कुंभ मेला ज्योतिष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्ष भारत वर्ष अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक महत्व और अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव के लिए जाना जाता
कुंभ मेला ज्योतिष आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्ष
भारत वर्ष अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और धार्मिक महत्व और अद्वितीय आध्यात्मिक अनुभव के लिए जाना जाता है। और शायद यही वजह है कि आदिकाल से भारतवर्ष देवभूमि के रूप में जाना जाता रहा है। इसी कड़ी में एक नाम जुड़ता है और वह है कुंभ मेला। प्रयागराज के त्रिवेणी संगम पर आगामी 14 जनवरी 2025 से 26 फरवरी, 2025 तक महा कुंभ आयोजित होने जा रहा है। आइए जानने का प्रयास करते हैं कि कुंभ मेले के आयोजन के पीछे का कारण क्या है? इसकी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि क्या है? और इसके आयोजन के पीछे का ज्योतिषी, आध्यात्मिक और वैज्ञानिक पक्ष क्या है?
"कुंभे ज़स्नानं मोक्षदं गंगा तरंगे मधु पूर्णा|
प्रयागे मेले महोत्सवे पुण्यं प्राप्ति से सेव्यते||"
अर्थ: कुंभ में स्नान करना मोक्ष को देने वाला है, गंगा की तरंगें मधुर और पूर्ण हैं, प्रयाग में मेले के महोत्सव में पुण्य प्राप्ति के लिए सेवा की जाती है।
कुंभ मेला भारतीय संस्कृति का एक अद्वितीय और ऐतिहासिक पर्व है, जो न केवल धार्मिक आस्थाओं का प्रतीक है, बल्कि यह खगोलशास्त्र, ज्योतिष और वैज्ञानिक महत्व के दृष्टिकोण से भी गहरी समझ रखता है। यह मेला केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं है, बल्कि यह खगोलशास्त्र, ज्योतिष, विज्ञान और पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यह हमें दिखाता है कि वेदों और हिंदू परंपराओं में विज्ञान और आस्था का अद्भुत संगम है। जब ग्रहों की स्थिति शुभ होती है, तो यह पृथ्वी पर शुद्धि और सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती है, जो मानव जीवन को एक नई दिशा देती है। कुंभ मेला एक ऐसा अवसर है, जो न केवल हमारी आध्यात्मिक यात्रा को प्रगति की ओर लेकर जाता है, बल्कि यह हमें विज्ञान और आस्था के बीच सामंजस्य स्थापित करने का भी अवसर प्रदान करता है। वेदों और पुराणों के अनुसार, कुंभ मेला की उत्पत्ति आकाशीय घटनाओं से जुड़ी हुई है। अर्थात इसका सीधा संबंध खगोलशास्त्र और ज्योतिष से है। मेला न केवल आध्यात्मिक बल्कि शारीरिक, मानसिक और 3सामाजिक शुद्धि का भी अवसर प्रदान करता है। बारह वर्ष के अंतराल में में चार प्रमुख स्थानों प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में आयोजित किया जाने वाला कुंभ मेला आध्यात्मिक ऊर्जा और शुद्धिकरण का केंद्र है। इन स्थानों को वैदिक और हिंदू परंपराओं में अत्यधिक पवित्र माना गया है। कुंभ आयोजन के समय के चयन में पूर्णत: ज्योतिषी और खगोलीय प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। इसमें खगोलीय घटनाओं का गहरा प्रभाव माना जाता है। कुंभ मेला एक उल्लेखनीय आयोजन है जो आध्यात्मिक प्रथाओं और सांस्कृतिक अनुभवों का एक समृद्ध दृश्य प्रस्तुत करता है।
कुंभ के ऐतिहासिक साक्ष्य कई प्राचीन शास्त्रों, ग्रंथों, स्मारकों, लेखों और विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत में देखने में आता है। कहीं कहीं पर इसका वर्णन माघ मेले के रूप में भी मिलता है -
- महाभारत: महाभारत में कुंभ मेले का उल्लेख मिलता है, जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व लिखा गया था। सबसे प्रमुख वर्णन अध्याय 12, पर्व 3, श्लोक 10-15 में मिलता है। इस वर्णन में, भगवान विष्णु ने कुंभ के महत्व को बताया है।
- पुराण: पुराणों में भी कुंभ मेले का उल्लेख मिलता है, जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व लिखे गए थे।
