महाश्वेता देवी का साहित्यिक जीवन परिचय महाश्वेता देवी भारत की प्रमुख लेखिकाओं में से एक थीं, जिन्होंने अपने साहित्यिक योगदान से समाज में व्याप्त असमा
महाश्वेता देवी का साहित्यिक जीवन परिचय
महाश्वेता देवी भारत की प्रमुख लेखिकाओं में से एक थीं, जिन्होंने अपने साहित्यिक योगदान से समाज में व्याप्त असमानता और शोषण के मुद्दों को उजागर किया।अपने रचनात्मक लेखन के माध्यम से भारतीय साहित्य की समृद्धि में विशिष्ठ योगदान हेतु 'ज्ञानपीठ' से पुरस्कृत महाश्वेता देवी की गहरी जिजीविषा और मानवीय न्याय से प्रेरित कृतियाँ सदैव एक संदेश प्रदान करती रही हैं। एक मशाल की तरह संघर्ष की ज्योति जलाए रखने का जैसा संकल्प 17 वर्ष की अल्पायु में उन्होंने बंगाल के अकाल के दौरान अचानक ले लिया था, उसकी लौ आज उम्र के इन अन्तिम वर्षों में भी मंद नहीं पड़ी। सम्पूर्ण विश्व-साहित्य के इतिहास में ऐसे लेखक ऊंगली पर गिने जा सकते हैं, जिन्होंने जिस समाज पर कलम चलायी, उसके लिए प्रतिबद्धता के साथ समार्पित संघर्ष भी किया। प्रख्यात बंगला लेखिका महाश्वेता देवी ऐसी ही रचनाकार हैं जिन पर पूरे भारतीय साहित्य जगत् का ही नहीं अपितु अन्य समाज सेवी संगठनों एवं दलितों-शोषितों को भी गर्व है ।
महाश्वेता देवी की साहित्य-यात्रा उन समस्त लोगों की व्यथाकथा है जो प्रारम्भ से ही वंचितों की पंक्ति में खड़े किये गये हैं। जल, जंगल एवं जमीन से जुड़ी जन-जातियों का तथाकथित सभ्य कहे जाने वाले लोगों द्वारा किया गया शोषण उन्हें निरन्तर विचलित करता रहा है। परिणामतः वे ऐसी अनेक कृतियों की रचना कर सकीं जो समाज की असली, मर्मांतक तस्वीर प्रस्तुत करती हैं। उनका मानना है कि जनता से सीधे जुड़ना चाहिए। स्वयं जुड़ाव के स्तर पर ही महाश्वेता देवी शोषित दुनियाँ को करीब से महसूस करती हैं। संथाल, मुण्डा, ओरांव, खेड़िया, खभर, लोधा, सबर जैसे आदिवासियों के समाज कल्याण संगठनों, दलित-जनकल्याण समितियों तथा जाति, धर्म-निरपेक्ष ग्रामाधार वाली समितियों सहित मुक्ति मोर्चा और ईंट-भट्ठा मजदूर संगठनों में सक्रिय भागीदारी से उन्होंने रोटी और अस्तित्व के संघर्ष की असली तपिश को जाना। यह तपिश उनके लेखन में गहरे उतरी है।
महाश्वेता जी का जन्म 14 जनवरी 1926 को ढाका में हुआ। पाँच बहनों और चार भाइयों में वह बचपन से ही प्रखर बुद्धि की स्वामिनी थीं। पिता मनीष घटक प्रसिद्ध कवि, लेखक और उपन्यासकार थे, जबकि माँ धारित्री देवी संगीत निष्णात, लेखिका और समाज-सेविका। इनके मामा सचिन चौधरी 'इकोनॉमिक पोलीटिकल वीकली' के संस्थापक एवं प्रथम संपादक हुए। प्रसिद्ध फिल्मकार ऋत्विक घटक इसके चाचा हैं। तात्पर्य यह कि साहित्य-सृजन एवं समाज सेवा का संस्कार उन्हें पारिवारिक विरासत के रूप में प्राप्त हुआ। महाश्वेता देवी की प्रारम्भिक शिक्षा मिदिनापुर और शान्तिनिकेतन में हुई। शान्तिनिकेतन से ही उन्होंने 1946 में अंग्रेजी में बी० ए० आनर्स किया। 17 वर्ष में लम्बे अन्तराल के बाद उन्होंने बाद कलकत्ता से अंग्रेजी से एम० ए० किया। इसी अन्तराल में सन् 1949 में वह कलकत्ता के 'रमेश मित्र बालिका विद्यालय' में अस्थायी रूप से अध्यापन करने लगीं। अगले ही वर्ष उन्होंने कलकत्ता के पोस्टल आडिट विभाग में उच्च श्रेणी लिपिक के रूप में पदभार ग्रहण किया। परन्तु वामपंथी विचारधारा से जुड़े होने के कारण उन्हें इस पद से भी हटना पड़ा। तभी से उनका विधिवत् लेखन प्रारम्भ हुआ। अब तक 42 उपन्यास, 15 कथा-संग्रह, एक नाटक तथा बच्चों के लिए पाँच पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
