा। मैं और भी बड़े अधिकारियों से मिली। जिलाधीश से भी मिली। सबने मुझे ऐसे ही टरकाया। कोई इस मामले में नहीं पड़ना चाहता था।
उस बौने के लोग हर जगह। मेरी इन गतिविधियों की खबर उसे मिल ही जाती। यहाँ तक कि जिलाधीश ने मुझे किस तरह टरकाया,इसकी खबर भी। वे और भी क्रूरता से अट्टहास करते।मगर मेरी आस नहीं टूटती। लगता , अगर सद्भावना जगाने से बात बन जाये तो मुकदमे मामले की झंझट से बच जाउंगी। अगर पत्नी और मातापिता समझायें तो उस दुष्ट पर असर पड़ेगा। सो एक दिन मैंने टोह लिया कि वह घर में नहीं है तो मैं ऊपर गई।ं
कक्षा चल रही थी। उसकी पत्नी कुर्सी में बैठी पढ़ा रही थी। मैं पास जाकर बोली...देखो अनिता, मैं यह कहने आयी हूँ कि तुम लोग मकान खाली कर दो। अगर मैं कड़े कदम उठाउंगी तो तुम लोग परेशानी में पड़ जाओगे। वह बेधड़क बोली...तू क्या कड़े कदम उठायेगी, उठा ले। हम तो मकान खाली करने वाले नहीं। और तू आई कैसे मेरी कक्षा में। निकल यहाँ से।
मेरे तलवे की लहर माथे में....तू मुझे निकालेगी मेरे घर से।यह तेरा घर नही,ं मेरा स्कूल है, निकल यहाँ से...क्रोध में सन्नाता मेरा हाथ उठा कि वह झूम गई मेरे शरीर पर और चिल्लाने लगी...खींचो, खींचो रे बच्चों इसकी साड़ी। यह तुम लोगों को स्कूल से निकालने आई है। मैं मारना छोड़ उसे शरीर से हटाने की पुरजोर कोशिश करने लगी। मगर वह दोनो हाथों से कसकर मेरी कमर से चिपटी चिल्ला रही थी.....खींचो बच्चों खींचो, खूब बड़ी आदमिन बनती है। आज इस बड़ी आदमिन को नंगी करके भेजना है...ऐसा सबक सिखाना है कि हरामजादी दुबारा न आये...
बच्चे अवाक् मुँह फाड़े बैठे रहे। पूरा स्कूल ही आकर अवाक् खड़ा। आखिर उसने स्वयं ही पूरी ताकत लगाकर मेरी कमर से मेरी साड़ी खींचकर निकाल दी। साड़ी चारों ओर बिखर गई। मैं उसे मारना पीटना छोड़ किसी तरह अपने को छुड़ाकर साड़ी का सिरा पकड़े भागी। नीचे पहुँची तो शरीर में सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउस था।
कितने ही देर तक पड़ी रही नीचे। ध्वस्त। लहूलुहान। हाहाकार करती चेतना। यह क्या हो गया मेरे साथ। कभी किसी से तू तड़ाक नहीं और आज इतना भयंकर, इतना कुत्सित युद्ध। युद्ध में मैं अभागी घायल। धराशायी। एक प्रतिष्ठित परिवार की बेटी। प्रतिष्ठित परिवार की बहू। हर पल अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखने वाली। कभी आँचल कंधे से नहीं खिसका। आज सरे आम मुझे नंगी कर दिया गया। कहाँ जाकर डूब मरूं। मिट्टी तेल छिड़ककर मर जाऊँ।
घड़ी की सूईयाँ आगे बढ़ रही थीं। धीरे धीरे चेतना आने लगी। क्या हुआ है समझ में आने लगा। संभली। कपड़े पहनी। माँ के कमरे में जाकर बताया। वे सन्न। जड़। पिताजी के वकील मित्र को फोन किया। सब सुनकर बोले...मैं अभी बहस में हूँ। तुम पहले फौरन थाने जाकर रपट करो।
कैसे तेैयार हुई। कैसे निकली। कोई रिक्शा नहीं। सवारी नहीं। किसी से कुछ कहने लायक तक नहीं। प्रेत बाधा में फँसी सी पैदल चलती मुझ लुटीपिटी को रास्ते भर लोग खड़े होकर अवाक् देखते रहे। थाने पहुँची। थानेदार ने मुझे कुर्सी दी। पानी मंगाया। बोला... वे लोग आपके खिलाफ रिपोर्ट लिखवा कर गए हैं बहनजी। मैं थानेदार का मुँह देखने लगी....मेरे ही खिलाफ रिपोर्ट। क्या रिपोर्ट?। यही कि आपने पढ़ाई के समय स्कूल में घुसकर मारपीट की। दंगा किया। उनकी जाति को लगाकर गंदी गालियाँ दीं।जाति को लेकर गालियाँ दी?जी..