- कालिदास की रचनाएं: कालिदास की रचनाओं में भी कुंभ मेले का उल्लेख मिलता है, जो लगभग 5वीं शताब्दी में लिखी गई थीं।
- चीनी यात्री हुएन त्सांग की यात्रा वृत्ति: चीनी यात्री हुएन त्सांग ने 7वीं शताब्दी में भारत की यात्रा की थी, और उनकी यात्रा वृत्ति में कुंभ मेले का उल्लेख मिलता है।
- कुंभ मेले के प्राचीन स्मारक: कुंभ मेले के प्राचीन स्मारक, जैसे कि प्रयागराज में कुंभ मेले का स्मारक, जो लगभग 12वीं शताब्दी में मनाया गया था।
- 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद से हिंदू पहचान और सांस्कृतिक गौरव का पुनरुत्थान हुआ, जिसने माघ मेले को अधिक संगठित और व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त कुंभ मेले में बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
वेदों में इसे “देवों के अमृत मंथन” से जोड़ा गया है, जिसमें कुंभ का अमृत कलश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समुद्र मंथन किया, तो कई दिव्य वस्तुएं और प्राणी निकले, जिनमें अमृत से भरा दिव्य कलश (कुंभ) भी शामिल था। इस कलश पर आधिपत्य करना देवताओं और असुरों के बीच संघर्ष का विषय बन गया, क्योंकि जो कोई भी अमृत पीता, उसे अमरता प्राप्त हो जाती। अमृत को असुरों के हाथों में पड़ने से बचाने के लिए दिव्य पक्षी गरुड़ ने अमृत कलश उठाया और उड़ गए। पीछा करते हुए असुरों और देवताओं के बीच आकाश में भयंकर युद्ध हुआ। इस दौरान, जो बारह दिव्य दिनों (बारह मानव वर्षों के बराबर) तक चला, अमृत की कुछ बूँदें पृथ्वी पर चार स्थानों पर गिरीं। प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। ये वे स्थान हैं जहाँ पारंपरिक रूप से कुंभ मेला मनाया जाता है।
यजुर्वेद और ऋग्वेद में ग्रहों की स्थिति का उल्लेख किया गया है, जिसमें कहा गया है कि जब बृहस्पति और सूर्य चंद्रमा के साथ एक स्थिति में होते हैं, तो पृथ्वी पर एक दिव्य ऊर्जा का संचार होता है, जिसे शुद्धि और पुण्य प्राप्ति के लिए उपयुक्त माना जाता है। कुंभ मेला उस समय आयोजित किया जाता है जब यह खगोलीय स्थिति सही हो, जो पृथ्वी और मानवता के लिए शुभ है। हिंदू परंपरा में कुंभ मेला को “पवित्र संगम” के रूप में देखा जाता है, जहाँ साधक और भक्त गंगा, यमुना, गोमती, नर्मदा जैसी नदियों में स्नान करते हैं। यह स्नान केवल शारीरिक शुद्धि के लिए नहीं है, बल्कि इसे मानसिक और आत्मिक शुद्धि का माध्यम माना जाता है। पुराणों में उल्लेखित है कि इस अवसर पर नदियाँ अमृत रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, और उनका जल मानव जीवन को शांति प्रदान करने के लिए विशेष होता है। ग्रहों के विशेष कोणीय स्थिति में होने के कारण पृथ्वी पर विशेष प्रकार की ऊर्जा का प्रवाह होता है। यह ऊर्जा न केवल आंतरिक शांति को बढ़ाती है, बल्कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी मजबूत करती है। यह ऊर्जा स्नान करने और साधना करने के लिए एक अनुकूल वातावरण बनाती है। इन ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि कुंभ मेला एक प्राचीन हिंदू त्यौहार है, जो लगभग 4000 वर्ष पूर्व से आयोजित किया जा रहा है। इस कालखंड की काल गणना आज भी त्रुटि पूर्ण ही है यदि सही काल गणना की जाए तो यह समय और पहले का आएगा।
आइए अब जानने का प्रयास करते हैं कि कुंभ के आयोजन स्थल के चयन में खगोलीय घटनाओं और ज्योतिष विज्ञान का कितना प्रभाव है। महाकुंभ का आयोजन केवल चार स्थानों पर ही होता है, जिनमें प्रयागराज, हरिद्वार, नासिक, और उज्जैन शामिल हैं। ज्योतिष के अनुसार, देव गुरु बृहस्पति और सूर्य देव की विशिष्ट राशियों में उपस्थिति के अनुसार सुनिश्चित होता है कि महाकुंभ किस स्थान पर आयोजित किया जाएगा। कुंभ मेला का आयोजन विशेष रूप से तब होता है जब सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति ग्रह एक विशिष्ट संयोग में होते हैं। हिंदू धर्म के अनुसार इन ग्रहों का संयोजन पृथ्वी पर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार, देव गुरु बृहस्पति को सभी 12 राशियों का एक चक्र पूर्ण करने में 12 वर्ष लगते हैं। इस प्रकार कुंभ मेला बृहस्पति की कक्षा के साथ संरेखित होकर लगभग हर 12 वर्ष में मनाया जाता है। यह चक्र चार पवित्र स्थलों में से प्रत्येक पर त्यौहार के समय को निर्धारित करने की आधारशिला है।