1957 में उनका पहला उपन्यास 'नटी' तथा 1958 में पहला कहानी संग्रह 'की बसंते की सर्दे' प्रकाशित हुआ। इसके बाद लेखन का जो अनवरत क्रम प्रारम्भ हुआ तो फिर चलता ही रहा। उनकी कृतियाँ अनेक भाषाओं में अनूदित हुई। जगंल के दावेदार, घहराती घटाएं, नील छवि, टैरोडेक्टिकल, 1084 वें की माँ, ईंट के ऊपर ईंट, भटकाव, दौलति, साल गिरह की पुकार पर, श्रीगणेश महिमा, अक्लांल कौरव, अग्निगर्भ, चोटि मुंडा, उसका तीर, मूर्ति, ग्राम बांग्ला तथा भारत बंधुआ मजदूर आदि उनकी हिन्दी में अनूदित कृतियाँ हैं।
'हजार चौरासी की माँ' एक विद्रोही युवक की लाचारी और निराशा तथा पढ़ी-लिखी कामकाजी माँ की बेबसी को अभिव्यक्त करता हैं। 'अर्रेण्य अधिकार' नामक उपन्यास में अंग्रेजों के विरुद्ध विरसा मुंडा के नेतृत्व में किये गये आदिवासियों के विद्रोह का सशक्त चित्रण है। इसी कृति पर उन्हें 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। पत्रकारिता जगत् से भी इनका सम्बन्ध दीर्घकालिक है। सन् 1980 में इन्होंने वर्तिका पत्रिका का संपादन संभाला। उनकी आत्मकथा इसी पत्रिका में धारावाहिक रूप में छपती रही। अपनी यायावरी प्रवृत्ति के अनुभवों को उन्होंने बंगला समाचार पत्र 'युगांतर' में घुमन्तू संवाददाता के रूप में अंकित कराया।
आदिवासी जगत् से जुड़े ढेरों वृत्तांत उन्होंने लिखे हैं। 'भारत में बंधुआ मजदूर' के जरिये हिन्दी में अपनी जबरदस्त भागीदारी दर्ज की है। तीन कथा संकलनों का संपादन भी उन्होंने किया है। महाश्वेता देवी ने अपनी प्रखर क्षमता और दुर्दमनीय व्यक्तित्व से साहित्य जगत् को अमूल्य योगदान दिया है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी उनकी लेखनी लेखकों व पाठकों का प्रेरणास्रोत बनी हुई है। उनकी महत्त्वपूर्ण साहित्य सेवा के लिए 1979 में ‘शरतचन्द्र मेमोरियल मेडल', 1986 में 'पद्मश्री' की उपाधि, 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त हुआ। परन्तु अब तक प्राप्त सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार के बारे में वे लिखती हैं कि “जाति-धर्म-वर्ण-निर्विशेष भारत के दुःखी, उत्पीड़ित और संघर्षरत मनुष्यों द्वारा उनके दुःख को दूर करने में अक्षम-मुझे आपन जन (अपना आदमी) मानना मेरे जीवन का श्रेष्ठतम पुरस्कार है।'
महाश्वेता देवी का निधन 28 जुलाई 2016 को कोलकाता में हुआ। उनका साहित्यिक और सामाजिक योगदान आज भी लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनकी रचनाएँ समाज के गहरे सच को उजागर करती हैं और मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए एक आवाज़ प्रदान करती हैं।
महाश्वेता देवी की भाषा सरल और सहज होती थी, जो पाठकों को सीधे जोड़ती थी। उनकी कहानियों और उपन्यासों में स्थानीय बोलियों और मुहावरों का प्रयोग मिलता है, जिससे उनकी रचनाएं और भी जीवंत लगती थीं। उन्होंने अपने लेखन में ऐतिहासिक घटनाओं और सामाजिक मुद्दों को बड़ी ही संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत किया।
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