मैं सन्न। मैं तो जाति का नाम कभी लेती ही नहीं। उनकी जाति क्या हैं, ठीक से जानती भी नहीं। इतने लोग थे वहाँ। बच्चे, शिक्षिकायें, पूरा स्कूल ही, किसी से पूछ लीजिये।
पूछने की जरूरत ही नहीं, अगर ये कहते हैैं कि उनकी जाति का नाम लेकर उनका अपमान किया गया है, तो कानून उसे मानता है। किसी गवाह की जरूरत नहीं। अभी यही नियम है। वैसे जान लें स्कूल में कोई भी उनके खिलाफ बोलने वाला नहीं।जैसे तैसे रिपोर्ट लिखकर मैंने थानेदार को दे दिया।
मगर शाम को शहर की सड़कों पर भारी जुलूस। बड़े बड़े पोस्टरं नारे....“सवर्णों का नया कारनामा, दलितों को शिक्षा से वंचित कराना। स्कूल में घुसकर दंगा करने वाली को नहीं छोड़ेंगे, नहीं छोड़ेंगे। बहुत दबाया, अब नहीं दबेंगे दलित।गाली देने वाली ब्राह्मण महिला को गिरफ्तार करो....गिरफ्तार करो। अब तक पुलिस ने गिरफ्तार कैसे नहीं किया? चलो थाने का घेराव करने...”
और आ गया मेरी गिरफ्तारी का वारंट। मैं कुछ सोचने विचारने की स्थिति में थी ही नहीं। वकील साहब को बुलाया। उन्होंने जमानत कराई।
जमानत तो हो गई। पर पूरे शहर में सनसनी। एक तरफ उन लोगों का जश्न, दूसरी तरफ सवर्णों का बढ़ता आक्रोश। रात गए कुछ सवर्ण नेता मेरे घर आये....घबराईयेगा नहीं बहनजी। आप अकेली नहीं हैं। पूरा सवर्ण समाज आपके साथ है। एक अकेली ब्राह्मण महिला की साड़ी उतरवायी। गिरफ्तार करवाया। पूरा सवर्ण समाज इसका बदला लेगा....
और जैसे मेरे प्रज्ञा चक्षु एकाएक खुल गए। सपष्ट दिखा, जरा भी फिसली कि मेरा पूरा शहर संप्रदायिक दंगे की भीषण चपेट में। आग देश में फैलते क्या देर लगेगी। हाथ जोड़कर बोली....आप लोग मेरे दुख से व्याकुल होकर आये हैं। बड़ी कृपा है आप लोगों की। पर मामला अब कचहरी अदालत का हो गया है। इसे उसी स्तर पर निपटने दीजिये। इस शहर का इतिहास याद कीजिये। सवर्णों ने इस शहर के विकास में, प्रगति में हमेशा सकारात्मक भूमिका निभाई है। इस शहर की जो भी प्रगति हुई हेै, श्रीवृद्धि हुई है, सवर्णों के प्रयासों से ही हुई हेै। सो जो भी कदम उठाना हो, इस बात को ध्यान में रखकर उठाया जाये, यही मेरी विनती है।
वे चुप हो गए। बोले...ठीक है,.आप केस लड़िये । जो भी मदद की जरूरत हो, निसंकोच कहियेगा। अपने को अकेली मत समझियेगा। यह सवर्ण समाज की प्रतिष्ठा का प्रश्न है।
मगर अब तक मेरी चेतना पूरी तरह चैतन्य हो चुकी थी। चेैतन्य ही नहीं, तेजस्विनी। मैंने किसी से कोई मदद नहीं ली। अकेली ही कचहरी, अदालत के चक्कर लगाती रहती। लोग मुझे देखते। बतियाते। अदालत में मेरे वकील साथ रहते। वे लोग दलबल से आते। कई बार परिसर में नारे बाजी भी करते। मुझे देखते ही कुत्सित ईशारे करते।
आखिरकार अदालत से उन्हें कसकर फटकार मिली। चेतावनी भी...”.अगर यही ढग अपनाते रहे तो भविष्य में आप लोगों से कोई सहानुभूति नहीं रखेगा।“