- प्रयागराज कुंभ: जब गुरु वृषभ राशि में और सूर्य मकर राशि में होते हैं, तो महाकुंभ प्रयागराज में आयोजित होता है। 2025 में यही स्थिति होने के कारण महाकुंभ प्रयागराज में आयोजित किया जा रहा है।
- नासिक कुंभ: गुरु और सूर्य जब सिंह राशि में होते हैं, तो यह आयोजन नासिक में होता है। अगला नासिक महाकुंभ 2027 में होगा।
- हरिद्वार कुंभ: गुरु कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में होते हैं, तो महाकुंभ हरिद्वार में लगता है।2033 में हरिद्वार में यह मेला आयोजित होगा।
- उज्जैन कुंभ: सूर्य मेष राशि में और गुरु सिंह राशि में होते हैं, तो महाकुंभ उज्जैन में लगता है। उज्जैन का अगला महाकुंभ 2028 में होगा।
आधुनिक विज्ञान ने भी कुंभ मेला के आयोजन और उसके प्रभाव को लेकर कई शोध किए हैं, जो इसके वैज्ञानिक महत्व को और अधिक स्पष्ट करते हैं। हाल ही में किए गए शोध से यह भी पता चला है कि कुंभ मेला के दौरान नदियों का जल वास्तव में विशेष प्रकार के खनिजों और तत्वों से भरपूर होता है, जो मानव शरीर के लिए लाभकारी होते हैं। वैज्ञानिक शोधों के अनुसार, कुंभ मेला के आयोजन स्थानों पर नदियों का जल अत्यधिक शुद्ध और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होता है। शोध में पाया गया है कि इन नदियों में उच्च मात्रा में खनिज, आयोडीन और अन्य उपयोगी तत्व होते हैं, जो स्नान करने से शरीर को शुद्ध करते हैं और रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। भारतीय ज्योतिष में ऋषि मुनियों द्वारा पहले ही चंद्रमा को मन का कारक बताया गया है। "चंद्रमा तमसो जात:" अर्थात चंद्रमा मन का कारक है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के समस्त जल के अधिपति ग्रह के रूप में चंद्रमा को निरूपित किया गया है। इस प्रकार से पृथ्वी पर जितने भी जल स्तंभ उपस्थित हैं उस पर किन्हीं विशेष तिथियां के दौरान चंद्र देव किसी न किसी रूप में अपना प्रभाव डालते हैं। यही प्रभाव हमें कुंभ मेले, समंदर में आने वाला ज्वार भाटा, शरद पूर्णिमा इत्यादि अवसरों पर देखने में आता है। मन का कारक ग्रह होने के करण चंद्रमा हमारी मानसिक अवस्था को भी नियंत्रित करते हैं। एक शोध में यह भी पाया गया है कि कुंभ मेला के समय, जब लाखों लोग एक साथ स्नान करते हैं, तो उनके शरीर से विषैले तत्व बाहर निकलते हैं और शरीर को शुद्धि प्राप्त होती है। यह शुद्धि न केवल शारीरिक है, बल्कि मानसिक और आत्मिक भी होती है। कुंभ मेला के दौरान साधक विशेष ध्यान और योगाभ्यास करते हैं, जो मानसिक शांति और आंतरिक संतुलन को बढ़ावा देता है। कुंभ मेला का आयोजन पर्यावरण के प्रति जागरूकता का भी एक महत्वपूर्ण माध्यम है। इस महापर्व के दौरान, न केवल धार्मिक आयोजनों का महत्व होता है, बल्कि यह प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण का भी संदेश देता है। कुंभ मेला के आयोजनों के दौरान नदियों की सफाई और जल संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। स्थानीय प्रशासन और सरकारें इस अवसर पर नदियों के जल को शुद्ध करने के लिए कार्य करती हैं। इसके साथ ही, लाखों लोग इस दौरान पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छता के महत्व को समझते हैं और इस पर ध्यान केंद्रित करते हैं। कुंभ मेला के स्थानों पर उत्पन्न होने वाली ऊर्जा प्रकृति से जुड़ी होती है। यह ऊर्जा न केवल व्यक्तिगत शांति प्रदान करती है, बल्कि यह समाज में सामूहिक जागरूकता और संवेदनशीलता को भी बढ़ाती है। नियमित कुंभ मेले अर्थात पूर्ण कुंभ के अतिरिक्त इसके अन्य रूप भी हैं। जैसे अर्ध कुंभ मेला, जो हर छह वर्ष में हरिद्वार और प्रयागराज में मनाया जाता है। इसका एक बृहद स्वरूप भी है जिसे महा कुंभ मेला के नाम से जानते हैं। इसका आयोजन बारह, पूर्ण कुंभ के पश्चात अर्थात 144 वर्षों बाद प्रयागराज में होता है।