मकान खाली कराते समय पुलिस ने उनकी जाति के नेताओं को विश्वास में ले लिया था। मकान खाली होने के बाद ऊपर गई तो देखा, दीवारों पर कोयले से मेरे अश्लील चित्र बने हुए हैं। गंदी गालियाँ लिखी हुई हेैं। पर हमारा खुलकर बोलने बतियाने वाला शहर। कुछ ही दिनों में सारी बातें उजागर हो गईं। उजागर हो गईं कि अनुसूचित जाति के लोगों ने भड़काने के बावजूद इन सब उपद्रव में भाग नहीं ही लिया था। सिर्फ उन्हीं की बिरादरी के कुछ लोगों ने भाग लिया था, जो अपने कट्टरपंथी नेताओं और उनके दबंग गुर्गों से या तो आतंकित रहते थे, या अंधभक्त से थे। बाकी सब उपद्रवी तत्व थ,ेजो मौका पाते ही अराजकता फैलाने के लिये छटपटाते रहते हैं। हाँ,मगर पुलिस विभाग ने अपने राजधर्म का निष्ठा से पालन किया जबकि मेरे मामले से संबंधित अधिकतर पुलिसकर्मी अनुसूचित वर्ग के ही थे।
मगर इन सबसे निपटते मैं बुरी तरह पस्त पड़ गई। अकेले पड़े पड़े अपमान, उपहास,फजीहत तरह तरह के विषबुझे दंशों से लहूलुहान छटपटाती रहती। व्याकुल हो डायरी लिखने लगती। मन शांत न होता। आखिर माँ की जिम्मेदारी छोटी बहन को सोैंपकर दुर्गम प्रदेशों की तीर्थयात्राओं पर निकल गई। बहुत दिनों में लौटी तो पहले तो तीर्थयात्राओं से लौटने के धार्मिक अनुष्ठान में लगी रही,फिर धार्मिक ग्रंथों के अध्ययन मंे।ं महापुरूषों की जीवनियाँ पहले भी पढ़ी थी। अब जैसे नई दृष्टि खुली। नया प्रकाश दिखने लगा। अच्छी फिल्मों ने भी जेहन में तरावट लाई। सुंदर रस संचार किया। बच्चों को पढ़ाने में मन बहला। आनंद की अनुभूति होने लगी। लिखती पहले भी थी, अब फिर कलम उठा लिया। मगर इस घटना पर कभी नहीं लिखा। वह डर कि मेरे लेखन से कहीं कोई संप्रदायिक तनाव न हो जाये।
मैने तो तरह तरह के प्रयास कर उस काले अध्याय को जेहन से निकाल ही दिया पर भरी सभा में मेरी साड़ी खिचता, मुझे अनावृत करता वह भयावह दृश्य, जेहन के किसी कोने में कुंडली मारकर बैेठा ही रहा।पर छोटा सा शहर। लोग भी परिचित। उन लोगों की बातें इधर उधर उड़ती मेरे कानो तक पहुँच ही जातीं। बातें कि मेरे घर से निकलने के बाद उन्हें कोई भला आदमी घर नहीं दे रहा था। मगर शहर में ऐसे लोग भी थे जो भले आदमी नहीं थे जिन्हें इनके कारनामें अपने अनुकूल लगते। इसे घर ही नहीं मिले बल्कि इसके साथ मिलकर इनकी कारगुजारियों में भाग लेने वाले साथी भी मिल गए। कदम कदम पर ऐसे लोग। ऐसे साथी। काले दिमाग को मिले और भी शातिर काले दिमाग। इसका कारोबार बेरोकटोक बढ़ता गया। आसपास के गाँवों में इसके स्कूल। वृद्धाश्रम, अनाथआश्रम, कन्याआश्रम। और भी जाने क्या क्या। अनुदान हथियाने की कला में माहिर। अब तो साथ में वैसे ही गुरूघंटाल सहयोगी भी। मकान किराये से लेने की जरूरत ही नहीं। खुद जमीन खरीद रहे हैं। मकान बन रहे हैं। बिल्डिंगें बन रही हैं। इनकी विभिन्न संस्थाओं की गरिमा को प्रदशित करते से। भारी आयोजन हो रहे हेैं। अफसर आ रहे हैं। नेता आ रहे हैं। गणमान्य नागरिक आ रहे हैं। अपने शहर के ही नही,ं बाहर के भी। जानी मानी हस्तियाँ भी। इसकी समाज सेवा, इसकी कर्मठता देख मुग्ध से हेैंं। कई बड़ी हस्तियाँ स्वयं भी इन संस्थाओं के लिये दान की घोषणा कर रही हैं।समाचारपत्रों में तस्वीरें छप रही हैं। इलाके की नामी हस्ती है अनिल राज। एक बौने की ऊँचाईयाँ। मुँह फाड़े देखते लोग।
पत्नी ने भी कम तरक्की नहीं की। शुरू शुरू में सुनाई दिया, पार्षद का चुनाव लड़ने वाले किसी सज्जन के चुनाव प्रचार में लगी हेै। फिर सुना खुद भी पार्षद का चुनाव लड़ रही हेै। फिर सुना विधायक का चुनाव लड़ रही हेै, दलितवर्ग की पार्टी की ओर से। फिर सुना किसी के पक्ष में पैसा लेकर बैठ गई है। सुनती ही रहती, चुनाव प्रचार में लगी है। धरना, प्रदर्शन, जुलूस, नारेबाजी, भूख हड़ताल सबमें इसका नाम आता ही रहता अखबार में। बातचीत में। चाहे किसी भी पार्टी का ऐसा कार्यक्रम हो, चाहे कोई भी मकसद हो, इसे खुला आमंत्रण रहता। मस्ती में भरी अपने जैसी और भी महिलाओं को लिए चली आती। पुलिस की पिटाई, लाठी सब इसके लिये मजे। संघर्ष की गाथायें। कभी कभी कई पार्टियों के प्रदर्शन होने होते, तो इसकी सौदेबाजी चलती। इधर एक नामी राष्ट्रीय पार्टी की नैया डूब रही थी। पार्टी के लोग पार्टी छोड़ एक तेजी से उभरती पार्टी में धड़ाधड़ शामिल हो रहे थे। डूबती पार्टी को अपने कार्यक्रमो के लिये किसी शातिर प्रदर्शनबाज की जरूरत थी। इसने मौका लपक लिया। जगह खाली थी ही। प्रदर्शनबाजी से भी आगे के कार्यक्रमों में इसे शामिल किया जाने लगा। बिगड़े नेताओं को मनाना, विरोधीदल के धाकड़ नेताओं को फोड़ना, टिकट के लिए सौदेबाजी, गुप्त समझौते। गलीज से गलीज काम के लिये सहर्ष तैयार। यानी तारणहार। पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के मूर्धन्य नेता आयंे ंतो बड़ी शालीनता से संवरकर स्वागत में आगे हो लेती। जमीनी स्तर से उठी कार्यकर्ता। संघर्षशील। उसे कौन रोक सकता। आखिर पार्टी की महिला शाखा की जिला अध्यक्ष बन ही गई।
और राजनैतिक स्थितियाँ ऐसी पलटीं कि यही मरणासन्न पार्टी राज्य में सत्ता में आ गई। अब तो पार्टी का इद्दा पिद्दा कार्यकर्ता भी दमदार। फिर अनिता मैडम के क्या कहने। उनका रुतबा और बढ़ गया। लोग उनसे मिलने को तरसते। पति शिक्षा संस्थाओं ,समाजसेवी संस्थानो का डॉन था ही। पत्नी सत्ताधारी दल की प्रभावशाली राजनैतिक नेता। दोनो के ढेरों चमचे। पिट्ठू। उनके दंदफंद का लोहा मानने वाले, उनके नक्शे कदम पर चलने वाले, उन्हें अपना आदर्श मानने वालों की भरमार। दोनो छा गए।