एक निश्चित कालखंड के पश्चात आयोजित होने वाले कुंभ में लेकर संदर्भ में एक बात अवश्य विचारणीय है कि प्राचीनकाल से किसी विशेष घड़ी, किसी विशेष नक्षत्र, ग्रहों की विशेष स्थिति, किसी खास दिन और किसी वर्ष विशेष में लाखों करोड़ों श्रद्धालुओं की स्थान विशेष में उपस्थिति क्या दर्शाती है??? वास्तव में यदि गहराई से चिंतन करें तो हम पाते हैं एक ही आकांक्षा, एक ही अभीप्सा और एक ही प्रार्थना के साथ एक स्थल विशेष पर लाखों, करोड़ों श्रद्धालुओं की उपस्थिति परमपिता परमेश्वर का आव्हान ही तो है। इतनी अधिक संख्या में जन समुदाय के इकट्ठे होने से उन सभी की चेतनाएं एक दूसरे के भीतर प्रवाहित होना प्रारंभ हो जाती है। इस प्रकार चेतना का एक पुल बनकर समग्र स्वरूप का निर्माण हो जाए तो इस चेतना के भीतर परमात्मा का प्रवेश जितना आसान होता है उतना व्यक्तिगत रूप से एक-एक व्यक्ति के अंदर परमात्मा का प्रवेश नहीं। अब जहां तक प्रार्थना का प्रश्न है तो प्रार्थना कभी भी व्यक्तिगत नहीं हो सकती। प्रार्थना सदैव सामूहिक या समूहगत ही होती है। व्यक्तिगत प्रार्थना का प्रादुर्भाव तो उस समय हुआ जब व्यक्ति को उसके अहंकार ने जकड़ना प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार मनुष्य का एक दूसरे से जुड़ाव मुश्किल हो गया। इस प्रकार जब से व्यक्तिगत प्रार्थना दुनिया में प्रारंभ हुई तब से इसका फायदा कहीं खो सा गया है। सामूहिक प्रार्थना के लिए क्षेत्र प्रदान करने का कार्य तीर्थ स्थल किया करते हैं। जब हम इतनी बड़ी शक्ति का आव्हान करते हैं तो उसके लिए हम जितना बड़ा क्षेत्र दे सकें उतना ही अच्छा होता है। प्राचीन समय में यह तीर्थ बड़े ही सार्थक हुआ करते थे और वहां से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा करता था,परिवर्तित अथवा रूपांतरित होकर ही लौटता था। इसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि जब समाज में "हम"का बोध अधिक था अर्थात समाज "हम" के बोध से भरा हुआ था और "मैं" का बोध बहुत कम था। तब ये तीर्थ बड़े कारगर हुआ करते थे। अब उनकी उपयोगिता उसी मात्रा में कम हो जाएगी जिस मात्रा में "मैं" का बोध बढ़ जाएगा।
आगामी 14 जनवरी से 26 फरवरी, 2025 के मध्य प्रयागराज में कुंभ मेला का आयोजन किया गया है। इस आयोजन में कई महत्वपूर्ण स्नान तिथियां शामिल हैं जिनमें पहली मकर संक्रांति (पहला शाही स्नान)14 जनवरी; दूसरी मौनी अमावस्या (दूसरा शाही स्नान)29 जनवरी; तीसरी बसंत पंचमी (तीसरा शाही स्नान)12 फरवरी; चौथी माघी पूर्णिमा महाशिवरात्रि 26 फरवरी । इस वर्ष एक अनुमान के अनुसार लगभग 4 करोड़ श्रद्धालु जिनमें ना केवल भारतीय अपितु लाखों श्रद्धालु विदेशों से भी पूर्ण कुंभ में त्रिवेणी संगम में पवित्र स्नान का लाभ लेंगे। इस प्रकार प्रयाग का यह आने वाला कुंभ भारतीय जनमानस की सनातन के प्रति आस्था, विश्वास और भाईचारे को और अधिक सुदृढ़ करेगा। हाल के वर्षों में कुंभ मेले को वैश्विक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आयोजन के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। यह परिवर्तन आंशिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय मीडिया द्वारा बढ़ते कवरेज और इस अनूठे उत्सव का अनुभव करने में वैश्विक यात्रियों की रुचि के कारण है। कुंभ मेले को यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में शामिल किए जाने से वैश्विक महत्व के आयोजन के रूप में इसकी स्थिति और मजबूत हो गई है।
- इंजी संजय श्रीवास्तव
बालाघाट मध्यप्रदेश
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