ये खबरें मेरे कानो तक भी पहुँचती रहतीं। मगर उन लोगो के बारे में छपे समाचार,फोटो मैं देखती तक नहीं। नजर भी पड़ जाये तो मन प्राण तिलमिला उठते। पन्ना ही पलट देती। ऐसे दंदी फंदी लोग तो समाज मे छाये ही रहते हैं। पनपते, फलते फूलते हैं। इनकी संख्या बढ़ ही रही है। इनपर दिमाग खराब करना बेकार। हाँ, इनके प्रभाव से समाज के विवकेशील हिस्से को बचा कर रखना है। बल्कि इस हिस्से का दायरा बढ़ाना है। इसमें साहित्य की बड़ी भूमिका हेै। सो मैं साहित्य की एकान्त साधना में लगी रहती। अनुभव से भरी हुई थी ही। वेदनाओं का दरिया भीतर कल कल करता बहता ही रहता। व्यक्तिगत जीवन की ही नहीं, समाज की पतनशील स्थिति की वेदनायें भी। अध्ययन,चिंतन, मनन में मन रमता। कहीं आती जाती नहीं। लिखती, टाईप करती और सीधे संपादक को भेज देती। छपे तो ठीक। न छपे तो भी ठीक। पर एक अनजान शहर की गुमनाम सी महिला की रचनायें भी छापी गईं और अच्छी छपीं। प्रसंशित भी खूब हुई। यहाँ तक तो ठीक। मगर जब पुरस्कार मिलंे और पुरस्कार लेने के लिये समारोह में जाना पड़े तो मेरी जान पर बन आये। भरी सभा में साड़ी खिंचाई जाने वाला वह दृश्य फन काढ़कर सामने खड़ा हो जाये। कुंडली मारकर कोने में बैठा वह हादसा मेरे भीतर से कभी गया ही नहीं। नहीं ही जाती समारोहों में।
मगर संयोग कि राजभाषा का यह समारोह मेरे ही शहर में हो रहा था। मेरे घर से कुछ ही दूरी पर।। तिस पर आयोजक मेरे दरवाजे पर धरना देकर बैठ गये थे। आप नहीं आयेंगी तो हम कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। उनकी गिड़गिड़ाहट से मेरा दिल भर आया। लोग खड़े थे। कार खड़ी थी। मैं बैठ गई।मगर समारोह में कवियित्री मंजूश्रीजी ने मेरे कानो में फुसफुसा दिया... देखा आपने अपनी उस अनिताराज का जलवा?
और मुझे जैसे हजार बिच्छुओं ने एक साथ डंक मार दिया। कवियों ने कवितायें पढ़ीं। कलाकारों ने अपनी प्रस्तुतियाँ दी। लोक नृत्य। प्रहसन। गम्मत। सभी सुंदरं आकर्षक। मनोरंजक। कलाकारों को सम्मान पत्र दिया गया। अधिकतर तो मेरे ही हाथों दिलवाया गया। चाय पानी, लंच, आपस में मिलना जुलना,हँसना हँसाना सब होता रहा। मगर मैं तो किसी में थी ही नहीं। मेरी चेतना तो ढूढ रही है मेरी साड़ी खींचनेवाली उस दुष्टा को। आती जाती खाती पीती हँसती बोलती हर सुंदरी को गौर से देख रही हूँ..कौन है कौन हेै इनमें वह कमजात। यहाँ कैसे पहुँच गई? तलब करूंगी आयोजक महोदय से....पूरा .जीवन साधना की तरह खफा देने वाले श्रेष्ठविभूतियों के ऐसे सम्मान समारोह में, संदिग्ध चरित्रवालों को कैसे शामिल कर लेते हैं आप लोग?
कि मंजूश्रीजी दिख जाती हैं। पूछती हूँ...क्या इनमें कोई है अनिता राज?बोली....अरे आप नहीं पहचानी! लगता है, आपके जेहन में उसकी बीस बरस पहले वाली सूरत ही बैठी हेेै। वक्त ने ऐसे लोगों की सूरत कैसी चमका दी है, ध्यान ही नहीं दिया आपने। मंच पर जो महिमामयी नारी विराजमान थी जिसने आपको तिलक लगाया, माला पहनाया,भरी सभा में आपके पैरों में सिर रखकर प्रणाम किया और जिसे आपने भाव विह्हल होकर गले लगाकर आशीर्वाद दिया, वही तो थी आपकी अनिता राज।
- शुभदा मिश्र
14,पटेलवार्ड,डोंगरगढ़,491445
मो.नं...82695,94598
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